जब जब सपनों ने
सुनकर कहने
गुनकर करने,
आती कुछ गुमनाम हवा।
मटकाती कूल्हे
आजू- बाजू ,
मंथर बदनाम हवा ।
पटरानी -आँखों पर,
पट्टी ,झरे
नहीं ,संवेदन-पानी ।।
लय में प्रलय
सुरों में संशय,
ताल-राग में बंजारा-भय,
नुक्कड़ पर
हर गली चौक पर,
ध्वंस -अंश,खारिज़ अक्षय,
शाही मीनारें भड़कातीं,
इतिहासों की परधानी ।।
क्रूर समय की
अन्तर्ध्वनि में,
निर्मित रक्तचाप तन कारा,
घन मड़राते
अन्तस छूते,
मन पारा चढ़ता आवारा ,
लहर ज़हर -सी,
प्रखर नज़र में,
पूजित कुबडी़ कारस्तानी।
जब जब सपनों ने
पूछा क्या ,
इंन्क़लाब का मानी।।
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