मेरा ब्लॉग मेरी रचना- लव तिवारी संपर्क सूत्र- +91-9458668566

नवंबर 2024 ~ Lav Tiwari ( लव तिवारी )

Lav Tiwari On Mahuaa Chanel

we are performing in bhail bihan program in mahuaa chanel

This is default featured slide 2 title

Go to Blogger edit html and find these sentences.Now replace these sentences with your own descriptions.

This is default featured slide 3 title

Go to Blogger edit html and find these sentences.Now replace these sentences with your own descriptions.

This is default featured slide 4 title

Go to Blogger edit html and find these sentences.Now replace these sentences with your own descriptions.

This is default featured slide 5 title

Go to Blogger edit html and find these sentences.Now replace these sentences with your own descriptions.

Flag Counter

Flag Counter

शुक्रवार, 29 नवंबर 2024

मैं आत्मा हूँ लेखक श्री माधव कृष्ण ग़ाज़ीपुर उत्तर प्रदेश

मैं आत्मा हूँ

बात २०१५ की है. मैंने सिंगापोर और सिटीबैंक की नौकरी छोड़ दी थी और गाजीपुर आ चुका था. मेरी पुत्री आद्या अभी २ साल की थी इसलिए उसे कोई फर्क नहीं पड़ा. लेकिन मेरा पुत्र अव्यय, जो कि ११ वर्ष का हो चुका था, इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर सका.

जब उसकी कक्षा में अध्यापक उससे उसकी जाति पूछते थे तो वह चिढ़ जाता था. नाम के आगे कोई सरनेम नहीं होने से कभी कभी उसके मित्र मजाक उड़ाते थे और पूछते थे कि, "अव्यय कृष्ण! यह कैसा नाम है? जाति छिपाने का अर्थ है कि तुम चमार हो."

वह कभी रोकर पूछता था कि जाति क्या है और चमार कौन होते हैं, तो मैं उसकी पीड़ा समझ पाता था. उसे यह समझने में अनेक वर्ष लग गए कि जाति के बिना भी जिया जा सकता है; और यह कि हम रैदास की भी वंशज हैं, श्रीकृष्ण के भी, कबीर के भी, सुभाषचंद्र बोस के भी और भगवान राम के भी।

अपनी नयी यात्रा में मैंने अव्यय को जबरदस्ती सम्मिलित कर लिया था, और उसका दंश वह झेल रहा था. उसने सिंगापोर का वह संसार देखा था जहां जातियां नहीं पूछी जाती थीं, योग्यता सब कुछ थी और राष्ट्रीयता भारतीय थी. आद्या छोटी थी और शिखा बहुत परिपक्व, इसलिए ये दोनों मेरी यात्रा में सहजता से सहयात्री बन गए, लेकिन अव्यय!

एक दिन वह सुबह सुबह विद्यालय जाने के लिए तैयार हो रहा था. उसे किसी बात पर गुस्सा आया था और वह अपनी माँ से चिल्ला चिल्ला कर रोष व्यक्त कर रहा था. माँ बाप को बच्चों के चिल्लाने और झगड़ने पर परेशान नहीं होना चाहिए. जब तक वे अपनी भावना माँ या पिता किसी से भी साझा कर रहे हैं, तब तक सब कुछ ठीक है.

यदि माँ पिता बच्चों को उनके सहज स्वभाव और सहज अभिव्यक्ति के साथ स्वीकार नहीं करते, बार-बार रोकते टोकते हैं तो धीरे धीरे बच्चे उनसे या तो दूर हो जाते हैं, या कृत्रिम. दोनों ही खतरनाक है. दूर होने का अर्थ है - वे उन लोगों के पास जायेंगे जो उनकी सुनेंगे और जब बाहरी लोग हमारे बच्चों के जीवन में घुस आते हैं तो वे किसी भी तरह से हमारे बच्चों के जीवन को गलत दिशा में मोड़ सकते हैं.

कृत्रिम होने का अर्थ है असहज होना, असहजता बच्चों में एक ग्रंथि बनाती चली जाएगी जिसमें वे खुद को समग्रता से स्वीकार नहीं कर पायेंगे. खुद को गलतियों, असफलताओं और विशेषताओं के साथ स्वीकार न कर पाने के कारण ही, आज अनेक बच्चे और किशोर आत्महत्या कर रहे हैं. मैं इस विषय में सौभाग्यशाली हूँ कि मेरी पत्नी शिखा के पास अव्यय की बातें सुनने और गुस्सा झेलने का असीम धैर्य और पर्याप्त समय था.

जब अव्यय विद्यालय जाने के लिए तैयार हो रहा था तभी एक आध्यात्मिक संस्था के वयोवृद्ध स्वयंसेवक अपनी मासिक पत्रिका देने के लिए घर आये. मैं उनसे बैठकर बात कर रहा था. उन्हें अव्यय के चिल्लाने की आवाज सुनायी दी. उन्होंने पूछा, “कौन बच्चा इतने गुस्से में है? क्या यही तरीका है अपनी माँ से बात करने का?”

“मेरा पुत्र है, अव्यय.” मैंने झेंपकर कहा.

“बुलाइए उसको. मैं समझाता हूँ. बच्चों को बचपन से आध्यात्मिक शिक्षा देनी चाहिए. हम सभी अपने स्वरूप से भटक चुके हैं. इसीलिये हम जन्म-मृत्यु के भंवर में पड़कर भवसागर में डूब रहे हैं. आप उसको लेकर मेरी संस्था में आया कीजिये.”

उनका वचन तो अच्छा था लेकिन मैं डर रहा था. मुझे लगा कि यदि अव्यय को उन्होंने यह शाश्वत ज्ञान इस समय सुनाया तो समकालीन परिस्थिति में उसे संभालना मुश्किल होगा, और शायद उसका परशुराम स्वरुप सामने न आ जाय. यह भी संभव था कि उसका कामरेड समग्र क्रान्ति कर बैठे.

बहरहाल, अब एक वरिष्ठ चाचाजी की आज्ञा थी तो बेटे को अकेले में ले जाकर समझाया, “अव्यय! प्लीज चलो. चाचा जी बुला रहे हैं. कुछ समझाएं तो चुपचाप सुन लेना.” मैं मिन्नतें कर रहा था.

“नहीं, मुझे नहीं जाना, क्यों आ जाते हैं ये लोग सुबह-सुबह? मुझे देर हो रही है. गाजीपुर में सब केवल समझाने में लगे हैं. कोई कुछ बदलता तो है नहीं.” मुझे उसकी बात सही तो लग रही थी. बिना आमन्त्रण के जाना भी नहीं चाहिए और सलाह भी नहीं देनी चाहिए. लेकिन मामला अभी फंसा हुआ था. बहरहाल, बहुत समझाने पर पापा की इज्जत रखने के लिए अव्यय विद्यालय का बस्ता टाँगे हुए सामने आया.

“प्रणाम बाबा.”, अब वह गाजीपुर के माहौल में अभिवादन करना सीख चुका था.

“खुश रहो बेटा! मुझे तुमसे कुछ बातें करनी हैं जो तुम्हारे जीवन में आगे काम आएँगी. बोलो, क्या तुम जानते हो कि तुम कौन हो?”, चाचाजी ने एक लम्बे एकल एकतरफा व्याख्यान का अवसर भांपते हुए आराम से पूछा.

“जी मैं जानता हूँ. मैं यह शरीर नहीं, आत्मा हूँ. मैं आत्मा हूँ.”, अव्यय के अंदर बैठे आदि शंकर ने बहुत सहजता से कहा.

मेरी हंसी छूट गयी. मैं ठहाके मारकर हंसने लगा और चाचा जी हाथ जोड़कर खड़े हो गए. उन्होंने कहा, “मैं किसको समझाने चला था? इस उम्र में यह महाज्ञान! धन्य हैं आप.” और वह चले गए.

इस घटना को आज 9 वर्ष बीत चुके हैं. अब भी मैं जब इसे सोचता हूँ तो हँसे बिना नहीं रह पाता. मैं जब उसे छोड़ने के लिए विद्यालय ले जा रहा था तब मैंने पूछा, “अव्यय! मैं खुद सकते में हूँ कि तुमने इतनी बड़ी बात इतनी आसानी से कैसे कह दी?”

उसने कहा, “पापा! मैं तुम्हारे साथ रामकृष्ण मिशन में बैठता था, तो ये सब आम बात थी. मुझे लगा कि आज बाबा बहुत चाटने वाले हैं तो उनको चुप करवाने के लिए मैंने सीधा अंतिम सत्य बता दिया.”

अब अव्यय को जब इस घटना की याद दिलाता हूँ तो हम दोनों साथ में खूब हँसते हैं. हंसना निर्विकार क्रिया है, आत्मा निर्विकार है और हम आत्मा हैं!

-माधव कृष्ण, गाजीपुर, २९ नवम्बर २०२४
The Presidium International School Ashtabhuji Colony Badi Bagh Lanka Ghazipur



बुधवार, 27 नवंबर 2024

धर्मान्तरण एक बलात्कार है जहाँ हम किसी की निर्बलता और विवशता का लाभ उठाकर छल से या बल से या धन से उसका शोषण करते हैं- माधव कृष्णा

रोहिणी मसीह

-Madhav Krishna

हम जीवन का एक हिस्सा देख पाते हैं, और दूसरा हिस्सा प्रायः अंधकार से आच्छादित रहता है। हम चाहें तो उसे देख सकते हैं लेकिन दृष्टि का विस्तार प्रायः हमारी प्राथमिकता में नहीं रहता।

गांव में अपनी दुनियां में मगन लोगों का एक समुदाय होता है। बस्ती में बसने वाले लोग प्रायः एक दूसरे के जीवन में झांकते हुए ही जीवन जी लेते हैं। ऐसा ही मेरा एक गांव था। तहसील के मुख्य चौक से जोड़ता हुआ एक संकरा सा वीरभानु सिंह मार्ग था। कहते हैं वीरभानु सिंह की चौक के पास काफी जमीन थी, और गांव से तहसील को जोड़ने के लिए योजना में उनकी आधी बिस्वा जमीन आती थी। उन्होंने अपनी आधी बिस्वा जमीन अपना नाम जीवित रखने के लिए सरकार को दान दे दी। 

मार्ग पर आरम्भ में एक संकरी गली है जिसके आरम्भ में बिन्दटोली है- भारतीय जाति-व्यवस्था का एक घृणित और पुख्ता साक्ष्य। बिन्द लोग समाज के निम्नवर्ग से आते हैं, इनकी आर्थिक दशा भी इनके सामाजिक स्थिति की तरह है।
अधिकांश लोग ठेला, रिक्शा चलाकर या दिहाड़ी श्रमिकों के रूप में रोज की रोटी इकट्ठी करते हैं। काम न मिलने पर उन्हें लुंगी पहने हुए या फटे-पुराने कपड़े पहनकर बिन्दटोली के एक कोने में जुआ खेलते हुए देखा जा सकता है। आठ-दस लोग मण्डलाकार बैठते हैं, बीच में ताश के पत्ते और १ रू. से लेकर १०० रू. तक की बाजी। जिनके पास पैसे नहीं, वो नवयुवक खड़े होकर आनन्द लेते हैं। ८ से १५ साल तक के बच्चे इन्हीं बड़ों से सीखते हैं और कंचे खेलते समय ५० पैसे से १ रू. तक की बाजी लगाते हैं। इससे कम आयु के बच्चे गलियों में यूं ही बैठे रहते हैं। मेरे पिताजी ने इन बच्चों को सड़क पर बैठकर धूलभरी रोटी उठाकर खाते हुए देखा तो कहा, ‘‘जेतना जतन, ओतने पतन। हमहन अपने बचवन के एतना बरका के रखी ला कि जमीन पर कुछो सामान गिर जाए त खाए ना देही ला जा। तब्बो हमहन क लइका ना मोटानं, अउर बिन्दवन क लइका देखा केतना मोट-झोंट होनं।’’

बहरहाल बिन्द समाज के लोग अब राजनैतिक रूप से सक्रिय हो चुके हैं और उनके कुछ स्थानीय नेताओं को राजनैतिक दलों ने अच्छे पद दिये हैं। जैसे  बाबूलाल बलवन्त एमएलसी रह चुके हैं तथा संगीता बलवन्त जी तो रेलवे बोर्ड में सलाहकार, विधायक रह चुकी हैं और अब राज्य सभा की सांसद भी हैं।

 प्रजातंत्र में सब के मत का मूल्य एक होता है। इस पर अनेक सम्भ्रान्त और शिक्षित जनों ने रोष जताया है, पर एक अशिक्षित, निर्बल, अप्रतिष्ठित व्यक्ति के पास यदि मत की शक्ति भी न हो, तो उस पर ध्यान कौन देगा? आज जैसे लोग जातियों की सभाएं बनाकर एकजुट होते हैं वैसे ही संभवतः पहले गांव में लोग अपनी अपनी जातियों के साथ पुरवा बनाकर रहने में सुरक्षित अनुभव करते थे।

बिन्द का पुरवा समाप्त होते ही एक निम्न मध्यमवर्गीय तथाकथित ऊँची जातियों के लोगों का पुरवा है। इस पुरवे में आए दिन एक नयी कहानी सुनने को मिलती थी। झूठे सम्मान और प्रतिष्ठा की कथाएं। उदाहरणतः - यदि किसी के घर अतिथि आ जाएं, तो चाय पिलाना एक न्यूनतम औपचारिक स्वागत का प्रतीक होता था लेकिन एक एक पैसे का हिसाब रखने वाला यह निम्न मध्यमवर्गीय परिवार अतिथि से बैठकर बड़ी-बड़ी बातें तो करता था, पर जब अतिथि आधे-एक घण्टे बाद जाने को तैयार होता था तो दरवाजे पर अधेड़ ग्रहिणी खीसें निपोरकर कृत्रिमता के साथ कहती थी- बैठीं, चाय बनाई।

अतिथि देव सब समझकर ‘ना कहते’ हुए निकल जाते थे। स्वागत की वाचिक औपचारिकता भी पूरी हो जाती थी, झूठी प्रतिष्ठा अपनी दृष्टि में बनी रहती थी और चायपत्ती-चीनी-दूध इत्यादि खर्च नहीं करने पड़ते थे। बिना प्रयास किए और बिना समय पैसे लगाएं, महान बनने का प्रयास ही व्यवहार और विचार के भारतीय अंतराल का कारण है।

 व्यावहारिक कारण सम्भवतः यही है कि ये परिवार सेवानिवृत्त लोगों के परिवार हैं जिनमें अब किसी को नौकरी तो नहीं मिली लेकिन प्रतिष्ठा की चाह अपनी ही है, अतः अब वास्तव में उन लोगों की चाय पिलाने की हैसियत भी नहीं रही। 

बिन्द जाति के लोगों को ‘पालगी चाचा, पालगी चाची’ कहने पर कुछ लोग नाक भौं सिकोड़ लेते थे क्योंकि वे ऊँचे व्यवहार नहीं, ऊँची जातियों में जन्म लेने का लबादा ओढ़ कर ही जिन्दा रहते थे।
चौबे जी के घर के सामने कुछ खाली जमीन थी जहां हम सभी बच्चे खेला करते थे। एकाएक एक दिन उस जगह कुछ मजदूर और एक मिस्त्री आ गए। देखते-देखते एक महीने में एक छोटी सी कोठरी बन कर तैयार हो गई। इसमें हमारे गांव के नए सदस्य आ गए। एक सम्भ्रान्त दिखने वाली ३५-४० साल की महिला, उनके एक लड़का और एक लड़की। बाद में पता चला कि इनका नाम रोहिणी है और इनके पति की मृत्यु हो चुकी है। वह एक वरिष्ठ सम्मानित नागरिक की पुत्री थीं लेकिन भारतीय समाज में पति की मृत्यु के बाद बहू-बेटियाँ परिवार पर भार बन जाती हैं। न तो उन्हें माँ-बाप-भाई-भाभियां रखना चाहते हैं न ही उनके सास-ससुर।

रोहिणी चाची को गांव वाले भी अच्छी निगाह से नहीं देखते थे। स्त्री-विमर्श के इस दौर में भी समाज एक ऐसी स्त्री को सम्माननीय नहीं मानना चाहता जो किसी पुरूष के संरक्षण में न हो। अच्छी बात यह रही कि रोहिणी चाची ने हमें अपनी भूमि का प्रयोग करने से नहीं रोका और उनके दोनों छोटे बच्चे राजू और श्वेता भी हमारे साथ खेलने लगे। राजू प्रायः पूछता कि पापा लोग कैसे होते हैं। अभावों में भी चाची जी एक गरिमामयी जीवन जीने का प्रयास कर रही थीं। एक मामूली शौचालय बनवाने में उस समय १००००-१५००० रूपए लगते थे। 

रोहिणी चाची और उनके परिवार को गांव वालों से इस बात का ताना भी मिलता था। यद्यपि वह शिक्षित महिला थीं और गांव की कोई स्त्री भी उनकी भांति शिष्ट और संयत भाषा का प्रयोग नहीं करती थी, फिर भी उनके और अन्य महिलाओं के बीच एक ऊँची दीवार थी- अभावों की और एक पुरूष के संरक्षण की।

रोहिणी चाची सबको खिचड़ी खिलाती थीं अपने बच्चों के साथ। जब यह क्रम दो-तीन सप्ताह चला तो, मुहल्ले की महिलाओं ने मेरी माताजी का ध्यान उधर खींचा, और माताजी के कर्कश और कटु शब्दों ने यह क्रम बन्द करा दिया। रोहिणी चाची परिवार को एक सम्मानजनक जीवन दिलाने के लिए संघर्ष करती रहीं, पहले  आंगनबाड़ी में काम कीं, फिर होमगार्ड आफिस में...। लेकिन कोई भी नौकरी उनके परिवार को अच्छा जीवन देने में समर्थ नहीं हो सकी। दिन बीतते रहे। एक दिन ग्रामवासियों को उन्होंने प्रार्थना सभा में आने का निमन्त्रण दिया। हम सबके लिए यह एक नई बात थी क्योंकि धार्मिक सभाओं के नाम पर सत्यनारायण भगवान की कथा से अधिक कुछ नहीं होता था। इन कथाओं में भी कुछ विचित्र कहानियों का दुहराव, पण्डित जी की टूटी फूटी घिसी पिटी संस्कृत, और मुहल्ले की औरतों का कम से कम पैसे वाला प्रसाद लाकर कथा के दौरान अनावश्यक गपशप इनसे अधिक कुछ नहीं होता था।

चाची जी के यहां प्रार्थना सभा आरंभ हुई, सभी महिलाएं जानी पहचानी थीं, और २-३ महिलाएं नई थीं। यहाँ एक नयापन था। न कोई हवन कुण्ड, न कोई चिर-परिचित देवता, वरन् दाढ़ी-मूँछों वाला एक शान्त प्रेमस्वरूप व्यक्ति का चित्र, बिल्कुल एक सन्त की भाँति। चाची जी ने इसे यीशू मसीह कह कर परिचय कराया, और बताया कि, “यह सभी का पापों से उद्धार करते हैं। यीशू जब शूली पर चढ़े तो इनके शरीर से गिरने वाली रक्त की एक-एक बूंद ने सभी मनुष्यों के पापों का दण्ड स्वयं चुकाया, कहाँ ऐसा करूणासागर मिलेगा।“ यीशू मसीह के भजन गाए जाने लगे, और एक महिला ने ओझाओं वाले अन्दाज में सिर हिलाना शुरू किया क्योंकि उसके अन्दर यीशू की पवित्र आत्मा आ गई थी।


आज तक बिना किसी पहचान और संरक्षण वाली रोहिणी चाची अचानक अद्वितीय पहचान वाली बन गईं। मेरी अम्मा के लिए वह ‘यशोमती’ भगवान की भक्त हो गईं। अन्य गांव वालों के लिए भी वह एक मनोरंजक विषय बन गईं। हालांकि आने वाले सप्ताहों में गांव वालों ने उनकी साप्ताहिक प्रार्थना सभा में आना बन्द कर दिया लेकिन किसी हिन्दू को उनकी इस सभा से गुरेज नहीं था और यह भारत में पनपे विविध धर्मों सम्प्रदायों, दर्शनों के प्रति सनातनी हिन्दू की समावेशी विचारधारा की ही एक झलक थी। या फिर महापण्डित राहुल सांकृत्यायन की भाषा में- जिस धर्म में तैंतीस करोड़ देवी-देवता, हजारों धर्मग्रन्थ और लाखों धर्मगुरू हुए हों, उसमें एक और देवता व ग्रन्थ जोड़ने से धर्म का अस्तित्व यूं ही बना रहेगा।


रोहिणी चाची के घर सभा चलती रही, और अब संख्या बढ़ने लगी। मेरी उम्र के बच्चों को यही मजा आता था कि कुछ नया हो रहा है, कुछ मैले-कुचैले कपड़े-साड़ियां पहने सामान्यतया काले रंग के लोग इन सभाओं में आते थे। ढोल-मंजीरे पर झुमाने वाले भजन गाये जाते थे और फिर ओझाई होती थी, हम सब लोग साश्चर्य देखते थे कि यीशू का नाम लेने वाला रोग मुक्त हो जाता था। जाते समय इन लोगों के हाथों में चीनी, मिट्टी का तेल इत्यादि तो मैंने स्वयं देखा था लेकिन कुछ लोगों ने कहा कि पैसे भी मिलते हैं। समाचार-पत्रों में धर्मान्तरण पर संघ परिवार के वक्तव्य हम सभी लोग देखते तो थे लेकिन उसके सम्भव प्रयास का प्रथम दृष्टांत यहां मिला।


जिस धर्म, समाज और परिवार से एक लाचार चार बच्चों की मां को इतना भी न मिला कि वह ससम्मान अपने ससुराल में या मायके में रह सके, आज ‘यशोमती’ भगवान की शरण में उसे इतना मिल रहा था कि वह जरूरतमंदों में बांट भी रही थी, और उनका स्वयं भौतिक उत्थान हो रहा था। हमारे गांव की औरतों के लिए यीशु मसीह यशोमती बन चुके थे. धर्म की आवश्यकता कब पड़ती है? भूख वास्तविक है, बच्चों को अपनी आंख के सामने अभावों में सिमटे रहना देखना वास्तविक है। अबला स्त्री समझकर प्रभुत्व जमाने का प्रयास करने वाले वास्तविक हैं। अनुभूति और आदर्शों का उच्चतम दर्शन वास्तविकता के धरातल पर न जाने क्यों खोखला और अव्यावहारिक प्रतीत होने लगता है?
अब रोहिणी चाची धर्मप्रचार के लिए चर्च और मिशनरी के लोगों के साथ गांव-गांव जाने लगीं। उनका आकर्षक व्यक्तित्व था- लम्बी गोरी, सुन्दर; भारतीय मानक के अनुसार उनका व्यक्तित्व प्रचारिका के लिए सर्वोत्तम था। अब वे अलग-अलग प्रदेशों में भी जाने लगी थीं। हमारे सामने वह छोटा सा एक कमरा एक अच्छे भवन में तब्दील हो गया। रोहिणी चाची के घर अब सम्मानजनक भौतिक सम्पदा दृष्टिगोचर होने लगी। इसी बीच गांव में एक पण्डित जी बीमार पड़े, बचने की कोई आशा नहीं थी। रोहिणी चाची बिना बुलाए उनके घर पहुंची, रोग के लक्षण पूछीं और कुछ ‘यशोमती’ के मन्त्र बड़बड़ाते हुए ‘टेबलेट्स’ की एक पत्ती निकालीं। और बोलीं कि प्रभु यीशू में विश्वास रखें, आप ठीक हो जाएंगे। प्रभु यीशू ने ऐसे बहुत सारे ‘केसेस सॉल्व’ किये हैं। शायद भोजपुरी लोगों में हिंगलिश अधिक प्रभाव डालती है.


पण्डित जी अपने जीवन भर की आस्था और कर्मकाण्डों को किनारे रखकर, कृतज्ञता भाव से प्रभु यीशू मसीह का नाम लेते हुए टैबलेट गटक गए। अब इसे धर्म-भ्रष्ट होना कहेंगें या नहीं, पर उन्हें जाना था और वे चले गए इस संसार से। रोहिणी चाची ने इसे प्रभु की इच्छा बताया और कहा कि आप लोगों को प्रभु में विश्वास करने में देर हो गई। एक बार बनारस में होने वाली एक बहुत विशाल प्रार्थना सभा के लिए वे मेरे एक वृद्ध रिश्तेदार के पास पहुंचीं जिन्हें लकवा मार दिया था। जैसा मैंने कहा- मृत्यु और लकवा जैसे रोग वास्तविक हैं जो आजीवन पालन की गई आस्था, अनुभूति और कर्मकाण्डों पर भारी पड़ते हैं।
इस बार रोग भारी पड़ा। मेरे वृद्ध रिश्तेदार जब उनके विश्वास दिलाने पर सभा में गए, तो एक प्रसिद्ध धर्मप्रचारक पादरी ने उन्हें प्रभु यीशू का नाम लेकर एक घण्टे का जप करने को कहा, और कहा कि आंखें खोलने पर आप चल पाओगे। उन्होंने ऐसा करने का प्रयास किया क्योंकि उस समय मंच पर ‘मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्’ वाले चमत्कार हो रहे थे। लेकिन एक घण्टे बाद जब वह अपनी व्हीलचेयर से उठना चाहते थे तो गिर पड़े। उनका वक्तव्य था- ‘‘यार, धर्म से भी गिरे और व्हीलचेयर से भी।’’


मेरा एडमिशन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी राउरकेला ओड़िसा में हो गया, और कभी-कभार ही आने पर छुट्टियों में उनसे मुलाकात हो पाती थी। आज भी उनसे मिलने पर जीसस और बाइबिल पर चर्चाएं होती हैं और जीसस उनके स्वाभाविक जीवन और संस्कार का हिस्सा बन चुके हैं। वे ‘प्रभु आशीष दें’ कहकर आशीर्वाद देती हैं और जीवन से सन्तुष्ट लगती हैं। पता चला कि उनकी एक बेटी मिशनरी कॉलेज से पढ़कर एक सरकारी विद्यालय में शिक्षिका बन गई है और सबसे छोटा बेटा मिशनरी कॉलेज से पॉलिटेक्निक करके एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में सफल इंजीनियर हो गया है। सबकी शादी हो गई है, और चाची अपने मिशन में लगी हैं. उन्होंने मुझे भी बहुत प्यार से ईसाई बनने के लिए प्रेरित किया लेकिन मैंने उनसे वह एक सिद्धांत पूछा जो हिन्दू धर्म में नहीं है, तो उन्होंने हंसकर ‘प्रभु आशीष दें’ कह दिया.


ओड़िसा में हमारा कॉलेज आदिवासी क्षेत्र में था, और उसी समय एक आस्ट्रेलियन मिशनरी को सपरिवार हिन्दू धर्मान्धों ने जला दिया था। तब छात्र रात में छात्रावास के अंदर धर्मान्तरण-मदर टेरेसा के वास्तविक इंटेन्ट या नीयत पर चर्चाएं करते थे। लेकिन उन चर्चाओं के मूल से वास्तविकता गायब रहती थी, और वह वास्तविकता थी भूख, गरीबी, असुरक्षा। मुझे समझ नहीं आता था कि छात्रावास के मेस में काम करने वाले दुबले-पतले आदिवासी नौकरों को हम क्यों नहीं देख पाते जो हमारी थालियों में से बचा खाना एक पॉलिथिन में डालकर, उसे अपने घर ले जाते थे। इसका एक ताजा उदाहरण दिखा जब अष्टभुजी कॉलोनी बड़ीबाग गाजीपुर में मंदिर के पास पागल कुत्ते के काटने से रैबीज ग्रसित गाय अचेत मरणासन्न पड़ी थी और अखलाक को मार देने वाला गोरक्षादल गायब था। लेकिन मंदिर में भगवान कृष्ण के भजन गूंज रहे थे।


धर्मान्तरण के सिद्धांत से मैं कभी सहमत नहीं हो सका. इसी एक सिद्धांत पर बाबा साहेब अम्बेडकर मुझे गांधी से बहुत पीछे दिखाई देते हैं. हम जिस धर्म में, समाज में, देश में पैदा हुए, उससे पलायन करके कहीं और जाना ठीक नहीं. मैं बिना धर्म बदले ही मोहम्मद साहब, मूसा, ईसा, नानक, जरथुस्त्र, कनफूसीयस इत्यादि के सिद्धांतों को पढ़ता हूँ और अमल करता हूँ. क्योंकि मूलतः सभी एक हैं. धर्मान्तरण एक बलात्कार है जहाँ हम किसी की निर्बलता और विवशता का लाभ उठाकर छल से या बल से या धन से उसका शोषण करते हैं, उसे उसकी संस्कृति और समाज से दूर करते हैं. खुद से पूछना चाहिए यह भी, और वह भी कि ऐसे शोषितों के लिए हम, हमारी सरकार क्या कर रही है?


नाम: डॉ माधव कृष्ण
सम्पर्क: 7007115974, 9628130664



सोमवार, 18 नवंबर 2024

नही गम बस खुशी देते हो मेरी जिंदगी को एक हँसी देते हो रचना लव तिवारी ग़ाज़ीपुर

नही गम बस खुशी देते हो
मेरी जिंदगी को एक हँसी देते हो

तुम्हे देख कर मिलता है एक सुकून दिल को
मेरे धीमी धड़कनों को एक गति देते हो

हमें उम्मीद है वफ़ा की उम्रभर तुझसे
मेरे थके आँखो को रोशनी देते हो

चैन मिलता हौ तुम्हे याद करके सोने से
मेरे ख़्वाब मेंरे नींद को तुम मंजिल देते हो।।
🙏🙏🙏



शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

दीप जले- डाॅ एम डी सिंह

 दीप जले

रजनी के गांव में प्रकाश पर प्रतिबंध टले

दीप जले दीप जले दीप जले दीप जले


कजरारी छांवों में

अंधियारी नावों में

आंखों से ओझल उन 

सुरमई दिशाओं में


दिवस के पड़ावों में सूरज के पांव ढले

दीप जले दीप जले दीप जले दीप जले


प्रकाश बिन बत्तियां

डूबने को किश्तियां 

जुगनू भी कस रहे

मनुष्यों पर फब्तियां 


किचराई आंखों को अमावस न और छले

दीप जले दीप जले दीप जले दीप जले


मन के अंधियारे में

दुख के गलियारे में

विध्वंस गीत गा रहे

जंग के चौबारे में


बिछी हुई चौपड़, न शकुनी चाल और चले 

दीप जले दीप जले दीप जले दीप जले


डाॅ एम डी सिंह 


(दीपावली की बहुत-बहुत बधाइयां )