ढीले हो जाएंगे बंधन,
जलसे हमने जलकर देखे,
जल काजल में बदल गया।
जाल सँभाले मछुवारा मन,
मत्स्य गंध पर फिसल गया।
आगामी संतति पुरखों की -
थाती ही खो जायेगी।
पुष्पक में बैठे हैं हम सब,
इन्द्र लोक में जाना है।
अग्नि परीक्षा का भय केवल,
कंचन ही निखराना है।
ऊँची ऊँची सभी उडानें,
नीची ही रह जायेगी।।
टूटी बिखरी संज्ञाओं को,
आओ क्रियापदों से जोड़ें,
संस्कार की सुप्तभूमि में
बीज विशेषण वाले छोड़ें।
वरना व्यथा भारती माँ की,
कोरी ही रह जाएगी।
वर्ष गाँठ पर सोनचिरैया
क्या क्या बोल सुनाएगी।
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