गाँव में सुबह उठते ही बुद्धत्व की प्राप्ति हो जाती है..और पता चलता है कि रात का बिछौना सुबह ओढ़ना हो जाए उसे चैत का महीना कहतें हैं। खटिया पर ऊंघते हुए देखता हूँ सात बज रहे हैं..सभी लोग अपने काम में लगे हैं...जैसे एक बहन खाना बना रही है..छोटी वाली पढ़ाई कर रही है..माता जी अंचार सूखा रहीं हैं। बड़का पापा बैंक जाने के लिए तैयार हो रहे है।
मन में आता है कि इलाहाबाद के स्टैंडर्ड टाइम के अनुसार एक घण्टा और सो लेना चाहिए। लेकिन बड़की मम्मी इन अरमानों का धूप जलाकर पूजा पाठ रोकते हुए धीरे से कहती हैं..
"उठा किरिन उगला के बाद ना सुते के चाही।"मैं सर हिलाकर सहमति प्रदान करता हूँ.
उसके बाद दोनों ओर कुछ देर तक एक गहरी खामोशी रहती है...मन में आता है कि क्यों न आदत के अनुसार मोबाइल में नोटिफिकेशन चेक कर लिया जाए...बारी-बारी से सभी को देखने लगता हूँ..फेसबुक,व्हाट्सएप,ट्वीटर,इंस्टाग्राम.फिर मम्मी हाथ में मोबाइल देख एक बार और रुक जाती है..इस बार स्वर और लय में गुणात्मक वृद्धि हो जाती है...
"उठबs की ना हो.."
मैं फिर सहमति में सर हिलाता हूँ। तब तक माँ का भाषण पूजा पाठ के मंत्र में पढ़ा जाने लगता है..और देखते ही देखते उससे जो सुमधुर और अत्यंत ही अझेलनीय ध्वनि निकलती है उसका मतलब ये होता है कि...
"खेती नामक कार्य मेरे जैसे शहराती लोगों के बस की बात नहीं है, क्योंकि हमारी आदत को मोबाइल ने माटी में मिला दिया है..और आजकल के लड़के पता न अपनी किस नवकी माई को सुबह से लेकर शाम तक निरेखते रहतें हैं। रात को दो बजे सोएंगे तो उठेंगे कब, मेरा बस चले तो मोबाइल को चूल्हे में झोंककर उस पर खिचड़ी बना दूँ"
हाय! मेरा दिल बैठ जाता है.."बस करो माई..'
तब तक इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण ज्ञान छोटी बहन दे देती है कि "ए मम्मी जब इहाँ सात बजे उठ रहा तो इलाहाबाद कs बजे उठता होगा हो"?
मुझे गुस्सा नहीं आता है,न मां पर, न बहन पर,सोचता हूँ कि इसके पहले मां पूजा पाठ छोड़कर शिवतांडव पढ़ना शुरू करे, उठ जाने में ही भलाई है।
इधर घर से बाहर कदम रखते ही एक दूसरे दृश्य से सामना होता है। लोग खेतों की ओर चले जा रहें हैं। सबके जबान पर खेती की बातें हैं और हवा में चैत की महक।
कुछ देर खड़े होकर सोचता हूँ कि पता न ये वाली हवा किस एयर प्यूरीफायर और किस एसी से निकल के आ रही होगी..इतनी शीतलता और इतनी ताज़गी कि मन भीग उठता है।
सुबह का सूरज चमक रहा है...किसी सितार के तार की तरह गेंहू हिल रहें हैं..चना अधपका है...जिसे मुंह में डालते ही एक अनजानी सी मिठास रोम-रोम में फैल जाती है.
"ई हमार माई भी न..?
क्या कहें..बदन को सिहराती हवा में मन तो करता है कि आलोक कुछ देर यहीं बिछाकर सो लिया जाए। मां यहां देखने थोड़े आएगी..लेकिन मन विद्रोह कर जाता है.."कि तुम इलाहाबाद से सोने आए हो कि दँवरी करवाने आए हो"..?
तब तक चाचा ये कहकर इस चिंतन पर विराम दे देते हैं कि "खाली बैठकर क्या करोगे..."।
ये सुनकर अपने निठल्लेपन पर आंशू आने लगता है लेकिन एक उत्साह से हाथ में फ़रूसा उठाता हूँ..मानों आज कीम जोंग के सगे फूफा किसी नई मिसाइल का टेस्ट करने जा रहें हों..।
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