यादों मे इलाहाबाद.......
बबुआ के पापा इलाहाबाद आएं हैं। सुना है बबुआ कम्पटीशन की कोचिंग करेगा.. सुबह से बबुआ के पापा फोन करके परेशान कर रखें हैं कि "आलोक जी बबुआ को कोई दिक्कत तो नहीं होगा न ? बड़ी चिंता हो रही है।
फिर तो बबुआ के पापा द्वारा इस भरी गर्मी में प्रश्नों की बौछार से मेरी चिंता बढ़ जाती है।
"खाना टिफिन वाला सही है न ?
प्योर दूध मिल जाएगा न ?
मकान मालिक को एक साल का दे दें।
कपड़ा कौन धोता है ?
सोच रहे हैं एक प्रेस खरीद दें ?
कूलर ले लें ?
उधर से बबुआ की मम्मी जी अलग परेशान हैं,पसीना पोछकर बबुआ के पापा को डाँट रहीं हैं...."आपसे तभी कहे कि ग्लूकोज़ ले लीजिएगा...पर आप कभी बात मानें हैं मेरा..."
पापा झुंझला रहे हैं- "बंद करो अपना भाषण..दिन भर बक्क बक्क.."
इधर मैं सोच रहा "वाह रे मम्मी और पापा.. इससे तो अच्छा था कि बबुआ को अपने पास ही रखते..या इलाहाबाद में एडमिशन के पहले एक धोबी,एक बावर्ची रखकर एक भैंस भी खरीद देते..और तब घोड़ा गाड़ी पर बैठाकर पढ़ने के लिए भेजते।
अरे! मने कि बबुआ को एकदम डिजायनर और छुई-मुई बबुआ बना देंगे क्या सर ?
का हो गया है आपको ?
अब आदमी बाहर जाता है तो किसको दिक्कत नहीं होती..बबुआ आपके हनीमून मनाने थोड़े आएं हैं कि कैंडिल लाइट डिनर कहाँ करेंगे।
अरे! ये तो अभी जीवन क्या है ? संघर्ष क्या है ? उद्देश्य क्या है ? इसे सीखने आएं हैं। बबुआ को कष्ट तो होगा ही और होना ही चाहिए..
अगर आपको भ्रम है कि जीवन में बस किताबें और डिग्रियाँ सिखाती हैं तो आपको ये भ्रम झट से निकाल देना चाहिए..
किताब से ज्ञान आता है विवेक नहीं.. और जीवन को बस ज्ञान ही सुंदर नहीं बनाता...बड़े विवेक की जरूरत होती है..
और विवेक का जन्म स्वतंत्रता में होता है...जरूरत से ज्यादा देखभाल में नहीं।
आपके बबुआ किसी दिन भूख लगने पर रोटी बेलेंगे..और टेढ़े-मेढ़े रोटी को अंचार के साथ खाएंगे तब तो उनको पता चलेगा "अरे! रे...माँ जेठ की गर्मी में चूल्हे के सामने कितना मेहनत करती थी और मैं बेशर्म खेलने चला जाता था..और वो खाना लेकर चिल्लाती रह जाती थी।
उस दिन न भोजन बनाने वालों के प्रति उनके मन में सम्मान पैदा होगा।
किसी दिन बर्तन धोने, झाड़ू लगाने बैठेंगें। तब तो जान पाएंगे कि सफाई क्या होती है..और ये किसी सफाई कर्मी का काम नहीं है,ये भी एक संस्कार है जिसे सबको सीखना चाहिए. इसका जीवन में अपना ही महत्व है।
कपड़ा गन्दा होने पर जब धोएंगे..तभी तो पता चलेगा कि "अरे! यार.. हम तो घर पर झट से पहनकर चल देते थे...ये कपड़ा धोना तो सच में एक बड़ा काम है भाई..और उस दिन से संभलकर कपड़ा पहनेंगे कि यार कहीं जल्दी गंदा न हो जाए..
फिर एक दिन आपके बबुआ को किराए के लिए मकान मालिक डाँटेगा.. टिफिन वाला खाना बंद करने की धमकी देगा...दो रुपया कम होने के कारण पैदल चार किलोमीटर चलना पड़ेगा..
तब तो बबुआ को समझ में आएगा कि "यार झूठे कल दोस्तों के साथ पाँच सौ का फिल्म और कोल्ड्रिंक-पिज़्ज़ा खा लिया..टिफिन वाले को ही दे दिया होता तो कम से कम धमकी तो न देता।
उस दिन तो पता चलेगा कि बचत करने का जीवन में महत्व क्या है।
इसलिए हे बबुआ-बबुनी के मम्मी और पापा..
निवेदन है कि अपने बबुआ को डिजायनर बबुआ मत बनाइये..
मैं जानता हूँ कि सन्तान का मोह किसे नहीं होता..भला कौन माँ-बाप चाहेगा कि हमारे बेटी और बेटे को कष्ट हो। लेकिन याद रखिये आपने इंटरमीडिएट तक खूब प्रेम किया। जो मन किया वो खिलाया..पहनाया और घुमाया है।
अब बबुआ को अकेले छोड़ दीजिए,जीवन से जरा संघर्ष करने दीजिए..
अगर सब कुछ चांदी के चम्मच में दे देंगे तो जीवन क्या है और उसकी संवेदना क्या है,लोग क्या हैं.. दुनियादारी क्या है..माँ-बाप का योगदान क्या है.. आपके बबुआ कभीं न जान पाएंगे...
कोचिंग खूब कराइये..आपके बबुआ को एप्पल का आईफोन दीजिये..लेकिन ये भी तो उनको पता चले कि बेटा आईफोन तो ठीक है..लेकिन स्टीव जॉब्स बनने के लिए रोज सोलह किलोमीटर पैदल इस्कॉन मंदिर की लाइनों में भोजन के लिए खड़ा होना पड़ता है। तब जाकर दुनिया में आईफोन आता है।
बबुआ ये कोचिंग ये किताबें ये डिग्री का अपना महत्व है...लेकिन सब कुछ यही नहीं है।
इससे ज्ञान आ सकता है ? ज्ञान से डिग्री और नौकरी और नौकरी से पैसा।
लेकिन जीवन कैसे जीना है..ये न कोई कोचिंग वाला सिखाता है और न ही किसी कॉलेज में पढ़ाया जाता है।
ये व्यवहारिक जीवन की संघर्ष रूपी पाठशाला में ही सीखा जाता है।
जिसमें अभाव है, मेहनत और संघर्ष और अनुशासन है।
हे बबुआ के पापा- ये अवसर है.. आपके लिए और आपकी सन्तान के लिए...मुँह से अब चांदी का चम्मच निकाल दीजिये..
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