जीवन को तुम क्या रोकोगे ?
मृत्यु रोक लो चाहे तुम सब
जीवन को तुम क्या रोकोगे
क्या बांधोगे क्या टोकोगे
किसी खूटी किसी बुर्ज पर
क्या टांगोगे क्या ठोकोगे
यह खर नहीं पतवार नहीं है
भुग चुका संसार नहीं है
जिसे जला दो जिसे ताप लो
सुखी पत्तों का अंबार नहीं है
सागर पी गए
हो चाहे अगस्त्य तुम
बह रहा निरंतर ब्रह्मांड फोड़
यह गागर में तेरे नहीं अंटेगा
इस जल को तुम क्या सोखोगे
मथ समुद्र को ऊपर आया
देख वासुकी भी थर्राया
गरल गले बन नील रह गया
जीवन एक भी न हर पाया
कहां नहीं है
पर्वत खाई हिम अनल में
मृग मरीचिका सागर तल में
पाक चमक बाहर निकलेगा
किसी भांड किसी भट्टी में
चाहे जितना तुम फूंकोगे
चाहे जितना तुम झोंकोगे
जीवन को तुम क्या रोकोगे ?
डाॅ एम डी सिंह
( 17 दिन तक मृत्यु की घेराबंदी में रहकर भी 41 मजदूर सकुशल जीवित बाहर आए। अनेक बाधाएं आईं एक भी जीवन यात्रा को रोक न सकीं। 2014 में लिखी गई और मेरे कविता संग्रह 'समय की नाव पर' में छपी यह कविता शायद इस दिन के लिए ही लिखी गई थी।)
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