🐂🐃 दुल्लहपुर का पशु मेला 🐂🐃
मेला का नाम सुनते ही हमारे मन अपने स्थानीय बाजार और कस्बे में लगने वाले मेलों का दृश्य घूमने लगता है और अपना बचपना याद आने लगता है लेकिन आज हम लोग एक विशेष प्रकार के मेले की बात करेंगे जिसमें पशुओं की खरीद बिक्री होती थी।
आप में से तो बहुत लोग इस मेले के बारे में जानते भी नहीं होंगे पर आपको अपने क्षेत्र के ऐसे शानदार मेले के बारे में जानकारी होनी चाहिए।
ऐसा ही एक मेला अपने गाजीपुर जिले में दुल्लहपुर बाजार में लगता था, मेले को बंद हुए आज एक जमाना बीत गया पर अभी भी उस अविस्मरणीय मेले की यादें आती रहती है।
पहले हर गांवों में लोग बहुत ही प्रेम से पशुपालन करते थे, हर घर के सामने खुद की चरनी होती थी जिस पर कम से कम चार या पांच पशुओं को पाला जाता था, जिस घर में गाय भैंस और बैल नहीं होता था उसको लोग आश्चर्य से देखते थे।
जब हम लोग छोटे-छोटे थे उसके भी बहुत पहले से दुल्लहपुर का बैल मेला लगता आ रहा था।
इस मेले की यादें हमारे साथ जुड़ी हुई हैं, आज के बच्चे तो इसके बारे में कल्पना भी नहीं कर पाएंगे।
हमारे गांव से उत्तर दिशा की ओर दुल्लहपुर बाजार पड़ता है तो मैंने बचपन से देखा है कि बहुत सारे किसान अपने बछड़े और बैलों को हांकते हुए दुल्लापुर मेले में लेकर जाते थे, यह मेला प्रत्येक सप्ताह में सोमवार के दिन लगता था इस मेले के मालिक कोई कमला राय साहब थे। इसमें पशु के खरीदने बेचने पर एक रसीद कटानी पड़ती थी जिसका सामान्य शुल्क लगता था।बहुत दिनों तक यह मेला गाजीपुर जिले की शान हुआ करता था।
हम भी इस मेले में तीन या चार बार गये थे जिधर देखो एक से एक बछड़े और बैल। इनकी खूबसूरती देखते ही बनती थी।
हमारी खेती करने वाले पसराम चाचा कई बार बैलों की खरीद बिक्री करने के लिए मेले में जाते थे तो हम भी साथ गए थे।
यह पशु मेला दुल्लाहपुर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने पूरब दिशा में और स्टेशन के दक्षिण दिशा में भी लगता था।
यह मेला आप को अपनी ओर बरबस ही आकर्षित कर लेता था। मेले में जहां तक निगाहें जाती चारों और बस बैल ही बैल दिखते थे।
मुझे याद आता है कि बचपन में मेरे घर में दो बैल थे जिसमें जो नया बैल था उसको हम लोग मरकहवा बैल बोलते थे। एक दिन एकाएक मरकहवा बैल बीमार हो गया है और उसकी मौत हो गई। मुझे याद आता है कि घर के सभी सदस्य रोने लगे थे और उस दिन घर में खाना भी नहीं बना था, संभवतः यह सना 1990 के आसपास की बात होगी।
धीरे-धीरे इस मेले में जानवरों को कसाईखानो में बेचने वाले व्यापारियों का आना जाना बढ़ गया, ज्यादा पैसे के लिए लोग पशुओं को इन व्यापारियों के हाथ बेच कर अच्छा खासा मुनाफा कमाने लगे।
हमें याद आता है कि जब ऐसे व्यापारी मेले में बेचने खरीदने के लिए हमारे गांव की ओर से बैलों को लेकर आते जाते थे तो हमारे गांव के कुछ बदमाश टाइप के लोग इन व्यवसायियों से पैसों की वसूली भी करते थे। अब जब दुल्लहपुर जाना होता है स्टेशन के सामने देखने पर पुराना मेला याद आने लगता है और उसकी यादें मन को भावुक कर देती है।
कभी ऐसे भी सुनहरे दिन थे कि जब हर घर में गाय भैंस बैल हुआ करते थे, जिस घर में जानवर नहीं होते थे उस परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा कम मानी जाती थी।
हमको लग रहा है कि लगभग बीस साल पहले से यह मेला बंद हो गया है। आज तो यह समय आ गया है कि लगभग हर गांव में पैसा होने पर भी दुध नही मिल रहा है, आधे लोग डिब्बे के दुध दही के भरोसे हो गये हैं।
अब गांव भी बनावटी शहर बनते जा रहे हैं क्योंकि अब गांव के अधिकांश परिवार ऐसे हैं जिनके पास कोई पशु नहीं है, लोग पशु पालने से कतरा रहे हैं और पशु पालने को निरर्थक और घाटे का सौदा समझ रहे हैं !
क्या वर्तमान में आपके घर में कोई पशु हैं ? यदि हैं तो आपकी महानता है। पता नहीं फिर कब दुल्लहपुर बाजार का पशु (बैल) मेला शुरू होगा ... ... ...
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यदि आपकी यादों में दुल्लहपुर मेले से जुड़ी कोई बात हो तो कमेन्ट में लीखिए मैं उसे इसमें जोड़ लुंगा।
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बाकी फिर कभी... ...
आप सभी को धन्यवाद 🙏
✍️ नीरज सिंह 'अजेय'
नीरज सिंह 'अजेय' 'हिन्दी साहित्यकार'
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