मृत्यु-
श्वेत कफ़न में लिपटी
वह निर्जीव काया
कुछ क्षणों पहले
कुछ रिश्तों से बंधी
एक पहचान लिये
सजीव थी, हम सब के मध्य में।
एक प्यारा नाम था
कुछ प्यारे सम्बोधन थे
सिर्फ कुछ समय पहले ही
सब के मन में बसी थी
जब साँसों की तार जुडी थी
उसकी अपने ह्रदय से।
काल की पदचाप की
न कोई पहचान थी
बस हाथ बढ़ा उसने तोड़ी
साँसों की एक डोर थी
हम सब के समक्ष ही
बुझ गई जीवन ज्योति थी।
सम्बोधन सब मिट गए
नाम पता सब खो गया
अंत में नाम बस
पार्थिव शरीर ही रह गया
भूल गए सब क्या कभी
इसकी कोई पहचान थी?
छूट गयी जब आत्मा भी
तन के इस बंधन से तो
छोड़ इस काय का मोह
उड़ चली अनंत में वो
साँसों की एक डोर से ही
क्या इससे जुडी थी वो ?
चल पड़ी कन्धों पर सवार
सब कुछ पीछे छोड़ कर
नया नाम 'अर्थी' का ले
कैसे है खामोश पड़ी
अपनी अंतिम यात्रा में
अपने ही संस्कार को।
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