सो जाता है फ़ुटपाठ पे अख़बार बिछा कर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाता
सिर्फ रश्म बन कर रह गया मजदुर दिवस , 1 मई 1986 को मजदुर दिवस का गठन किया गया था, मजदुर का मतलब गरीब नहीं होता है, मजदूर किसी संस्था की वह इकाई है , जो उस संस्था की सफलता और विकास की कुंजी मानी जाती है, फिर चाहे वो खेत में काम करता हुआ मजदुर, ईट साने में सना हुआ इंसान, या फिर ऑफिस के बोझ के तले दबा हुआ कर्मचारी, मजदूर वह है जो किसी सस्था के लिए काम करते है और उसके बदले पैसा लेता है, 1 मई 1986 से पहले जब मजदूर दिवस का गठन नहीं हुआ था, मजदूर पर विभिन्न प्रकार के अन्याय होते थे, समय पर पगार न मिलाना,16 से 18 घंटे की कड़ी मेहनत और मजदूरी, कार्य के द्वारान किसी मजदुर को चोट या मृत्यु पर संस्था के द्वारा हर्जाना या उसके परिवार को नौकरी, मजदूर दिवस के बाद ही मजदुर संघ ने निश्चय किया गया की हर मजदुर को उसके 24 घंटे में से 8 घंटे की ही कार्यप्रणाली की व्यवस्था होनी चाहिए अगर संस्थान को विशेष कार्य को पूर्ण करने की आवश्यकता हो तो मजदूर के अतिरिक्त कार्य के अनुसार उसे अतिरिक्त मजदूरी भी प्रदान किया जाय साथ में समय पर पगार की व्यवस्था उसके मृत्यु पर हर्जाने की व्यवस्था लेकिन आज के इस बदलते समाज और बेरोजगारी में बाल मजदूरी को बहुत बढ़ावा दिया जा रहा है,समाज में बाल मजदूरी को अनैतिक रूप से अपना कर जो बच्चों और उनके भविष्य के साथ अन्याय हो रहा है उस पर तो पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा देनी चाहिए
मजदुर दिवस पर विशेष-
प्रस्तुति- लव तिवारी
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