उपवास और उपासना उपवास एक अद्वितीय योग है। उपवास मनोयोग अथवा ध्यान योग भी है। जहां तक पहुंचने के लिए प्रत्याहार तप और ईश्वर प्रणिधान स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। उपासना भी इसका एक मार्ग मात्र है। साधक चित्त पर विजय प्राप्त कर स्व को लेकर चेतना के निर्द्वन्द्व, अति शांत, शीतल ,अभेद्य ऊपरी प्रकोष्ठ में वास करने चला जाता है। यही उपवास है। उपास्य ध्येय अथवा लक्ष्य है । उपासना धारणा अथवा कर्म है। उपवास ध्यान अथवा लक्ष्य को प्राप्त करने तक चेतना के ऊपर प्रवास है। अर्ध अथवा पूर्ण भोजन का परित्याग न स्वास्थ्यप्रद है न फलदायक न ही उपासना का मूलार्थ। पथ्य और अपथ्य का भी उपवास से कोई संबंध नहीं वे तात्कालिक स्वास्थ्य निर्दिष्ट आहार व्यवस्थाएं हैं। उपवास भक्तियोग में उपासना की आनंदाविभोर अवस्था है जिसमें उपासक स्व को इष्ट में लीन कर उसके पास आवास प्राप्त कर लेता है। जैसे हनुमान राम भक्ति में इतना तल्लीन हुए कि श्री राम उनके भीतर विलीन हो गए। मीरा के साथ भी यही हुआ, चैतन्य महाप्रभु के साथ भी और रैदास के भी। भक्ति में भूख ,प्यास ,आवास,व्यवसाय, लोभ-मोह से मुक्त हो ब्रह्म का परमब्रह्म के पास आवासित हो जाना उपवास है। मैं यह बार-बार कहता हूं योग में स्व से बड़ा कोई नहीं।वही तय करता है वह कहां वास करें कहां उपवास। कर्मयोगी पूर्णतः स्व का उपासक होता है। उसके लिए कर्म ही ब्रह्म है और कर्म की पराकाष्ठा परम ब्रह्म। यदि वह फलचेती हो जाय,भविष्यभ्रमणी हो जाय अथवा अतीतान्वेषी हो जाय तो कभी आवास को छोड़कर उपवास नहीं कर पाएगा। अनंतधर्मा कर्मी होने के लिए पराकाष्ठा पर उपवास करना होगा जहां न थकान है न ठिठकन । कभी आपने सोचा भोजन पेट नहीं करता,भूख और प्यास पूरी तरह मनोकृत हैं। मन और आत्मा दो विहंग हैं, दोनों प्रगाढ़ मित्र। एक जीव के भीतर भ्रमण करने वाली आत्मा, दूसरा पूरे ब्रह्मांड में भ्रमण करने वाला मन। सारी वृत्तियां ,रिक्तियां, भूख ,प्यास, तृप्ति, तृष्णा मन-पक्षी के पास। आत्माराम तो अनिच्छु जैवसेवा निमग्न। तभी तो जीवात्मा कृष्ण ने जीव द्रोपदी की कड़ाही में बचे प्राण के एक ग्रास को खा लिया तो मन-दुर्वासा लालसा मुक्त हो आत्मा की शाख पर आ बैठा। यही मन का आत्ममन होना विहंगम योग का उपवास है। राजयोग में चिरानंद ही उपवास और उपासना दोनो है।
(अपनी पुस्तक 'समग्र योग सिद्धांत एवं होम्योपैथिक दृष्टिकोण' से) डॉ एम डी सिंह
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