वर्षों बाद गाँव में लौटा
देखा, बहुत हुआ बदलाव
सहमा-सहमा कदम बढ़ाता
बदला बदला है हर ठाँव
सूख गया सुमनों का उपवन
गाँव, बगीचे बिन सूना है
नहीं सुनाई देता कलरव
चिड़ियों का,अम्बर सूना है
नहीं दिखाई देते छप्पर
लिपे पुते घर भी गायब हैं
बँधे नाद पर चारा खाते
गाय दूधारू,बैल न अब हैं
जिसकी छाया का सुख था वह
नीम द्वार पर आज नहीं है
माँ अर्चन पूजन करती थी
तुलसी का वह गाछ नहीं है
मुख्य द्वार पर श्वान विराजे
जिसको शैम्पू से नहलाकर
सेवा करते, रोज सबेरे
नियमित हैं लाते टहलाकर
पर घर में बूढ़ी माता औ'
बूढ़े बाप निहार रहे हैं।
कातर नयनों से अपने
चुपके से आँसू ढार रहे हैं।
पर बेटे को कहाँ फिकर है
व्यर्थ समझकर ध्यान न देता
रत्ती भर सम्मान न देता
कहाँ गया जो बचपन में था
मेरा आज सलोना गाँव
बदला-बदला है हर ठाँव।
माताओं बहनों के सर पर
साड़ी का था आँचल होता
नव बधुएँ होती थीं घर में
लज्जा ही आभूषण होता
आज हुआ क्या चले गये सब
मनुज हृदय के उत्तम भाव
आँगन में दीवार दीखती
भाई-भाई में बिखराव
सुनने को अब कहीं न मिलती
बोली में जो रही मिठास
भीतर तो कुछ और भरा है
केवल अधरों पर है हास
छूना पाँव बड़ों का अब तो
लगती है लज्जा की बात
बाय-बाय टाटा की बोली
करती है उर में आघात
मिलन और विदा के पल में
करते थे सप्रेम प्रणाम
अब गुड मॉर्निंग औ गुड नाइट
बोल चला लेते हैं काम
'बाबू' बदल गया डैडी में
'माई' मम्मी में बदला है
पूरब की पावन धरती पर
पश्चिम की यह गजब बला है
पहले मिलते जुलते थे सब
आपस में अभिवादन होता
बैठे संग सुख दुख बतियाते
रामायण का वाचन होता
अब तो मोबाइल के चलते
आपस का संवाद घटा है
अपने घर की खबर नहीं है
भाड़ में जाये गाँव गिरावँ
बदला-बदला है हर ठाँव।
शहरों का तो कहना ही क्या
वहाँ रही मानवता हार
वही शहर की हवा गाँव में
आयी,कर गई बंटाधार
सोलह थे संस्कार हमारे
अब तो सभी निरर्थक लगते
कहा गया है देव,अतिथि को
पर वे जैसे अन्तक लगते
मात-पिता बेकार हो गए
व्याह हुआ पत्नी जब आई
भूल गया व्यवहार सभी
बेमतलब के अब चाचा भाई
हवा विषैली धीरे-धीरे
विषमय सब कुछ कर डाली है
प्रतिपल साँसें घुटती जातीं
नहीं कहीं पर हरियाली है
उच्च शिखर से गिर करके तो
गहन गर्त में जाना ही है
खेद यही पीढ़ी दर पीढ़ी
रोना औ' पछताना ही है
टूट गईं आशाएँ सब
नासूर बन गया उर का घाव
दृष्टि जहाँ तक भी जाती है
बदला-बदला है हर ठाँव।
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