दरवाजे के पीपल जैसे सब सहते हैं बाबूजी,
हमे देख कर पढ़ते-लिखते ,खुश होते हैं बाबूजी।
मम्मी तो कह भी देती है, कभी कभी मन की बातें,
कम खाते हैं, ग़म खाते हैं, चुप रहते हैं बाबूजी।
पैरों में चप्पलें पुरानी, हर मौसम एक ही पैंट-कुर्ता,
बिगड़े स्वास्थ पर भी मजबूती से, सब सहते हैं बाबूजी।
फीस, किताबें, होली-खिचड़ी, तीज, रजाई,मेला, हाट,
बुनकर के ताने-बाने-सा, सब बुनते हैं बाबूजी।
घर भर की सारी ज़रूरतें गुप - चुप वह पढ़ लेते हैं,
अपनी कोई भी अभिलाषा कब कहते हैं बाबूजी।
अपनी बच्चों के खातिर कविता और कहानी हैं,
यहां शाम ढले तो अक्सर यादों में बहते हैं बाबूजी।
दरवाजे के पीपल जैसे सब सहते हैं बाबूजी,
हमे देख कर पढ़ते-लिखते , खुश होते हैं बाबूजी।
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