क्यों मांस के लोथड़ों के आगे......
शर्मसार हो जाती है नैतिकता तेरी,
क्या जिस्म से बढ़कर कुछ भी....
एक स्त्री में तुझको दिखा नहीं ।
हर रोज़ कांपती है रूह मेरी....
तेरे घिनौने कृत्यों को सुनकर,
हाय ! मैं तो अपराधिनी हो गई हूं स्त्री होकर ।।
तू जानवर से भी जंगली बन गया है कैसे ??
सवाल कर जरा ख़ुद से अभी दो घड़ी ठहरकर...
फिर आज रो रही है हर आंखे....
तूफानों का बवंडर सा है,
हाय स्तब्ध हूं मैं ! ये कैसी दुर्दशा हो गई ।
मुझे ही पूजता है न तू....
मुझसे ही है उत्पत्ति तेरी ।
मत भूलना ये भूलकर भी कि,
ये अस्तित्व किससे है तेरा ???
नारीवाद - पुरुषवाद का है यह प्रपंच नहीं.....
पर सुरक्षित ज़मीन - खुला आसमान,
मुझे मेरे हिस्से का क्यों नहीं....????
सवालों का एक ढेर सा है...
इस तथाकथित सभ्य समाज से भी,
तेरे सिद्धांत, नियम, कानून सब मौन क्यों हो जाते यहीं ???
तू धर्म राजनीति की बातों में तो,
खूनी जंग कर जाता है ना, पर.....
मेरे हर सवालों पर मर्यादित रहने को कहते हैं क्यों सभी???
मत भूलना ये भूलकर भी....
अगर सृजन कर सकती हूं तेरा,
तो विध्वंशक भी बन सकती हूं तेरी ।
मर्यादा लिहाज़ शब्दों को अब पड़ेगा मुझे तोड़ना....
बस अब और नहीं बर्दाश्त मुझे,
नहीं बर्दाश्त है मुझे ये असहनीय वेदना ।
नहीं बर्दाश्त है मुझे ये असहनीय वेदना ।।
~संस्कृति
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