राजनीति को दुरुस्त राह लाने वाला एक्टिविस्ट साहित्यकार
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रामवृक्ष बेनीपुरी
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जन्मतिथि: 23 दिसम्बर (1899 )
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'.... गेहूं हम खाते हैं, गुलाब सूंघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्त होता है। गेहूं बड़ा या गुलाब? हम क्या चाहते हैं - पुष्ट शरीर या तृप्त मानस? या पुष्ट शरीर पर तृप्त मानस?
जब मानव पृथ्वी पर आया, भूख लेकर। क्षुधा, क्षुधा, पिपासा, पिपासा। क्या खाए, क्या पिए? मां के स्तनों को निचोड़ा, वृक्षों को झकझोरा, कीट-पतंग, पशु-पक्षी - कुछ न छुट पाए उससे ! गेहूं - उसकी भूख का काफला आज गेहूं पर टूट पड़ा है? गेहूं उपजाओ, गेहूं उपजाओ, गेहूं उपजाओ !
मैदान जोते जा रहे हैं, बाग उजाड़े जा रहे हैं - गेहूं के लिए। बेचारा गुलाब - भरी जवानी में सिसकियां ले रहा है। शरीर की आवश्यकता ने मानसिक वृत्तियों को कहीं कोने में डाल रक्खा है, दबा रक्खा है।
किंतु, चाहे कच्चा चरे या पकाकर खाए - गेहूं तक पशु और मानव में क्या अंतर? मानव को मानव बनाया गुलाब ने! मानव मानव तब बना जब उसने शरीर की आवश्यकताओं पर मानसिक वृत्तियों को तरजीह दी। यही नहीं, जब उसकी भूख खाँव-खाँव कर रही थी तब भी उसकी आंखें गुलाब पर टंगी थीं।
उसका प्रथम संगीत निकला, जब उसकी कामिनियाँ गेहूं को ऊखल और चक्की में पीस-कूट रही थीं। पशुओं को मारकर, खाकर ही वह तृप्त नहीं हुआ, उनकी खाल का बनाया ढोल और उनकी सींग की बनाई तुरही। मछली मारने के लिए जब वह अपनी नाव में पतवार का पंख लगाकर जल पर उड़ा जा रहा था, तब उसके छप-छप में उसने ताल पाया, तराने छोड़े ! बाँस से उसने लाठी ही नहीं बनाई, वंशी भी बनाई।......'
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बेनीपुरी जी को मैं प्रेमचंद के बाद का दूसरा प्रेमचंद मानता हूं। लेखक शिवपूजन सहाय जी कहते थे – ‘ बेनीपुरी का लिखा गद्य चपल खंजन की तरह फुदकता हुआ चलता है ।' लेकिन यह तो केवल शैलीगत विशिष्टता की तारीफ है। दरअसल बेनीपुरी जी का व्यक्तित्व ही सौंदर्य और यथार्थ यानी गेहूं और गुलाब का समन्वय था । वह मेहनत और जी जान से जीने की दांत पर दांत चढ़ी कोशिश के सौंदर्य के विरल गद्यकार थे ।
बेनीपुरी जी राजनीतिक थे । डॉ. लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ नेपाल क्रांति में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा । साहित्य जैसा कि मैं मानता हूं सुसंस्कृत राजनीति ही है । इसीलिए रामवृक्ष बेनीपुरी जी राजनीति में थे तो लेकिन उनके भीतर का राजनीतिक कहानीकार को राह नहीं बताता था , हां उनका कहानीकार राजनीति को जरूर ' करेक्ट ' करता रहता था ।
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वह उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार और नाटककार के साथ ही विचारक, चिंतक क्रान्तिकारी और पत्रकार थे। उनका जन्म 23 दिसम्बर, 1899 को बेनीपुर गाँव,मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार )में हुआ था। शुरुआती पढ़ाई गाँव की पाठशाला में ही हुई । बाद की पढ़ाई मुज़फ़्फ़रपुर कॉलेज से ।
इसी समय महात्मा गाँधी ने ‘रौलट एक्ट’ के विरोध में ‘असहयोग आन्दोलन’ शुरू किया। बेनीपुरी जी ने भी पढ़ाई छोड़ी और स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गये । कई बार जेल कई सज़ा काटी । कूल आठ साल जेल में रहे। समाजवादी आन्दोलन से रामवृक्ष बेनीपुरी का निकट का सम्बन्ध था। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय जयप्रकाश नारायण के हज़ारीबाग़ जेल से भागने में भी रामवृक्ष बेनीपुरी ने उनका साथ दिया और उनके निकट सहयोगी रहे।
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रचनाएं
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उपन्यास – पतितों के देश में, आम्रपाली
कहानी संग्रह – माटी की मूरतें
निबंध – चिता के फूल, लाल तारा, कैदी की पत्नी, गेहूँ और गुलाब, जंजीरें और दीवारें
नाटक – सीता का मन, संघमित्रा, अमर ज्योति, तथागत, शकुंतला, रामराज्य, नेत्रदान, गाँवों के देवता, नया समाज, विजेता, बैजू मामा
संपादन – विद्यापति की पदावली
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रामधारी सिंह दिनकर ने एक बार बेनीपुरीजी के विषय में कहा था कि- ' स्वर्गीय पंडित रामवृक्ष बेनीपुरी केवल साहित्यकार नहीं थे, उनके भीतर केवल वही आग नहीं थी, जो कलम से निकल कर साहित्य बन जाती है। वे उस आग के भी धनी थे, जो राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को जन्म देती है, जो परंपराओं को तोड़ती है और मूल्यों पर प्रहार करती है। जो चिंतन को निर्भीक एवं कर्म को तेज बनाती है। बेनीपुरीजी के भीतर बेचैन कवि, बेचैन चिंतक, बेचैन क्रान्तिकारी और निर्भीक योद्धा सभी एक साथ निवास करते थे।...'
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