शपथ: जो भी कहूंगा सरकार की कही कहूंगा, अपने ‘मन की बात’ बिल्कुल नहीं- क्योंकि, उसका पेटेंट मेरे पास नहीं है----
27 जनवरी से यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ “गंगा यात्रा” पर हैं। बलिया और बिजनौर से शुरू होने वाली दो यात्राएं कानपुर में आकर मिलेंगी और इस दौरान 26 जिलों को टच किया जाएगा। मकसद है गंगा का सफाई अभियान। लेकिन, सावधान! इस यात्रा का मकसद गंगा की सफाई से बिल्कुल नहीं है। ‘गंगा यात्रा’ एक बहुत बड़ा आई-वॉश है। खलिहड़ भौकाल के अलावा कुछ भी नहीं। 2020 तक गंगा को साफ करने का यज्ञ जिन्होंने ठाना था, आज उन्हीं की सरकार ने बीते चार सालों में सिर्फ 25 फीसदी ही सफाई का काम काम पूरा किया है। ये मैं नहीं कहता, बल्कि खुद सरकार ने ही लोकसभा पटल पर आंकड़े पेश किए हैं। (इसलिए कोई फटीचर तर्क नहीं पेलेगा)। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2015 से 2019 तक कुल 20,000 करोड़ रुपये के फंड का मात्र 4,800 करोड़ रुपये ही “मिशन क्लिन गंगा” या कहें “नमामि गंगे” पर पर खर्च किया गया है।
चार साल में महज 25 फीसदी काम हुआ है, तो क्या 75 फीसदी काम एक साल में हो जाएगा? उस पर भी तब जब देश में आर्थिक मंदी ऐतिहासिक स्तर पर है। IMF ने (संयोग से इसकी प्रमुख फिरंगी मूल की नहीं, बल्कि भारतीय मूल की गीता गोपीनाथ हैं) ने विकास दर का आंकड़ा 4.8 फीसदी कर दिया है। ऐसे में आर्थिक-मंदी के दौर में 75 फीसदी काम हो पाएगा?
‘इंडियास्पेंड’ की रिपोर्ट के मुताबिक जो अभी तक 4,800 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं, उसका 3,700 करोड़ रुपये (अक्टूबर, 2018 तक) यानी 77% हिस्सा सिवेज़ ट्रीटमेंट प्लांट तैयार करने में हुआ है। गौर करने वाली बात ये है कि 2015 में 96 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (गंदे नाले जो गंगा में गिरते हैं, उनको साफ करने के संयत्र) बनाने के लिए स्वीकृत हुए थे। लेकिन, इसमें सिर्फ 23 को बनाने का काम पूरा हुआ और अक्टूबर 2018 तक सिर्फ 44 का काम प्रगति पर दिखाया गया।
पहले केंद्र सरकार ने गंगा को 2019 तक साफ करने का लक्ष्य रखा था। लेकिन, यह डेडलाइन आगे बढ़ाई गई और 2020 तय कर दिया गया। लेकिन, आज भी जिस तरह का छीछालेदर है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि यह स्कीम अपनी डेडलाइन पर पूरी नहीं हो सकती। गंगा का पानी इस कदर प्रदूषित है और BOD (साधारण भाषा में समझे पानी में प्रदूषण की मात्रा का मानक) लेवल काफी ज्यादा है। कई एजेंसियों ने दावा किया है कि गंगा का पानी नहाने लायक तक नहीं है।
जरूरी बात- मैं खुद बलिया का हूं. गंगा के तट से मेरा करीबी संबंध है। भइया हो, हमारे यहां का पानी घरों तक प्रदूषित है। आर्सेनिक लेवल इस कदर बढ़ा हुआ है कि पानी पीना तो दूर गांव के खेतों के लिए हानिकारक है। प्रशासनिक स्तर पर सिर्फ नलों को चिन्हित किया जाता है और पानी नहीं पीने की सलाह दी जाती है। (बाकिर अरे हीत! जब पानी नहीं पीएंगे तो जीएंगे कैसे?) ये चैलेंज सिर्फ बलिया ही नहीं, बल्कि गंगा के किनारे स्थित सभी जिलों के लिए है।
सवाल- आर्सेनिक से जो हमारे लोगों को घातक बीमारियां हुई हैं, उसका हिसाब कौन देगा? क्या सरकार मेडिकल हर्जाना भरेगी? ये सवाल एक सरकार से नहीं बल्कि सभी सरकारों से है।
बात यूपी की- डंपट के बोल रहा हूं कि यूपी में खलिहड़ ‘भगवा लंठई’ के कुछ नहीं हो रहा है। भगवा हमारी सांस्कृतिक धरोहर है, लेकिन इसका पथ-भ्रष्ट रूप अपनी आंखों के सामने देख रहा हूं। सिर्फ गंगा के नाम पर जो राजनीतिक जमीन तैयार की जा रही है, वह एक पॉलिटिकल प्रोपगैंडा है। इमोशनल मार्केटिंग है। गंगा वैसे ही मैली हैं। लेकिन, मार्केटिंग के जरिए इसे खूब चीकन दिखाया जा रहा है। जैसे कोई प्रॉडक्ट आपको सात दिनों में गोरा बना देता है। वैसे ही बताया जा रहा है कि 2020 तक गंगा साफ हो जाएगी। लेकिन, इसके बरक्स जो सियासी जॉइंट पिलाई जा रही है, उसका असल असर तो नशा उतरने के बाद पता चलेगा।
नोट- मुझे पता है आंकड़े, रिपोर्ट, सही तर्क इत्यादि अधिक लोगों को समझ नहीं आ पाएंगे। इसके लिए मैं पूर्व की सरकारों को कटघरे में खड़ा करूंगा। कंबख्तों ने अपने बच्चों को ऑक्सफोर्ड भेजा और हमारे लिए महाविद्यालयों की राजनीतिक फौज खड़ी कर डाली...।
एक लास्ट- "माफ करना थोड़ा इधर-उधर बहक जाता हूं"
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