बांग्लादेश, अल्पसंख्यक, इस्लाम और लोकतंत्र
बांग्लादेश मुक्ति युद्ध अंततः असफल हो गया. कभी इस मुक्ति संग्राम में भारत को उतरना पड़ा था. मैं हमेशा यह सोचता था कि बांग्लादेशी नागरिक इस संग्राम में पाकिस्तानी सेना द्वारा नरसंहार रोकने के लिए भारत के प्रति कृतज्ञ होंगे. ऐसा होना भी चाहिए था. लेकिन राष्ट्रवादी बंगाली नागरिकों, छात्रों, बुद्धिजीवियों , धार्मिक अल्पसंख्यकों और सशस्त्र कर्मियों की सामूहिक हत्या, निर्वासन और नरसंहार बलात्कार में लिप्त पाकिस्तानी सेना और समर्थक मिलिशिया को घुटने पर लाने वाले भारत के प्रति बांग्लादेश में इतनी घृणा का विषाक्त वातावरण क्यों है?
यह बात कभी गले के नीचे नहीं उतरती थी. मुझे इसका पहला सार्वजनिक उदाहरण मिला था 2015 में. एक क्रिकेट श्रृंखला के दौरान अपना पहला मैच खेलते हुए, भारतीय बल्लेबाजों को मुस्तफिजुर रहमान के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा था. तब एक बांग्लादेशी अखबार ने भारतीय खिलाड़ियों के आधे मुंडे हुए सिर की तस्वीर प्रकाशित की थी, ताकि मुस्तफिजुर की 'कटर' या धीमी गेंदों के बाद के प्रभावों को दिखाया जा सके.
इस फोटो ने बहुत कुछ कह दिया. आजकल अख़बार भी अपने पाठक वर्ग की कुरुचियों को बखूबी समझते हैं और उसे हवा देते हैं. अभी इस फोटो को भारतीय पचा भी नहीं पाए थे कि, एक और फोटो वायरल होना शुरू हुआ, जिसमें एशिया कप के फाइनल के पहले तस्कीन अहमद धोनी का कटा हुआ सिर पकड़े था. इसे एक बांग्लादेशी समर्थक ने ट्विटर पर साझा किया था. यह एक प्रवृत्ति की तरफ इशारा करती है. इन दो तस्वीरों ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया कि, क्या बांग्लादेश में वास्तव में सब कुछ ठीक चल रहा है?
इस सप्ताह मुझे ही नहीं, पूरी दुनिया को इसका उत्तर मिल गया. अपनी मजबूत सांस्कृतिक और भाषाई जातीयता को लेकर मुक्ति संग्राम करने वाला शेख मुजीबुर्रहमान का बांग्लादेश अब इस्लामिक कट्टरपंथियों के चंगुल में आ चुका है. ऐसा मैं नहीं, ऐसा बांग्लादेश से जान बचाकर भागी विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार तसलीमा नासरीन सालों से कह रही हैं, और वही भाषा अब शेख हसीना के साथ कुछ बचे खुचे उदारवादी बांग्लादेशी भी बोल रहे हैं.
ऐसा केवल वे ही नहीं, बल्कि आधिकारिक आंकड़े भी कह रहे हैं. अमेरिकी मानवाधिकार लेखक और कार्यकर्त्ता रिचर्ड बेंकिन ने अपनी प्रामाणिक पुस्तक में लिखा है कि, भारत के 1947 के विभाजन के बाद, पूर्वी पाकिस्तान की आबादी में हिंदू एक तिहाई थे; जब 1971 में पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना, तब उनकी संख्या पाँचवें हिस्से से भी कम थी; 30 साल बाद दसवें हिस्से से भी कम; और आज आठ प्रतिशत से भी कम. बांग्लादेशी हिंदुओं को सरकार द्वारा सहन की जाने वाली हत्या, बलात्कार, अपहरण, जबरन धर्म परिवर्तन, भूमि हड़पने और बहुत कुछ का सामना करना पड़ता है, जिसमें 2009 में ढाका पुलिस स्टेशन के पीछे हुआ नरसंहार भी शामिल है.
अब बड़ा प्रश्न यह आता है कि, भारतभूमि, बांग्लादेश और पकिस्तान में अंतर क्या है? तीनों देश कभी एक ही भूखण्ड के हिस्से थे. सोचने पर केवल यही समझ में आता है कि, पाकिस्तान और बांग्लादेश में इस्लाम के अनुयायी बहुसंख्यक हैं, और अभी तक भारत में हिन्दू धर्म के अनुयायी बहुसंख्यक हैं. आप इसे नकार भी सकते हैं, लेकिन आंकड़ों को नकारना असंभव होगा. इन दो देशों को यदि छोड़ भी दिया जाय, तो भी कश्मीर में इस्लाम का शासन स्थापित करने के लिए हिन्दुओ के नरसंहार और पलायन को कैसे नकारा जा सकता है?
यह एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है, इस्लाम का प्रतिनिधित्व करने वाले चरमपंथियों की मंशा पर. यह एक और बड़ा प्रश्न खड़ा करता है कि, क्या इस्लामिक देशों में लोकतंत्र और सह-अस्तित्त्व के सिद्धांत जीवित रह सकते हैं?
अहमद मौसल्ली ( अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ बेरूत में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर) सहित मुस्लिम लोकतंत्रवादियों का तर्क है कि कुरान में निरंकुशता से दूर लोकतंत्र की अवधारणाएँ हैं. इन अवधारणाओं में शूरा (परामर्श), इज्मा (आम सहमति), अल-हुर्रिया (स्वतंत्रता), अल-हक्कूक अल-शरीय्या (वैध अधिकार) शामिल हैं. उदाहरण के लिए, शूरा ( अल इमरान - कुरान 3:159, अश-शूरा - कुरान 42:38).
इन संकेतों के बाद भी इस्लामिक राज्यों में लोकतंत्र का न पनप पाना और अल्पसंख्यकों का समाप्त होना क्या इस बात की ओर संकेत करता है कि इस्लाम और लोकतंत्र दो विरोधी विचारधाराएँ हैं? प्रोफेसर मुसल्ली का तर्क है कि निरंकुश इस्लामी सरकारों ने अपने स्वार्थ के लिए कुरान की अवधारणाओं का दुरुपयोग किया है. यह बात समझ में आती है क्योंकि पूरी दुनिया में सत्ता पाने के लिए लोगों ने अलग-अलग सिद्धांतों का दुरूपयोग किया है.
उन्होंने इस बात पर बल देते हुए कहा, समाज के अन्य वर्गों की कीमत पर यह होता है. इस्लामिक देशों में ये अन्य वर्ग हैं अल्पसंख्यक हिन्दू या ईसाई या बौद्ध इत्यादि जिन्हें इस्लाम के नाम पर मारना या धर्मान्तरित कर देना अधिक सरल है, और इसे बहुसंख्यक मुस्लिमों का मुखर समर्थन प्राप्त है.
सैद्धांतिक रूप से इस्लाम में सभी समान हैं. केवल धर्मनिष्ठता और सदाचार के आधार पर ही श्रेष्ठता का निर्णय होता है. लेकिन इस्लामिक शासन में धर्मनिष्ठता और सदाचार के मानक कौन निर्धारित करेगा? निश्चित तौर पर शरीयत, कुरआन और हदीसें ही इनके मानक निर्धारित करेंगी. लेकिन इन धर्मग्रंथों की सही व्याख्या कौन करेगा? कौन काफिर है, कौन सही है, कौन गलत है? और एक काफिर की इस्लामिक देश में कौन सुनेगा? उनकी हैसियत क्या है?
२०२० में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में लाहौर से 250 किमी दूर खुशाब जिले के कायदाबाद तहसील में ईशनिंदा के आरोप में राष्ट्रीय बैंक के मैनेजर की बैंक के ही एक सिक्योरिटी गार्ड ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. जुलूस निकालते हुए हजारों मुस्लिमों की भीड़ ने उसका अभिनन्दन किया था. जबकि बैंकर के परिवार का कहना था कि गार्ड काम नहीं करता था, और डांटने पर उसने ईशनिंदा की आड़ में यह कुकृत्य कर दिया.
हदीस की गलत व्याख्या और अनुवाद करने वालों पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्द बांग्लादेशी विद्वान डॉ खोंडकर अब्दुल्ला जहाँगीर ने लिखा है कि, "हदीस के नाम पर झूठ का एक क्षेत्र अनुवाद और व्याख्या है। हम आम तौर पर किताबों और उपदेशों में हदीसों का हवाला देने में खुद को 100% स्वतंत्रता देते हैं। हम हदीस के सार का जैसा चाहें वैसा अनुवाद करते हैं, अनुवादों के बीच स्पष्टीकरण जोड़ते हैं और इसे 'हदीस' कहते हैं। लेकिन एक शब्द के हेरफेर से साथी भ्रमित हो जायेंगे!"
"हदीस शरीफ़ कहता है कि हलाल कमाई में एक पल के लिए खड़ा होना एक हज़ार अस्वद के लिए लैलतुल क़द्र सलात पेश करने से बेहतर है', या 'किसी रैली या जुलूस में एक टका खर्च करना' 'अच्छे काम का इनाम मिलेगा 70 लाख'...लेकिन वह झूठ गिना जाएगा. क्योंकि पैगम्बर ने ऐसा कभी नहीं कहा." पैगम्बर ने जो नहीं कहा या किया, उसको भी मनमाने तरीकों से बताकर अनेक इस्लामिक विद्वान समाज में विद्वेष पैदा कर रहे हैं और मुस्लिम युवाओं का ब्रेनवाश कर रहे हैं.
जब धर्म प्रधान हो जाता है, और संविधान की शक्ल ले लेता है, तब धार्मिक उन्माद को लोकतंत्र का जामा पहनाने पर भी एक दिन ऐसी घटनाएँ आम होने लगती हैं जिसमें बेगुनाहों को मारने पर लोग गर्व का अनुभव करें. दुःख की बात यह है कि इन ग्रंथों में तमाम घटनाएँ प्रक्षिप्त की जाती हैं ताकि अल्पसंख्यकों की सम्पत्ति और महिलाओं को छीनने को धर्मसंगत सिद्ध किया जा सके, और इनका विरोध करने वालों के विरुद्ध फतवे जारी कर दिए जाते हैं.
चरमपंथी इस्लामिक सलाफी विद्वानों ने दावा किया है कि लोकतंत्र हराम और यहां तक कि शिर्क है यदि इसका प्रयोग शरीयत के मूल सिद्धांतों को खारिज करने के लिए किया जाता है, जैसे निषिद्ध चीजों को अनुमति देना. उनका आरोप है कि यह शरीयत को खारिज करता है. जैसे चुनाव के समय शराब बांटना. वे सत्ता में आने और इस्लामी शासन स्थापित करने के लिए बुरे लोगों को भी प्रश्रय देते हैं. लोकतंत्र तभी तक वैध है जब तक यह इस्लामी सिद्धांतों को बढ़ावा देने के लिए उपयोग में आता है.
दुनिया बदल रही है, और बदलती रहेगी. ऐसे कानूनों की आवश्यकता भी होगी जिनका वजूद किसी धर्मग्रन्थ में न हो. तो क्या इसका अर्थ है कि जटिल होते जा रहे विश्व में नए कानून ही न बनाये जाएँ? पारंपरिक इस्लामी सिद्धांत धर्म ( दीन ) और राज्य ( दौला ) के मामलों में अंतर करता है, लेकिन जोर देता है कि राजनीतिक अधिकार और सार्वजनिक जीवन को धार्मिक मूल्यों द्वारा निर्देशित होना चाहिए.
मुस्लिम विद्वान और विचारक, मुहम्मद असद अपनी पुस्तक इस्लाम में राज्य और सरकार के सिद्धांत में , लिखते हैं कि, देखा जाए तो आधुनिक पश्चिम में जिस तरह से 'लोकतंत्र' की कल्पना की गई है, वह प्राचीन यूनानी स्वतंत्रता की अवधारणा की तुलना में इस्लामी अवधारणा के कहीं अधिक निकट है; क्योंकि इस्लाम का मानना है कि सभी मनुष्य सामाजिक रूप से समान हैं और इसलिए उन्हें विकास और आत्म-अभिव्यक्ति के लिए समान अवसर दिए जाने चाहिए.
यह एक मूल बात कि, सभी मनुष्य सामाजिक रूप से एक समान हैं, इस्लामिक देशों में जमीनी हकीकत में कभी नहीं बदल पायी. आज बांग्लादेश और पाकिस्तान में हिदुओं की समाप्तप्राय जनसंख्या इस का पुख्ता सबूत देती है. इस्लामी धर्मतंत्र और लोकतंत्र वैकल्पिक विचारों के प्रति असहिष्णु होते हैं. आज बांग्लादेश से शेख हसीना का जाना एक सकारात्मक राजनीति का अवसान है. चरमपंथियों का सत्तारोहण किसी भी सभ्य समाज के लिए खतरे की घंटी है. भारत और तमाम पश्चिमी देश सभी के लिए आदर्श होने चाहिए क्योंकि वहां अल्पसंख्यकों की स्थिति इतनी अच्छी है कि लोग वहां शरणार्थी बनना भी अपने अस्तित्त्व के लिए श्रेष्ठ समझते हैं.
भारतवर्ष के ऋषियों ने घोषणा की कि जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता निवास करते हैं. इसी तरह बहुसंख्यक समुदाय के बीच अल्पसंख्यकों का सम्मान और सुरक्षा ही उस देश की महानता का सूचकांक है. और इस दृष्टि से भारत में फलती फूलती अल्पसंख्यक जनसंख्या हमें भरोसा दिलाती है कि हम एक महान देश के निवासी हैं. जो अल्पसंख्यक भारत छोड़कर पाकिस्तान और बांग्लादेश गए, उन्हें भी इस बात का अहसास होगा कि भारत क्या है? और यदि भारत ऐसा है तो निश्चित तौर पर ऋषियों द्वारा संस्कारित हिन्दू जाति को खुद पर गर्व क्यों नहीं करना चाहिए!
सन्दर्भ सूची:
१. (A Quiet Case of Ethnic Cleansing: The Murder of Bangladesh's Hindus, Richard L. Benkin, ISBN: 9788188643523, 8188643521, Publisher: Akshaya Prakashan)
२. (3:159) यह अल्लाह की दयालुता है कि तुमने उनके साथ नरमी बरती। यदि तुम कठोर हृदय वाले होते तो वे अवश्य ही तुमसे अलग हो जाते। अतः उन्हें क्षमा कर दो और उनके लिए क्षमा की प्रार्थना करो और महत्वपूर्ण मामलों में उनसे परामर्श करो। और जब तुम किसी कार्य पर दृढ़ निश्चय कर लो तो अल्लाह पर भरोसा रखो। निस्संदेह अल्लाह भरोसा करनेवालों को प्रिय है।
३. For instance, shura, a doctrine that demands the participation of society in running the affairs of its government, became in reality a doctrine that was manipulated by political and religious elites to secure their economic, social and political interests at the expense of other segments of society," (In Progressive Muslims 2003).
४. https://www.hadithbd.com/books/link/?id=4644
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