आज की संगोष्ठी आरम्भ होने से पहले वरिष्ठ इतिहासकार विश्वविमोहन शर्मा जी श्रीरामचरित मानस में भगवान परशुराम के चरित्र चित्रण से असहमति व्यक्त कर रहे थे. वास्तव में वैष्णव साहित्य में परशुराम को भगवान् विष्णु का आवेश अवतार माना जाता है, और भगवान राम को पूर्ण अवतार. श्रीमद्भगवद्गीता में दिव्य चेतना शस्त्रधारियों में श्रीराम के रूप में अवतरित हुई. इस सूत्र पर बड़े शास्त्रार्थ हुए क्योंकि शस्त्रधारियों और शस्त्रवेत्ताओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पौराणिक नाम परशुराम का है. लेकिन उनके परशु के आवेग में राम का विवेक नहीं है. आवेश क्षणिक है. वह किशोर लक्ष्मण का वध करने और बालक गणेश का दांत तोड़ने में भी नहीं हिचकता है. शस्त्र धारण करना महत्त्वपूर्ण नहीं है. महत्त्वपूर्ण है उसके साथ आने वाले उत्तरदायित्व को समझना और उसका निर्वहन करना, और यहीं श्रीराम अचानक बड़े हो जाते हैं. विवेक ही पूर्णता है. अपनी पत्नी का अपहरण करने वाले रावण को बार-बार शांति के लिए प्रस्ताव भेजना ही एक मनुष्य का ईश्वर के रूप में परिवर्तन है. आवेग से विवेक की यात्रा ही परशुराम से श्रीराम की यात्रा है.
समकालीन साहित्य आवेग और आवेश का साहित्य बनता जा रहा है. खेमों की पारस्परिक घृणा वीभत्स रूप में अभिव्यक्ति पा रही है. बड़े साहित्यकार भी ‘सुमित्रानंदन पन्त का अधिकांश साहित्य कूड़ा-कचरा है’ जैसे वक्तव्य रखने का लोभ संवरण नहीं कर पाते. साहित्यिक आलोचनाएँ या तो प्रशंसा या निंदा का एकायामी रूप ले चुकी हैं. विचारधाराओं की लहरें एक दूसरे के किलों से टकराती हैं, और एक दूसरे को ख़ारिज करके लौट जाती हैं. उनमें एक दूसरे के गढ़ में रुकने, ठहरने और विमर्श के लिए समय और साहस नहीं बचा, ऐसा प्रतीत होता है. मुंशी प्रेमचंद इस समय के लिए एक समाधान लेकर आते हैं. उनके लिए घृणा, निंदा इत्यादि मनोवृत्तियाँ स्वाभाविक हैं और उनका काम है मनुष्य के सबसे बड़े धर्म ‘आत्मरक्षा’ को साधना.
“यह क्रोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है. निंदा का भय न हो, क्रोध का आतंक न हो, घृणा की धाक न हो तो जीवन विशृंखल हो जाएँ और समाज नष्ट हो जाएँ... घृणा का ही उग्र रूप भय है और परिष्कृत रूप विवेक. ये तीनों एक ही वस्तु के नाम हैं, उनमें केवल मात्रा का अंतर है।” हम सभी जो अपने आप को साहित्यकार कहलाना पसंद करते हैं, के लिए मुंशी प्रेमचंद एक बड़ा पाथेय छोड़ गए हैं. साहित्यकार बनने में तो पूरी उम्र लग जाती है. यह तो उस अलकेमिस्ट की तरह है जो शीशे से सोना बनाने की प्रक्रिया में खुद ही सोना बन जाता है. हम कुछ रचनाओं का सृजन करके साहित्य को थोड़ा समृद्ध कर सकते हैं, लेकिन सालों-साल और शायद पूरा जीवन लगाने के बाद जब हमारी घृणा विवेक का रूप ले लेती है, तब हमारे और मुंशी प्रेमचंद के बीच की दूरी समाप्त होती है.
मुंशी प्रेमचन्द जैसे बड़े लोग किसी एक के नहीं होते जैसे स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गांधी जैसे महापुरुष किसी एक के नहीं है. इन लोगों की महत्ता इस बात में निहित है कि सुविधाजनक उद्धरणों के दौर में हर वैचारिक धड़े के पास इनके व्यक्तित्व का एक पक्ष किसी न किसी के काम का है, और उसी को जोर शोर से प्रचारित करके इन्हें अपने खेमे का सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है. इनकी महत्ता इस बात में भी है कि इनसे घृणा करने वाले इस तरफ भी हैं और उस तरफ भी. मुंशी प्रेमचंद से जितनी घृणा जन्मना ब्राह्मणवादी साहित्यकार करते हैं उतनी ही घृणा सुमनाक्षर जैसे रंगभूमि की प्रतियाँ जलाने वाले दलित साहित्यकार या एक्टिविस्ट भी.
गाजीपुर में ही एक संगोष्ठी में एक भोजपुरी भाषा के लिए कार्यरत तिवारी जी ने कहा था कि, मुंशी प्रेमचन्द कायस्थ थे इसलिए उन्होंने कायस्थों पर नहीं लिखा जबकि उनके समय में कायस्थ ही उच्च पदों पर आसीन थे; उन्होंने केवल ब्राह्मणों को निशाना बनाया क्योंकि उस समय ब्राह्मण कायस्थों के प्रतिस्पर्धी थे क्योंकि ये दोनों ही पढ़े लिखे थे. माना कि, हम लोग उत्तर आधुनिकता के विखंडनवादी दौर से गुजर रहे हैं लेकिन फिर भी प्रेमचन्द जैसे महान साहित्यकारों को अपने मन के निकृष्टतम कोने में घसीटने का प्रयास स्वतः असफल हो जाता है. ऐसा नहीं है कि मुंशी प्रेमचंद को इस आरोप का ज्ञान नहीं था.
इसका उत्तर देते हुए उन्होंने अपने इसी निबंध में लिखा कि, “जीवन में आदमी को सभी तरह के अनुभव होते हैं. प्राय: सभी समुदायों में उसके मित्र हो सकते हैं और शत्रु भी, फिर वह किसी एक समुदाय को क्यों चुनकर उन्हीं के प्रति घृणा फैलायेगा? हाँ, चूँकि धर्म के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने वाले, श्रद्धा की आड़ में श्रद्धालुओं को नोचने वाले, गया में मुसलमानों और चमारों तक से पिंडदान का संस्कार कराने वाले और नाना प्रकार से धर्म का पाखंड रचने वाले उस समुदाय के लोग हैं, जो दुर्भाग्यवश ब्राह्मण कहे जाते हैं, पर जो ब्राह्मणत्व से उतना ही दूर हैं, जितना नरक से स्वर्ग... यह उस समुदाय को बदनाम करने वाले लोग हैं जिन्होंने सच्चे जीवंत और सच्चे विचारों की सरिता बहाई थी, जो हिन्दू समाज के पथ प्रदर्शक थे। उनका यह पतन!”
मुंशी प्रेमचंद ब्राह्मणत्व की भारतीय दार्शनिक परिभाषा का हवाला देते हैं और उसे जन्म से अलग खड़ा करते हैं, “लेखक की दृष्टि में ब्राह्मण कोई समुदाय नहीं , एक महान पद है जिस पर आदमी बहुत त्याग, सेवा और सदाचरण से पहुँचता है. हरेक टके-पंथी पुजारी को ब्राह्मण कहकर मैं इस पद का अपमान नहीं कर सकता...” मुंशी प्रेमचन्द ऐसे आलोचकों को अपने उपन्यास ‘सम्राटई का मुकुट’ भी बड़ी खुशी से दे देना चाहते हैं. आलोचकों की यह जमात सदा से सक्रिय रही है. मुंशी प्रेमचंद की गतिशील जीवन दृष्टि में आर्य समाज, तिलक और गांधी जी का योगदान था. आचार्य रामचंद्र तिवारी उनके साहित्य में गांधी जी की विनयशीलता, तिलक की तेजस्विता और आर्य समाज की तार्किकता देखते हैं.
दूसरा धड़ा जो अपने को दलित साहित्यकार कहता है, वह भी मुंशी प्रेमचंद से बहुत प्रेम नहीं करता है. दलित साहित्यकार आज भी मानते है कि दलितों की पीड़ा का आख्यान दलित ही कर सकता है क्योंकि ‘जाके पांव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’. वे इस तथ्य को भी भुला देते हैं कि मुंशी प्रेमचंद ने दलितों-वंचितों के प्रति किया गए अत्याचार और शोषण को पूरी बेबाकी से प्रस्तुत किया, दलित वर्ग को जगाने का कार्य किया. सोहनलाल सुमनाक्षर के नेतृत्व में इन लोगों ने रंगभूमि की प्रतियाँ जलाईं, जिसका नायक एक जागरूक साहसी दलित है. एक अन्य दलित साहित्यकार डॉ धर्मवीर ने उन्हें ‘सामंत का मुंशी’ एवं ‘लिजलिजा चाकर’ कहा. यही दलित साहित्य की सीमा है जो वाह्य आलोचना करती है, उपन्यास जलाती है. मुंशी प्रेमचंद अपने विचारों से कुरीतियों का लगातार दहन करने में लगे हुए हैं.
‘मंदिर’ कहानी की पात्र सुखिया कहती है, ‘तो क्या भगवान ने चमारों को नहीं सिरजा है?..क्या चमारों का भगवान कोई और है?...मेरे छू लेने से ठाकुर को छूत लग गयी...मुझे बनाया तो छूत नहीं लगी.” मुंशी प्रेमचन्द सामाजिक यथार्थ से संतुष्ट नहीं हैं, इन कुरीतियों से उपजे क्रोध को विचार की शक्ल देने में लगे हुए हैं, और इन विचारों में अन्तर्निहित सौन्दर्यबोध को पहचानते हुए उन्हें कलात्मक औदात्य देने का कार्य करते हैं. प्रतिक्रियाओं के कारण दलित साहित्य का सौन्दर्यबोध सपाटबयानी तक सीमित रह गया. प्रेमचंद का क्रोध सात्त्विक क्रोध है. और यही उनकी घृणा और क्रोध का विवेक है. घृणा से उपजा यह विवेक ही उनके साहित्य की शक्ति है.
कतिपय लोगों ने मुंशी प्रेमचंद को हिन्दू धर्म पर चोट पहुंचाने वाला बताया है. हिन्दू धर्म की व्यावहारिक समस्याओं पर तो महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानन्द के साथ-साथ महर्षि दयानंद सरस्वती ने भी करारा प्रहार किया है. मुंशी प्रेमचंद के अनुसार “‘कु’ और ‘सु’ का संग्राम ही साहित्य का इतिहास है.” कुछ लोग यह जानते होंगे कि मुंशी जी ने इस्लाम की कट्टरता पर भी एक कहानी लिखी है, ‘दिल की रानी.’ उसमें तैमूर के सामने लड़के के वेश में बेगम हमीदा कहती हैं, “मैं कहता हूँ, हम काफिर सही लेकिन तेरे तो हैं क्या इस्लाम जंजीरों में बंधे हुए कैदियों के कत्ल की इजाजत देता है?”
“...खुदा ने अगर तुझे ताकत दी है, अख्तियार दिया है तो क्या इसीलिये कि तू खुदा के बंदों का ख़ून बहाये ? क्या गुनाहगारों को कत्ल करके तू उन्हें सीधे रास्ते पर ले जायगा?... इस खयाल को दिल से निकाल दे कि तू खूँरेजी से इस्लाम की खिदमत कर रहा है. एक दिन तुझे भी परवरदिगार के सामने अपने कर्मों का जवाब देना पड़ेगा और तेरा कोई उज्र न सुना जायगा; क्योंकि अगर तुझमें अब भी नेक और बद की तमीज बाकी है, तो अपने दिल से पूछ. तूने यह जिहाद खुदा की राह में किया या अपनी हविस के लिये और मैं जानता हूँ, तुझे जो जवाब मिलेगा, वह तेरी गर्दन शर्म से झुका देगा.”
इसलिए मुंशी प्रेमचंद के समग्र पाठ की आवश्यकता है. उन्हें नोच नोचकर खाने या अपना बनाने की आवश्यकता नहीं है. भारतेंदु हरिश्चंद्र के बाद हिन्दी साहित्य को एक बड़े फलक पर व्यापक संवेदनशीलता के साथ लिखने वाला सांस्कृतिक सामाजिक विमर्शकार मिला. भारतेंदु जी के पास समय कम था, काम अधिक था इसलिए उनका कार्य गहराई में प्रवेश नहीं कर सका लेकिन मुंशी प्रेमचंद ने इस विमर्श को औदात्य के साथ विस्तार और गाम्भीर्य दोनों दिया. उनकी प्रगतिशीलता मानवतावाद का पर्याय है. वह विखंडन नहीं, समस्याओं की तरफ लोगों का ध्यान ले जाने में विश्वास रखती है. उनके लिए मनुष्य के सबसे निकट मनुष्य है, और इसमें किसी भी तरह की वैचारिक निष्ठा का स्वागत भी है, और उसका कफ़न भी तैयार है. उनका साहित्य जीवन की व्यापक अनुभूति से जुड़ा हुआ है.
प्रेमचन्द से पूर्व का उपन्यासकार और कथाकार पाठकों के मनोरंजन और मनोतुष्टि में लगा हुआ था. जैसे आज अनेक लोग कहते हुए मिलते हैं कि, आपका भाषण और लेखन जनता के अनुरूप और अनुकूल होना चाहिए, अन्यथा आप असफल हो जायेंगे. लेकिन पाठको और श्रोताओं के संस्कार को उन्नत बनाने का प्रयास ही एक वक्ता और लेखक की सफलता है. जातिवाद, साम्प्रदायिकता, पैरोडी, सेक्स, इरोटिका और पोर्न परोसने वाले लोगों से साहित्य, सिनेमा और राजनीति का भला नहीं होने वाला है. वे भौतिक रूप से समृद्ध और लोकप्रिय दिखते होंगे लेकिन वास्तविक सफलता के मानक देखने के लिए सरदार भगत सिंह जैसों की तरफ देखना होगा. आज मुंशी प्रेमचन्द जी की जयन्ती पर हमें इन बातों को याद रखना होगा, और प्रेमचंद से अपने लेखक की दूरी मिटाने का हर संभव प्रयास करना होगा.
माधव कृष्ण, इतिहासकार विश्वविमोहन शर्मा जी के आवास पर साहित्य चेतना समाज द्वारा आयोजित संगोष्ठी, ३१ जुलाई २०२४
फोटो क्रेडिट: श्री वेद प्रकाश राय जी
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