तुम ना रोना
जब चली जाऊं मैं इस आलम से तुम ना रोना
रोएगी रूह मिरी क़सम से तुम ना रोना
लग जाती है ज़माने की दोस्ती को नज़र
मैं हूं तिरे खिलाफ इस भरम से तुम ना रोना
मुझे रूसवा और तन्हा तो कर ही दिया तुमने
दिल में धधकते अपने अहम से तुम ना रोना
हैं बिन बात के ही कुछ लोग ख़फ़ा तो क्या हुआ
महफूज़ हूं मैं खुदा की करम से तुम ना रोना
हुई हो बीना से कुछ ख़ता तो माफ़ करना
रह-रहकर दिल में उपजे अलम से तुम ना रोना।
स्वरचित रचना
बीना राय
गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश
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