समन्दर की थाह लेने चला तो था
कहां इस एक्वेरियम में फंस गया हूं
चकित हूं सब जानते हैं छल
जाल को ही समझते हैं जल
शाक्यमुनि को देखकर भी हम
पूछते हैं मछेरों से हल
गुत्थियां जिनकी नहीं सुलझीं
लिख रहे हैं सत्य की गाथा
प्रबल मन की शक्ति के आगे
घूमते हम लिए बल आधा
सूर्य तक की राह मेरी सरल ही थी
जुगनुओं के गांव में मैं बस गया हूं
पारितोषिक प्रशंसा से दूर
स्वयंदीपक टिमटिमाता है
अप्रतिम संसार बोध भरा
साधना में झिलमिलाता है
नाद इस ब्रह्माण्ड का उर में
अकेला ही खिलखिलाता है
भर्तृहरि को मुक्त हंसता देख
अहम अंदर तिलमिलाता है
मैं अपरिचित हूं स्वयं से ही अभी तक
परिचयों के दलदलों में धंस गया हूं
जंगलों में रात कटनी थी
और फिर घर को निकलना था
सुजाता की खीर खाकर ही
भूख का सागर निगलना था
देखना था दूर से बाजार
घूमकर सौदा न करना था
नहर घर तक खोद डाली जब
ग्राह तो घर में उतरना था
मोह की बरसात ने इतना भिगोया
पुरानी दीवाल जैसा भस गया हूं
गंध देता मुस्कुराता है
फूल विज्ञापन नहीं करता
निखरता है झूमता हिलता
टूटने से भी नहीं डरता
और हम नजरें बचाते हैं
नजर लगना भी हमारा भय
क्या मनुज ही श्रेष्ठतम कृति है
हो रहा है अब मुझे विस्मय
नदी के इस पार पल भर रुकी नौका
और मैं तट के किनारे बस गया हूं
छोड़ना होगा किसी दिन तट
फूट जायेगा किसी दिन घट
छिपाएंगे कब तलक पहचान
किसी दिन तो उठेगा घूंघट
यात्रा का लक्ष्य है अनुभव
पराभव के साथ है उद्भव
सत्य इनसे परे कितना है
निरंजन निर्दोष औ नीरव
काटने के लिए बेड़ी वक्त सबको है
और कारागार में ही बस गया हूं
माधव कृष्ण, द प्रेसीडियम इंटरनेशनल स्कूल अष्टभुजी कॉलोनी बड़ी बाग लंका गाजीपुर, गोवर्धन पूजा २०२५







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