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वरदान विफल हो सकता है लेकिन आशीर्वाद नहीं- लेखक श्री माधव कृष्ण ग़ाज़ीपुर उत्तरप्रदेश ~ Lav Tiwari ( लव तिवारी )

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गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

वरदान विफल हो सकता है लेकिन आशीर्वाद नहीं- लेखक श्री माधव कृष्ण ग़ाज़ीपुर उत्तरप्रदेश

साप्ताहिक मानव धर्म संगोष्ठी

स्थान: द प्रेसीडियम इंटरनेशनल स्कूल योग कक्ष, अष्टभुजी कॉलोनी, बड़ी बाग, लंका, गाजीपुर
समय: शाम 6:30 बजे से 9:30 बजे तक
आयोजक: नगर शाखा, श्री गंगा आश्रम, मानव धर्म प्रसार

गोष्ठी के निष्कर्ष व मनन के कुछ बिंदु:

१.. वरदान विफल हो सकता है लेकिन आशीर्वाद नहीं। इसलिए सदैव बड़ों से आशीष लेने का प्रयास करना है।

२. मन से दुविधा और संशय दूर करना है। इसके रहते मनुष्य सफल नहीं हो सकता। इसलिए गुरु से प्राप्त ज्ञान की गुदरी ओढ़कर मनुष्य संकल्प के साथ सन्मार्ग पर आगे बढ़ता है। संशयात्मा विनश्यति।

३. ॐ परमात्मा है, सर्वव्यापी है, ईश्वर है। ॐ का रहस्य अनंत है। ॐ का जप करने वाले ब्रह्मवादी की जाते हैं। विष्णु सहस्रनाम में उनका पहला नाम ॐ है। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में ॐ को ईश्वर का वाचक बताया है। भगवान श्रीकृष्ण ने ॐ को एक अक्षर ब्रह्म बताया है। ॐ में संसार के सभी शब्द समाहित हैं। सभी के अंदर ॐ है इसलिए सभी का सम्मान और सेवा निष्काम भाव से करना चाहिए।

४. ईश्वर और भक्तों के चरित्र और गुण में से किसी एक सूत्र को पकड़ कर अपने आचरण में आजीवन उतार लेने से ही ईश्वर प्राप्ति हो जाती है। बाबा गोरखनाथ कहते थे कि चादर के एक कोने को पकड़ लेने से पूरी चादर खींची जा सकती है। इसी तरह से सत्य, अहिंसा या किसी भी एक गुण को धारण कर लेने से सभी आध्यात्मिक गुण स्वतः आ जाते हैं।

५. भाषा, भूषा, भोजन, भजन, भाव से मनुष्य की पहचान होती है। वह भाषा बोलनी है, लिखनी है, वह वेश भूषा धारण करनी है, वही भोजन करना है और वही भाव रखना है जिससे भजन में सरलता हो।

६. धन का अर्जन आवश्यकता हो सकती है, लेकिन यह लक्ष्य नहीं हो सकता है। लक्ष्य तो केवल शांति और प्रेम ही हैं। इसीलिए सब कुछ होने के बाद भी मनुष्य ईश्वर की शरण में न रहने के कारण अशांत रहते हैं।

७. अपने आपको स्वीकार करने से अपनी गलती स्पष्ट दिखने लगती है। उस गलती को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। अपनी कमी को अपनी शक्ति बनाकर गुरु के कार्य में लग जाना चाहिए।

गोष्ठी में कुछ विषयों के संदर्भ निम्नवत हैं:
ज्ञान - गुदरी
अलख पुरुष जब किया विचारा,लख चौरासी धागा डाला |
पांच तत्व से गुदरी बीना,तीन गुनन से ठाढी कीन्हा ||
तामे जीव ब्रह्म अरु माया ,समरथ ऐसा खेल बनाया |
जीवन पांच पचीसों लागा ,काम क्रोध ममता मद पागा ||
काया गुदरी का विस्तारा ,देखो संतो अगम सिंगारा |
चंद सूर दोउ पेवन लागे ,गुरु प्रताप से सोवत जागे ||
शब्द की सुई सुरति का धागा ,ज्ञान टोप से सीयन लागा |
अब गुदरी की कर हुशियारी ,दाग न लागे देखू विचारी ||
सुमति की साबुन सिरजन धोई ,कुमति मैल को डारो खोई |
जिन गुदरी का किया विचारा ,तिनको मिला सिर्जन हारा ||
धीरज धुनी ध्यान करू आसन ,यत की कोपीन सत्य सिंहासन |
युक्ति कमंडल कर गहि लीन्हा ,प्रेम फावडी मुरशिद चीन्हा ||
सेली शील विवेक की माला ,दया की टोपी तन धर्मशाला |
मेहर मतंग मत बैशाखी ,मृगछाला मनही की राखी ||
निश्चय धोती पवन जनेऊ ,अजपा जपे सो जाने भेऊ |
रहे निरन्तर सद् गुरु दाया,साधु संगति करके कछु पाया ||
लौ कर लकुटी हृदया झोरी,क्षमा खडाऊ पहिर बहोरी |
मुक्ति मेखला सुरती शखिनी ,प्रेम पियाला पीवै मौनी ||
उदासी कुबरी कलह निवारी ,ममता कुत्ती को ललकारी |
युक्ति जंजीर बांधी जब लीन्हा ,अगम अगोचर खिरकी चीन्हा ||
वैराग त्याग विज्ञान निधाना ,तत्व तिलक निर्भय निरबाना |
गुरु गम चकमक मनसा तूला,ब्रम्ह अग्नि परगत कर मूला ||
संशय शोक सकल भ्रम जारा,पाँच पचीसों प्रगटे मारा |
दिल का दर्पण दुविधा खोई ,सो वैरागी पक्का होई ||
शून्य महल में फेरी देई ,अमृत रस की भिक्षा लेई |
दुःख सुख मेला जग के भाऊ ,तिरवेनी के घाट नहाऊ ||
तन मन शोधि रहे गलताना,सो लखी पावैं पुरुष पुराना |
अष्ट कमल दाल चक्कर शोधे ,योगी आप-आप में बोधे ||
इंगला के घर पिंगला जाई,सुषमनी सुरति रहै लौ लाई |
वोहं सोहं तत्व विचारा,बंक नाल में किया संभारा||
मन को मारि गगन चढ़ी जाई ,ममन सरोवर पैठी नहाई |
छुट गए कसमल मिले अलेखा ,यहि नैनन साहब को देखा ||
अनहद नाद शब्द की पूजा , गुरु समान कोई देव न दूजा ||
अहंकार अभिमान विहारा ,घाट का चौका किया उजियारा |
चित करू चन्दन तुलसी फूला ,हित करू सम्पुट तुलसी मूला ||
श्रद्धा चंवर प्रीति का धूपा ,नूतन नाभ साहेब का रूपा |
गुदरी पहिरे आप आलेख ,जिन यह प्रगट चलायो भेषा ||
साहब कबीर बख्श जब दीन्हा ,सुर नर मुनि सब गुदरी लीन्हा |
ज्ञान गुदरी पढ़े प्रभाता जनम जनम के पातक जाता ||
ज्ञान गुदरी पढ़े मध्याना ,सो लखी पावै पद निरबाना |
साँझा सुमिरन जो नर करै ,कहै कबीर भाव सागर तरै ||

माला टोपी सुमिरनी ,गुरु दिया बखशीश |
पल पल गुरु को बंदगी चरण नवावो शीश।।
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पितृ यज्ञ हिंदू धर्म के पंच-महायज्ञों में से एक है, जो अपने पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति श्रद्धा और सम्मान व्यक्त करने के लिए किया जाता है. इसमें तर्पण, पिंडदान, और श्राद्ध जैसे कार्य शामिल हैं, जिनके माध्यम से पूर्वजों को जल, अन्न आदि अर्पित किए जाते हैं. यह न केवल पितरों के प्रति सम्मान है, बल्कि संतानोत्पत्ति और उनकी सही शिक्षा-दीक्षा से पितृ ऋण चुकाने का भी एक तरीका है.
पितृ यज्ञ का अर्थ
पूर्वजों का सम्मान:
पितृ यज्ञ अपने पितरों, माता-पिता और गुरुजनों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करने का एक माध्यम है.
श्राद्ध और तर्पण:
यह अपने मृत पूर्वजों को जल, अन्न, दूध और अन्य वस्तुएं अर्पित करने की क्रिया है, जिसे श्राद्ध और तर्पण कहा जाता है.
पितृ ऋण से मुक्ति:
पितृ यज्ञ को संतानोत्पत्ति और बच्चों की अच्छी परवरिश के माध्यम से चुकाए जाने वाले पितृ ऋण से मुक्ति के रूप में भी देखा जाता है.
पितृ यज्ञ कैसे किया जाता है
तर्पण:
इसमें जल और अन्य सामग्री लेकर पूर्वजों को अर्पण किया जाता है, यह मानते हुए कि इससे वे तृप्त होते हैं.
पिंडदान:
यह पूर्वजों को चावल के गोल पिंड अर्पित करने की प्रथा है, जिससे आत्माओं को शांति मिलती है.
श्राद्ध:
यह एक विस्तृत अनुष्ठान है, जिसमें ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है और पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाती है.
महत्व
पूर्वजों का आशीर्वाद:
पितृ यज्ञ करने से पूर्वजों की आत्मा को शांति मिलती है और उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है, जो जीवन में सुख और समृद्धि लाता है.
जीवन में प्रगति:
यह पूजा जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर करती है और पेशेवर तथा करियर के क्षेत्र में प्रगति के अवसर प्रदान करती है.
नकारात्मक कर्मों का प्रभाव कम होना:
माना जाता है कि पूर्वजों से मिले नकारात्मक कर्म संस्कारों के प्रभाव से मुक्ति पाने के लिए पितृ यज्ञ एक प्रभावी तरीका है.
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यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।9.25।।जो भक्त अन्य देवताओंकी भक्ितके रूपमें अविधिपूर्वक भी मेरा पूजन करते हैं उनको भी यज्ञका फल अवश्य मिलता है। कैसे ( सो कहा जाता है -- )

जिनका नियम और भक्ित देवोंके लिये ही है वे देवउपासकगण देवोंको प्राप्त होते हैं। श्राद्ध आदि क्रियाके परायण हुए पितृभक्त अग्निष्वात्तादि पितरोंको पाते हैं। भूतोंकी पूजा करनेवाले विनायक? षोडशमातृकागण और चतुर्भगिनी आदि भूतगणोंको पाते हैं तथा मेरा पूजन करनेवाले वैष्णव भक्त अवश्यमेव मुझे ही पाते हैं। अभिप्राय यह कि समान परिश्रम होनेपर भी वे ( अन्यदेवोपासक ) अज्ञानके कारण केवल मुझ परमेश्वरको ही नहीं भजते इसीसे वे अल्प फलके भागी होते हैं।