महाकुम्भ
भारतीय मनीषियों ने ज्ञान और प्रकाश को सर्वोच्च स्थान दिया है. लेकिन लगातार बदल रहे समय, परिस्थितियों में ज्ञान प्रासंगिक नहीं रह जाता. उसमें जड़ता आ जाती है. न्यूटन के जड़त्व के नियम के अनुसार, गति की स्थिति में परिवर्तन का विरोध करने की यह प्रवृत्ति जड़ता है. प्रत्येक वस्तु तब तक स्थिर या एक सीधी रेखा में एक समान गति में रहेगी जब तक कि उसे किसी बाहरी बल की कार्रवाई से अपनी स्थिति बदलने के लिए मजबूर नहीं किया जाता है. जड़ता कट्टरता, मतान्धता और अन्धविश्वास को जन्म देती है. ठहरा हुआ पानी भी सड़ने लगता है. जैसे नदी अपने स्रोत से जुड़ी रहकर भी गतिशील रहती है और अपनी गंदगी को दूर करती है, उसी प्रकार हम भी परम्पराओं से जुड़े रहकर आधुनिक दृष्टिबोध के साथ अपना निर्मलीकरण करते हैं.
भारतीय संस्कृति ने ज्ञान की गतिशीलता और प्रासंगिकता के लिए नियमित अर्ध कुम्भ, कुम्भ और महाकुम्भ मेलों की परम्परा रखी. यही उस नियम का ‘बाहरी बल’ है. इन मेलों का ऐतिहासिक मूल महानतम दार्शनिक आदि शंकर द्वारा स्थापित विद्वान संन्यासियों की संस्था में है जो नियमित रूप से विभिन्न सिद्धांतों की विवेचना और वाद-विवाद के लिए गठित की गयी थी. इन पर विमर्श होने के बाद स्वीकृत सिद्धांत सभी सम्प्रदायों द्वारा स्वीकार किये जाते थे. ज्ञान, भक्ति, वैराग्य पर किसी विशेष वर्ग का अधिकार न रहे और यह सबके लिए सुलभ रहे, इसलिए इन मेलों को सार्वजनिक स्थान पर संगम के किनारे आयोजित किया जाता है जहाँ रहकर कोई भी व्यक्ति ज्ञानसभा का लाभ उठा सकता है.
संगम का अर्थ ही है: सम्मिलन. जैसे अपनी विभिन्नताओं के बाद भी गंगा, यमुना और सरस्वती एकरूप होकर नहाने वालों को लाभ पहुंचाती हैं, उसी प्रकार अपनी सांस्कृतिक और वैयक्तिक विभिन्नताओं के बाद भी प्रत्येक मनुष्य आध्यात्मिक रूप से एक है. ऋग्वेद के मन्त्र 10/191/3 के अनुसार, “संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् | देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते.” हम सब एक साथ चलें, एक साथ बोलें, हमारे मन एक हों, जिस प्रकार पहले के विद्वान/देवता अपने नियत कार्य के लिए एक होते थे, उसी प्रकार हम भी साथ में मिलते रहें. एक होकर रहने में ही सबका हित है। हम जब अपने ज्ञान के साथ अपनी कुटिया में बैठे रहते हैं, तब ज्ञान की व्यावहारिक उपयोगिता सिद्ध नहीं होती है. इसलिए ज्ञान को लेकर जगद्गुरु श्रीकृष्ण की भांति जीवन-युद्ध के कुरुक्षेत्र में उतरना पड़ता है. जिस आध्यात्मिकता से मनुष्य मात्र की प्रत्येक समस्या का समाधान नहीं मिल सकता, वह आध्यात्मिकता व्यर्थ वायवीय चिन्तन से अधिक कुछ नहीं है.
महाकुम्भ में कुम्भ का अर्थ है: कलश या घड़ा. यह कलश हमारे शरीर का प्रतीक है. संत रामानंद के महान शिष्य ने भी शरीर के लिए इस रूपक का प्रयोग किया है: जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी। फूटा कुंभ जल जल ही समाया , यह तथ कथ्यो ज्ञानी।। कामना, क्रोध और लोभ के वशीभूत होने के कारण इस कुम्भ में विकार, दुर्गुण जैसे विष भरते जाते हैं. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अमृत की कुछ बूँदें संगम में गिर गयी थीं. महाकुम्भ में स्नान करने से शारीरिक अशुद्धियाँ दूर होती हैं, विभिन्न संतों की अमृतमयी वाणी और उनके साहचर्य से मानसिक शुद्धि होती है. और इस प्रकार हमारे कुम्भ या शरीर में पुनः अमृत भर जाता है. ‘जस की तस धर दीन्ही चदरिया’ के लिए आवश्यक है आत्मा पर जमती जा रही धूल को साफ़ करना, और यही महाकुम्भ का उद्देश्य है.
महाकुम्भ के जीवित कैनवास पर पारम्परिक संगीतों, दर्शन, धर्म, उल्लास, अनुष्ठानों, प्रार्थनाओं, दान इत्यादि के मानवीय रंगों से सत्य की शाश्वत खोज के चित्र उकेरे जाते हैं. भौगोलिक, वैयक्तिक, धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक सीमाएं लांघकर आने वाले करोड़ों लोगों के “मैं कुछ हूँ” का भाव महाकुम्भ में विगलित हो जाता है. मैं कुछ हूँ या फिर देखने वाला किसी दृश्य से एकात्मता स्थापित कर ले, इसे ही महर्षि पतंजलि ने अपने योगदर्शन में ‘अस्मिता’ नामक क्लेश बताया है. इस क्लेश के कारण ही हमने स्वयं को विशुद्ध आत्मा या मनुष्य मानने के स्थान पर, किसी विशेष जाति या धर्म या शरीर या लिंग या भाषा या राष्ट्र या विचारधारा का मान लिया. इस प्रकार हम अपने को विशेष और दूसरों से अलग मानकर उनसे द्वेष या राग करने लगे. ऐसे क्लेश दूर करने का एकमात्र उपाय है: क्रियायोग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान की त्रयी. पवित्र नदियों की त्रयी पर यह क्रियायोग बड़ी सहजता से मिल जाता है. महाकुम्भ में करोड़ों लोगों के बीच अपने कुछ होने का भान ही नहीं रहता.
मनुष्यता जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं, की विभिन्न धाराओं की एकसूत्रता का केंद्र महाकुम्भ है. अलग-अलग मतों, इष्टों में विभाजित अखाड़ों में एक अखाड़ा गुरुनानक देव जी के पुत्र चंद्रदेव जी का उदासीन अखाड़ा भी है. यह तथ्य भारतभूमि पर पनपने वाले सभी धर्मों सम्प्रदायों की एकता का शंखनाद करता है. जाति, वर्ण, वर्ग और धार्मिक उपेक्षा संगम की पवित्र जलधारा में बह जाती हैं. तीन नदियों की एक धारा दर्जनों घाटों से बहती है और उसमें सैकड़ों जातियों के करोड़ों मनुष्य अपनी अहमन्यता छोड़कर नहाते हैं. अस्तित्त्व के सनातन प्रवाह में महाकुम्भ का जीवंत महोत्सव हमसे दुराग्रह, जड़ता और संकीर्णता त्यागकर ज्ञान-भक्ति-वैराग्य का अमरत्व लेने के लिए प्रेरित करता है. यह अमृत ही हमें सदा चलने वाले देवासुर संग्राम में आसुरी शक्तियों को परास्त करने के लिए आवश्यक ऊर्जा और शक्ति देता है. महाकुम्भ हमें आत्मावलोकन का अवसर देता है. हम सब एक हैं और महाकुम्भ इसका जीवंत दस्तावेज है.
-माधव कृष्ण, २४ दिसम्बर २०२४, गाजीपुर
In Annual Function of The Presidium International School Ashtabhuji Colony Badi Bagh Lanka Ghazipur
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