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lav Lav Tiwari ( लव तिवारी )

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शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

जीवन ब्लैक एंड वाइट नहीं है: दो समाजसेवी और एक मृत कार्यकर्ता- माधव कृष्ण १२ सितम्बर २०२५ गाजीपुर

जीवन ब्लैक एंड वाइट नहीं है: दो समाजसेवी और एक मृत कार्यकर्ता

जो पुल बनाएँगे
वे अनिवार्यत:

पीछे रह जाएँगे।
सेनाएँ हो जाएँगी पार

मारे जाएँगे रावण
जयी होंगे राम,

जो निर्माता रहे
इतिहास में

बंदर कहलाएँगे।
(अज्ञेय)

(१)
कुंवर वीरेंद्र सिंह, शीर्षदीप

यह बहुत पहले मेरे सीनियर कल्पेश गज्जर ने कहा था जब मैंने एक कंपनी छोड़ते हुए कहा था कि यहां बहुत राजनीति है। उसने कहा था कि, ब्लैक एंड वाइट जैसा कुछ भी नहीं होता जीवन में। यह सब कुछ जीवन का हिस्सा है, या तो आप इसके साथ सहज बनो या आप खेल से बाहर हो जाओ।

इस बीच गाजीपुर में दो घटनाएं हुईं। पहली घटना जिसमें गाजीपुर के समाजसेवी द्वय कुंवर वीरेंद्र सिंह जी और रक्तवीर शीर्षदीप की सेवाओं को लेकर प्रश्नचिह्न खड़े किए गए। इस पर बहुत सारी चर्चाएं हुईं और एक दिन यह समाचार पत्रों के स्थानीय संस्करण की मुख्य घटना भी बना।

शीर्षदीप ने एक दिन कहा कि, भैया! कुछ लोगों ने इस घटना पर चुप्पी साध ली और हमारे पक्ष में कुछ भी नहीं लिखा। वास्तव में, मैं और डॉ. छत्रसाल सिंह 'क्षितिज' इस पर चर्चा कर रहे थे और हम दोनों इस विषय पर एकमत थे कि किसी घटना को एकांगी तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए।

चिकित्सालय के प्रभारी को प्रशासनिक अधिकार है कि वह अस्पताल की सुरक्षा के लिए नियम बनाएं और उनका क्रियान्वयन करें। लेकिन कोलकाता के चिकित्सालय की घटना का यह अर्थ नहीं कि प्रत्येक समाजसेवी कटघरे में खड़ा किया जाए।

गाजीपुर के जिलाधिकारी ने इस पर तर्कसंगत निर्णय देते हुए कहा था कि ऐसे समाजसेवियों के लिए पहचान पत्र जारी होगा जिससे उनके उत्साह और सेवा की भावना पर रोक न लगे।

अब सच तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत राय ही रख सकता है। शोध में प्राथमिक स्रोत और सूचना का सर्वाधिक महत्व होता है। व्यक्तिगत रूप से मैंने एक बार कॉलोनी में एक मरणासन्न बछड़े के लिए कुंवर वीरेंद्र सिंह से सहायता मांगी थी और वह तुरंत पशुपालन विभाग से एक चिकित्सक लेकर आ गए थे जिससे बछड़े का जीवन बच गया।

यह वह समय था जब मैं गाजीपुर में रहना सीख रहा था। कुंवर साहब ने न तो मुझसे कोई सुविधा शुल्क लिया और न ही किसी तरह के प्रशंसा की अपेक्षा की। बाद में उन्होंने जिस तरह से शवों के अंतिम संस्कार के लिए स्वयं को समर्पित किया वह एक बहुत बड़ा कार्य है।

शीर्षदीप के रक्तदान से संबंधित समाजसेवा पर मैंने कुछ दिन पूर्व ही एक पोस्ट लिखा था और कहा था कि, एक अत्यधिक घातक परिस्थिति में शीर्षदीप ने मेरे एक मित्र को रक्त उपलब्ध कराया था। उन्होंने न ही कोई धन लिया और न ही किसी तरह का मानपत्र। मिलते ही गले लग जाना, चरण स्पर्श करना, भैया कहकर सम्मान देना, यह सब असाधारण है।

इसलिए व्यक्तिगत रूप से मैं उन दोनों समाजसेवियों का प्रशंसक हूं। मैं प्राचार्य श्री मिश्रा जी की सावधानी और आर जी के अस्पताल जैसी घटनाओं की पुनरावृति न होने देने के संकल्प की सराहना करता हूं, लेकिन यदि उनके किसी लिखित या मौखिक आदेश से इन दो समाजसेवियों की गरिमा को ठेस पहुंचती है या उनकी सेवा में बाधा पहुंचती है तो यह निःसंदेह समाज की हानि होगी।

शीर्षदीप और वीरेंद्र जी से यही निवेदन होगा कि अपना कार्य करते रहें। समाज एक लंबे समय तक परीक्षा लेता है और उस परीक्षा में हर समाजसेवी को अपने संकल्प, चरित्र और लक्ष्य के साथ अनन्य भाव से खड़े रहकर, बिना किसी दुर्भावना के उत्तीर्ण होना पड़ता है। यह एक लंबी प्रक्रिया है।

(२)
स्वर्गीय सीताराम उपाध्याय

दूसरी घटना जिसमें नोनहरा के थाना प्रभारी और सिपाही की तथाकथित पिटाई से भाजपा कार्यकर्ता सीताराम उपाध्याय जी की मृत्यु हो गई, ने पूरे गाजीपुर भाजपा के कार्यकर्ताओं में उबाल ला दिया। उनका क्रोध भी वैध है। आखिर अपनी सरकार में अपने ही कार्यकर्ता की पिटाई कोई भी पार्टी कैसे देख सकती है, वह भी मृत्यु हो जाने तक।

मेरी पूरी संवेदना उपाध्याय जी के परिवार के साथ है। पुलिसिया बर्बरता स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक है। हिंसा लोकतंत्र के लिए घातक है चाहे वह कार्यकर्ताओं की हो या प्रशासन की। यदि प्रशासन शांतिपूर्ण प्रदर्शन और धरने की अनुमति नहीं दे सकता है तो इसका अर्थ है कि वह असहमति की अनुमति नहीं देना चाहता।

यह असहमति की सहिष्णुता ही लोकतांत्रिक स्थिरता का आधार है। प्रथम दृष्टया नोनहरा पुलिस प्रभारी इसमें असफल सिद्ध हुए हैं। यदि यह विरोध उनके विरुद्ध ही था तो भी उन्हें इसे स्वीकार करना चाहिए था, प्रदर्शनकारियों को सुनना चाहिए था।

भाजपा के सबसे निष्ठावान कार्यकर्ता का भी भाजपा के स्थानीय नेताओं के विरुद्ध आक्रोश से भरा संदेश व्हाट्सएप और फेसबुक पर घूम रहा है। भाजपा के एक स्थानीय नेता का यह कहना कि इस धरने से भाजपा संगठन का कोई संबंध नहीं है, सभी को चुभने लगा है । लेकिन मुझे उनके इस वक्तव्य में कोई समस्या नहीं दिखती है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना हो गई लेकिन जब संगठन का नेतृत्व धरना प्रदर्शन निर्धारित करता है तभी वह उसे भाजपा का धरना प्रदर्शन कह सकता है। लेकिन इसके साथ यह बात भी ध्यातव्य है कि एक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं की समस्या पूरे संगठन की समस्या क्यों नहीं बन पाई और स्थिति यहां तक पहुंच गई। क्या कार्यकर्ता और संगठन अलग अलग हैं?

सारी बात फिर वहीं आकर खड़ी हो जाती है, ब्लैक एंड वाइट के मध्य एक ग्रे क्षेत्र। यहां खड़े होकर दोनों पक्षों को देखना होगा। दोनों के पास अपने अपने तर्क हैं और ये ग्रे तर्क ही जीवन हैं। किसी एक पक्ष को सार्वभौम सत्य नहीं कहा जा सकता और न ही दूसरे पक्ष को पूरी तरह से खारिज किया जा सकता है।

उपाध्याय जी का मरना इसलिए भी दुख दे रहा है क्योंकि पूंजीवाद के समय में राजनैतिक और वैचारिक निष्ठाओं का कोई मूल्य नहीं रह गया है। धन देकर लोग दल बदल लेते हैं, ठेके पाने लगते हैं, पुरस्कृत हो जाते हैं, उपमुख्यमंत्री बन जाते हैं, विधायक और संसद बन जाते हैं। लेकिन वर्षों से पुल बना रहे कैडर के लोग बंदर बनकर उछलते कूदते और हाथ मिलते रह जाते हैं।

भाजपा का यह पुराना रोग है। उपराष्ट्रपति के लिए जगदीप धनखड़ को चुना गया जो कि देवीलाल के विश्वस्त सहयोगी थे। पुराने भाजपाई मुंह ताकते रहे। बहरहाल, राजनीति बहुत जटिल है। इसलिए राजनैतिक क्षेत्रों में काम करने वाले जमीनी लोगों से यही कहना है कि राजनीति के खेल को समझें और उसे खेल की तरह खेलें, अपना जीवन न बना लें।

और यदि आपने राजनीति को जीवन बना लिया है तब साम दाम दंड भेद के माध्यम से इसे बढ़िया से खेलें। और अपनी जीविका के साथ समझौता मत कीजिए यदि आप निष्ठावान कार्यकर्ता हैं। यदि आप एक महत्तर लक्ष्य के लिए राजनीति में हैं फिर तो और सभी बातें बेमानी हो जाती है।

अंत में, एक आदर्श सिद्धांत....
पतंजलि योग सूत्र का समाधिपाद कहता है:

स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः

बहुत समय तक निरन्तर और श्रद्धा के साथ सेवन किया हुआ वह अभ्यास दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है। किसी भी कार्यक्षेत्र में यह सूत्र बिल्कुल खरा उतरता है। बल और उत्साह से युक्त वह अभ्यास कैसे साधक को योग में प्रतिष्ठित करेगा इस पर महर्षि कहते हैं कि एक बार के अभ्यास से कुछ भी होने वाला नहीं है |

लम्बे समय तक, निरंतरता पूर्वक, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, तप और विद्यापुर्वक अनुष्ठान किया हुआ होना चाहिए वह अभ्यास | ऐसा अभ्यास ही दृढ भूमि वाला होता है | दृढ भूमि से आशय है कि ऐसा अभ्यास जिसका आधार दृढ है | एक बार मुझे मेरे गणित के अध्यापक सरीखन यादव सर ने समझाते हुए कहा था कि बार बार कार्यक्षेत्र बदलना बंद कर, एक ही दिशा में प्रयास करो।

साधक में बल भी है और उत्साह भी लेकिन कभी कभी योग में प्रवृत होने का अभ्यास करता है तो ऐसा अभ्यास उसे योग में गतिमान नहीं कर सकता है | इसलिए लम्बे समय और निरंतरता के साथ, श्रद्धा, तप, ब्रह्मचर्य और विद्यापुर्वक किया गया अभ्यास ही फलदायी होता है |

हम लोग थोड़े बहुत प्रयास के बाद टूट जाते हैं, संकल्पों की इतिश्री कर देते हैं और बाद में पछताते हैं... अचानक से कुछ संस्कार अत्यंत वेग से आते हैं और हमारी उर्जा उस आंधी, तूफ़ान में नष्ट हो जाती है फिर ग्लानि भाव, अपराध बोध से हमारा सारा चित्त मलिन हो जाता है |

इसका केवल एक ही कारण है कि हमने जो संकल्प लिए और उन संकल्पों की पूर्ति हेतु जो अभ्यास हमने किया था उसका आधार बहुत ही कमजोर था जो व्युत्थान के समय उठने वाले परिस्थितियों की मार को सहन नहीं कर पाया |

यदि हमने अभ्यास श्रद्धा,तप,विद्या और ब्रह्मचर्यपूर्वक किये हों तो हमारी स्थिति व्युत्थान संस्कारों में भी अडिग रहती है | हमें अपने आधार मजबूत करने होंगे, बार बार गिरकर भी उतनी ही दृढ़ता से उठना होगा, संभलना होगा और पुनः जुट जाना होगा अपनी वास्तविक स्थिति को पाने के लिए | यह केवल योग के ऊपर ही लागू नहीं होता, यह प्रत्येक उस स्थिति पर लागू होता हैं जहाँ भी हमने अपने संकल्पों को संजोया होगा|

हमारे भीतर हार के संस्कार बहुत प्रबल हैं इसलिए जब भी साधक कोई संकल्प के साथ अपने अभ्यास आरंभ करता है तो पिछले हार के संस्कार और संकल्प के विरुद्ध में संस्कार एकसाथ मिलकर साधक को डिगाने का काम करते हैं और यदि साधक के भीतर तीव्र अभीप्सा नहीं है अपने संकल्प को पूर्ण करने की तो हवा के एक झटके में सबकुछ नष्ट हो जाता है |

सूत्र में एक शब्द आया है सत्कार- यह बहुत ही सुन्दर शब्द है | जब भी हमारे घर में कोई अतिथि आता है तो हम उसका सत्कार करते हैं | हम आथित्य सत्कार तभी कर सकते हैं जब मन में अतिथि को लेकर श्रद्धा का भाव हो, उसका आगमन प्रसन्नता देता हो, मन निश्चल हो तब अपनी सुविधाएँ कम करके भी अतिथि की सेवा करये हैं|

अभ्यास, सेवा, कार्यक्षेत्र के प्रति भी जब हमारा मन इतने ही श्रद्धा भाव से भरा हुआ होगा, तब हम इन्हें प्रथम वरीयता देंगे, उसके रक्षणार्थ हम तप करने को भी प्रतिबद्ध हों, अभ्यास की महिमा का ज्ञान हमें भली भांति हो तभी हम अभ्यास की रक्षा कर सकते हैं और ऐसा सत्कारपूर्वक किया गया अभ्यास हमारी रक्षा करता है |

फिलहाल, मेरे लिए यह समय इन दोनों समाजसेवियों और सभी जमीनी कार्यकर्ताओं के साथ मेरे व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर खड़े होने का है जिससे ये सभी समाजसेवा के क्षेत्र में एक लंबी पारी खेल सकें।

माधव कृष्ण, १२ सितम्बर २०२५, गाजीपुर

डॉक्टर शिवपूजन राय मुल्कपरस्ती का पैग़ामबर- सरफ़राज़ अहमद आसी यूसुफ़पुर मुहम्मदाबाद ज़िला ग़ाज़ीपुर

76★#डॉक्टर_शिवपूजन_राय –
मुल्कपरस्ती का पैग़ामबर
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शहादत ऐसा अज़ीम मरतबा है जो इंसान को फ़ना से बक़ा तक पहुँचा देता है। वतन की मिट्टी पर अपनी जान लुटा देने वाले अफ़राद सिर्फ़ तारीख़ के अवराक़ तक महदूद नहीं रहते, बल्कि क़ौम के दिलों की धड़कन बनकर हमेशा ज़िंदा रहते हैं। हिंदुस्तान की आज़ादी की जंग में न जाने कितने जाँबाज़ ऐसे हैं, जिनके नाम सुनहरे हरफ़ों में लिखे गए और कुछ ऐसे भी जिनकी याद वक़्त की गर्द में धूमिल हो गई।

तारीख़े-हिंद आज़ादी के सफ़हात उन अमर सपूतों के ख़ूने जिगर से सुर्ख़रु हैं जिन्हों ने अपनी क़ुर्बानियों से वतन की आबरू को महफ़ूज़ किया। ग़ुलामी की तीरगी को चीर कर आज़ादी की सहर का पैग़ाम देने का काम किया। उन्हीं वतन परस्त पैग़ाम्बरों में ग़ाज़ीपुर ज़िले की तहसील मुहम्मदाबाद की सरज़मीन से भी कई अज़ीम सपूत निकले, जिन्होंने आज़ादी की तहरीक में अपनी जानों का नज़राना पेश किया। इन्हीं में से एक बुलंद हौसलों वाला नौजवान डॉक्टर शिवपूजन राय थे, जिन्हों ने अपनी निहायत कम उम्री में वो कारनामा अंजाम दिया, जिसे हिंदुस्तान की अवाम सदियों सदियों याद करती रहेगी।

डॉक्टर शिवपूजन राय की पैदाइश 1 मार्च 1913 को ग़ाज़ीपुर ज़िले के क़स्बा शेरपुर के एक जांबाज़ वतनपरस्त भूमिहार ख़ानदान में हुई। बचपन से ही उनमें इल्मी तलब और मुल्की सरोकार की झलक नुमायाँ थी। इल्म की तलाश ने उन्हें तालीमी मराहिल से गुज़ारा, मगर उनके दिल का मक़सद महज़ शख़्सी तरक़्क़ी नहीं था। वह हर वक़्त इस सोच में रहते कि मुल्क किस तरह ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद होगा।

बचपन ही से शिवपूजन राय पर सरफ़रोश इंक़लाबियों की क़ुरबानियों का असर था। मंगल पांडे, चंद्रशेखर आज़ाद और रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, अशफ़ाक़ुल्ला ख़ान जैसे पुरनूर चेहरे उनके ज़हन में समाये हुए थे। यही वजह थी कि तालीम के साथ-साथ वह सियासी शऊर और इंक़लाबी रहनुमाओं की सोहबत में भी पेश-पेश रहे।

सन 1942 में जब मुल्क की सियासी फ़िज़ा "भारत छोड़ो आंदोलन" की गूंज से गूँज रही थी, उस वक़्त शिवपूजन राय नौजवानों की पहली सफ़ में खड़े थे। उनकी क़ाबिलियत और सरगर्मी का ये आलम था कि उन्हें उसी साल ज़िला कांग्रेस कमेटी का महासचिव मुन्तख़ब किया गया। यह कोई मामूली इज़्ज़त अफ़ज़ाई नहीं थी, बल्कि नौजवान लीडरशिप की एक बुलंद मिसाल थी।

महासचिव बनने के बाद डॉक्टर शिवपूजन राय ने गाँव-गाँव, कूचों-कूचों में नौजवानों को एकजुट होने का आह्वान किया। वह लोगों को बताते कि "ग़ुलामी का बोझ सिर्फ़ बेड़ियों से नहीं होता बल्कि क़ौम की रूह पर भी पड़ता है हमारी आत्मा को भी मजरूह करता है"। वह इंक़लाबी जज़्बे से लबरेज़ अवाम में ख़िताब करते और कहते: "वतन की ख़िदमत से बड़ी कोई इबादत नहीं, और अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी हासिल करना हमारी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी और मक़सद है।"

अगस्त 1942 का माहौल हिन्दुस्तान की तारीख़ में एक इंक़लाबी मोड़ साबित हुआ। महात्मा गांधी की पुकार "अंग्रेज़ो भारत छोड़ो" ने पूरे मुल्क में चिंगारी भड़का दी। जगह-जगह नौजवान, बूढ़े, औरतें, मर्द सब अपनी जान हथेली पर लेकर आज़ादी की जंग में कूद पड़े।

इसी माहौल में 18 अगस्त 1942 को डॉक्टर शिवपूजन राय ने भी नौजवान इंक़लाबियों के साथ मुहम्मदाबाद तहसील का रूख़ किया। उनकी नज़र में तहसील का आलमी मरकज़ एक ऐसी जगह थी जहाँ तिरंगा फहराना ग़ुलामी की बुनियादों को हिला देने वाला काम था।

वह अपने हमराह वतनपरस्तों श्री वंश नारायण राय, श्री वंश नारायण राय द्वितीय, श्री वशिष्ठ नारायण राय, श्री ऋषिकेश राय, श्री राजा राय, श्री नारायण राय और श्री रामबदन उपाध्याय― के साथ तहसील के अहाते में दाख़िल हुए। भीड़ जोश से नारे बुलंद कर रही थी: "भारत माता की जय", "जय हिंद" और "इंक़लाब ज़िंदाबाद"।
तहसील के बाहर मौजूद अंग्रेज़ सिपाही और अफ़सर बौखला उठे। उन्होंने भीड़ को ख़बरदार किया कि आगे बढ़ना मौत को दावत देना है। लेकिन नौजवानों की आँखों में मौत का ख़ौफ़ नहीं, बल्कि आज़ादी का जुनून था, सरफ़रोशी की तमन्ना उनके दिलों में मचल रही थी।

डॉक्टर शिवपूजन राय तिरंगे को हाथों में थामे क़दम दर क़दम तहसील की छत की जानिब बढ़े। उनकी शख़्सियत में वो जुरअत थी जो दुश्मन की गोलियों की बौछारों को भी मात दे रही थी। तहसीलदार ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर निकाली और सीधा डॉक्टर शिवपूजन राय की छाती पर निशाना साधा।

एक, दो नहीं बल्कि पाँच गोलियाँ उनके सीने में उतारी गईं। वह ज़ख़्मी होकर भी तिरंगे को ज़मीन पर गिरने न दिए। 29 बरस का यह नौजवान जब सरज़मीने-वतन की ख़ाक पर गिरा तो उसकी आख़िरी सांस भी मुल्क की आज़ादी के तराने से गूँज रही थी।

ग़ाज़ीपुर की धरती ने उस दिन आठ शहीदों को अपने दामन में समेट लिया। इस तारीख़ी आज़ादी की लड़ाई में उनके साथ उनके साथियों ने भी वतन के नाम पर अपनी जानें क़ुर्बान कीं। शहीद पार्क मुहम्मदाबाद में सभी के मुजस्समें उनकी शहादत की यादगार की शक्ल में आज भी खड़े हैं। यह आठों जाँबाज़ “अष्ट शहीद” के नाम से आज भी मुहम्मदाबाद की तारीख़ में याद किए जाते हैं।

शिवपूजन राय की शहादत का असर महज़ ग़ाज़ीपुर तक सीमित न रहा। पूरे पूर्वांचल में यह वाक़िया एक तूफ़ान की तरह फैला। नौजवानों ने समझ लिया कि अंग्रेज़ों की गोलियाँ आज़ादी के रास्ते की रुकावट नहीं बन सकतीं। उनकी शहादत से हौसले बुलंद हुए और आन्दोलन ने नई रफ़्तार पकड़ ली।

मुहम्मदाबाद का ये ख़ून में नहाया हुआ मंज़र सिर्फ़ एक हादसा नहीं था, बल्कि इसने ग़ाज़ीपुर और बलिया की ज़मीन को अंग्रेज़ी ग़ुलामी से आज़ाद कर दिया। कुछ दिन तक कांग्रेस राज का एलान चलता रहा, मगर फिर अंग्रेज़ी फ़ौज जिला मजिस्ट्रेट मुनरो और चार सौ बलूची सिपाहियों के साथ शेरपुर पर चढ़ आई। वहाँ लूटपाट, आगज़नी और क़त्लेआम का ऐसा आलम बरपा कि तारीख़ का एक काला सफ़हा बन गया। अस्सी मकान जला दिए गए, चार सौ उजाड़ दिए गए और मासूम औरतें-बच्चे तक रहम से महरूम रहे।

सन 1945 में नेशनल हेराल्ड ने इस ज़ुल्म को “ग़ाज़ीपुर की नादिरशाही” कहा। लेकिन अफ़सोस, अख़बारों ने भी शहीदों के नाम और उनकी तादाद को सही तौर पर दर्ज नहीं किया। यही वो बे-इंसाफ़ी थी जिसने इन गुमनाम फ़िदाइयों को तारीख़ के हाशिए पर धकेल दिया।

हक़ीक़त ये है कि इस मुल्क की हुकूमतें हर साल लाल क़िले पर झंडा तो फहराती रहीं, मगर मुहम्मदाबाद और शेरपुर के इन नौजवानों की कुर्बानियों को याद करने का वक़्त किसी ने न निकाला। ये न किसी नवाबी घराने के बेटे थे, न किसी दौलतमंद ख़ानदान के वारिस। ये तो किसानों और ज़मींदारों के फ़रज़ंद थे, जिन्होंने अपनी मिट्टी को माँ समझा और उस माँ की हिफ़ाज़त के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी।

डॉक्टर शिवपूजन राय की ज़िन्दगी और शहादत हमें यह पैग़ाम देती है कि मुल्कपरस्ती महज़ नारे लगाने का नाम नहीं, बल्कि अपनी जान और माल को वतन पर कुर्बान करने का हौसला माँगती है। उनकी शख़्सियत इस बात का सबूत है कि अगर इरादे पक्के हों तो ग़ुलामी की कोई ताक़त आज़ादी की राह में आड़े नहीं आ सकती।

“क़ौमें अपनी कुर्बानियों से ज़िन्दा रहती हैं। अगर शहीदों के ख़ून की ताज़ा ख़ुशबू नस्ल-ए-जदीद तक न पहुँचे, तो आज़ादी का फूल भी मुरझा जाता है। आज की नौजवान नस्ल अगर अमर शहीद डॉक्टर शिवपूजन राय के किरदार से सबक ले तो हर एक दिल में वतन की मुहब्बत और क़ुर्बानी का जज़्बा फिर से ज़िंदा हो सकता है। आज़ादी की हिफ़ाज़त सिर्फ़ शहीदों के लहू से नहीं, बल्कि हमारी मिल्लत, वफ़ादारी और मुल्क से वाबस्तगी से भी होती है।

फ़ख़्र और ख़ुशी की बात है कि आज भी शेरपुर और मुहम्मदाबाद के लोग आपस में मिलकर अपने शुहदा और मुल्क-परस्ती के पैग़ामबर डॉक्टर शिव पूजन राय की याद ताज़ा करते हैं। हर साल 18 अगस्त को अक़ीदत और एहतराम के साथ यौमे शहादत मनाया जाता है, ताकि नई नस्ल जान सके कि उनकी आज़ादी इन्हीं अज़ीम शख़्सियतों की क़ुर्बानियों की सौग़ात है।
----------------
सरफ़राज़ अहमद आसी
यूसुफ़पुर मुहम्मदाबाद ज़िला ग़ाज़ीपुर
(पुस्तक-"#यूसुफ़पुर_मुहम्मदाबाद_के_अदबी_गौहर" से)।



मंगलवार, 26 अगस्त 2025

भोजपुरी जगत के महान रचनाकार स्वर्गीय भोला नाथ गहमरी -

गाज़ीपुर के लाल - भोलानाथ गहमरी को इतनी जल्दी भुला दिया जाएगा जिसकी कल्पना नहीं थीं. जब तक ज़िनदा रहे तबतक आगे पीछे गायक, कवि गज़ले, भोजपुरी गीत पाने के लिए घूमा करते थे. अब गाज़ीपुर मे होने वाले सामारोह - सेमिनार मे उनका कोई नाम भी नहीं लेता - यह अफ़सोस की बात है 🪭
..... ....... .......

कभी आकाशवाणी केन्द्रों ने गांव-गिरांव के सामान्य कवियों - लोक कलाकारों को जमीन से उठा कर, बड़े मंचों तक पहुुंचाया था - वहां से निकले अनेक अनमोल हीरे, भोजपुरी दुनिया की थाती बन कर रह गये । उन्हीं में से निकले गाज़ीपुर के एक अनमोल हीरों भोलानाथ गहमरी साहब भी थे.

🪭 कवना खोतवा में लुकइलू, आहिरे बालम चिरई । आहि रे बालम चिरई….🪭

इस गीत के गायक थे मोहम्मद खलील और रचयिता - गाजीपुर जनपद के गहमर गांव के रहने वाले भोलानाथ गहमरी - भोजपुरी लोेकगीतों की उम्दा रचना हुई और उम्दा स्वर से गायकी परवान चढ़ी।

उनका यह गीत -‘ एक त मरीला हम नागिन के डसला से, दूसरे सतावति बा सेजरिया हे, हे ननदो दियना जरा द’ तब तन-मन सिहर जाता है।

भोलानाथ गहमरी ने लिखा था- 'लाली-लाली डोलिया हमरे दुअरिया, पिया लेहले अहिले संगवा में चारू हो कहार’।

गहमरी के गीतों की रचना मे भाव समाहित हैं - आत्मा की धड़कन है। गहमरी जी के एक शिष्य
मोहम्मद खलील थे.

गहमरी और खलील की बैठकी में गीतों की रचना और उनका धुन, एक साथ तैयार किया जाता । दोनों कलाकार साथ-साथ रातभर गीतों में सुधार करते और मांजते - गहमरी सुबह चार से छः बजे तक गीतों की रचना करते- गहमरी के कई गीत रचना का मूलमंत्र खलील ने सुझाया है, यह तथ्य भोजपुरी समाज को शायद पता न हो।

गुरु-चेले के विमर्ष से भोलानाथ गहमरी ने जो गीत लिखा, और जिसे गाकर खलील अमर हो गये, उसके पीछे की कहानी उनके बेटे आजाद बताते हैं। वह चश्मदीद हैं एक वाकये के । कहते हैं कि अब्बा ने गहमरी से कहा, ‘गुरुजी, कहां तुझे ढूंढू, कहां तुझे पाऊं, गाने को सुन मेरे दिल में एक भाव आया है- कवना खोतवा में लुकइलू । भोलानाथ जी ने जब खलील की बात सुनी तो एकदम से उचक गये । बोले, वाह! अद्भुत गीत बनेगा। इसे लिखता हूं - और तब वह यादगार गीत लिखा गया-

कवना खोतवा में लुकइलू, आहि रे बालम चिरई ।

बन-बन ढूँढलीं, दर-दर ढूँढलीं, ढूँढलीं नदी के तीरे,

साँझ के ढूँढलीं, रात के ढूँढलीं, ढूँढलीं होत फजीरे

जन में ढूँढलीं, मन में ढूँढलीं, ढूँढलीं बीच बजारे,

हिया हिया में पैस के ढूँढलीं, ढूँढलीं बिरह के मारे

कवने अतरे में, कवने अतरे में समइलू, आहि रे बालम चिरई ।

गीत के हर घड़ी से पूछलीं, पूछलीं राग मिलन से,

छंद छंद लय ताल से पूछलीं, पूछलीं सुर के मन से

किरन किरन से जाके पूछलीं, पूछलीं नील गगन से,

धरती और पाताल से पूछलीं, पूछलीं मस्त पवन से

कवने सुगना पर, कवने सुगना पर लुभइलू, आहि रे बालम चिरई ।

मंदिर से मस्जिद तक देखली, गिरजा से गुरूद्वारा,

गीता और कुरान में देखलीं, देखलीं तीरथ सारा

पंडित से मुल्ला तक देखलीं, देखलीं घरे कसाई,

सगरी उमिरिया छछनत जियरा, कैसे तोहके पाईं

कवने बतिया पर, कवने बतिया पर कोन्हइलू, आहि रे बालम चिरई ।

कवने खोतवा में लुकइलू, आहि रे बालम चिरई ।

आहि रे बालम चिरई, आहि रे बालम चिरई ॥

देखा जाये तो खलील जैसी भोजपुरी गायकी परंपरा अब गायब है। उन्हीं के शब्दों में कहा जा सकता है कि -वह गायकी लुका गई है।

उनके स्वर में यह मार्मिक निर्गुन गीत, मन को सुकुन देता था-

अइसन पलंगिया बनइहा बलमुवा

हिले ना कवनो अलंगीया हो राम

हरे-हरे बसवा के पाटिया बनइहा

सुंदर बनइहा डसानवा

ता उपर दुलहिन बन सोइब

उपरा से तनिहा चदरिया हो राम

अइसन पलंगीया…..

पहिले तू रेशम के साडी पहिनइह

नकिया में सोने के नथुनिया

अब कइसे भार सही हई देहियाँ

मती दिहा मोटकी कफनिया हो राम

अईसन पलंगिया…….

लाल गाल लाल होठ राख होई जाई

जर जाई चाँद सी टिकुलिया

खाड़ बलम सब देखत रहबा

चली नाही एकहू अकिलिया हो राम

अइसन पलंगिया……..

केकरा के तू पतिया पेठइबा

केकरा के कहबा दुलहिनिया

कवन पता तोहके बतलाइब

अजबे ओह देस के चलनिया हो राम

अइसन पलंगिया……..

चुन चुन कलियन के सेज सजइहा

खूब करिहा रूप के बखानवा

सुंदर चिता सजा के मोर बलमू

फूंकी दिहा सुघर बदनियाँ हो राम

अइसन पलंगिया…….

भोलानाथ गहमारी + मोहम्मद खलील को नमन।।

#mohammadkhalil
#मोहम्मदखलील
#भोलानाथगहमरी


गुरुवार, 21 अगस्त 2025

देश एक है- रचना श्री माधव कृष्ण ग़ाज़ीपुर उत्तर प्रदेश

देश एक है
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पूछ रहा बुधिया कि देश एक है
क्यों फिर संसद के अंदर विभेद है

हमारा तिरंगा पहचान हमारी
क्यों इतने झंडों से लदा देश है

कुर्सी ही चाहत है सबकी अगर
बुधिया के घर में भी पड़ी एक है

हम लोगों के प्रतिनिधि मर्सिडीज में
बुधिया के कपड़ों में बड़ा छेद है

सीवर में सड़क और गड्ढे अपार
मंत्री बेशर्म बाँचता लबेद है

सरकारें सख्त हैं कि रेट बढ़ गया
रिश्वत का लिफाफा, क्यों सफेद है

रक्षा मंत्री जी की रक्षा में सब
रोज यहां घरों में लगी सेंध है

बुधिया प्रतीक्षारत फ्री राशन के
गांव के प्रधानों की सजी प्लेट है

महलों का राजतंत्र मरा है कहां
मंत्री का घर क्या भग्नावशेष है

आवेदन शौचालय का लंबित है
तब तक जिन्दाबाद भरा खेत है

नेताओं का हंसना गाल फुलाना
कहती है नीति यही बड़ा फेक है

अब्दुल बुधिया का सिर फोड़ डालना
सहज सरल लोगों में भरा द्वेष है

सुना है संसद के कैंटीन की
सस्ती थाली में व्यंजन अनेक है

अब्दुल का बेटा है भूखा भले
भाषण से नेता ने भरा पेट है

विधवा मां का भी पेंशन चला गया
संसद में बिलों की कतार पेश है

सारे बिलों पर हैं लड़ रहे सभी
हँसता फोटो में बाबा साहेब है

एक बिल जहां पर खामोश हैं सभी
भत्ता बढ़ने का भावातिरेक है

टेबल थपथप कर वेतन बढ़ा दिया
बुधिया अब कह रहा कि देश एक है

माधव कृष्ण, द प्रेसीडियम इंटरनेशनल स्कूल अष्टभुजी कॉलोनी बड़ी बाग लंका गाजीपुर, २१ अगस्त २०२५



शनिवार, 16 अगस्त 2025

भगवान श्रीकृष्ण- माधव कृष्ण

 भगवान श्रीकृष्ण: एको देवो देवकीपुत्र एव

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अनुग्रहार्थम् लोकानाम् विष्णु: लोकनमस्कृत:।
वसुदेवात् तु देवक्याम् प्रादुर्भूतो महायशा:।।
महाभारत के आदिपर्व में महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने कहा कि, वसुदेव और देवकी के माध्यम से भगवान विष्णु प्रकट हुए। वह लोक द्वारा नमस्कृत हैं, लोक उनके आगे झुकता है। लोक न ही धन के आगे झुकता है, न ही सत्ता के समक्ष। लोक सहज सरल समूह है, और वह सहजता से उसके समक्ष ही झुक सकता है जिसके हृदय की विशालता के आगे सब कुछ छोटा हो गया हो। लोक सबको स्वीकार भी नहीं करता। एक लंबे समय तक परखने के बाद लोक किसी को नमस्कार करता है। आबालब्रह्मपर्यन्त सभी श्रीकृष्ण को अपने निकट पाते हैं।
श्रीकृष्ण भगवान विष्णु हैं, अणु के रूप में सभी में व्याप्त हैं। विष्णु शब्द ही समानता का प्रतीक है। हम सभी के अंदर वह एकमेव परम सत्ता समान रूप से बैठी है। इसलिए किसी भी प्रकार का भेदभाव या श्रेष्ठता या हीनता की ग्रंथि रखने की आवश्यकता नहीं है। श्रीकृष्ण जिस सहजता से ग्वाल बालों के हाथों से खाना खाते हैं उसी सहजता से चक्रवर्ती सम्राट धृतराष्ट्र और बाद में युधिष्ठिर की राजसभा में सबके साथ बैठते हैं।
वह हमारे बीच इसीलिए आए ताकि लोक पर अनुग्रह कर सकें। वह लोक जिसका कभी अपना तंत्र नहीं रहा। उस लोक के लिए श्रीकृष्ण राजतंत्र से लड़ते रहे जो उनके अपने मामा का था, उन्होंने राजवैभव के लिए न ही दुराचारी कंस से हाथ मिलाया और न ही उस महान दिल्ली की सत्ता से जिसके दरबार में भीष्म जैसे अप्रतिम ज्ञानी और सूर्यपुत्र कर्ण जैसे सेनापति बैठते थे।
भगवान श्रीकृष्ण के हृदय में केवल सत्य, न्याय और धर्म के लिए संशयरहित प्रेम था। भारत के सम्राट धृतराष्ट्र द्वारा सर्वोत्तम विधि से स्वागत और पूजन के बाद भी वह उनके दरबार में एक स्त्री के बलात्कार के प्रयासों को भूल नहीं सके, उन्होंने पांच धर्मात्माओं के साथ छल को अपनी शांति वार्ता का मूल बिंदु बनाया, शांति के लिए अंतिम प्रयास करते समय उन्होंने उनके लिए सम्मानजनक अस्तित्व की मांग रखी।
क्या जाता था उनका? उनकी लड़ाई नहीं थी, न ही कंस से, न ही धृतराष्ट्र और उसके पुत्रों से, न ही बाणासुर या शिशुपाल या रुक्मी से। लेकिन रुक्मिणी ने एक पत्र लिखा कि उनका विवाह उनकी अनुमति और सहमति के बिना लंपट राजा शिशुपाल से हो रहा है, और भगवान श्रीकृष्ण अकेले दौड़ पड़ते हैं उन्हें मुक्त करने के लिए। सुदामा द्वार पर खड़े हैं। द्वारपालों ने हमेशा राजाओं तक जाने से लोक को रोका है। लोक की सुनता कौन है!
लेकिन जैसे ही उनके कानों में सुदामा के गिड़गिड़ाने की आवाज जाती है, वह दौड़ पड़ते हैं, रोते हैं, उनका अभ्यर्चन करते हैं। उनके राज्य में कोई इतना गरीब है, यह देख नहीं पाते और अपना सब कुछ उन्हें नयन नीचे करके दे देते हैं, इतने संकोच के साथ कि अपने घर जाने से पहले सुदामा को पता भी नहीं चलता कि मुझे वह सारी भौतिक समृद्धि मिल चुकी है जो एक सामान्य जीवन जीने से कई गुना अधिक है। यह है लोक अनुग्रह।
इसलिए वह महायश हैं, उनके जैसा यशस्वी कोई नहीं। चोर से लेकर सम्राट, बालक से लेकर वृद्ध, योगी से लेकर परमहंस सिद्ध, वह सभी को एकसमान प्रिय हैं। उन्हें देखकर कंस की दासी कुब्जा भी प्रेम से भर जाती है और सम्राटों का चंदन उन्हें लगा बैठती है, सब्जी और फल बेचने वाली गरीब वृद्धा भी प्रेम से भरकर अपनी पूरी टोकरी ही उनको सौंप देती है, और सम्राट के घर पली बढ़ी राजकुमारी रुक्मिणी उन्हें अपना सर्वस्व मान बैठती है।
अनादिनिधनो देव: स कर्ता स जगत: प्रभु:।
अव्यक्तमक्षरम् ब्रह्म प्रधानम् त्रिगुणात्मकम्।।
उनका आदि अंत नहीं है। होगा भी कैसे, ५५०० वर्षों से अधिक बीत गए, और आज भी उनके व्यक्तित्व की मिठास श्रीमद्भागवत पुराण, गर्ग संहिता और महाभारत जैसे ग्रंथों के माध्यम से हमें भक्ति और कर्त्तव्य के पावन पथ पर आमंत्रित करती रहती है, और उनके ज्ञान का एक अंश श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में संसार के सभी मनीषियों को एकसमान रूप से विस्मित करता रहता है। वह विष्णु हैं, हमारे भीतर और संसार के प्रत्येक जड़ चेतन में बैठे हैं, उनका आदि और अंत कैसे हो सकता है!
उनके प्रकाश से यह सब कुछ आलोकित है। वह द्युतिमान देव केवल प्रेम की आंखों से देखे जा सकते हैं। उन्हें महामना अर्जुन ने संशय की भौतिक आंखों से देखने का प्रयास किया और आँखें मलता रह गया। भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम में आँखें जब दिव्य हो जाती हैं, तब उनका एक अंश समझ में आता है। मुझे इसमें कोई आश्चर्य नहीं दिखता कि लंपट साहित्यकारों और मनुष्यों ने उनके इर्द गिर्द अपनी वासना को आध्यात्मिक रूप देने की कुचेष्टा में ऐसी कथाएं गढ़ डालीं जिनका भगवान से कोई संबंध नहीं है।
इसलिए वह अर्जुन जी से कहते हैं, दिव्यम् ददामि ते चक्षुं पश्य मे योगम् ऐश्वरम्। यह अनुभव भी कर पाना कि वह द्युतिमान देव कैसे हैं, बिना दिव्यता के संभव नहीं है। दिव्यता ही दिव्य को धारण कर सकती है, देख सकती है, सुन सकती है, अनुभव कर सकती है। इसलिए दिव्यता के लिए ऋषियों के मार्ग से चलना पड़ता है। "इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।"
श्रीमद्भगवद्गीता के १८वें अध्याय का ६७वां श्लोक उस दिव्यता को सुनने के लिए भी चार अर्हताएं निर्धारित करता है। यह ज्ञान तपस्या न करने वाले, भक्त न होने वाले, और आध्यात्मिक विषयों को सुनने की इच्छा न रखने वाले व्यक्ति को कभी नहीं बताना चाहिए। साथ ही, जो मेरी निंदा करता है, उसे भी यह ज्ञान नहीं बताना चाहिए। "राम चरित जे सुनत अघाहीं, रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं"
उनके साथ दिन और रात रहने वाले पुजारी गण भी उन्हें नहीं समझ सकते जब तक वे दिव्यता के लिए उनकी कृपा का प्रयास न करें। भगवान श्रीकृष्ण ही शस्त्रधारियों में भगवान श्रीराम हैं, उनके श्रीमद्भगवद्गीता के इस कथन के बाद भी ब्रजभूमि में रासलीला की चटखारे लेकर अनैतिक अनाध्यात्मिक व्याख्या करने वाले पंडितों ने गोस्वामी तुलसीदास जी का अपमान किया कि, आखिर रामभक्त को भी भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आना पड़ा।
गोस्वामी तुलसीदास भगवान के श्रीविग्रह के सामने बैठ गए और कहा,
कहाँ कहों छवि आपकी भले विराजे नाथ |
तुलसी मस्तक तब नबें, धनुष बाण लेऊ हाथ ||
लोक ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकृत होते देखा,
कित मुरली, कित चन्द्रिका, कित गोपियन के साथ |
अपने जन के कारने, श्री कृष्ण भये रघुनाथ ||
जहां कोई हठ नहीं, दुराग्रह नहीं, जिसने वज्रगंभीर वाणी में यह उद्घोष किया हो कि, जिस भाव से लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं उसी भाव के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पृथा पुत्र! सभी लोग जाने या अनजाने में मेरे मार्ग का ही अनुसरण करते हैं।, क्या उनके अनुयायियों में कभी किसी और महापुरुष या विचारधारा के लिए संकीर्णता और घृणा का भाव हो सकता है! उन महान भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष सभी संकीर्णताओं का नाश हो जाता है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4.11।।
वह भगवान श्रीकृष्ण संपूर्ण जगत के कर्ता और प्रभु हैं। जैसे प्रत्येक संतान के अंदर उसके माता, पिता, पितामह इत्यादि का अंश होता है, उसी प्रकार हम सभी के अंदर भगवान श्रीकृष्ण हैं, वह भी अंश रूप में नहीं, पूर्ण रूप से। इसीलिए वह विष्णु हैं। लोग बिग बैंग सिद्धांत के सार पर बहस करते रहें, लेकिन सभी के अंदर अवस्थित चैतन्य और जड़ता, के निमित्त और उपादान उनके अतिरिक्त और कोई नहीं है। उनका महान व्यक्तित्व हमें अपने अंदर के अज्ञान आवरण को हटाकर अपने विष्णुपद को प्रकाशित करने की प्रेरणा देता है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते॥
भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों को न उनकी पूर्णता पर संदेह है, और न ही अपनी पूर्णता पर। इसलिए निष्काम कर्मयोग के माध्यम से उनके भक्त अपनी अपूर्णता के भ्रम को समाप्त कर देते हैं। भगवान बुद्ध इसी तथ्य को समझकर कहते थे, न आत्मा है, न कोई और गति, सब कुछ पूर्ण है, पूर्णता ही उत्पन्न होती है और पूर्णता ही विलीन हो जाती है, कौन किसमें मिला, क्या बचा, क्या गया, यह चिंतन का विषय नहीं। सब कुछ शून्य है, वह सब कुछ जिसका हमने अस्तित्व माना था आज तक, वह सब कुछ उस परमब्रह्म के अतिरिक्त कुछ था नहीं नहीं।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।11.31।।
भगवान श्रीकृष्ण अव्यक्त हैं। उनके रहते हुए भी उन्हें न ही दुर्योधन समझ सका और न ही प्रजापिता ब्रह्मा। उनके नित्य सखा अर्जुन भी पूछते हैं कि, हे आदिपुरुष, मैं आपको विशेषरूप से जानना चाहता हूं। मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता। और वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण की प्रवृत्ति को कौन जान सकता है? जिसे भगवान श्रीकृष्ण चाहते हैं, वह ही उन्हें थोड़ा बहुत जान पाता है। उसके अतिरिक्त कौन उस अनन्त प्रकाश के समक्ष आँखें खोल सकता है। उसके आंखों की रक्षा के लिए ही प्रभु ने माया का जगत रच रखा है।
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन।।
चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी।।
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा।।
राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे।।
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा।।
वह अक्षर भी हैं। वह नष्ट नहीं होते। जब वह ब्रह्माण्ड के अणु अणु में व्याप्त हैं, तब वह नष्ट होकर भी अपने अव्यक्त स्वरूप में ही आ जाते हैं। फिर नष्ट कौन हुआ और जन्म किसने लिया? इसलिए उनकी लीला संवरण भी एक रहस्य है, एक ज्ञान है। इसलिए वह व्याध के प्राणघातक तीर लगने के बाद उसे अभयदान देते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की कीर्ति को भी कतिपय लोगों ने नष्ट करने का प्रयास किया लेकिन वह अक्षर रही। हमारे अंदर बैठा उनका अक्षर स्वरूप ही हमें निष्काम भाव से धन, स्त्री और यश की लालसा के बिना निरंतर कर्त्तव्य पथ पर चलने की प्रेरणा देता है क्योंकि यह अनंत जन्मों की यात्रा है, न हम नष्ट होंगे और न ही हमारा किया हुआ एक छोटा सा कल्याणकारी कर्म।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।।
आरम्भ का नाम अभिक्रम है इस कर्मयोगरूप मोक्षमार्ग में अभिक्रम का यानी प्रारम्भ का कृषि आदि की तरह नाश नहीं होता। जैसे ओला, अति वर्षा या सूखे में खेती का कोई भी प्रयास फ़लहीन हो जाता है, वैसे कर्मयोग के प्रारम्भ का फल अनैकान्तिक या संशययुक्त नहीं है। जैसे चिकित्सक की दवा का उल्टा असर भी हो सकता है और रोगी मर सकता है, वैसे चिकित्सादि की तरह इसमें प्रत्यवाय या विपरीत फल भी नहीं मिलता है। इस कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा सा भी अनुष्ठान या साधन भी जन्ममरणरूप महान् संसार के भय से रक्षा किया करता है।
अर्जुन जी जब पूछते हैं कि, हो सकता है लंबे समय तक धर्म का पालन करने वाला योगी भी भटक जाए, संसार का आकर्षण और प्रलोभन ही कुछ ऐसा है, तब क्या ऐसा योगी "न घर का और न घाट का" या "न माया मिली न राम" वाली स्थिति में दोनों तरफ से हानि का भागी नहीं बन जायेगा? तब अक्षर भगवान श्रीकृष्ण उनके संशय को अपने स्वरूप से ही नष्ट करते हुए कहते हैं, कल्याण की दृष्टि से किया जाने वाला कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता। ऊर्जा क्या कभी नष्ट होती है? ऐसा योगभ्रष्ट योगी पुनः जन्म लेता है, पुनः उसी मार्ग पर चलता है, और वहां से चलता है जहां तक की यात्रा वह पूरी कर चुका है, और अंततः पूर्णता प्राप्त करता है।
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38।।
क्या वह ब्रह्म के मार्ग में मोहित तथा आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न मेघ के समान दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है?
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
नहि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।।6.40।।
उस पुरुष का, न तो इस लोक में और न ही परलोक में ही नाश होता है; हे तात ! कोई भी शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है।।
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।6.43।।
वह पुरुष वहाँ पूर्व देह में प्राप्त किये गये ज्ञान से सम्पन्न होकर योगसंसिद्धि के लिए उससे भी अधिक प्रयत्न करता है।।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।6.44।।
उसी पूर्वाभ्यास के कारण वह अवश हुआ योग की ओर आकर्षित होता है। योग का जो केवल जिज्ञासु है वह शब्दब्रह्म का अतिक्रमण करता है।।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।6.45।।
प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों से (शनै: शनै:) सिद्ध होता हुआ, तब परम गति को प्राप्त होता है।।
क्या भगवान श्री कृष्ण के अक्षर या अविनाशी होने का कोई और प्रमाण चाहिए? जिनके रोम रोम से निकली इस महान अभयवाणी ने सदियों शताब्दियों से महावीर अर्जुन, भगवान गौतम बुद्ध, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, सैम मानेकशॉ जैसे महान कर्मयोगियों को बिना किसी भय और लोभ के अपने कर्त्तव्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी हो, जिनके कृपा प्रसाद से अनेक कर्मयोगी अपने नाम की परवाह न करते हुए छोटे से गांव या घाटी में लोककल्याण के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर देते हैं, जिनके अक्षर ब्रह्म रूप से प्रेरणा पाते हुए क्रांतिकारी फांसी के फंदों से झूल गए, उस अक्षर भगवान श्रीकृष्ण के अनंत अविनाशी स्वरूप का एक अंश समझना भी हमारा सौभाग्य होगा।
भगवान श्रीकृष्ण ही ब्रह्म हैं। ब्रह्म एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ सर्वोच्च सार्वभौमिक सिद्धांत है। इसे 'परम' या 'परम' वास्तविकता भी कहा जाता है। संस्कृत मूल "बृह"' से यह शब्द बना है, जिसका अर्थ है "बढ़ना या विस्तार करना"। प्रत्येक जीव में वह हैं क्योंकि प्रत्येक जीव ही अपना विस्तार करने में लगा है। इसलिए उसे क्षर ब्रह्म भी कहा जाता है, वह नष्ट होता तो है लेकिन अपना विस्तार करता है क्योंकि उसके अंदर ब्रह्म ही है। अपने जीवनकाल में भगवान श्रीकृष्ण सत्य, न्याय और धर्म के प्रसार में लगे रहे और सज्जन शक्तियों का विस्तार कर अपने ब्रह्मस्वरूप का परिचय देते रहे।
उनके विस्तार के विषय में कुछ कह सकना भी धृष्टता होगी। अर्जुन जी ने उनसे अपने स्वरूप और विभूतियों के विषय में विस्तार से बताने के लिए कहा। विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन। भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।10.18।। भगवान श्रीकृष्ण ने समन्वय और सर्वव्यापकता का अपना स्वरूप बताया, और बताने के बाद यह कहा कि, कितना बताया जाय, बस इतना समझ लो कि यह सब कुछ दृश्य और अदृश्य सभी लोक केवल मेरे एक अंश में अवस्थित हैं। अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।10.42।।
वह भगवान श्रीकृष्ण त्रिगुणमय प्रधान हैं। इस पर अब आगे उनकी कृपा से लिखने का प्रयास करूंगा।
(क्रमशः)
माधव कृष्ण, द प्रेसीडियम इंटरनेशनल स्कूल अष्टभुजी कॉलोनी बड़ी बाग लंका गाजीपुर, श्री गंगा आश्रम, १६ अगस्त २०२५, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी



भारत का ये कैसा राम राज्य हे राम पुष्कर जी उपाध्याय

भारत का ये कैसा राम राज्य ? हे राम !

जहां सरकारी परीक्षा में हो रही धांधली का विरोध करने वाले छात्रों और 
शिक्षकों को सड़क पर पुलिस से पिटवाया जाता है …

जहां वोट चोरी तो होती है , लेकिन उस वोट चोरी के चोरों का मीडिया द्वारा बचाव करवाया जाता है , 

जहां बेज़ुबान जानवरों को ट्रकों में ठूँस के सड़कों से हटाया जाता है , 
जहां राम के नाम पर दूसरी क़ौमों को डराया जाता है ।

जहां सनातन का नाम डुबोकर आतंकवाद फैलाया जाता है , 
गांधी को गाली दी जाती है और गोडसे को महान बताया जाता है । 

अमीरों , बेईमानों की दलाली में , सत्य का  गला दबाया जाता है ,
और कर दे कोई सत्ता से सवाल , तो कैमरे के पीछे से उसे निपटाया जाता है ।

बेटियों को नंगा कर के घुमाया जाता है ,
सबूतों को मिटा कर के , राक्षसों को मंत्री बनाया जाता है ।

मैं पुनः कह रहा हूँ कि “हे राम” , 
यदि तुम्हारा राज्य ऐसा होता है , तो नहीं चाहिए मुझे राम राज्य….
लौटा दो मुझे वो पुराने भुखमरी के दिन , जहां गहमरी जैसे सांसद और नेहरू जैसे प्रधानमंत्री हुआ करते थे … 
जब संसद में बातें छिड़तीं थीं तो , पूरा सदन आंसुओं से भर जाता था ।

“हे राम” , लौटा दो मुझे वो ग़ुलामी वाले दिन जहां देश की आज़ादी के लिए हिंदू और मुसलमान एक हुआ करते थे …

“हे राम” लौटा दो मुझे “नागार्जुन” के दिन , जहां प्रधानमंत्री को आईना दिखाया जाता था ,

और लौटा दो मुझे वो गांधी के दिन  , जहां  विचारों से अलग होने पर भी सुभाष और ग़फ़्फ़ार ख़ान में परस्पर प्रेम बना रहता था ।

“हे राम” , ले जाओ अपना ये राज्य वापस , 
जहां सत्य का कोई स्थान नहीं , 
जहां इंसान का कोई ईमान नहीं ..
जहां , इंसान अब इंसान नहीं ।

लेकिन जाते जाते मेरे प्रश्न का उत्तर ज़रूर देते हुए जाना , 

भारत का ये कैसा राम राज्य ? हे राम !

- पुष्कर जी उपाध्याय ✍️





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रविवार, 3 अगस्त 2025

नैतिकता में अंतर यूरोप अमेरिका और भारत

नैतिकता में अंतर होता है। हर जगह समान नैतिकता नहीं है। यूरोप और अमेरिका के दक्षिणपंथी इस बात के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं कि गर्भ में जो बच्चा आ गया, चाहे वह जैसे आ गया उसे मारा नहीं जा सकता क्यूंकि वह एक जीव है, उसमें प्राण आ चुका है, लेकिन विवाह पूर्व सेक्स को वह बहुत महत्व नहीं देते। विवाह के बिना बच्चे हो जायें, वह भी उनके लिए बड़ा मुद्दा नहीं है, उनका बड़ा मुद्दा है कि जो जीव गर्भ में आ गया, उसे जीने का अधिकार है।

भारत में लोगों के लिए गर्भ में आया बच्चा ज़्यादा महत्व का मुद्दा नहीं है, बल्कि एक समय जो जितना बड़ा दक्षिणपंथी था, उसने तकनीक ने मौक़ा दिया तो जमकर बच्चों को मारा, केवल अविकसित भ्रूण को ही नहीं बल्कि बीस पच्चीस सप्ताह के गर्भ को भी गिराया और आज भी यह सतत जारी है। कई जगह तो स्वीकार्य परंपरा थी बच्चियों को दूध में डुबोकर मारने की, सही याद हो तो दूधपिटी कहते थे। मज़ेदार बाद यह है कि जो जो समुदाय इन गर्भ में पल रहे भ्रूण को मारने में सबसे आगे थे वह विवाह पूर्व सेक्स के सबसे प्रबल विरोधी रहे, आज भी हैं। 

अब कौन सही है, कौन ग़लत यह नहीं कहा जा सकता लेकिन व्यक्ति बचपन से जिन चीजों को परिवार से सीखता रहता है वह उसे अधिक महत्व और मूल्य की लगती हैं। वह उसका जीवनमूल्य बन जाता है। लेकिन इस आधार पर यह कहना कि भारत का विचार अधिक सही है अथवा यूरोप और अमेरिका का विचार अधिक सही है, अनुचित है। सबकी अपनी विकासयात्रा है, सबकी अपनी सोच है। हाँ, जो भी अति की तरफ़ जाएगा वह समाप्त होने को बाध्य है। 

यूरोप में गर्भ बचाने के चक्कर में सिंगल मदर इस कदर बढ़ी कि अब परिवार के प्रति प्रेम फिर से लौट रहा है। बलात्कार के बाद भी गर्भ ठहर जाने पर बच्चा पैदा ही करना होगा, इस पर विचार विमर्श चल रहा है। भारत में भी धीरे धीरे अनर्गल परम्पराये ढलान पर हैं। सबकी अपनी अपनी नैतिकता है जिसमे अलग अलग प्राथमिकता है पर वास्तव में दिक्कत तब होती है जब कोई व्यक्ति, समाज और सभ्यता कॉमन सेंस को किनारे लगाकर अति की तरफ़ जाने लगता है। हमें मध्य मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।



शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

मुमकिन है वो साथ न आये हाथ में उसका हाथ न आये रचना - लव तिवारी

मुमकिन है वो साथ न आये 
हाथ में उसका हाथ न आये... 

अब मुझको तुम भूल ही जाओ 
उन के लबों पे ये बात न आये... 

बिना तेरे कट तो रही है रात.. 
मगर ऐसी कातिल रात न आये...

प्यास बहुत है दिल में बाकी 
पर ये थोड़े दिन की बरसात न आये..



बुधवार, 30 जुलाई 2025

कउवा कान ले के भागल धावल सगरी गाँव- डॉ एम डी सिंह

 कउवा कान ले के भागल धावल सगरी गाँव 

अइसे गहि के केहू छींकल जागल सगरी गाँव 


एक चिचिअइले समै चिचिआइल अरे बाप रे बाप 

भइल बउंका के पाछे देखा पागल सगरी गाँव 


लउर कपारे भेंट ना अस  बाप बाप चिल्लाइल

बिना मउअत के मउअत देवे लागल सगरी गाँव 


होरहा होरहा होरहा,  भइल  सिवाने हल्ला  

एक कियारी रहिला जम्मल धांगल सगरी गाँव 


बरध बंहेतरा बहक केहू क कइलस बड़ हेवान 

कान धरि के  राम दुहाई मांगल सगरी गाँव 


डॉ एम डी सिंह



साप्ताहिक मानव धर्म संगोष्ठी-माधव कृष्ण जुलाई २०२५ गाजीपुर

 साप्ताहिक मानव धर्म संगोष्ठी


स्थान: द प्रेसीडियम इंटरनेशनल स्कूल योग कक्ष, अष्टभुजी कॉलोनी, बड़ी बाग, लंका, गाजीपुर 


दिन: शनिवार, 26 जुलाई 2025

समय: शाम 7 बजे से 9 बजे तक


आयोजक: नगर शाखा, श्री गंगा आश्रम, मानव धर्म प्रसार


साप्ताहिक संस्कारशाला के कुछ निष्कर्ष


मानव धर्म प्रसार


1. जापान के बौद्ध संत की तरह बुद्ध के विचारों का प्रसार बुद्ध की करुणा दृष्टि अपनाकर ही हो सकता है।

2. शिव का नाम जपने के बाद शिव की तरह कल्याणकारी हो जाना है। महर्षि दधीचि शिवभक्त थे। शिव को जपने का परिणाम यह हुआ कि दधीचि ने अपने आराध्य की भांति ही लोककल्याण के लिए बिना कुछ सोचे अपना शरीर दे दिया।

3. गुरुनानक देव की इच्छा थी कि अच्छे लोग अपनी अच्छाई के साथ फैल जाएं, और बुरे लोग एक स्थान पर सीमित रहें ताकि उनकी बुराई से समाज का अहित न हो।

4. ईश्वर का सर्वत्र और सबमें दर्शन करना चाहिए। यही सबसे बड़ा और सहज ध्यान है।

5. निस्वार्थ प्रेम देने वाला ही गुरु है।

6. प्रेम एकरस होता है। जो चढ़ती उतरती है वह मस्ती नहीं है। प्रेम की मस्ती तो हमेशा चढ़ी रहती है।

7. सादे कपड़े पहनो, बेईमानी का अन्न न खाओ, खुद तकलीफ सह लो, दूसरों को सुख दो, भिखारी खाली हाथ न जाए, कोई बेकसूर होने के बाद भी गाली दे तो भी हाथ जोड़ लो तो भजन खुल जाता है। चिड़ियों और चींटियों को जहां देखो, भोजन दे दो। दीनता और शांति से भजन में प्रगति होती है।

8. सुमिरन का अर्थ है परमात्मा का स्मरण। अपना कार्य करते हुए प्रभु का स्मरण करना ही सिमरन है। सांस सांस सिमरन करे, वृथा न जाए सांस। प्राप्त पर्याप्त है, इसलिए ईश्वर को हमेशा स्मरण करते रहना चाहिए।

9. भजन के साथ आत्मावलोकन भी आवश्यक है।  मन की गति गहन है।

10. सदा सकारात्मक दृष्टिकोण होना चाहिए।

11. कर्म का अटल सिद्धांत है, जो करोगे सो भरोगे।


कुछ कहानियां


अमीर खुसरो पहले मुल्तान के हाकिम के यहां नौकरी करते थे, किंतु किसी कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी और वह अपना सारा सामान ऊंटों पर लादकर अपने गुरु हजरत निजामुद्दीन से मिलने दिल्ली की ओर निकल पड़े। इधर हजरत निजामुद्दीन के पास एक गरीब आदमी आया और बोला, मालिक मेरी लड़की की शादी तय हो गई है। यदि आप कुछ मदद कर सकें, तो मैं आपका शुक्रगुजार रहूंगा। हजरत बोले, आज तो मेरे पास देने के लिए कुछ नहीं है, तुम कल आना।

वह आदमी जब दूसरे दिन गया, तो हजरत बोले, आज भी मुझे कुछ नहीं मिला। इस प्रकार तीन दिन बीत गए, लेकिन हजरत के पास भेंट चढ़ाने के लिए कोई नहीं आया। आखिर चौथे दिन जब वह गरीब वापस जाने लगा, तो उन्होंने उसे अपनी जूती ही दे दी। बेचारा मायूस तो हुआ, पर जूती लेकर ही चल पड़ा। रास्ते में खुसरो का काफिला आ रहा था। खुसरो को लगा कि कहीं से पीर की खुशबू आ रही है, किंतु पीर (हजरत निजामुद्दीन) कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। जब वह आदमी इनके सामने से गुजरा, तो वे समझ गए कि खुशबू इसी आदमी के पास से आ रही है।


उन्होंने इसे रोककर पूछा, आप कहां से आ रहे हैं? उसने सारी बात बता दी। तब खुसरो बोले, क्या तुम इस जूती को बेचोगे? उस आदमी ने कहा, ‘आप वैसे ही ले सकते हैं’, लेकिन खुसरो ने पत्नी, दो बच्चों और खुद के लिए एक-एक ऊंट रखकर बाकी सारे ऊंट और उन पर लदा सामान उस आदमी को दे दिया। वह उन्हें दुआ देता हुआ चला गया। खुसरो जब दिल्ली पहुंचे, तो उन्होंने हजरत के चरणों पर वह जूती रख दी। तब उन्होंने पूछा, इसके बदले क्या दिया है तुमने? खुसरो ने सारी चीजें गिना दीं। खुसरो का अपने प्रति यह उत्कट प्रेम देख उनके मुख से निकला, इसकी कब्र मेरी कब्र के पास ही बनाना।

*****

एक फकीर था जापान में, वह बुद्ध के ग्रंथों का अनुवाद करवा रहा था। पहली बार जापानी भाषा में पाली से बुद्ध के ग्रंथ जाने वाले थे। गरीब फकीर था, उसने दस साल तक भीख मांगी। दस हज़ार रुपए इकट्ठे कर पाया, लेकिन तभी अकाल आ गया, उस इलाके में अकाल आ गया।

उसके दूसरे मित्रों ने कहा कि नहीं-नहीं, ये रुपए अकाल में नहीं देने हैं, लोग तो मरते हैं जीते हैं, चलता है सब। भगवान के वचन अनुवादित होने चाहिए, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है।

लेकिन वह फकीर हंसने लगा। उसने वे दस हज़ार रुपए अकाल के काम में दे दिए। फिर बूढ़ा फकीर, साठ साल उसकी उम्र हो गई थी, फिर उसने भीख मांगनी शुरू की। दस साल में फिर दस हज़ार रुपये इकट्ठे कर पाया कि अनुवाद का कार्य करवाए, पंडितों को लाए। क्योंकि पंडित तो बिना पैसे के मिलते नहीं हैं। पंडित तो सब किराए के होते हैं। तो पंडित को तो रुपया चाहिए था, तो वह अनुवाद करे पाली से जापानी में। फिर दस हजार रुपये इकट्ठे किए, लेकिन दुर्भाग्य कि बाढ़ आ गयी और वे दस हजार रुपये वह फिर देने लगा।

तो उसके भिक्षुओं ने कहा:यह क्या कर रहे हो? यह जीवन भर का श्रम व्यर्थ हुआ जाता है। बाढ़ें आती रहेंगी, अकाल पड़ते रहेंगे, यह सब होता रहेगा। अगर ऐसा बार-बार रुपए इकट्ठे करके इन कामों में लगा दिया तो वह अनुवाद कभी भी नहीं होगा।

लेकिन वह भिक्षु हंसने लगा। उसने वे दस हज़ार रुपए फिर दे दिए। फिर उम्र के आखिरी हिस्से में दस-बारह साल में फिर वह दस-पंद्रह हज़ार रुपए इकट्ठे कर पाया। फिर अनुवाद का काम शुरू हुआ और पहली किताब अनुवादित हुई। तो उसने किताब में लिखा :थर्ड एडिशन, तीसरा संस्करण।

तो उसके मित्र कहने लगे :पहले दो संस्करण कहाँ हैं? निकले ही कहाँ? पागल हो गए हो? यह तो पहला संस्करण है।

लेकिन वह कहने लगा कि दो निकले, लेकिन वे निराकार संस्करण थे। उनका आकार न था। वे निकले, एक पहला निकला था जब अकाल पड़ गया था, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी। फिर दूसरा निकला था जब बाढ़ आ गई थी, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी, लेकिन उस वाणी को वे ही सुन और पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री का भाव है। यह तीसरा संस्करण सबसे सस्ता, सबसे साधारण है, इसको कोई भी पढ़ सकता है, अंधे भी पढ़ सकते हैं, लेकिन वे दो संस्करण वे ही पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री की आंखें हैं।




प्रेम और विवाह- माधव कृष्ण ३० जुलाई २०२५ गाजीपुर

जब यात्रा अनंत जन्मों की हो जिसका आधार विशुद्ध प्रेम हो तब वर्ष नहीं गिने जाते। लेकिन फिर भी विवाह की वर्षगांठ मनाई जाती है। अभी एक साहित्यिक संगोष्ठी में दो साहित्यकारों ने 'साहित्य की जाति और धर्म' विषय पर बोलते हुए मेरे अंतरजातीय विवाह का उदाहरण सामने रखा। अंतरजातीय विवाह: यह एक दृष्टि है विभिन्न जातियों में होने वाले विवाह को देखने की। मुझे इस दृष्टि से कोई शिकायत भी नहीं है लेकिन सच तो यह है कि यह दृष्टि जातिवादी दृष्टि है। जो जाति देखने का आदी है वह विवाह को इस श्रेणी में देखकर बांधेगा ही, अंतरजातीय विवाह।


फिल्म हाउसफुल ५ में अक्षय कुमार का एक संवाद है: "प्वाइंट ये नहीं है जिस पर तू स्ट्रेस कर रहा है।" हां, बिलकुल! बिंदु वह नहीं है जिसे आप रेखांकित कर रहे हैं। मूल बिंदु है प्रेम, और यह उपेक्षित होता रहा है।  प्रेम और विवाह, ये दोनों स्थिर और उबाऊ संस्थाएं नहीं हैं। प्रेम और विवाह, दोनों निरन्तर गतिशील, विकासशील और प्रवहमान संस्थाएं हैं। इसलिए जब प्रेम और विवाह एक साथ घटित होते हैं जिसके लिए समाज ने प्रेमविवाह शब्द चुना, तो यह किसी भी मनुष्य के जीवन की एक कोमलता से परिवर्तन कर देने वाली घटना बन जाती है। यह संवेदनाओं का धर्म और चरमोत्कर्ष है।


कुछ लोगों ने हमेशा व्यवस्थित विवाह और प्रेम विवाह के बीच आपसी समझ, मनमुटाव, परिवार का ध्यान इत्यादि के आधार पर एक लकीर खींचने का प्रयास किया है। लेकिन मैं ऐसे किसी अंतर को नहीं देखता। दोनों का केंद्र विवाह है, एक साथ रहने और एक दूसरे के लक्ष्य में सहयोग करने का अदम्य संकल्प। एक में प्रेम विवाह के पूर्व घटित होता है और दूसरे में विवाह के बाद प्रेम घटित होता है। दोनों में असीम धैर्य, आपसी समझ और निर्वहन की अटूट क्षमता आवश्यक है। इसीलिए भारतीय मानस ने विशेष निर्वहन या विवाह जैसे शब्द की संरचना की।


कुछ लोगों ने कहा कि, प्रेम विवाह सामाजिक संरचना को तोड़ देते हैं। यह सच है। जब एक कथावाचक को जाति पूछकर मारा जाता हो या जब किसी गांव में एक मवेशी के चरने पर दो जातियों में खूनी संघर्ष हो जाता हो या जब किसी एक जिले में एक योग्य प्रतिनिधि को दूसरी जाति के लोग वोट नहीं देते हैं, तब क्या सामाजिक संरचना बची रहती है? ऐसी सड़ी गली सामाजिक संरचना को तो ध्वस्त होना ही चाहिए। आश्चर्य है कि, सामाजिक संरचना के नाम पर हम वह सब कुछ बचा लेना चाहते हैं जो विद्वेष और विभाजन का स्रोत है; और इसे बचाने के नाम पर हम हर उस कृत्य और विचार का विरोध करते हैं जिसका आधार विशुद्ध प्रेम है, जिसके अंदर दो समुदायों को जोड़ने की क्षमता है।


भारत की सांस्कृतिक परम्परा में आठ विवाहों की सूची है: ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस, पैशाच। अंतिम दो को अधर्म पर आधारित विवाह माना जाता है क्योंकि इसमें कन्या की इच्छा नहीं होती और उसका हरण कर लिया जाता है। सर्वश्रेष्ठ ब्राह्म विवाह माना जाता है क्योंकि श्रेष्ठ सद्गुणों से युक्त वर और वधू को पारस्परिक और सामाजिक सहमति के बाद विवाह की संस्था में प्रवेश दिया जाता है। लेकिन आज के समय में लड़के या लड़की की सहमति या इच्छा न होने के बाद भी विविध दबावों के द्वारा एक दूसरे के साथ विवाह करने के लिए विवश किया जाता है। जब तक सामाजिक दबाव, लोकलाज, अशिक्षा, खाप या जातीय पंचायतें शक्तिशाली रहे, तब तक ऐसे विवाह को लोग धर्मसम्मत समझते रहे और लोग इन्हें निभा भी लेते थे।  


भय के कारण निर्वाह कर लेने वाले विवाह को किस श्रेणी में डालेंगे, यह तो पाठक ही निर्णय करेंगे। प्रायः कुछ वर्षों पूर्व बिहार में ऐसे विवाह आम बात हो चुके थे जिसमें किसी सजातीय योग्य वर की सूचना पाकर रणवीर सेना या माओवादी संगठन के लोग बीच राह से ही उनका अपहरण कर लेते थे और उनका विवाह अपने समूह की कन्या से विधिवत करा देते थे। उड़ीसा में पढ़ते समय मेरी भेंट एक ऐसे सज्जन के संबंधी से हुई। उन्हें लड़की से साथ तीन दिन तक एक कमरे में विवाह के बाद बंद रखा गया। उनके परिवार वालों को सूचना दी गई और धमकी दी गई कि लड़की के साथ कुछ भी गलत होने पर अतिवादी कदम उठाए जाएंगे। वे लोग आज प्रसन्नतापूर्वक हैं लेकिन ऐसे विवाह को राक्षस विवाह कहते हैं। इसका आरंभ ही अधर्म पर आधारित है।


अब जब संविधान और प्रशासन अधिक शक्तिशाली हो गए हैं, तब ऐसे विवाहों की वास्तविकता सामने आ रही है। अब तक हम सभी जिसे आदर्श विवाह समझते रहे, उनमें संबंध विच्छेद, मन मुटाव और हत्या जैसे समाचार आम बात हो चुके हैं। सद्गुणों से युक्त रहने पर और पारस्परिक सहमति के बाद संविधान भी वयस्कों को स्वेच्छया विवाह की अनुमति देता है। समाज की इस पर मिश्रित  प्रतिक्रिया है। मुंबई और दिल्ली जैसे आर्थिक रूप से समृद्ध और गतिशील महानगर प्रेम विवाहों को पूरी स्वीकृति दे चुके हैं लेकिन वाराणसी, गाजीपुर जैसे जातियों को प्रधानता देने वाले शहरों  में  अभी भी व्यापक स्तर पर इन्हें अस्वीकार कर दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि यह अस्वीकार्यता केवल जातीय विषमता के कारण है।


यह अस्वीकार्यता पारस्परिक अविश्वास, प्रेम के नाम पर लड़कियों को ठगने वाले और उनकी भावना के साथ खेलने वाले लड़कों के कारण भी है। जैसे रावण ने साधु के छद्म वेश में माता सीता का अपहरण किया और माना जाता है कि तब से लोगों ने साधु वेश पर ही अविश्वास करना शुरू कर दिया, लेकिन धन्य हो स्वामी विवेकानंद और महर्षि दयानंद जैसे साधुओं का जिनके कारण समाज में साधुवेश की प्रतिष्ठा बनी रही; वैसे ही कुछ छद्म प्रेमियों के कारण वास्तविक प्रेम को पूरी तरह से नकार देना भी अनुचित होगा। इसके उदाहरण भी असंख्य हैं जैसे भाजपा के पूर्व नेता सिकंदर बख्त जिन्होंने एक हिंदू से विवाह किया और अंत तक निभाया, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जिन्होंने श्रीमती सोनिया जी से प्रेम विवाह किया और आदर्श दंपति बने रहे।


महाभारत के आदिपर्व के संभवपर्व में दुष्यंत द्वारा विवाह का प्रस्ताव रखने पर शकुन्तला उनसे अपने पिता ऋषि कण्व की प्रतीक्षा करने के लिए कहती हैं। दुष्यन्त क्षत्रिय हैं और शकुन्तला ब्राह्मण। वैसे यह और बात है कि शास्त्रों ने कन्या की जाति को नकार दिया है। सभी की भांति यह भी उसके गुण आचरण पर निर्भर करता है। दुष्यन्त राजा थे, सम्भवतः विचलित हुए हों कि कहीं ऋषि कण्व विवाह से मना न कर दें। इसका प्रमाण भी मिलता है कि विवाह के बाद राजा दुष्यंत चिंता करते हुए नगर गए कि यह सुनने के बाद तपस्वी महर्षि कण्व क्या करेंगे। इसलिए उन्होंने उनकी अनुपस्थिति में ही विवाह करने के लिए कहा तब शकुंतला ने पिता का भय दिखाया। उस समय दुष्यंत ने गांधर्व विवाह का प्रस्ताव रखा और इसे शास्त्र संस्तुत और धर्म सम्मत बताया। इसका मूल यह श्लोक है:


आत्मनो बंधुरात्मैव गतिरात्मैव चात्मन:

आत्मनो मित्रमात्मैव तथाssत्मा चात्मन: पिता

आत्मनैवात्मनो दानम् कर्तुमर्हसि धर्मतः 


आत्मा ही अपना बंधु है। आत्मा ही अपना आश्रय है। आत्मा ही अपना मित्र है। वही अपना पिता है। अतः स्वयं का धर्मपूर्वक दान किया जा सकता है। आज का प्रेम विवाह शास्त्रीय संदर्भों में ब्राह्म विवाह और गांधर्व विवाह का मिश्रित रूप है। इस संदर्भ को उठाने की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि मानवीय भावनाएं, घटनाएं हमेशा एक जैसी रही हैं, सनातन रही हैं। बदला केवल समाज और सामाजिक नियम है। इसलिए इन विशुद्ध मानवीय भावनाओं को यथार्थ की अभिव्यक्ति और शक्ति देने के लिए तब धर्मशास्त्र होते थे और उनके नियमों का संदर्भ दिया जाता था। इस श्लोक में भी धर्मतः का प्रयोग हुआ क्योंकि गांधर्व विवाह भी तभी अनुमन्य है जब उसमें धर्म के नियमों का पालन हो अन्यथा उसे पैशाच या राक्षसी विवाह माना जायेगा। आज की परिस्थितियों में धर्म का स्वरूप संविधान ने ले लिया है इसलिए आज ऐसे विवाहों की स्वीकार्यता धर्म के स्थान पर संविधान के नियमों के आलोक में होनी चाहिए। इसलिए धर्मतः के स्थान पर नियमतः शब्द का प्रयोग होना चाहिए।


भारतीय संविधान में, विवाह का अधिकार अनुच्छेद २१ के तहत जीवन के अधिकार का एक हिस्सा माना जाता है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करता है। विवाह के अधिकार में संविधान कुछ मूल बिंदुओं को रेखांकित करता है: (१) व्यक्तिगत स्वतंत्रता: हर वयस्क को अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार है।  (२) गरिमा: विवाह का अधिकार व्यक्ति की गरिमा और स्वायत्तता का एक अभिन्न अंग है। (३) भेदभाव का अभाव: किसी भी व्यक्ति को, चाहे वह लिंग, जाति, धर्म या किसी अन्य आधार पर, विवाह करने से नहीं रोका जा सकता। (४) सुरक्षा: यदि कोई जोड़ा, अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के बाद, परिवार या समाज से धमकी या उत्पीड़न का सामना करता है, तो उन्हें सुरक्षा प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है।


दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक मामले में कहा कि विवाह का अधिकार "मानवीय स्वतंत्रता की घटना" है और इसे माता-पिता या समाज की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी कहा कि एक वयस्क का अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार संविधान द्वारा संरक्षित है। शास्त्रों और संविधान द्वारा मानवीय भावनाओं को अपने कोमलतम और मृदुतम स्वरूप में सुरक्षित और संरक्षित करने के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन यथार्थ और भौंडे यथार्थ के मध्य संघर्ष ने स्थिति को अभी तक जटिल बनाया हुआ है। हिन्दू और मुस्लिम के बीच प्रेम विवाह हुए तो एक बड़े स्तर पर लव जिहाद जैसा नेटवर्क भी लगातार पकड़ा जा रहा है। जातियों के बीच प्रेम विवाह हो रहे हैं लेकिन जातीय पंचायतें द्वारा सम्मान के लिए हत्या के मामले भी सामने आ रहे हैं।


ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है


इन सभी विसंगतियों में एक आशा की किरण यही है कि लोग फिर भी प्रेम कर रहे हैं, क्षुद्र बंधनों को काटकर विवाह कर रहे हैं, आपसी मनमुटाव और अपेक्षाओं को किनारे रखकर निर्वाह कर रहे हैं और एक ऐसे अंधकारमय समाज में प्रेम का दीपक जलाए हुए हैं जिसके आलोक में संसार की सभी जातियों और संप्रदायों की संकीर्णता देखी और जलाई जा सकती है। कौन नहीं चाहता विश्व नागरिक बनना! आज अपने वैवाहिक वर्षगांठ की फोटो देखकर और साहित्य संगोष्ठी के उन वक्तव्यों के कारण मुझे गाजीपुर की धरती के ही महातपस्वी कण्व ऋषि का वह वाक्य याद आ गया जिसमें उन्होंने अपनी पुत्री शकुन्तला से कहा था,


त्वयाद्य भद्रे रहसि मामनादृत्य य: कृत:

पुंसा सह समायोगों न स धर्मोंपघातक:


स्त्री और पुरुष का प्रेम और धर्म पर आधारित विवाह धर्म का अपघातक नहीं है। इससे धर्म नष्ट नहीं होता। एकमात्र शर्त है प्रेम जिसमें यह देख लेने की क्षमता हो कि लड़का दुष्यंत जैसा धर्मात्मा और श्रेष्ठ पुरुष हो, योग्य हो। प्रेम अंधा नहीं होता। प्रेम सूक्ष्मदर्शी होता है। उसमें सूक्ष्म तत्वों को देखने की सामर्थ्य होती है। प्रेम मूर्ख भी नहीं होता। उसमें शकुंतला जैसे प्रश्न पूछने और अधिकार मांगने की बुद्धि होती है। प्रेम घटित होता है लेकिन प्रेम में पड़ना और प्रेम विवाह करना एक सूझबूझभरा निर्णय होता है। यह आकस्मिक दुर्घटना नहीं है। शकुंतला जैसी सदाचारिणी लड़की ही प्रेम के पवित्र आचार को समझ सकती है। विवाह के बाद लक्ष्य की एकाग्रता, केंद्र में आध्यात्मिकता और पारस्परिक सम्मान ही सब कुछ हैं। शकुन्तला ने अपने पिता कण्व से दो आशीर्वाद मांगे: राजा दुष्यंत सदा धर्म में स्थिर रहें, और कभी भी राज्य से भ्रष्ट न हों। यही वैशेषिक दर्शन में धर्म की परिभाषा है:"यतो अभ्युदय निःश्रेयस" का अर्थ है कि धर्म वह है जो मनुष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति और कल्याण की ओर ले जाता है।  


प्रेम और विवाह भी वही सार्थक हैं जिसमें पति और पत्नी एक दूसरे को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों उन्नतियों के मार्ग पर ले जाएं। यह आवश्यक नहीं कि आपने प्रेम के बाद विवाह किया या विवाह के बाद प्रेम, आवश्यक यह है कि आपने अपने सिर में भरे तमाम विकारों को अहंकार के साथ काटकर फेंका या नहीं। फिलहाल जातीय संकीर्णताओं को समाप्त करने के लिए प्रेम और विवाह से अधिक कारगर और कुछ नहीं दिखता। शकुन्तला की बात भी सुन लें जो उन्होंने विस्मृति के शिकार राजा दुष्यंत की सभा में कहा था, पति ही पत्नी के भीतर गर्भरूप से प्रवेश करता है और पुत्ररूप में जन्म लेता है।  पत्नी पति का आधा अंग है। वह धर्म अर्थ और काम का मूल है और संसार सागर से तरने की इच्छा रखने वाले पुरुष के लिए प्रमुख साधन है। पत्नी के साथ पुरुष सुखी और प्रसन्न रहते हैं क्योंकि पत्नी ही घर की लक्ष्मी है। क्रोधित होने पर भी पत्नी के साथ कोई अप्रिय व्यवहार नहीं करना चाहिए।  पत्नी धन, प्रजा, शरीर, लोकयात्रा, धर्म, स्वर्ग, ऋषि और पितर इन सबकी रक्षा करती है। ये वाक्य भी उन सभी लोगों के लिए आलोक स्तंभ हैं जो विवाह, पति और पत्नी को हल्के में लेते हैं या उनका अपमान करने लगते हैं। अंत में मेरे प्रिय कबीर:


प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय ।

राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाय॥


माधव कृष्ण, ३० जुलाई २०२५, गाजीपुर