को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।
       कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।। ......
धन्य है भारतीय संस्कृति और सनातन परंपरा। अद्भुत, अकल्पनीय....। संसार का सार समेटे सनातन संस्कृति और सभ्यता .... मानो समस्त संसार को आस्था के अथाह सागर में डुबो देना चाहता है..... भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का हिस्सा होने का गर्व यूँ ही नहीं है... ये वह देश है जहाँ देव भी जन्म पाने को लालायित रहते हैं... धन्य है.....
जब-जब प्रयागराज के विषय में कुछ लिखने को सोचता हूँ , तब-तब बाबा तुलसीदास की ये पंक्ति - 'को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ....' मानो कसौटी की रेखा खींच देती है। मानो जब बाबा तुलसीदास जी के लिए प्रयाग के प्रभाव का वर्णन करना इतना सहज नहीं है, तो फिर हम जैसे सामान्य जीव के लिए तो यह कार्य सोचा भी नहीं जा सकता। हो भी क्यों न...। उसके बाद रुक जाता हूँ। उनकी ये पंक्ति संदेश देती है कि प्रयागराज की महिमा के विषय में कुछ लिखना किसी के चित्त चेतना से परे है। यह तुलसीदास जी की अपनी शैली है कि जब किसी वर्णन प्रसंग में सर्वोच्च रेखा खींचनी हो तो उसका वर्णन कुछ ऐसा ही होता है। 
एक और उदाहरण देखिए -
'सब उपमा कवि रहे जुठारी।
   केहिं पटतरौं विदेह कुमारी।। 
अर्थात् सीता जी की तुलना किससे करूं , सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूठा कर दिया है। स्पष्ट है कि सीता की तुलना किसी से हो ही नहीं सकती थी, अतः उन्होंने ऐसा कहा। कुछ इसी तरह का भाव प्रयाग महिमा के विषय में तुलसीदास जी व्यक्त करना चाहते हैं , उसे सर्वोच्च रखना चाहते हैं। कितना अद्भुत, अकल्पनीय है इसकी महिमा...!
आज माघ मास की पूर्णिमा तिथि है। अब तक महाकुंभ में लगभग 50 करोड़ के आस पास लोग सनातन संस्कृति के इस अद्भुत संयोग के साक्षी बनकर पुण्य की डुबकी लगा चुके हैं । जहाँ लगभग प्रति दिन औसतन 1.5 करोड़ लोग महाकुंभ में स्नान कर रहे हैं, वहां तक लोगों को पहुंचने में कुछ कठिनाई अनुभव करना स्वाभाविक है। आप सोचिए, इतनी श्रद्धालु संख्या के अलावा प्रयागराज की अपनी दैनिक दिनचर्या , सरकारी, प्रशासनिक कार्यालयों की व्यस्तता, व्यवस्था इन सबके साथ संपन्न हो रही है। प्रयागराज वासियों के लिए भी इस दौरान सहज नहीं रहा है। कठिनाइयों का सामना उन्होंने भी पर्याप्त किया है। एक जगह से दूसरी जगह जाना सहज नहीं रहा है। किन्तु फिर भी महाकुंभ के इस अद्भुत, अकल्पनीय सांस्कृतिक संयोग के हर्ष के आगे वे सब कठिनाइयाँ भी हम लोग भूल गए हैं। यद्यपि सरकार और प्रशासन ने व्यवस्था बहुत की है, फिर भी एक शहर के एक क्षेत्र विशेष में प्रतिदिन लगभग दो करोड़ लोगों का प्रबंधन, और वह भी लगातार एक महीने से ऊपर हो रहा है, करते रहना सहज नहीं है। व्यवस्था के अंतर्गत गाडियाँ दूर रोकी जा रही हैं, ताकि लोग कम से कम पैदल तो चल सकें। और यही कारण है कि इतने श्रद्धालुओं को पैदल भी अधिक चलना पड़ा है। देखकर प्रयागराज वासियों को भी कष्ट होता है। किन्तु इतनी बड़ी व्यवस्था में ये विवशता ही है। सहज नहीं होता इतना। फिर भी आस्था का समुद्र हमने आप सभी श्रद्धालुओं में देखा है। उसी शक्ति के सहारे माँ गंगा की कृपा सब पर बनी रहती है और वे अपने गंतव्य तक पहुंच जाते हैं।
प्रयागराज संगम का यह क्षेत्र कल्पवास का क्षेत्र है। यहाँ लोग अपनी घर-गृहस्थी, सुख सुविधा से दूर, एक झोपड़ी में, टेंट में मास पर्यंत प्रवास करते हैं। धनी, निर्धन का भेद मिट जाता है। सभी गंगा, यमुना, सरस्वती की गोद शय्या में/ रेत में भगवद्भजन में लीन रहते हैं। हमारे पास पैसा कितना है, सुख के साधन कितने हैं? ये भाव यहाँ मिट जाता है। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को जब देखता हूँ कि सारे साधनों के बावजूद किसी को पैदल लंबी यात्रा करके वहाँ तक पहुंचना पड़ रहा है, तो कोई मंहगी गाड़ी के दंभ को किसी पार्किंग में पार्क करके थोड़ी दूर के लिए ट्राली मिल गई तो उसी का सहारा ले रहा है। ऐसा लगता है कि एक दो दिन के लिए भी आने वालों को माँ गंगा संगम की रेती में कल्पवास करने वालों जैसी अनुभूति करा देती हैं। शायद यह संकेत होता है कि यहाँ मोह, माया और आसक्ति की गठरी को छोड़ने का अभ्यास कराया जाता है।
कुछ परिचित लोग भी यहाँ पहुंचे, किन्तु व्यवस्था और यातायात की स्थिति के कारण उनसे मिल पाना भी संभव न हो सका। इस समय पूरा भारत ही नहीं बल्कि विश्व के सैकड़ों देशों के प्रतिनिधि भी इस अद्भुत काल के साक्षी हो रहे हैं। इतने बड़े आयोजन में आप सभी की अनुभूतियाँ अच्छी, बुरी हर तरह की होंगी। समाज में जिस तरह लोग अच्छे और कम अच्छे हर तरह के होते हैं, वैसे ही हमें अनुभूति भी होती है। प्रार्थना सब से यही है कि आप लोग अच्छी स्मृतियों को संजोकर रखिएगा। बाकी को भुला दीजिएगा। यह सोच लीजिएगा कि पुण्य की डुबकी के आगे पथ की परेशानियाँ सब नगण्य हैं। माँ गंगा, यमुना और सरस्वती से प्रार्थना है कि आप सभी के दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकार के ताप (कष्ट) को नष्ट करें और मन को निर्मल बनाएँ। निर्मल मन ही भगवान को प्रिय है:
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
अपने भारत को अपने शहर में पाना हम सभी के लिए गर्व का विषय है। प्रयागराज वासी आप सभी के स्नेह सान्निध्य से अभिभूत हैं। इतने साधु महात्माओं, पुण्यात्माओं की चरण रज पाकर प्रयागराज धन्य है। अहोभाग्य है हमारा ...।
✍️ डॉ निशा कान्त द्विवेदी 🙏







 
 
 
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