बुधवार, 26 नवंबर 2014

अपने स्कूलों से तो, पढ़कर मैं आया और कुछ, जिंदगी जब भी मिली, उसने सिखाया और कुछ!

अपने स्कूलों से तो, पढ़कर मैं आया और कुछ,
जिंदगी जब भी मिली, उसने सिखाया और कुछ!
सख्त असमंजश में हूँ बच्चों को क्या तालीम दूँ ,
साथ लेकर कुछ चला था, काम आया और कुछ !
आज फिर मायूस होकर, उसकी महफ़िल से उठा,
मुझको मेरी बेबसी ने, फिर रुलाया और कुछ !
इसको भोलापन कहूं या, उसकी होशियारी कहूँ?
मैंने पूछा और कुछ, उसने बताया और कुछ!
सब्र का फल हर समय मीठा ही हो, मुमकिन नहीं,
मुझको वादे कुछ मिले थे, मैंने पाया और कुछ!
आजकल 'विश्नोई' के, नग्मों की रंगत और है,
शायद उसका दिल किसी ने फिर दुखाया और कुछ

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है

अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है
ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है
लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है
हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है

बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

देख कर तस्वीर तेरी जमाना भूल जाते है ,

देख कर तस्वीर तेरी जमाना भूल जाते है ,
खुशी इतनी होती है कि मुस्कुराना भूल जाते है।।
पोंछते रहते है बहते अश्क जमाने भर के ,
अपनी आँखो के आँसू दिखाना भूल जाते है।।
हजारो बाते समझाते रहते है दुनियाभर को ,
बस अपने आप को समझाना भूल जाते है।।
यह अँधेरा भी खुश रहता है रातो का मेरी ,
चराग रखे रहते है और जलाना भूल जाते है।।
आँधियो मे भी रौशन रहता है सदा वजूद मेरा ,
दिल के जलते दिये तूफान मे बुझाना भूल जाते है।।
वो समझ नही पाते मेरी नजरों की चाहत,
मूझे उससे मोहब्बत है हम बताना भूल जाते है।।

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

एक था टाइगर


कृपया इस पोस्ट को पूरा जरुर पढ़े
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पिछले साल रिलीज हुई फिल्म "एक था टाइगर" ने बड़े
परदे पर जबरदस्त धूम मचाई थी....
इस फिल्म ने कमाई के सारे रिकार्ड तोड दिये थे और
फिल्म के हीरो सलमान खान ने भी खूब पैसा और
वाहवाही बटोरी थी...
इस फोटो मेँ दिखाये गये ये शख्स "एक था टाइगर"
फिल्म के सलमान खान की तरह बहुत मशहूर तो नहीँ है
और शायद ही कोई इनके बारे मेँ
जानता हो या किसी ने सुना हो? इनका नाम
था रवीन्द्र कौशिक.... ये भारत
की जासूसी संस्था RAW के भूतपूर्व एजेन्ट थे...
राजस्थान के श्रीगंगानगर मेँ पले बढ़े रवीन्द्र ने 23 साल
की उम्र मेँ ग्रेजुएशनकरने के बाद RAW ज्वाइन की थी,
तब तक भारत पाकिस्तान और चीन के साथ एक-एक
लड़ाई लड़ चुका था और पाकिस्तान भारत के
खिलाफ एक और युद्ध की तैयारी कर रहा था... जब
भारतीय सेना को इसकी भनक लगी तो साल 1975 में
कौशिक को भारतीय जासूस के तौर पर
खुफिया मिशन के लिए पाकिस्तान भेजा गया और
वहाँ उन्हें नबी अहमद शेख़ का नाम दिया गया.
पाकिस्तान पहुंच कर कौशिक ने कराची के
लॉ कॉलेज में दाखिल लिया और कानून में
स्तानककी डिग्री हासिल की. इसके बाद
वो पाकिस्तानी सेना में शामिल हो गए और मेजर के
रैंक तक पहुंच गए, लेकिन पाकिस्तान सेना को कभी ये
अहसास ही नहीं हुआ कि उनके बीच एक भारतीय
जासूस काम कर रहा है. कौशिक को वहां एक
पाकिस्तानी लड़की अमानत से प्यार भी हो गया,
दोनों ने शादी कर ली और उनकी एक बेटी भी हुई..
कौशिक ने अपनी जिंदगी के 30 साल अपने घर और देश
से बाहर गुजारे. इस दौरान पाकिस्तान के हर कदम पर
भारत
भारी पड़ता था क्योंकि उसकी सभी योजनाओं
की जानकारी कौशिक की ओर से भारतीय
अधिकारियों को दे दी जाती थी. इनकी बताई
जानकारियोँ के बलबूते पर भारत ने पाकिस्तान के
खिलाफ हर मोर्चे पर रणनीति तैयार की!
पाकिस्तान तो भारत के खिलाफ कारगिल युद्ध से
काफी पहले ही युद्ध छेड़ देता पर रवीन्द्र के रहते ये
संभव ना हो पाया.. केवल एक आदमी ने पाकिस्तान
को खोखला कर दिया था! भारतीय
सेना को रवीन्द्र के जरिये रणनीति बनाने
का पूरा मौका मिला और पाकिस्तान जिसने कई
बार राजस्थान से सटी सीमा पर युद्ध छेड़ने
का प्रयास किया उसे मुँह की खानी पड़ी!
इसलिए ये बात बहुत कम ही लोगोँ को पता है
कि पाकिस्तान के साथ हुई
लड़ाईयोँ का असली हीरो रवीन्द्र कौशिक है...
रवीन्द्र के बताये अनुसार भारतीय सेना के जवानोँ ने
अपने अतुल्य साहस का प्रदर्शन करते हुये पहलगाम मेँ
घुसपैठ कर चुके 50 से
ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकोँ को मार गिराया...
लेकिन दुर्भाग्य से 1983 में कौशिक का राज खुल
गया. दरअसल रॉ ने ही एक अन्य जासूस को कौशिक से
मिलने पाकिस्तान भेजा था जिसे
पाकिस्तानी खुफ़िया एजेंसी ने पकड़ लिया. पूछताछ
के दौरान इस जासूस ने अपने इरादों के बारे में साफ़
साफ़ बता दिया और साथ ही कौशिक की पहचान
को भी उजागर करदिया. हालांकि रवीन्द्र ने
किसी तरह भागकर खुद को बचाने के लिये भारत
सरकार से अपील की.. पर सच्चाई सामने आने के बाद
तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार ने उसे भारत वापिस
लाने मेँ कोई रुचि नहीँ दिखाई! अंततः उन्हे
पाकिस्तान मेँ ही पकड़ लिया गया और जेल मेँ डाल
कर उन पर तमाम तरह के मुकदमेँ चलाये गये... रवींद्र
कौशिक को काफी लालच दिया गया कि अगर
वो भारतीय सरकार से जुड़ी गोपनीय जानकारी दे दें
तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा. लेकिन कौशिक ने
अपना मुंह नहीं खोला, इस पर कौशिक को भयंकर
टार्चर भी किया गया...
फिर पाकिस्तान में कौशिक को 1985 में मौत
की सजा सुनाई गई जिसे बाद में उम्रकैद में तब्दील कर
दिया गया. कौशिक को मियांवाली की जेल में
रखा गया और वही टीबी और दिल का दौरा पड़ने से
उनकी मौत हो गई....
तो ये सिला मिला रवीन्द्र कौशिक को 30 साल
की देशभक्ति का..
भारत सरकार ने भारत मेँ मौजूद रवीन्द्र से संबंधित
सभी रिकार्ड मिटा दिये और RAW
को धमकी दी कि अपना रवीन्द्र के मामले मे
अपना मुँह बंद रखे...
रवीन्द्र के परिवार को हाशिये मेँ ढकेल
दिया गया और भारत का ये सच्चा सपूत हमेशा के
लिए गुमनामी के अंधेरे मेँ खो गया...
"एक था टाइगर" नाम की फिल्म रवीन्द्र कौशिक के
जीवन पर ही आधारित है, जब इस फिल्म का निर्माण
हो रहा था तो भारत सरकार के भारी दखल के बाद
इसकी स्क्रिप्ट मेँ फेरबदल करके इसकी कहानी मे
बदलाव किया गया....पर मूल कथा वही है!
इसलिए दोस्तो इस देशभक्त को गुमनाम ना होने देँ, ,
जब भी "एक था टाइगर" फिल्म देखे, तब इस
असली टाइगर को जरूर याद कर लें...!


शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

था मैं नींद में और मुझे इतना सजाया जा रहा था

था मैं नींद में और मुझे इतना
सजाया जा रहा था....
.
बड़े प्यार से
मुझे नहलाया जा रहा था....
.
ना जाने
था वो कौन सा अजब खेल
मेरे घर में....
.
बच्चो की तरह मुझे
कंधे पर उठाया जा रहा था....
.
था पास मेरा हर अपना
उस वक़्त....
.
फिर भी मैं हर किसी के
मन से
भुलाया जा रहा था...
.
जो कभी देखते
भी न थे मोहब्बत की
निगाहों से....
.
उनके दिल से भी प्यार मुझ
पर लुटाया जा रहा था...
.
मालूम नही क्यों
हैरान था हर कोई मुझे
सोते हुए देख कर....
.
जोर-जोर से रोकर मुझे
जगाया जा रहा था...
.
काँप उठी
मेरी रूह वो मंज़र
देख कर....
.
जहाँ मुझे हमेशा के
लिए सुलाया जा रहा था....
.
मोहब्बत की
इन्तहा थी जिन दिलो में
मेरे लिए....
.
उन्ही दिलो के हाथों
आज मैं जलाया जा रहा था....



सोमवार, 25 अगस्त 2014

डोलि गइल पतइन के पात-पात मन, जब से छु गइल पवन -भोलानाथ गहमरी

डोलि गइल पतइन के पात-पात मन, 
जब से छु गइल पवन

पाँव के अलम नाहीं
बाँह बे-सहारा,
प्रान एक तिनिका पर
टंगि गइल बेचारा,
लागि गइल अइसे में बाह रे लगन

रचि गइल सिंगार
सरुज-चान आसमान,
जिनगी के गीत लिखे
रात भर बिहान,
बाँचि गइल अनजाने में बेकल नयन।

देह गइल परदेसी
मोल कुछ पियार के,
दर्द एक बसा गइल
घरी-घरी निहार के,
लुटि गइल जनम-जनम के हर सुघर सपन।

काँट –कुश से भरल डगरिया, धरीं बचा के पाँव रे- भोलानाथ गहमरी

काँट –कुश से भरल डगरिया, धरीं बचा के पाँव रे
माटी ऊपर, छानी छप्पर, उहे हामरो गाँव रे…..

चारों ओर सुहावन लागे, निर्मल ताल-तलैया,
अमवा के डाली पर बैठल, गावे गीत कोइलिया,
थकल-बटोही पल-भर बैठे, आ बगिया के छाँव रे…

सनन –सनन सन बहे बायरिया, चरर-मरर बंसवरिया,
घरर-घरर-घर मथनी बोले, दहिया के कंह्तरिया,
साँझ सवेरे गइया बोले, बछरू बोले माँव रे…….

चान-सुरुज जिनकर रखवारा, माटी जिनकर थाती,
लहरे खेतन, बीच फसलीया, देख के लहरे छाती,
घर-घर सबकर भूख मिटावे, नाहीं चाहे नाव रे…….

निकसे पनिया के पनिघटवा, घूँघट काढ़ गुजरिया,
मथवा पर धई चले डगरिया, दूई-दूई भरल गगरिया,
सुधिया आवे जो नन्द गाँव के रोवे केतने साँवरे……

तन कोइला मन हीरा चमके, चमके कलश पिरितिया,
सरल स्वाभाव सनेही जिनकर, अमृत बासलि बतिया,
नेह भरल निस कपट गगरिया, छलके ठांवे-ठांव रे……….

कवने खोंतवा में लुकाइलु, आहि रे बालम चिरई,-भोलानाथ गहमरी

कवने खोंतवा में लुकाइलु, आहि रे बालम चिरई,
वन-वन ढूँढलीं, दर-दर ढूँढलीं, ढूँढलीं नदी के तीरे,
साँझ के ढूँढलीं, रात के ढूँढलीं, ढूँढलीं होत फजीरे,
मन में ढूँढलीं, जन में ढूँढलीं, ढूँढलीं बीच बजारे,
हिया-हिया में पैंइठ के ढूँढलीं, ढूँढलीं विरह के मारे,
कौने सुगना पे लुभइलु, आहि रे बालम चिरंई……….

गीत के हम हर कड़ी से पूछलीं, पूछलीं राग मिलन से,
छन्द-छन्द, लय ताल से पूछलीं, पूछलीं सुर के मन से,
किरण-किरण से जाके पूछलीं, पूछलीं नील गगन से,
धरती और पाताल से पूछलीं, पूछलीं मस्त पवन से,
कौने अंतरे में समइलु, आहि रे बालम चिरई…………

मन्दिर से मस्जिद तक देखलीं, गिरजा से गुरद्वारा,
गीता और कुरान में देखलीं तीरथ सारा,
पण्डित से मुल्ला तक देखलीं, देखलीं घरे कसाई,
सागरी उमरिया छछनत जियरा, कबले तोहके पाई,
कौनी बतिया पर कोहइलु, आहि रे बालम चिंरई…

बुधवार, 20 अगस्त 2014

आईने सा बिखरे पर पत्थर तरस नहीं खाते जिस्म ज़ख्मी है पर खंज़र तरस नहीं आते,

आईने सा बिखरे पर पत्थर तरस नहीं खाते
जिस्म ज़ख्मी है पर खंज़र तरस नहीं आते,
होते एक बराबर के तभी मिलता है मांगे से
सूखे हुए दरिया पर समंदर तरस नहीं खाते,
लुटते लुटते बाकी रहा ना है कुछभी लेकिन
भारत पे नेता रूपी सिकंदर तरस नहीं खाते,
ख्वाबों में आके डरा देते हैं आज भी मुझको
दिल दुखाने वाले यह मंजर तरस नहीं खाते,
कैसे बनता है आशियाँ बेघर हैं क्या जाने ये
घोंसला मिटाने में यह बंदर तरस नहीं खाते,
चढ़वाकर खून ही बच पायी है ज़िंदगी उसकी
मगर लहू पीने में ये मच्छर तरस नहीं खाते,
पैसे सेही मिलती हमने ज़िंदगी देखी है खुदा
मुफ़लिस बीमारों पर डॉक्टर तरस नहीं खाते,
रोज़ चीर हरण होता द्रोपदियों का यहां
खड़े देखते आज के गिरधर तरस नहीं खाते--

शनिवार, 16 अगस्त 2014

फूल खिला दे शाखों पर, पेड़ों को फल दे मालिक,

फूल खिला दे शाखों पर, पेड़ों को फल दे मालिक,
धरती जितनी प्यासी है, उतना तो जल दे मालिक,
वक़्त बड़ा दुखदायक है, पापी है संसार बहुत,
निर्धन को धनवान बना, दुर्बल को बल दे मालिक,
कोहरा कोहरा सर्दी है, काँप रहा है पूरा गाँव,
दिन को तपता सूरज दे, रात को कम्बल दे मालिक,
बैलों को इक गठरी घास, इंसानों को दो रोटी,
खेतों को भर गेहूँ से, काँधों को हल दे मालिक,
हाथ सभी के काले हैं, नजरें सबकी पीली हैं,
सीना ढाँप दुपट्टे से, सर को आँचल दे मालिक...

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

दिल की बात लबों पर लाकर, अब तक हम दुख सहते हैं|

दिल की बात लबों पर लाकर, अब तक हम दुख सहते हैं|
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं|

बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदली,
लेकिन इन प्यासी आँखों में अब तक आँसू बहते हैं|

एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं,
दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं|

जिस की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिस के लिये बदनाम हुए,
आज वही हम से बेगाने-बेगाने से रहते हैं|



बुधवार, 23 जुलाई 2014

सोचा नहीं अछा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं

सोचा नहीं अछा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं
मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं

देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे
मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं

जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं

इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मूँह से कहा कुछ भी नहीं

दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा
जब आग पर काग़ज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं

अहसास की ख़ुश्बू कहाँ, आवाज़ के जुगनू कहाँ
ख़ामोश यादों के सिवा, घर में रहा कुछ भी नहीं

शनिवार, 19 जुलाई 2014

खुशियां कम और अरमान बहुत हैं

खुशियां कम और अरमान बहुत हैं,
जिसे भी देखिए यहां हैरान बहुत हैं,,
करीब से देखा तो है रेत का घर,
दूर से मगर उनकी शान बहुत हैं,,
कहते हैं सच का कोई सानी नहीं,
आज तो झूठ की आन-बान बहुत हैं,,
मुश्किल से मिलता है शहर में आदमी,
यूं तो कहने को इन्सान बहुत हैं,,
तुम शौक से चलो राहें-वफा लेकिन,
जरा संभल के चलना तूफान बहुत हैं,,
वक्त पे न पहचाने कोई ये अलग बात,
वैसे तो शहर में अपनी पहचान बहुत हैं।।

ख़ाक से बढ़कर कोई दौलत नहीं होती छोटी मोटी बात पे हिज़रत नहीं होती

ख़ाक से बढ़कर कोई दौलत नहीं होती 
छोटी मोटी बात पे हिज़रत नहीं होती
पहले दीप जलें तो चर्चे होते थे 
और अब शहर जलें तो हैरत नहीं होती
तारीखों की पेशानी पर मोहर लगा 
ज़िंदा रहना कोई करामात नहीं होती
सोच रहा हूँ आखिर कब तक जीना है 
मर जाता तो इतनी फुर्सत नहीं होती
रोटी की गोलाई नापा करता है 
इसीलिए तो घर में बरकत नहीं होती
हमने ही कुछ लिखना पढना छोड़ दिया 
वरना ग़ज़ल की इतनी किल्लत नहीं होती
मिसवाकों से चाँद का चेहरा छूता है 
बेटा ......इतनी सस्ती जन्नत नहीं होती
बाजारों में ढूंढ रहा हूँ वो चीज़े 
जिन चीजों की कोई कीमत नहीं होती
कोई क्या राय दे हमारे बारे में 
ऐसों वैसों की तो हिम्मत नहीं होती .

गुरुवार, 10 जुलाई 2014

किसी को सीने से ना लगा, चलन है गला दबाने का

किसी को सीने से ना लगा, चलन है गला दबाने का 
कोई माने या ना माने, यही सच है, ज़माने का !

ज़माने में वही करता है, सबसे ज्यादा खर्च भी
नही अनुभव जिसे है, एक भी पैसा कमाने का !

सुबह से शाम तक जिसने, घोटे हैं गले 
उसे ही मिलता है हक़ भी, ख़ुशी से गुनगुनाने का !

गंवारों को मिला है हक़, सबकी तकदीर लिखने का 
मदारी मान कर खुद को, रोज बन्दर नचाने का !

नहीं जिम्मा की सबकी रूहों को, तू पाक साफ़ करे
सड़न से दूर रख खुद को, ज़मीर अपना बचाने का !

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

युं ही हम दिल को साफ़ रखा करते थे

महँगी से महँगी घड़ी पहन कर देख ली, वक़्त फिर
भी मेरे हिसाब से कभी ना चला ...!!"
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युं ही हम दिल को साफ़ रखा करते थे ..
पता नही था की, 'किमत चेहरों की होती है!!'
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अगर खुदा नहीं हे तो उसका ज़िक्र क्यों ?? और
अगर खुदा हे तो फिर फिक्र क्यों ???
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"दो बातें इंसान को अपनों से दूर कर देती हैं, एक
उसका 'अहम' और दूसरा उसका 'वहम'......
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" पैसे से सुख कभी खरीदा नहीं जाता और दुःख
का कोई खरीदार नहीं होता।"
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मुझे जिंदगी का इतना तजुर्बा तो नहीं, पर सुना है
सादगी मे लोग जीने नहीं देते।

मंगलवार, 6 मई 2014

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा । इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा । 
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा । 

हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है, 
जिस तरफ़ भी चल पड़ेगे, रास्ता हो जाएगा । 

कितना सच्चाई से, मुझसे ज़िंदगी ने कह दिया, 
तू नहीं मेरा तो कोई, दूसरा हो जाएगा । 

मैं खूदा का नाम लेकर, पी रहा हूँ दोस्तो, 
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा । 

सब उसी के हैं, हवा, ख़ुश्बु, ज़मीनो-आस्माँ, 
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जाएगा ।

मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन

मुँह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन ।

सदियों-सदियों वही तमाशा
रस्ता-रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं
खो जाता है जाने कौन ।

जाने क्या-क्या बोल रहा था
सरहद, प्यार, किताबें, ख़ून
कल मेरी नींदों में छुपकर
जाग रहा था जाने कौन ।

मैं उसकी परछाई हूँ या
वो मेरा आईना है
मेरे ही घर में रहता है
मेरे जैसा जाने कौन ।

किरन-किरन अलसाता सूरज
पलक-पलक खुलती नींदें
धीमे-धीमे बिखर रहा है
ज़र्रा-ज़र्रा जाने कौन ।

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

मस्कुलर डिस्ट्रॉफी यानी मांसपेशियों की दुर्बलता


कक्षा 7 में पढ़ने वाली मेधा ने एक दिन रिक्शा से उतरते समय महसूस किया कि उसे पैर नीचे रखने में दिक्कत हो रही है। उसने सोचा ऐसे ही पैर सो गया होगा। पर अगले दिन सीढ़िया चढ़ते समय उसे सीढ़ियां चढ़ने में दिक्कत हो रही है। सीढ़िया चढ़ते समय उसे पैर को हाथ से सहारा देना पड़ रहा है। स्कूल से लौट कर उसने यह बात अपने पापा को बताई। पापा उसे डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर ने लक्षण समझने के बाद मस्कुलर डिस्ट्रॉफी होने की आशंका व्यक्त की। कुछ टेस्ट कराए। डेस्ट में आशंका सही साबित हुई।

क्या है मस्कुलर डिस्ट्रॉफी
मस्कुलर डिस्ट्रॉफी एक आनुवांशिक बीमारी है। पर अनुवांशिक कारण न होने पर भी यह बीमारी हो सकती है। इसमें शरीर की मांसपेशियां धीरे-धीरे कमजोर होती जाती हैं और एक सीमा के बाद बेकार हो जाती हैं। उम्र बढ़ने के साथ-साथ यह बीमारी पूरे शरीर में फैलती जाती है। इसे धीरे-धीरे बढ़ने वाली बीमारी भी कहते हैं। 

लक्षण 
संतुलन बनाने में दिक्कत आती है। जैसे व्यक्ति बिना सहारे के खड़े होने, पीठ टिकाएं बिना बैठने में दिक्कत महसूस करता है। पलके लटक जाती हैं। रीढ़ की हड्डी झुकने लगती है। चलने-फिरने में दिक्कत होती है। श्वांस संबंधी दिक्कते होने लगती हैं। जोड़ों में तकलीफ होती है। हृदय संबंधी रोग भी हो जाते हैं। 

प्रकार
यह कई प्रकार की होती है। कुछ प्रमुख प्रकार हैं-
डीएमडी:
 मस्कुलर डिस्ट्रॉफी का यह सबसे प्रचलित प्रकार है, जो शरीर में डिस्ट्रॉफिन प्रोटीन को बनाने वाले जीन की खराबी के कारण होता है। यह प्रोटीन शरीर में मांसपेशियों को मजबूत करने का कार्य करता है। इसकी कमी से मांसपेशियां क्षतिग्रस्त होने लगती हैं और व्यक्ति धीरे-धीरे कमजोर होता जाता है। डीएमडी ज्यादातर लड़कों में होती है। 2 से 6 साल की उम्र के बीच इसके लक्षण दिखाई देने लगते हैं। इससे पीड़ित बच्चों को 10-12 साल का होते तक व्हीलचेयर का इस्तेमाल करना पड़ता है। कई बार हृदय संबंधी दिक्कतें भी रोगी को परेशान करती हैं। कुछ रोगियों में माइल्ड मेंटल रिटारडेशन भी देखने को मिलता है। 

बीएमडी: इसके लक्षण देर से उभरते हैं और अपेक्षाकृत कम खतरनाक होते हैं। मांसपेशियों का कमजोर होना और टूटना इसके प्रमुख लक्षण हैं, जो आमतौर पर 10 साल की उम्र तक दिखाई नहीं देते। कई बार ये व्यस्क तक भी दिखाई नहीं देते। इससे ग्रस्त लोगों को दिल, सांस, हड्डियों, मांसपेशियों व जोड़ों की तकलीफ होती है 

ईडीएमडी: यह भी मस्कुलर डिस्ट्रॉफी का एक प्रकार है और अधिकांशत: लड़कों को गिरफ्त में लेता है। आमतौर पर इसके लक्षण बाल्यवस्था खत्म होने, किशोरावस्था की शुरुआत या युवावस्था में दिखाई देते हैं। यह कंधों, बांहों व जांघों को प्रभावित करता है। 

एलजीएमडी: यह स्त्री-पुरुष दोनों में होती है और रोगी की बांहों, कंधों, जांघों और कूल्हों की मांसपेशियों को कमजोर कर देती है।  इसका असर धीरे-धीरे बढ़ता है।  

एफएसएचडी: इसमें चेहरे, कंधों और पैरों के निचले हिस्से प्रभावित होते हैं। इससे परेशान व्यक्ति को हाथ उठाने, सीटी बचाने व कस कर आंखें बंद करने में परेशानी होती है। इसमें रोग की गंभीरता व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करती है।
एमएमडी: किशोरों में यह ज्यादा परेशानी का सबब बनती है। इसमें मांसपेशियों में कमजोरी और आंख व दिल संबंधी परेशानियां शामिल है। व्यक्ति निगलने में भी दिक्कत महसूस करता है।

उपचार: 
मस्कुलर डिस्ट्रॉफी का कोई संतोषजनक उपचार अभी तक नहीं मिल पाया है। वैज्ञानिक इस बीमारी के लिए जिम्मेदार डिफेक्टिव जीन्स की पड़ताल में लगे है। शुरुआती चरण में रोग की पहचान इसके इलाज में काफी मददगार हो सकती है



http://www.livehindustan.com/news/tayaarinews/tayaarinews/article1-story-67-67-395278.html

https://www.nichd.nih.gov/health/topics/musculardys/conditioninfo/pages/treatment.aspx

सोमवार, 13 जनवरी 2014

कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो

कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो

तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है
यह जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो

नशें में चूर हूँ मैं भी तुम्हें भी होश नहीं
बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो

यह एक शब् की मुलाक़ात भी गनीमत है
किसे है कल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो

अभी तो जाग रहे हैं चिराग़ राहों के
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो ........अहमद फ़राज़

रविवार, 12 जनवरी 2014

तुम किसी गैर को चाहो तो मज़ा आ जाए और वो तुमसे खफ्फा होतो मज़ा आ जाए

तुम किसी गैर को चाहो तो मज़ा आ जाए
और वो तुमसे खफ्फा होतो मज़ा आ जाए
और वो तुमसे खफ्फा होतो मज़ा आ जाए


तू कोई नाम हथेली पे लिखे मेहंदी से
और वो नाम मेरा होतो मज़ा आ जाए
तुम किसी गैर को चाहो तो मज़ा आ जाए

मेरे शिकवे तुझे अच्छे नही लगते लेकिन
तुझ को भी मुझसे गिल्ला होतो मज़ा आ जाए
तुम किसी गैर को चाहो तो मज़ा आ जाए

तुझको एहसास होता मेरी बेचैनी का
कोई तुझसे भी जुड़ा होतो मज़ा आ जाए
तुम किसी गैर को चाहो तो मज़ा आ जाए

और वो तुमसे खफ्फा होतो मज़ा आ जाए




गुरुवार, 9 जनवरी 2014

दिल की दास्ताँ तुझे कैसे सुनाउ?

दिल की दास्ताँ 

दिल की दास्ताँ तुझे कैसे सुनाउ? 
व्यथा जो मन में है उसे कैसे दिखाऊ 
पास आओ थोडा सा तो कान में कुछ कह पाऊँ 
रोना चाहती हूँ सामने, पर रो ना पाऊँ। दिल की

दिल के जज्बात चूर चूर होकर रह गए
जैसे ही आपने कुछ कहा वो सुन्न हो गए
सुनने के वो आदि न थे पर सुन के रेह गए
आपकी आदत से आहत होकर दर किनारा कर लिये। दिल की

रहेगी सदा बेबसी पर भुला न पाउंगी
सर्द मौसम है ज्यादा फिर भी बर्दास्त कर लुंगी
हर मौसम में अपने आपको ऐसे ही ढाल पाऊँगी
पतझड़ आ जाएँ राह में, स्वागत भी कर पाउंगी। दिल की

गिला है ना शिकवा मन में, फिर भी दुःख क्यों है?
मिटने को खुद है राजी, फिर दिल उदास क्यों है?
वजूद हमारा नहीं खतरे में फिर भी भड़ास क्यों है?
एक बहार ना आनेसेगुलशन बीमार क्यों है। दिल की

उनका जाना, हमसे बिछड़ना, एक निशानी तो है
आशियाँ उझड़ भी जाएँ फिर भी डर काहे को है
दिल क्यों बैठा जाता है, अनजानी राह में है
राही है नया दोस्त बना, फिर बर्बादी का डर क्यों है। दिल की

कितने ही गुल खिल उठे है खुशियां बिखरेने के लिए
कितने ही मासूम चेहरे तैयार है, सदा ही हंसने के लिये
हम क्यों रहे गुमसुम, जब जग खड़ा है मिलने के लिए
गले से हम भी लग जायेंगे, स्वीकार करने के लिए।.दिल की

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

कभी खुद पर, कभी हालत पर रोना आया । मुझे तेरी हर बात पे रोना आया ।

कभी खुद पर, कभी हालत पर रोना आया ।
मुझे तेरी हर बात पे रोना आया ।
गद्दार कहना भी तुझे खुद से गद्दारी है ।
मुझे तेरे हालात पे रोना आया


"धूप भी खुल के कुछ नहीं कहती ,
रात ढलती नहीं थम जाती है ,
सर्द मौसम की एक दिक्कत है ,
याद तक जम के बैठ जाती है.....!"


खोये रहो तुम खयालों में ऐसे ही
ये गुलशन वीरान हो जायेगा
यूँ ही बैठे रहो तुम इंतज़ार में ही
पूरा शहर ही शमशान हो जायेगा
कब तलक तुम रहोगे उनके भरोसे
जो करते भ्रमित, खुद भी रहते भ्रमित
तोड़ों भ्रमों को और आगे बढ़ो तुम
ये गुलशन गुलज़ार हो जायेगा

हमारा नाम लिखकर कागजों पर फिर उडा देना। भला सीखा कहाँ तुमने सितम को यूँ हवा देना॥

हमारा नाम लिखकर कागजों पर फिर उडा देना।
भला सीखा कहाँ तुमने सितम को यूँ हवा देना॥

हमे मालूम है तुम भी किसी से प्यार करते हो।
तुम्हे भी इल्म है मेरा किसी पर मुस्कुरा देना॥

मुहब्बत ग़म मे हो या खुशी मे दोनो बेहतर है।
कहीं कोई मिले तुमको उसे यह मशविरा देना॥

तुम अपने हक पे जायज हो हम अपने हक पे जायज हैं।
कहाँ फिर बात आती है किसी का घर गिरा देना॥

यॆ दुनियाँ है बडी काफिर तू इसकी बात पर मत आ।
के इसका काम है ऊपर चढा कर फिर गिरा देना॥

रीतेश रजवाणा"विभू"

आप को देख कर देखता रह गया, क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया,

आप को देख कर देखता रह गया,
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया,

आते आते मेरा नाम सा रह गया,
उसके होठों पे कुछ कांपता रह गया,

वो मेरे सामने ही गया और मैं,
रास्ते की तरह देखता रह गया,

झूठ वाले कहीं से कहीं बढ गये,
और मैं था के सच बोलता रह गया,

आंधियों के इरादे तो अच्छे ना थे,
ये दिया कैसे जलता रह गया,

लेखक ___वसीम बरेलवी

गायक ___जगजीत सिंह