गुरुवार, 9 जनवरी 2014

दिल की दास्ताँ तुझे कैसे सुनाउ?

दिल की दास्ताँ 

दिल की दास्ताँ तुझे कैसे सुनाउ? 
व्यथा जो मन में है उसे कैसे दिखाऊ 
पास आओ थोडा सा तो कान में कुछ कह पाऊँ 
रोना चाहती हूँ सामने, पर रो ना पाऊँ। दिल की

दिल के जज्बात चूर चूर होकर रह गए
जैसे ही आपने कुछ कहा वो सुन्न हो गए
सुनने के वो आदि न थे पर सुन के रेह गए
आपकी आदत से आहत होकर दर किनारा कर लिये। दिल की

रहेगी सदा बेबसी पर भुला न पाउंगी
सर्द मौसम है ज्यादा फिर भी बर्दास्त कर लुंगी
हर मौसम में अपने आपको ऐसे ही ढाल पाऊँगी
पतझड़ आ जाएँ राह में, स्वागत भी कर पाउंगी। दिल की

गिला है ना शिकवा मन में, फिर भी दुःख क्यों है?
मिटने को खुद है राजी, फिर दिल उदास क्यों है?
वजूद हमारा नहीं खतरे में फिर भी भड़ास क्यों है?
एक बहार ना आनेसेगुलशन बीमार क्यों है। दिल की

उनका जाना, हमसे बिछड़ना, एक निशानी तो है
आशियाँ उझड़ भी जाएँ फिर भी डर काहे को है
दिल क्यों बैठा जाता है, अनजानी राह में है
राही है नया दोस्त बना, फिर बर्बादी का डर क्यों है। दिल की

कितने ही गुल खिल उठे है खुशियां बिखरेने के लिए
कितने ही मासूम चेहरे तैयार है, सदा ही हंसने के लिये
हम क्यों रहे गुमसुम, जब जग खड़ा है मिलने के लिए
गले से हम भी लग जायेंगे, स्वीकार करने के लिए।.दिल की

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