जब यात्रा अनंत जन्मों की हो जिसका आधार विशुद्ध प्रेम हो तब वर्ष नहीं गिने जाते। लेकिन फिर भी विवाह की वर्षगांठ मनाई जाती है। अभी एक साहित्यिक संगोष्ठी में दो साहित्यकारों ने 'साहित्य की जाति और धर्म' विषय पर बोलते हुए मेरे अंतरजातीय विवाह का उदाहरण सामने रखा। अंतरजातीय विवाह: यह एक दृष्टि है विभिन्न जातियों में होने वाले विवाह को देखने की। मुझे इस दृष्टि से कोई शिकायत भी नहीं है लेकिन सच तो यह है कि यह दृष्टि जातिवादी दृष्टि है। जो जाति देखने का आदी है वह विवाह को इस श्रेणी में देखकर बांधेगा ही, अंतरजातीय विवाह।
फिल्म हाउसफुल ५ में अक्षय कुमार का एक संवाद है: "प्वाइंट ये नहीं है जिस पर तू स्ट्रेस कर रहा है।" हां, बिलकुल! बिंदु वह नहीं है जिसे आप रेखांकित कर रहे हैं। मूल बिंदु है प्रेम, और यह उपेक्षित होता रहा है। प्रेम और विवाह, ये दोनों स्थिर और उबाऊ संस्थाएं नहीं हैं। प्रेम और विवाह, दोनों निरन्तर गतिशील, विकासशील और प्रवहमान संस्थाएं हैं। इसलिए जब प्रेम और विवाह एक साथ घटित होते हैं जिसके लिए समाज ने प्रेमविवाह शब्द चुना, तो यह किसी भी मनुष्य के जीवन की एक कोमलता से परिवर्तन कर देने वाली घटना बन जाती है। यह संवेदनाओं का धर्म और चरमोत्कर्ष है।
कुछ लोगों ने हमेशा व्यवस्थित विवाह और प्रेम विवाह के बीच आपसी समझ, मनमुटाव, परिवार का ध्यान इत्यादि के आधार पर एक लकीर खींचने का प्रयास किया है। लेकिन मैं ऐसे किसी अंतर को नहीं देखता। दोनों का केंद्र विवाह है, एक साथ रहने और एक दूसरे के लक्ष्य में सहयोग करने का अदम्य संकल्प। एक में प्रेम विवाह के पूर्व घटित होता है और दूसरे में विवाह के बाद प्रेम घटित होता है। दोनों में असीम धैर्य, आपसी समझ और निर्वहन की अटूट क्षमता आवश्यक है। इसीलिए भारतीय मानस ने विशेष निर्वहन या विवाह जैसे शब्द की संरचना की।
कुछ लोगों ने कहा कि, प्रेम विवाह सामाजिक संरचना को तोड़ देते हैं। यह सच है। जब एक कथावाचक को जाति पूछकर मारा जाता हो या जब किसी गांव में एक मवेशी के चरने पर दो जातियों में खूनी संघर्ष हो जाता हो या जब किसी एक जिले में एक योग्य प्रतिनिधि को दूसरी जाति के लोग वोट नहीं देते हैं, तब क्या सामाजिक संरचना बची रहती है? ऐसी सड़ी गली सामाजिक संरचना को तो ध्वस्त होना ही चाहिए। आश्चर्य है कि, सामाजिक संरचना के नाम पर हम वह सब कुछ बचा लेना चाहते हैं जो विद्वेष और विभाजन का स्रोत है; और इसे बचाने के नाम पर हम हर उस कृत्य और विचार का विरोध करते हैं जिसका आधार विशुद्ध प्रेम है, जिसके अंदर दो समुदायों को जोड़ने की क्षमता है।
भारत की सांस्कृतिक परम्परा में आठ विवाहों की सूची है: ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस, पैशाच। अंतिम दो को अधर्म पर आधारित विवाह माना जाता है क्योंकि इसमें कन्या की इच्छा नहीं होती और उसका हरण कर लिया जाता है। सर्वश्रेष्ठ ब्राह्म विवाह माना जाता है क्योंकि श्रेष्ठ सद्गुणों से युक्त वर और वधू को पारस्परिक और सामाजिक सहमति के बाद विवाह की संस्था में प्रवेश दिया जाता है। लेकिन आज के समय में लड़के या लड़की की सहमति या इच्छा न होने के बाद भी विविध दबावों के द्वारा एक दूसरे के साथ विवाह करने के लिए विवश किया जाता है। जब तक सामाजिक दबाव, लोकलाज, अशिक्षा, खाप या जातीय पंचायतें शक्तिशाली रहे, तब तक ऐसे विवाह को लोग धर्मसम्मत समझते रहे और लोग इन्हें निभा भी लेते थे।
भय के कारण निर्वाह कर लेने वाले विवाह को किस श्रेणी में डालेंगे, यह तो पाठक ही निर्णय करेंगे। प्रायः कुछ वर्षों पूर्व बिहार में ऐसे विवाह आम बात हो चुके थे जिसमें किसी सजातीय योग्य वर की सूचना पाकर रणवीर सेना या माओवादी संगठन के लोग बीच राह से ही उनका अपहरण कर लेते थे और उनका विवाह अपने समूह की कन्या से विधिवत करा देते थे। उड़ीसा में पढ़ते समय मेरी भेंट एक ऐसे सज्जन के संबंधी से हुई। उन्हें लड़की से साथ तीन दिन तक एक कमरे में विवाह के बाद बंद रखा गया। उनके परिवार वालों को सूचना दी गई और धमकी दी गई कि लड़की के साथ कुछ भी गलत होने पर अतिवादी कदम उठाए जाएंगे। वे लोग आज प्रसन्नतापूर्वक हैं लेकिन ऐसे विवाह को राक्षस विवाह कहते हैं। इसका आरंभ ही अधर्म पर आधारित है।
अब जब संविधान और प्रशासन अधिक शक्तिशाली हो गए हैं, तब ऐसे विवाहों की वास्तविकता सामने आ रही है। अब तक हम सभी जिसे आदर्श विवाह समझते रहे, उनमें संबंध विच्छेद, मन मुटाव और हत्या जैसे समाचार आम बात हो चुके हैं। सद्गुणों से युक्त रहने पर और पारस्परिक सहमति के बाद संविधान भी वयस्कों को स्वेच्छया विवाह की अनुमति देता है। समाज की इस पर मिश्रित प्रतिक्रिया है। मुंबई और दिल्ली जैसे आर्थिक रूप से समृद्ध और गतिशील महानगर प्रेम विवाहों को पूरी स्वीकृति दे चुके हैं लेकिन वाराणसी, गाजीपुर जैसे जातियों को प्रधानता देने वाले शहरों में अभी भी व्यापक स्तर पर इन्हें अस्वीकार कर दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि यह अस्वीकार्यता केवल जातीय विषमता के कारण है।
यह अस्वीकार्यता पारस्परिक अविश्वास, प्रेम के नाम पर लड़कियों को ठगने वाले और उनकी भावना के साथ खेलने वाले लड़कों के कारण भी है। जैसे रावण ने साधु के छद्म वेश में माता सीता का अपहरण किया और माना जाता है कि तब से लोगों ने साधु वेश पर ही अविश्वास करना शुरू कर दिया, लेकिन धन्य हो स्वामी विवेकानंद और महर्षि दयानंद जैसे साधुओं का जिनके कारण समाज में साधुवेश की प्रतिष्ठा बनी रही; वैसे ही कुछ छद्म प्रेमियों के कारण वास्तविक प्रेम को पूरी तरह से नकार देना भी अनुचित होगा। इसके उदाहरण भी असंख्य हैं जैसे भाजपा के पूर्व नेता सिकंदर बख्त जिन्होंने एक हिंदू से विवाह किया और अंत तक निभाया, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जिन्होंने श्रीमती सोनिया जी से प्रेम विवाह किया और आदर्श दंपति बने रहे।
महाभारत के आदिपर्व के संभवपर्व में दुष्यंत द्वारा विवाह का प्रस्ताव रखने पर शकुन्तला उनसे अपने पिता ऋषि कण्व की प्रतीक्षा करने के लिए कहती हैं। दुष्यन्त क्षत्रिय हैं और शकुन्तला ब्राह्मण। वैसे यह और बात है कि शास्त्रों ने कन्या की जाति को नकार दिया है। सभी की भांति यह भी उसके गुण आचरण पर निर्भर करता है। दुष्यन्त राजा थे, सम्भवतः विचलित हुए हों कि कहीं ऋषि कण्व विवाह से मना न कर दें। इसका प्रमाण भी मिलता है कि विवाह के बाद राजा दुष्यंत चिंता करते हुए नगर गए कि यह सुनने के बाद तपस्वी महर्षि कण्व क्या करेंगे। इसलिए उन्होंने उनकी अनुपस्थिति में ही विवाह करने के लिए कहा तब शकुंतला ने पिता का भय दिखाया। उस समय दुष्यंत ने गांधर्व विवाह का प्रस्ताव रखा और इसे शास्त्र संस्तुत और धर्म सम्मत बताया। इसका मूल यह श्लोक है:
आत्मनो बंधुरात्मैव गतिरात्मैव चात्मन:
आत्मनो मित्रमात्मैव तथाssत्मा चात्मन: पिता
आत्मनैवात्मनो दानम् कर्तुमर्हसि धर्मतः
आत्मा ही अपना बंधु है। आत्मा ही अपना आश्रय है। आत्मा ही अपना मित्र है। वही अपना पिता है। अतः स्वयं का धर्मपूर्वक दान किया जा सकता है। आज का प्रेम विवाह शास्त्रीय संदर्भों में ब्राह्म विवाह और गांधर्व विवाह का मिश्रित रूप है। इस संदर्भ को उठाने की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि मानवीय भावनाएं, घटनाएं हमेशा एक जैसी रही हैं, सनातन रही हैं। बदला केवल समाज और सामाजिक नियम है। इसलिए इन विशुद्ध मानवीय भावनाओं को यथार्थ की अभिव्यक्ति और शक्ति देने के लिए तब धर्मशास्त्र होते थे और उनके नियमों का संदर्भ दिया जाता था। इस श्लोक में भी धर्मतः का प्रयोग हुआ क्योंकि गांधर्व विवाह भी तभी अनुमन्य है जब उसमें धर्म के नियमों का पालन हो अन्यथा उसे पैशाच या राक्षसी विवाह माना जायेगा। आज की परिस्थितियों में धर्म का स्वरूप संविधान ने ले लिया है इसलिए आज ऐसे विवाहों की स्वीकार्यता धर्म के स्थान पर संविधान के नियमों के आलोक में होनी चाहिए। इसलिए धर्मतः के स्थान पर नियमतः शब्द का प्रयोग होना चाहिए।
भारतीय संविधान में, विवाह का अधिकार अनुच्छेद २१ के तहत जीवन के अधिकार का एक हिस्सा माना जाता है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करता है। विवाह के अधिकार में संविधान कुछ मूल बिंदुओं को रेखांकित करता है: (१) व्यक्तिगत स्वतंत्रता: हर वयस्क को अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार है। (२) गरिमा: विवाह का अधिकार व्यक्ति की गरिमा और स्वायत्तता का एक अभिन्न अंग है। (३) भेदभाव का अभाव: किसी भी व्यक्ति को, चाहे वह लिंग, जाति, धर्म या किसी अन्य आधार पर, विवाह करने से नहीं रोका जा सकता। (४) सुरक्षा: यदि कोई जोड़ा, अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के बाद, परिवार या समाज से धमकी या उत्पीड़न का सामना करता है, तो उन्हें सुरक्षा प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक मामले में कहा कि विवाह का अधिकार "मानवीय स्वतंत्रता की घटना" है और इसे माता-पिता या समाज की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी कहा कि एक वयस्क का अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार संविधान द्वारा संरक्षित है। शास्त्रों और संविधान द्वारा मानवीय भावनाओं को अपने कोमलतम और मृदुतम स्वरूप में सुरक्षित और संरक्षित करने के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन यथार्थ और भौंडे यथार्थ के मध्य संघर्ष ने स्थिति को अभी तक जटिल बनाया हुआ है। हिन्दू और मुस्लिम के बीच प्रेम विवाह हुए तो एक बड़े स्तर पर लव जिहाद जैसा नेटवर्क भी लगातार पकड़ा जा रहा है। जातियों के बीच प्रेम विवाह हो रहे हैं लेकिन जातीय पंचायतें द्वारा सम्मान के लिए हत्या के मामले भी सामने आ रहे हैं।
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
इन सभी विसंगतियों में एक आशा की किरण यही है कि लोग फिर भी प्रेम कर रहे हैं, क्षुद्र बंधनों को काटकर विवाह कर रहे हैं, आपसी मनमुटाव और अपेक्षाओं को किनारे रखकर निर्वाह कर रहे हैं और एक ऐसे अंधकारमय समाज में प्रेम का दीपक जलाए हुए हैं जिसके आलोक में संसार की सभी जातियों और संप्रदायों की संकीर्णता देखी और जलाई जा सकती है। कौन नहीं चाहता विश्व नागरिक बनना! आज अपने वैवाहिक वर्षगांठ की फोटो देखकर और साहित्य संगोष्ठी के उन वक्तव्यों के कारण मुझे गाजीपुर की धरती के ही महातपस्वी कण्व ऋषि का वह वाक्य याद आ गया जिसमें उन्होंने अपनी पुत्री शकुन्तला से कहा था,
त्वयाद्य भद्रे रहसि मामनादृत्य य: कृत:
पुंसा सह समायोगों न स धर्मोंपघातक:
स्त्री और पुरुष का प्रेम और धर्म पर आधारित विवाह धर्म का अपघातक नहीं है। इससे धर्म नष्ट नहीं होता। एकमात्र शर्त है प्रेम जिसमें यह देख लेने की क्षमता हो कि लड़का दुष्यंत जैसा धर्मात्मा और श्रेष्ठ पुरुष हो, योग्य हो। प्रेम अंधा नहीं होता। प्रेम सूक्ष्मदर्शी होता है। उसमें सूक्ष्म तत्वों को देखने की सामर्थ्य होती है। प्रेम मूर्ख भी नहीं होता। उसमें शकुंतला जैसे प्रश्न पूछने और अधिकार मांगने की बुद्धि होती है। प्रेम घटित होता है लेकिन प्रेम में पड़ना और प्रेम विवाह करना एक सूझबूझभरा निर्णय होता है। यह आकस्मिक दुर्घटना नहीं है। शकुंतला जैसी सदाचारिणी लड़की ही प्रेम के पवित्र आचार को समझ सकती है। विवाह के बाद लक्ष्य की एकाग्रता, केंद्र में आध्यात्मिकता और पारस्परिक सम्मान ही सब कुछ हैं। शकुन्तला ने अपने पिता कण्व से दो आशीर्वाद मांगे: राजा दुष्यंत सदा धर्म में स्थिर रहें, और कभी भी राज्य से भ्रष्ट न हों। यही वैशेषिक दर्शन में धर्म की परिभाषा है:"यतो अभ्युदय निःश्रेयस" का अर्थ है कि धर्म वह है जो मनुष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति और कल्याण की ओर ले जाता है।
प्रेम और विवाह भी वही सार्थक हैं जिसमें पति और पत्नी एक दूसरे को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों उन्नतियों के मार्ग पर ले जाएं। यह आवश्यक नहीं कि आपने प्रेम के बाद विवाह किया या विवाह के बाद प्रेम, आवश्यक यह है कि आपने अपने सिर में भरे तमाम विकारों को अहंकार के साथ काटकर फेंका या नहीं। फिलहाल जातीय संकीर्णताओं को समाप्त करने के लिए प्रेम और विवाह से अधिक कारगर और कुछ नहीं दिखता। शकुन्तला की बात भी सुन लें जो उन्होंने विस्मृति के शिकार राजा दुष्यंत की सभा में कहा था, पति ही पत्नी के भीतर गर्भरूप से प्रवेश करता है और पुत्ररूप में जन्म लेता है। पत्नी पति का आधा अंग है। वह धर्म अर्थ और काम का मूल है और संसार सागर से तरने की इच्छा रखने वाले पुरुष के लिए प्रमुख साधन है। पत्नी के साथ पुरुष सुखी और प्रसन्न रहते हैं क्योंकि पत्नी ही घर की लक्ष्मी है। क्रोधित होने पर भी पत्नी के साथ कोई अप्रिय व्यवहार नहीं करना चाहिए। पत्नी धन, प्रजा, शरीर, लोकयात्रा, धर्म, स्वर्ग, ऋषि और पितर इन सबकी रक्षा करती है। ये वाक्य भी उन सभी लोगों के लिए आलोक स्तंभ हैं जो विवाह, पति और पत्नी को हल्के में लेते हैं या उनका अपमान करने लगते हैं। अंत में मेरे प्रिय कबीर:
प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाय॥
माधव कृष्ण, ३० जुलाई २०२५, गाजीपुर
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