साप्ताहिक मानव धर्म संगोष्ठी
स्थान: द प्रेसीडियम इंटरनेशनल स्कूल योग कक्ष, अष्टभुजी कॉलोनी, बड़ी बाग, लंका, गाजीपुर
दिन: शनिवार, 26 जुलाई 2025
समय: शाम 7 बजे से 9 बजे तक
आयोजक: नगर शाखा, श्री गंगा आश्रम, मानव धर्म प्रसार
साप्ताहिक संस्कारशाला के कुछ निष्कर्ष
मानव धर्म प्रसार
1. जापान के बौद्ध संत की तरह बुद्ध के विचारों का प्रसार बुद्ध की करुणा दृष्टि अपनाकर ही हो सकता है।
2. शिव का नाम जपने के बाद शिव की तरह कल्याणकारी हो जाना है। महर्षि दधीचि शिवभक्त थे। शिव को जपने का परिणाम यह हुआ कि दधीचि ने अपने आराध्य की भांति ही लोककल्याण के लिए बिना कुछ सोचे अपना शरीर दे दिया।
3. गुरुनानक देव की इच्छा थी कि अच्छे लोग अपनी अच्छाई के साथ फैल जाएं, और बुरे लोग एक स्थान पर सीमित रहें ताकि उनकी बुराई से समाज का अहित न हो।
4. ईश्वर का सर्वत्र और सबमें दर्शन करना चाहिए। यही सबसे बड़ा और सहज ध्यान है।
5. निस्वार्थ प्रेम देने वाला ही गुरु है।
6. प्रेम एकरस होता है। जो चढ़ती उतरती है वह मस्ती नहीं है। प्रेम की मस्ती तो हमेशा चढ़ी रहती है।
7. सादे कपड़े पहनो, बेईमानी का अन्न न खाओ, खुद तकलीफ सह लो, दूसरों को सुख दो, भिखारी खाली हाथ न जाए, कोई बेकसूर होने के बाद भी गाली दे तो भी हाथ जोड़ लो तो भजन खुल जाता है। चिड़ियों और चींटियों को जहां देखो, भोजन दे दो। दीनता और शांति से भजन में प्रगति होती है।
8. सुमिरन का अर्थ है परमात्मा का स्मरण। अपना कार्य करते हुए प्रभु का स्मरण करना ही सिमरन है। सांस सांस सिमरन करे, वृथा न जाए सांस। प्राप्त पर्याप्त है, इसलिए ईश्वर को हमेशा स्मरण करते रहना चाहिए।
9. भजन के साथ आत्मावलोकन भी आवश्यक है। मन की गति गहन है।
10. सदा सकारात्मक दृष्टिकोण होना चाहिए।
11. कर्म का अटल सिद्धांत है, जो करोगे सो भरोगे।
कुछ कहानियां
अमीर खुसरो पहले मुल्तान के हाकिम के यहां नौकरी करते थे, किंतु किसी कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी और वह अपना सारा सामान ऊंटों पर लादकर अपने गुरु हजरत निजामुद्दीन से मिलने दिल्ली की ओर निकल पड़े। इधर हजरत निजामुद्दीन के पास एक गरीब आदमी आया और बोला, मालिक मेरी लड़की की शादी तय हो गई है। यदि आप कुछ मदद कर सकें, तो मैं आपका शुक्रगुजार रहूंगा। हजरत बोले, आज तो मेरे पास देने के लिए कुछ नहीं है, तुम कल आना।
वह आदमी जब दूसरे दिन गया, तो हजरत बोले, आज भी मुझे कुछ नहीं मिला। इस प्रकार तीन दिन बीत गए, लेकिन हजरत के पास भेंट चढ़ाने के लिए कोई नहीं आया। आखिर चौथे दिन जब वह गरीब वापस जाने लगा, तो उन्होंने उसे अपनी जूती ही दे दी। बेचारा मायूस तो हुआ, पर जूती लेकर ही चल पड़ा। रास्ते में खुसरो का काफिला आ रहा था। खुसरो को लगा कि कहीं से पीर की खुशबू आ रही है, किंतु पीर (हजरत निजामुद्दीन) कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। जब वह आदमी इनके सामने से गुजरा, तो वे समझ गए कि खुशबू इसी आदमी के पास से आ रही है।
उन्होंने इसे रोककर पूछा, आप कहां से आ रहे हैं? उसने सारी बात बता दी। तब खुसरो बोले, क्या तुम इस जूती को बेचोगे? उस आदमी ने कहा, ‘आप वैसे ही ले सकते हैं’, लेकिन खुसरो ने पत्नी, दो बच्चों और खुद के लिए एक-एक ऊंट रखकर बाकी सारे ऊंट और उन पर लदा सामान उस आदमी को दे दिया। वह उन्हें दुआ देता हुआ चला गया। खुसरो जब दिल्ली पहुंचे, तो उन्होंने हजरत के चरणों पर वह जूती रख दी। तब उन्होंने पूछा, इसके बदले क्या दिया है तुमने? खुसरो ने सारी चीजें गिना दीं। खुसरो का अपने प्रति यह उत्कट प्रेम देख उनके मुख से निकला, इसकी कब्र मेरी कब्र के पास ही बनाना।
*****
एक फकीर था जापान में, वह बुद्ध के ग्रंथों का अनुवाद करवा रहा था। पहली बार जापानी भाषा में पाली से बुद्ध के ग्रंथ जाने वाले थे। गरीब फकीर था, उसने दस साल तक भीख मांगी। दस हज़ार रुपए इकट्ठे कर पाया, लेकिन तभी अकाल आ गया, उस इलाके में अकाल आ गया।
उसके दूसरे मित्रों ने कहा कि नहीं-नहीं, ये रुपए अकाल में नहीं देने हैं, लोग तो मरते हैं जीते हैं, चलता है सब। भगवान के वचन अनुवादित होने चाहिए, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
लेकिन वह फकीर हंसने लगा। उसने वे दस हज़ार रुपए अकाल के काम में दे दिए। फिर बूढ़ा फकीर, साठ साल उसकी उम्र हो गई थी, फिर उसने भीख मांगनी शुरू की। दस साल में फिर दस हज़ार रुपये इकट्ठे कर पाया कि अनुवाद का कार्य करवाए, पंडितों को लाए। क्योंकि पंडित तो बिना पैसे के मिलते नहीं हैं। पंडित तो सब किराए के होते हैं। तो पंडित को तो रुपया चाहिए था, तो वह अनुवाद करे पाली से जापानी में। फिर दस हजार रुपये इकट्ठे किए, लेकिन दुर्भाग्य कि बाढ़ आ गयी और वे दस हजार रुपये वह फिर देने लगा।
तो उसके भिक्षुओं ने कहा:यह क्या कर रहे हो? यह जीवन भर का श्रम व्यर्थ हुआ जाता है। बाढ़ें आती रहेंगी, अकाल पड़ते रहेंगे, यह सब होता रहेगा। अगर ऐसा बार-बार रुपए इकट्ठे करके इन कामों में लगा दिया तो वह अनुवाद कभी भी नहीं होगा।
लेकिन वह भिक्षु हंसने लगा। उसने वे दस हज़ार रुपए फिर दे दिए। फिर उम्र के आखिरी हिस्से में दस-बारह साल में फिर वह दस-पंद्रह हज़ार रुपए इकट्ठे कर पाया। फिर अनुवाद का काम शुरू हुआ और पहली किताब अनुवादित हुई। तो उसने किताब में लिखा :थर्ड एडिशन, तीसरा संस्करण।
तो उसके मित्र कहने लगे :पहले दो संस्करण कहाँ हैं? निकले ही कहाँ? पागल हो गए हो? यह तो पहला संस्करण है।
लेकिन वह कहने लगा कि दो निकले, लेकिन वे निराकार संस्करण थे। उनका आकार न था। वे निकले, एक पहला निकला था जब अकाल पड़ गया था, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी। फिर दूसरा निकला था जब बाढ़ आ गई थी, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी, लेकिन उस वाणी को वे ही सुन और पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री का भाव है। यह तीसरा संस्करण सबसे सस्ता, सबसे साधारण है, इसको कोई भी पढ़ सकता है, अंधे भी पढ़ सकते हैं, लेकिन वे दो संस्करण वे ही पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री की आंखें हैं।
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