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श्रीरामचरितमानस- लेखक श्री माधव कृष्ण जी गाज़ीपुर उत्तर प्रदेश ~ Lav Tiwari ( लव तिवारी )

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मंगलवार, 5 सितंबर 2023

श्रीरामचरितमानस- लेखक श्री माधव कृष्ण जी गाज़ीपुर उत्तर प्रदेश

श्रीरामचरितमानस
विचारधाराओं के युद्ध में शब्दकोष का बड़ा महत्व है. प्रत्येक विचारधारा का अपना एक शब्दकोष है. इसलिए दो विभिन्न विचारधाराओं में सामंजस्य की कोई संभावना नहीं दिखती. साहित्यकारों और विचारकों को पढ़ते समय यह सावधानी रखनी होगी कि हम उनके साहित्य और विचारों का मूल्यांकन उनके शब्दकोष से करें. यह विरल पाठकीय गुण भी उनमें ही संभव है जो साहित्य और विचारधारा को समझने के लिए प्रयासरत हैं. यह दुर्लभ गुण प्रतिक्रियावादी लेखकों, विचारकों और पाठकों में नहीं मिल सकता.
यह पुनः एक दुर्भाग्य की बात है कि राजनीतिज्ञों ने पुस्तकों पर वोटबैंक-सम्मत सार्वजनिक राय रखने का कार्य प्रारम्भ कर दिया है. यह किसी दार्शनिक के लिए बुरा दिन होगा कि उसे ऐसे किसी विषय पर चुनिन्दा उद्धरणों के मसीहाओं को स्पष्टीकरण देना होगा. लेकिन जब बात सार्वजनिक हो चुकी हों, अल्पज्ञता और कट्टरता हावी हो रही हो, तो मुखर होना आवश्यक है. ऐसे व्यक्तियों का अकादमिक परिवेश में उत्तर देना संभव ही नहीं जो स्वयं अकादमिक नहीं. मत के राजनीति की निर्लज्ज विवशता, अभिव्यक्ति की अंतहीन स्वतंत्रता और सत्ता का मद विश्लेषण के संसार में प्रवेश नहीं करने देता है.
यह एक ऐसा ही दुर्भाग्यपूर्ण सप्ताह है जब तेजस्वी यादव के सेनानी बिहार के शिक्षा मंत्री और आरजेडी विधायक चंद्रशेखर ने राजधानी पटना में नालंदा ओपन विश्वविद्यालय के १५वें दीक्षांत समारोह में छात्रों को संबोधित करते हुए कहा कि, मनुस्मृति, बंच ऑफ थॉट्स, रामचरितमानस नफरत फैलाने वाले ग्रंथ हैं. चंद्रशेखर ने कहा कि एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस, तीसरे युग में गुरु गोवलकर का बंच ऑफ थॉट, ये सभी देश को, समाज को नफरत में बांटते हैं. नफरत देश को कभी महान नहीं बनाएगी. देश को महान केवल मोहब्बत ही बनाएगी. चंद्रशेखर ने साइंस में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा किया है, जिसके बाद वह अपने नाम के आगे प्रोफेसर भी लिखने लगे. वह पेशे से लेक्चरर रहे हैं. वह २०२० में तीसरी बार चुनाव जीतकर आए हैं. मंत्री जी पर तीन मुकदमे चल रहे हैं.
उन्होंने कहा, "रामचरितमानस का विरोध क्यों किया गया और किस हिस्से का विरोध किया गया? मनुस्मृति, रामचरितमानस, गुरु गोलवलकर की बंच ऑफ थॉट्स … ये किताबें ऐसी किताबें हैं जो नफरत फैलाती हैं. मनुस्मृति में समाज की ८५ फीसदी आबादी वाले बड़े तबके के खिलाफ गालियां दी गईं. रामचरितमानस के उत्तर कांड में लिखा है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं, यह नफरत को बोने वाले ग्रंथ हैं." उन्होंने इस अर्थ वाली चौपाई का संदर्भ भी नहीं दिया. उन्होंने कहीं से सुना होगा.
सुनने के बाद रुक जाना एक भयावह रोग है जिसकी औषधि पूरे संसार में नहीं है. इसलिए वेदान्त में श्रवणं के साथ मननं और निदिध्यासनं या अभ्यास पर बल दिया है. भागवत में श्रवणं के साथ स्मरणं और अन्य ७ चरणों का उल्लेख है. यह श्रवण के बाद छाया प्रमाद ही विश्लेषण तक नहीं जाने देता और कुतर्क को जन्म देता है. यह कुतर्क ही सारे विवाद की जड़ है. इसलिए ऐसे अध्ययनहीन आचरण-पतित शूद्रों, अपढ़-लोभी-कामी-आचारहीन-मूर्ख और व्यभिचारिणी स्त्रियों के साथ रहने वाले ब्राह्मणों को बरासन या श्रेष्ठ व्यासपीठ पर बैठकर महान ग्रंथों के विषय में सार्वजनिक वक्तव्य देने से मना किया गया है.
इस पर एक लम्बी चर्चा चल चुकी है, वाद-विवाद हो चुके हैं, वर्ण और जाति में अंतर स्पष्ट किया जा चुका है, ब्राह्मण और शूद्र की वैदिक परिभाषाओं को ससंदर्भ रखा जा चुका है. श्रीरामचरितमानस के श्रीराम के चरित्र के औदात्य को जटायु, शबरी, अहिल्या, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवंत जैसे पात्रों के आलोक में सिद्ध किया जा चुका है. गंगा से बहुत पानी निकल चुका है. या तो आप वैदिक शब्दकोष, तत्कालीन इतिहास और परम्परा का ज्ञान रखकर दूसरा जन्म लीजिये, द्विज बनिए और वैदिक दर्शन पढ़ने के अधिकारी बनिए, या बाहर हो जाइए. बहुत ग्रन्थ और पुस्तकें लिखी गयी हैं आपको संतुष्ट करने के लिए. अनधिकार चेष्टा वर्जित है.
ऐसे लोगों को साहित्यिक आलोचकीय भाषा में विखंडनवादी कहा गया है. प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह का मानना है, “आलोचक को किसी की आलोचना करने से पहले उसी भावभूमि पर होना चाहिए जिस भाव-भूमि पर पहुंचकर रचनाकार रचना कर रहा है. गुण-दोष बाद में देखना चाहिए. लेकिन जिस लहर मान पर वह है, आप मन से वहीं पहुंचें. और वहीं पहुंचकर देखें कि सचमुच वह कहाँ है? कहाँ से बोल रहा है? निराला जी के शब्दों में, वह किस कोठे से बोल रहा है? इसलिए आलोचक कर्म जो है वह मूलतः सहृदय का है.” नामवर सिंह ने श्रीरामचरितमानस को इस दृष्टि से देखने वाले साहित्यकारों को आड़े हाथों लेते हुए कहा था कि, उनके पास परम्परा-बोध नहीं है.
संरचनात्मक और सकारात्मक मुद्दों के अभाव में राजनीतिज्ञ और सतही विचारक समाज को विभाजित करने के लिए अपने अध्ययनहीन राग को विश्वविद्यालय के मंच से गाने का प्रयास कर रहे हैं, विशेषकर वह राजनीतिज्ञ जिस पर तीन संगीन मुक़दमे हैं हैं और जिसे पता भी नहीं कि लेक्चरर प्रोफेसर नहीं लिख सकते. उफ़, ये जीवन के बहुमूल्य दस मिनट!
(२)
उनके अनुयायियों का मानना है कि श्रीरामचरितमानस के पुनर्पाठ की आवश्यकता है और इसे प्रजातांत्रिक बनाने के लिए आपत्तिजनक अंशों को हटाने की आवश्यकता है. मेरा तो मानना है कि उन्हें इस पुस्तक को ही नहीं पढ़ना चाहिए. यदि आप भूगर्भ विज्ञान के छात्र नहीं हैं और न ही इस विषय के शब्दकोष से आप परिचय हैं, तो इस की पुस्तक पढ़कर क्यों अपना और समाज का सिरदर्द बढ़ा रहे हैं? गोस्वामी तुलसीदास ने इसका पाठक बनने की योग्यता निर्धारित कर रखी है:
“जो लोग इस चरित्र को सावधानी से गाते हैं, वे ही इस तालाब के चतुर रखवाले हैं और जो स्त्री-पुरुष सदा आदरपूर्वक इसे सुनते हैं, वे ही इस सुंदर मानस के अधिकारी उत्तम देवता हैं। जो अति दुष्ट और विषयी हैं, वे अभागे बगुले और कौए हैं, जो इस सरोवर के समीप नहीं जाते, क्योंकि यहाँ (इस मानस सरोवर में) घोंघे, मेंढक और सेवार के समान विषय रस की नाना कथाएँ नहीं हैं। इसी कारण बेचारे कौवे और बगुले रूपी विषयी लोग यहाँ आते हुए हृदय में हार मान जाते हैं, क्योंकि इस सरोवर तक आने में कठिनाइयाँ बहुत हैं। श्री रामजी की कृपा बिना यहाँ नहीं आया जाता।“
“घोर कुसंग ही भयानक बुरा रास्ता है, उन कुसंगियों के वचन ही बाघ, सिंह और साँप हैं। घर के कामकाज और गृहस्थी के भाँति-भाँति के जंजाल ही अत्यंत दुर्गम बड़े-बड़े पहाड़ हैं। मोह, मद और मान ही बहुत से बीहड़ वन हैं और नाना प्रकार के कुतर्क ही भयानक नदियाँ हैं।जिनके पास श्रद्धा रूपी राह खर्च नहीं है और संतों का साथ नहीं है और जिनको श्री रघुनाथजी प्रिय हैं, उनके लिए यह मानस अत्यंत ही अगम है। (अर्थात्‌ श्रद्धा, सत्संग और भगवत्प्रेम के बिना कोई इसको नहीं पा सकता)।“
“यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे नींद रूपी ज़ूडी आ जाती है। हृदय में मूर्खता रूपी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता। उससे उस सरोवर में स्नान और उसका जलपान तो किया नहीं जाता, वह अभिमान सहित लौट आता है। फिर यदि कोई उससे (वहाँ का हाल) पूछने आता है, तो वह (अपने अभाग्य की बात न कहकर) सरोवर की निंदा करके उसे समझाता है।“
“ये सारे विघ्न उसको नहीं व्यापते (बाधा नहीं देते) जिसे श्री रामचंद्रजी सुंदर कृपा की दृष्टि से देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और महान्‌ भयानक त्रिताप से (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापों से) नहीं जलता।”
इतना विशद वर्णन करने के बाद बे गोस्वामी तुलसीदास रुकते नहीं, वह कथा के उपसंहार में पुनः कहते हैं, “यह कथा उनसे न कहनी चाहिए जो शठ (धूर्त) हों, हठी स्वभाव के हों और श्री हरि की लीला को मन लगाकर न सुनते हों। लोभी, क्रोधी और कामी को, जो चराचर के स्वामी श्रीराम जी को नहीं भजते, यह कथा नहीं कहनी चाहिए. ब्राह्मणों के द्रोही को, यदि वह देवराज (इन्द्र) के समान ऐश्वर्यवान राजा भी हो, तब भी यह कथा न सुनानी चाहिए। श्री रामकथा के अधिकारी वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यंत प्रिय है. जिनकी गुरु के चरणों में प्रीति है, जो नीतिपरायण हैं और ब्राह्मणों के सेवक हैं, वे ही इसके अधिकारी हैं और उसको तो यह कथा बहुत ही सुख देने वाली है, जिसको श्री रघुनाथजी प्राण के समान प्यारे हैं.”
सीधी बात यह है कि श्रीरामचरितमानस चंद्रशेखर जी और उनके अनुयायियों जैसे द्रोही और क्रोधी स्वभाव के प्रतिक्रियावादी राजनीतिज्ञों को एक सिरे से खारिज करती है और श्रीरामचरितमानस के अध्ययन का अधिकारी ही नहीं मानती. तुलसी ने बार-बार ब्राह्मण, राम और सत्संग में श्रद्धा रखकर योग्यता विकसित करने की बात कही है, श्रद्धा-सत्संग-भगवत्प्रेम. यदि श्रीरामचरितमानस का विद्यालय होता और उसमें प्रवेश लेने के लिए अर्हता होती तो ऐसे लोग प्रवेश नहीं ले सकते.
कथा आलोचक विजय मोहन सिंह ने जब निर्मल वर्मा की कहानियों पर विदेशी परिवेश का आरोप लगाया तब नामवर सिंह ने मोर्चा संभालते हुए कहा, ‘‘ मैं फिर कहूँगा कि परिवेश महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण वह मानवीय संवेदना है। फिर यह मानवीय संवेदना.........चाहे जहाँ से भी आये। यह विडंबनापूर्ण स्थिति नहीं है कि निर्मल अपने लेखों में भारतीयता का जिक्र करते हैं और कहानियों में विदेशी परिवेश होता है। प्रश्न यह है कि कहानी के केन्द्र में कौन मनुष्य है। भारतीय या अभारतीय। परिवेश नहीं भी हो, वह मन कौन सा है। वह मन यदि सचमुच आज के भारतीय मनुष्य की चिंताओं से, प्यार से, विसंगति से, विडंबना से ... विंधा हुआ है ... और वह कहानी में व्यक्त होता है तो मेरे निकट वहीं महत्वपूर्ण है। नितांत भारतीय परिवेश को लेकर लिखी और रची कहानी अभारतीय हो सकती है।’’
आप एक पुस्तक को वैदिक परम्परा का पोषक होने के कारण निशाने पर लेते हैं क्योंकि आपके ‘स्वीपिंग स्टेटमेंट’ और एकांगी सोच की सीमित परिधि ने आपको यह सोचने ही नहीं दिया कि यह विश्व की सर्वाधिक सुसभ्य, सुचिंतित और सुसंस्कृत परम्परा है. इतनी सुचिंतित कि टी एस इलियट कह उठा कि भारतीय दार्शनिकों के सामने पाश्चात्य दार्शनिक बच्चे हैं. बहरहाल, सद्गुण, सचिन्तन और स्वस्थ विमर्श आपकी विचारधारा के विपरीत ध्रुव से भी प्राप्त हो तो वह ग्रहण करने योग्य है.

-माधव कृष्ण, १३ जनवरी २०२३
(३)
यह तो अच्छा हुआ कि भगवान् राम के विरोधी श्रीरामचरितमानस नहीं पढ़ते हैं. उन्हें अभी तक कुछ सुनी-सुनाई चौपाइयों से कष्ट है. यदि वे पूरी पुस्तक पढ़ लें तो संभवतः घुटन के कारण उनकी मृत्यु हो सकती है.
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई।।
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी।।
मैं उनके पाले में जाकर उन की तरह अब सन्दर्भ के बिना केवल चौपाइयों को उद्धृत कर रहा हूँ.
अब यह कैसे मान लिया जाय कि उसी युवती को पुत्रवती माना जायेगा, जिसका पुत्र रघुपति भगवान् श्रीराम की भक्ति करता हो!
बाबा तुलसीदास यहाँ भी रुक जाते तो रामद्रोहियों को शान्ति मिल जाती. पर बाबा किसी के रोकने से कहाँ रुकने वाले हैं?
वह तो खुलकर घोषणा कर देते हैं कि राम से विमुख पुत्र से अपना हित जानने वाली माता बाँझ ही अच्छी। पशु की भाँति उसका ब्याना (पुत्र प्रसव करना) व्यर्थ ही है.
यह क्या कह गए गोस्वामी तुलसीदास जी?
भगवान् राम पर लांछन लगाने वाले, उनसे दूर, उनकी भक्ति न करने वाले - इन सबकी माँ ने केवल पशुओं की तरह पशुओं को ही जन्म दिया है. या राम से विमुख पुत्रों को पुत्र कहने से अच्छा है वे स्वयं को बाँझ कहें.
अब क्या कहूँ मैं?
श्रीरामचरितमानस को आप आधा अधूरा पढ़ेंगे, तो उस आधे अधूरे तरीके से गोस्वामी तुलसीदास के सभी अपशब्द आप पर चस्पा होंगे!
(४)
मानव धर्म प्रसार का प्रवर्तन परमहंस बाबा गंगाराम दास जी ने किया जिन्हें हम सभी शिष्य श्रीमहाराज जी भी कहते हैं. वह हमारे सद्गुरु हैं और वह हमारे परमात्मा भी हैं,
कहते हैं हंस के समक्ष नीर और क्षीर रखा जाय तो वह क्षीर पी जाता है और प्याले में केवल नीर रह जाता है. इस संसार में जड़ और चेतन, अच्छे और बुरे, पवित्र और अपवित्र, नित्य और अनित्य सभी कुछ मिश्रित है. परमहंस वह है जो अपने विवेक के द्वारा केवल चेतन, पवित्र, नित्य और अच्छे का वरन करता है.
इस प्रकार श्री महाराज जी ने आश्रम के नीतिग्रंथ का चयन किया, और वह था श्रीरामचरितमानस. इसका अर्थ यह है कि परमहंस बाबा गंगारामदास जी का श्रीरामचरितमानस, इसके लेखक गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज और इसके नायक भगवान् श्रीरामचंद्र में वह सब कुछ है जिसे एक परमहंस संत पवित्र, नित्य, अच्छा और चैतन्य देखता है.
मेरे पिछले लेख के बाद कुछ टिप्पणियाँ आयीं. उन में से कुछ पर विचार करता हूँ और अन्य की उपेक्षा करता हूँ. जिन टिप्पणियों की उपेक्षा कर रहा हूँ, वे टिप्पणियाँ उन्हीं सज्जन से अनेकों बार चाय पर, शाखाओं में, पोस्ट के माध्यम से और फ़ोन पर स्पष्ट की जा चुकी हैं. लेकिन कहते हैं कि कुछ लोगों की घड़ी की सुई अटक जाती है एक ही स्थान पर. फिर बैटरी बदलने और मरम्मत करवाने या चाभी लगाने से भी काम नहीं बनता है. पूरी की पूरी घड़ी ही बदलने की आवश्यकता है, और उन लोगों के लिए इस जन्म में यह संभव नहीं है.
एक टिप्पणी यह थी, “विरोध एक मनुवादी सोच वाले लेखक की है न कि भगवान राम या कृष्ण की।।”
इस टिप्पणी की पृष्ठभूमि समझने के लिए पूरे टूलकिट की योजना समझनी होगी जिसने सैकड़ों वर्षों से भारतीय जनमानस के मन में अपने शास्त्रों और सांस्कृतिक नायकों के विरुद्ध विष बोने का कार्य किया है.
जब भारतीय सनातन धर्म और शास्त्रों पर प्रहार आरम्भ हुए तो उनके केंद्र में केवल सांस्कृतिक नायक थे. आज श्रीरामचरितमानस के लेखक पर प्रहार करने वाले लेख पर प्रहार इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उस लेखक ने एक सांस्कृतिक नायक के गुण सामान्य भाषा में उस समय गाये जब विदेशी आक्रमणकारियों के लगातार आघात से सनातन धर्म के अनुयायियों की रीढ़ टूटने लगी थी, आये दिन मंदिर तोड़े जा रहे थे, उन्हें प्रताड़ित किया जाता था.
भगवान् राम के लीला गायन से भारतीय जनमानस में सांस्कृतिक चेतना और पौरुष का भाव विकसित हुआ. दुर्बल मन वाले लोगों के ह्रदय में उत्साह का संचार हुआ. भारत में वर्ग संघर्ष का स्वप्न देख रहे लोगों को इस सांस्कृतिक नायक की छवि खराब करनी ही पड़ेगी अन्यथा उनकी खूनी क्रान्ति का स्वप्न अधूरा ही रह जाएगा.
इन सभी लोगों ने आरम्भ भी भगवान् राम को कलंकित करने से ही किया था. लेकिन सांस्कृतिक चेतना के उभार और सत्तारोहण से इन्हें अपनी भूल समझ में आ गयी. इन्हें पता चल गया कि भगवान् राम और कृष्ण जन-जन के ह्रदय में सौन्दय, मर्यादा, धर्म, पौरुष के प्रतीक बन कर बैठे हैं. उन्हें गाली देने और अपशब्द कहने से सत्ता तक जाना तो दूर, हम लोकतंत्र से भी बाहर हो जायेंगे.
यदि किसी को भी संदेह है, तो वे नवबौद्धों के जहरीले और समाज में घृणा पैदा करने वाले सूत्र वाक्यों को पढ़ लें. डा बी.आर. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्मं में “वापस लौटने” के अवसर पर,15 अक्टूबर 1956 को अपने अनुयायियों के लिए 22 प्रतिज्ञाएँ निर्धारित कीं. उन्होंने इन शपथों को निर्धारित किया ताकि हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके. ये 22 प्रतिज्ञाएँ हिंदू मान्यताओं और पद्धतियों की जड़ों पर गहरा आघात करती हैं.
मनुस्मृति, बंच ऑफ़ थॉट और श्रीरामचरितमानस को नफरत फैलाने वाली पुस्तकें कह देने मात्र से काम नहीं चलेगा. मूल्यांकन का एक ही निकष होना चाहिए. इन निकषों के आधार पर ये २२ प्रतिज्ञाएँ भी समाज में नफरत फैलाने वाली हैं और यहाँ पर इन प्रतिज्ञाओं की रचना करने वाले से चूक हो गयी. वह देख नहीं पाया कि इन प्रतिज्ञाओं को जीवन में उतारने वाले लोग कभी भी बुद्ध की अहिंसा और सम्यक आचरण का पालन नहीं कर पायेंगे.
उन प्रतिज्ञाओं में से कुछ इस प्रकार हैं जो समाज में नफरत फैला रही हैं, “मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास नहीं करूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा. मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा. मैं गौरी, गणपति और हिन्दुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा. मैं भगवान के अवतार में विश्वास नहीं करता हूँ. मैं यह नहीं मानता और न कभी मानूंगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे. मैं इसे पागलपन और झूठा प्रचार-प्रसार मानता हूँ. मैं ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह को स्वीकार नहीं करूँगा.”
इन प्रतिज्ञाओं में एक विरोधाभास है. इन प्रतिज्ञाओं को जीवन में उतारने वालों ने अवतारवाद, आस्था, विश्वास और पूजा से किनारा कर लिया. इसमें किसी कष्ट की बात नहीं है. संसार में कुल जनसंख्या की ८५ प्रतिशत इन में विश्वास नहीं रखती है. उनके अपने देवता, अपने शास्त्र और अपनी आस्थाएं हैं. परन्तु वे न तो हमारी आस्थाओं पर प्रहार कर रहे हैं और न ही हमें चिढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं.
केवल १५ प्रतिशत हिन्दुओं में कुछ नगण्य भ्रमित लोग अन्तर्निहित स्वार्थ के लिए लगातार आघात कर रहे हैं. इसलिए इन लोगों की यह बात इन प्रतिज्ञाओं के आलोक में बिलकुल सच नहीं है कि, इनका विरोध लेखक से है, भगवान् श्रीराम से नहीं.
इनका विरोध बिलकुल भगवान् श्रीराम से है क्योंकि वे हमारे सांस्कृतिक नायक हैं और पूरे सनातन धर्म समाज को एकता के सूत्र में बांधे हुए हैं. उन पर प्रहार करने से ही यह एकता टूटेगी और ऐसे लोग राष्ट्र को तोड़ने के लिए आगे बढ़ पायेंगे.
इसलिए इन लोगों ने चतुराई से अब यह कहना आरम्भ कर दिया कि, तुम लोग अपने श्रीराम की पूजा करो, हम तो केवल शास्त्रों से विरोध कर रहे हैं.
शास्त्रों का विरोध करने में इनसे चूक यह हो रही है कि ये अपने तरीके से शास्त्रों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत कर रहे हैं. श्रीरामचरितमानस एक महाकाव्य है. महाकाव्य के लक्षण हैं. प्रत्येक साहित्य महाकाव्य नहीं हो सकता है. भारतीय और पाश्चात्य आलोचकों के निरूपण की तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि दोनों में ही महाकाव्य के विभिन्न तत्वों के संदर्भ में एक ही गुण पर बार-बार शब्दभेद से बल दिया गया है और वह है - भव्यता एवं गरिमा, जो औदात्य के अंग हैं।
वास्तव में, महाकाव्य व्यक्ति की चेतना से अनुप्राणित न होकर समस्त युग एवं राष्ट्र की चेतना से अनुप्राणित होता है। इसी कारण उसके मूल तत्त्व देशकाल सापेक्ष न होकर सार्वभौम होते हैं -- जिनके अभाव में किसी भी देश अथवा युग की कोई रचना महाकाव्य नहीं बन सकती और जिनके सद्भाव में, परंपरागत शास्त्रीय लक्षणों की बाधा होने पर भी, किसी कृति को महाकाव्य के गौरव से वंचित करना संभव नहीं होता।
ये मूल तत्त्व हैं - (1) उदात्त कथानक (2) उदात्त कार्य अथवा उद्देश्य (3) उदात्त चरित्र (4) उदात्त भाव और (5) उदात्त शैली।
इस प्रकार औदात्य अथवा महत्तत्व ही महाकाव्य का प्राण है। श्रीरामचरितमानस में यह औदात्य उसके चरित्र के बिना असंभव है. इसलिए चतुराई से जन श्रीरामचरित मानस के लेखक और कथानक पर उंगली उठाई जायेगी, तो इसकी आड़ में इसके उदात्त चरित्र भगवान् श्रीरामचरितमानस पर उंगली उठाई जायेगी. और इस प्रकार भारतीय जनमानस की सांस्कृतिक रीढ़ तोड़ दी जायेगी.
यही इस टूलकिट की योजना का अंग है, और इस पर लगातार कार्य किया जा रहा है. दूसरी मजे की बात यह है कि, गोस्वामी तुलसीदास को मनुवादी बताने और भगवान् राम व भगवान् श्रीकृष्ण से विरोध न होने की बात करने वालों ने कितना पढ़ा है, यह भी स्पष्ट हो जाता है.
मनु भारत की सांस्कृतिक चेतना के विकासक्रम में महत्वपूर्ण नाम हैं.
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा।।
तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि। होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत।।151।।
भगवान् श्रीराम मनु और शतरूपा को दर्शन देते हैं. दर्शन इसलिए देते हैं क्योंकि वे अति प्रसन्न हैं. श्रीमद्भगवद्गीता कहती है, मया प्रसन्नेन, मेरी प्रसन्नता से यह रूप दिखता है. आध्यात्मिक भाषा है यह. सर्वत्र एकसमान है. यही भारतीय संस्कृति और इसके शास्त्रों का सौन्दर्य है.
मनुवादी लेखक से विरोध और मनु की प्रीति से प्रसन्न होकर दर्शन देने वाले भगवान् राम से प्रेम, यह एक और विरोधाभास है. स्पष्ट होना पड़ेगा. तार्किक होना पड़ेगा, पढ़ना पड़ेगा.
फिर भगवान श्रीराम ने वर दिया, होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत. मनु जब अवधपति दशरथ के रूप में जन्म लेंगे तब भगवान श्रीराम उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे.
इसका अर्थ है भगवान् श्रीराम से प्रेम करने वाले भ्रम में हैं क्योंकि उन्हें मनु को फिर से पढ़ना पड़ेगा. मनु की रचनाएँ किस काल के लिए थीं, उस काल में क्या व्यवस्था थी, उस काल में वर्ण कैसे निर्धारित होते थे, इत्यादि. मनु की रचनाओं को आज के परिस्थितियों में पढ़ना और फिर उनका मूल्यांकन करना पाषाण युग के अस्त्रों से आज का युद्ध करने के समान होगा.
भगवान् श्रीकृष्ण ने तो मनु को एक महान राजर्षि माना है. श्रीमद्भगवद्गीता की ब्रह्मविद्या सर्वप्रथम सूर्य से कही गयी और सूर्य ने मनु से कही. यह विद्या राजर्षियों को पता थी जो एक हाथ से राज्य करते थे और एक हाथ से निवृत्ति के साधन.
हम सभी लोग यदि अभी भी मनु की व्यवस्था को समझ नहीं सके हैं और श्रीराम और श्रीकृष्ण से प्रेम करने का दावा करते हैं, तो यह प्रेम भी आधा अधूरा है. जी मनु को भगवान् श्रीराम अपने पिता के रूप में स्वीकार करते हैं और भगवान् श्रीकृष्ण एक राजर्षि के रूप में, उस मनु महाराज को समझने और पढ़ने में हमसे अवश्यमेव भूल हुई है.
और यदि फिर भी विखंडनवादी अपने दावे पर अडिग हैं, तो श्रीरामचरितमानस का सार लेते हुए यही कह सकता हूँ:
फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥
यद्यपि बादल अमृत सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्ख के हृदय में चेत (ज्ञान) नहीं होता॥