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भगवान परशुराम -एक समाज सुधारक ईश्वर -भगवान परशुराम ~ Lav Tiwari ( लव तिवारी )

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बुधवार, 12 जनवरी 2022

भगवान परशुराम -एक समाज सुधारक ईश्वर -भगवान परशुराम

एक बार जरूर पढ़ें और ध्यान से पढ़े....

भगवान परशुराम ---एक समाज सुधारक ईश्वर
हमारे धर्म ग्रंथ और कथावाचक ब्राह्मण भारत के प्राचीन पराक्रमी नायकों की संहार से परिपूर्ण हिंसक घटनाओं के आख्यान तो खूब सुनाते हैं, लेकिन उनके समाज सुधार से जुड़े जो क्रांतिकारी सरोकार थे, उन्हें लगभग नजरअंदाज कर जाते हैं। विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माने जाने वाले भगवान श्री परशुराम जी के साथ भी कमोबेश यही हुआ।

 उनके आक्रोश और पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियविहीन करने की घटना को खूब प्रचारित करके वैमस्यता फैलाने का उपक्रम किया जाता है। पिता की आज्ञा पर मां रेणुका का सिर धड़ से अलग करने की घटना को भी एक आज्ञाकारी पुत्र के रुप में एक प्रेरक आख्यान बनाकर सुनाया जाता है। किंतु यहां यह सवाल खड़ा होता है कि क्या व्यकित केवल चरम हिंसा के बूते जन-नायक के रुप में स्थापित होकर लोकप्रिय हो सकता हैं ? क्या हैहय वंश के प्रतापी महिष्मति नरेश कार्तवीर्य अर्जुन के वंश का समूल नाश करने के बावजूद पृथ्वी क्षत्रियों से विहीन हो पाइ ? 

रामायण और महाभारत काल में संपूर्ण पृथ्वी पर सूर्यवंशी और चंद्रवंशी क्षत्रिय राजाओं के राज्य हैं। वे ही उनके अधिपति हैं। इक्ष्वाकु वंश के मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को आशीर्वाद देने वाले और  कौरव नरेश धृतराष्ट को पाण्डवों से संधि करने की सलाह देने वाले और कौन्तेय पुत्र कर्ण को ब्रह्मशास्त्र की दीक्षा देने वाले श्री परशुराम ही थे। ये सब क्षत्रिय थे। अर्थात श्री परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे।श्री परशुराम केवल आतातायी क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे।
भगवान परशुराम ने जितना सम्मान महिलाओं को दिया इतना सम्मान  महिलाओं को भगवान विष्णु के किसी भी अवतार मैं  नही हुआ  भगवान परशुराम न्यायप्रिय देवता है जो दोनों पक्षो को सामने रखकर न्याय करते रहे है
 
समाज सुधार और जनता को रोजगार से जोड़ने में भी भगवान परशुराम की अहम् भूमिका अतंनिर्हित है। केरल, कच्छ और कोंकण क्षेत्रों में जहां भगवान  परशुराम ने समुद्र में डूबी खेती योग्य भूमि निकालने की तकनीक सुझाई , वहीं पशु का उपयोग जंगलों का सफाया कर भूमि को कृषि योग्य बनाने के काम में भी किया। यहीं श्री परशुराम ने शुद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षत किया ।श्री  परशुराम के अंत्योदय के प्रकल्प अनूठे व अनुकरणीय हैं। जिन्हें रेखांकित किए जाने की जरुरत है।
 
भगवान परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का एकाएक आकलन करना नामुमकिन है। जमदग्नि परशुराम का जन्म हरिशचन्द्रकालीन विश्वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में ‘अष्टादश परिवर्तन युग के नाम से जाना गया है। अर्थात यह ७५०० वि.पू. का समय ऐसे संक्रमण काल के रुप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएं दो कुलों में विभाजित हुइं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैहय अजरून वंश चंद्रवंशी था। इन्हें यादवों के नाम से भी जाना जाता था। महिष्मती नरेश कार्तवीर्य अर्जुन इसी यादवी कुल के वंशज थे। भृगु ऋषि इस चंद्रवंश के राजगूरु थे। जमदग्नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्नि में मतभेद उत्पन्न हो गए।

 परिणामस्वरप जमदग्नि  महिष्मति राज्य छोड़ कर चले गए।  उसी समय अनूपदेश का वीर कार्तवीर्य अर्जुन उधर आ निकला। आश्रम में आने पर ऋषि‍ पत्नी रेणुका ने उसका यथाचित आथित्य सत्कार किया। कार्तवीर्य अर्जुन युद्ध के मद से उत्मत्त हो रहा था। उसने उस सत्कार को आदरपूर्वक ग्रहण नहीं किया। उल्टे मुनि के आश्रम को तहस नहस करके वहाँ से डकारती हुई होमधेनु के बछड़े को बलपूर्वक हर लिया और आश्रम के बड़े बड़े वृक्षों को भी तोड़ डाला।अनेक ब्राहम्णों ने कान्यकुब्ज के राजा गाधि राज्य में शरण ली।

श्री  परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित व क्रोधित होकर श्री परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्प लिया। इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया। दो वर्ष तक लगातार श्री परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्यों की यात्राएं की जो हैहय वंद्रवंशीयों के विरोधी थे। वाकचातुर्थ और नेतृत्व दक्षता व हरि के अवतार को जानकर   पर भगवान  परशुराम को ज्यादातर चंद्रवंशीयों ने समर्थन दिया। अपनी सेनाएं और हथियार परशुराम की अगुवाइ में छोड़ दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुइ।इस महायुद्ध धर्मयुद्ध में हर. व्यक्ति ने भाग लिया| महर्षि पराशर के साथ ऋषियों ने,आदिवासियों नें,राज्यों के हर वर्ग के कामगारों ने | 
 
इसमें श्री परशुराम को अवंतिका के यादव, विदर्भ के शर्यात यादव, पंचनद के द्रुह यादव, कान्यकुब्ज ;कन्नौज के गाधिचंद्रवंशी, आर्यवर्त सम्राट सुदास सूर्यवंशी, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश मान्धता, अविस्थान -अफगानिस्तान, मुजावत -हिन्दुकुश, मेरु -पामिर, श्री -सीरिया परशुपुर-पारस,वर्तमानफारस सुसतर् -पंजक्षीर उत्तर कुरु -चीनी सुतुर्किस्तान- वल्क, आर्याण -ईरान देवलोक-षप्तसिंधु और अंग-बंग -बिहार के संथाल परगना से बंगाल तथा असम तक के राजाओं ने परशुराम का नेतृत्व स्वीकारते हुए इस महायुद्ध में भागीदारी की। जबकि शेष रह गई क्षत्रिय जातियां चेदि -चंदेरी नरेश, कौशिक यादव, रेवत तुर्वसु, अनूप, रोचमान कार्तवीर्य अर्जुन की ओर से लड़ीं। इस भीषण युद्ध में अंतत: कार्तवीर्य अर्जुन और उसके कुल के लोग तो मारे ही गए। युद्ध में अर्जुन का साथ देने वाली जातियों के वंशजों का भी लगभग समूल नाश हुआ।

 भरतखण्ड में यह इतना बड़ा महायुद्ध था कि श्री  परशुराम ने अहंकारी व उन्मत्त क्षत्रिय राजाओं को, युद्ध में मार गिराते हुए अंत में लोहित क्षेत्र, अरुणाचल में पहुंचकर ब्रहम्पुत्र नदी में अपना फरसा धोया था। बाद में यहां पांच कुण्ड बनवाए गए जिन्हें समंतपंचका रुधिर कुण्ड कहा गया है। ये कुण्ड आज भी अस्तित्व में हैं। इन्हीं कुण्डों में भृगृकुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंशीयों का तर्पण किया। इस धर्मयुद्ध का समय ७५०० विक्रमसंवत पूर्व माना जाता है। जिसे उन्नीसवां युग कहा गया है।
 
इस युद्ध के बाद श्री परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के प्रकल्प हाथ में लिए। केरल,कोंकण मलबार और कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला जो खेती योग्य थी। इस समय कश्यप ऋषि और इन्द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक में निपुण थे। अगस्त्य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋषि और इन्द्र का जल-देवता इसीलिए माना जाता है। श्री परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्मक काम के लिए किया। शूद्र माने जाने वाले लोगों को उन्होंने वन काटने में लगाया और उपजाउ भूमि तैयार करके धान की पैदावार शुरु करार्इं। इन्हीं शूद्रों को श्री परशुराम ने शिक्षित व दीक्षित करके ब्राहम्ण बनाया। इन्हें जनेउ धारण कराए। और अक्षय तृतीया के दिन एक साथ हजारों युवक-युवतियों को परिणय सूत्र में बांधा। श्री परशुराम द्वारा अक्षयतृतीया के दिन सामूहिक विवाह किए जाने के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूर्त के शुभ मुहूर्त माना जाता है। दक्षिण का यही वह क्षेत्र हैं जहां भगवान  परशुराम के सबसे ज्यादा मंदिर मिलते है
 
ॐ रां रां ॐ रां रां परशुहस्ताय नम: 
जय श्री परशुराम जी की
#भुदेव ✍️