अपने मन से लड़े कभी क्या ?
अपनी कही बात पर अड़ना बहुत सरल है
अपनी गढ़ी सड़क पर चलना बहुत सरल है
अपनी मनमानी पर लड़ना बहुत सरल है
अपने मन से लड़े कभी क्या ?
जिन्दों के घर जिंदे कितने गिना कभी क्या
हंसतों के घर हंसी कितनी सुना कभी क्या
अपनों में है अपना कौन चुना कभी क्या
खुद पचड़े में पड़े कभी क्या ?
हम दास मलूका के अजगर क्यों लगते हैं
हम मुरदा राहों के रहबर क्यों लगते हैं
हम डाउन संबंधों के सरवर क्यों लगते हैं
इस उलझन में गड़े कभी क्या ?
बात पते की बतला जाना बहुत सरल है
बात-बात पर कसमें खाना बहुत सरल है
सपनों को सपने दिखलाना बहुत सरल है
आप फ्रेम में जड़े कभी क्या ?
डाॅ एम डी सिंह
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