ब्राह्मण बेटियां, मानसिक रोगी संतोष वर्मा और सवर्ण विरोध का गिरता स्तर
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में वरिष्ठ IAS अधिकारी संतोष वर्मा के आरक्षण पर दिए गए विवादित बयान ने इस देश में जातीय विद्वेष को फिर से केंद्र में रख दिया है। 23 नवंबर को सेकेंड स्टॉप स्थित अंबेडकर मैदान में आयोजित AJJAKS (अनुसूचित जाति-जनजाति अधिकारी कर्मचारी संघ) के प्रांतीय अधिवेशन में उन्हें प्रांताध्यक्ष का पदभार दिया गया।
वर्मा ने मंच से कहा था कि “एक परिवार में एक व्यक्ति को आरक्षण तब तक मिलते रहना चाहिए, जब तक मेरे बेटे को कोई ब्राह्मण अपनी बेटी दान में न दे, या उससे संबंध न बन जाए।” सैद्धांतिक रूप से आज बात करने का समय नहीं है क्योंकि सैद्धांतिक रूप से मैं जाति पर आधारित किसी भी संगठन और व्यवस्था का घोर विरोधी हूं। सैद्धांतिक रूप से जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी नहीं होता।
सैद्धांतिक रूप से मैं अपशब्दों के प्रयोग का भी विरोधी हूं और व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओं का भी विरोधी हूं। बहुतेरे बुद्धिमान लोग गधों का जवान देने से परहेज करते हैं क्योंकि उनके अनुसार गधे सुनते नहीं हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि गधे भले न सुनें लेकिन यदि गधों का उत्तर न दिया जाए तो गधों की बातें सुनकर और इसे निर्विवाद समझकर बहुत से लोग गधे जरूर बन जाते हैं।
इसलिए आवश्यक है कि समाज को गधों के प्रकोप से बचाने के लिए ऐसी बातों का तार्किक उत्तर दिया जाय। तो पहले सीधी बात लेते हैं कि, आज के समाज में व्यावहारिक रूप से ब्राह्मण जन्म पर आधारित एक समुदाय है। किसी समुदाय की बेटी के विषय में ऐसी बातें करना पूरे समुदाय का अपमान है और संवैधानिक सामुदायिक सौहार्द्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
यह तो ब्राह्मणों की सहिष्णुता और उनका संविधान प्रेम है कि अभी तक वे सड़कों पर नहीं उतरे अन्यथा वर्मा जैसे लोगों का स्थान भारत सरकार में नहीं, बल्कि कारागार में है। अंतरजातीय विवाह का महत्व है लेकिन उसमें प्रेम का केंद्रीय स्थान है। इस तरह के वक्तव्य अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित तो नहीं करेंगे, बल्कि समुदायों को और संकीर्णता की तरफ जरूर धकेलेंगे।
प्रोफेसर अवधेश प्रधान जी अभी कर्मेंदु शिशिर जी की एक पुस्तक के विषय में लिखते हुए अपने फेसबुक पोस्ट में बता रहे थे कि वीरेंद्र यादव जैसे समालोचक भी रानी लक्ष्मीबाई की देह यष्टि के विषय में घृणित विचार रखते हैं। समालोचक नन्द किशोर नवल अपने निबंध में एक ऐसे ही जातीय आलोचक की पुस्तक में वर्णित निराधार संस्कृति विरोध पर आश्चर्य जताते हैं।
प्रोफेसर अवधेश प्रधान के पोस्ट की वे पंक्तियां इस प्रकार हैं, "वीरेंद्र यादव ने एक अंग्रेज वकील के हवाले से लक्ष्मी बाई की "देहयष्टि और कसे स्तनों तक का वर्णन किया है और अपना कोई रोष प्रकट नहीं किया है। " कर्मेंदु शिशिर ने इस पर टिप्पणी की है, " एक वीरांगना के प्रति कुत्सा सिर्फ इसलिए कि वे सवर्ण थीं? जाहिर है यह खुद विचारक की अपनी कुंठा है।"
जो सरकारी प्रशासक या सार्वजनिक जीवन जीने वाले विचारक या प्रोफेसर या नेता हैं, उन्हें समदर्शी होना ही पड़ेगा। यदि उनके अंदर इतनी कुत्सित विचारधारा है तो वे समाज की सेवा कैसे करेंगे और आज तक उन्होंने क्या किया होगा? यह भी समझ में नहीं आता कि जन्मना ब्राह्मणों से सभी को समस्या क्यों है? ब्राह्मणों की बहुसंख्यक आबादी ने भला ही किया है। उन्होंने भारतीय संस्कृति, भारतीय ज्ञान परंपरा और शास्त्रों को जीवित रखा है।
यदि ब्राह्मण नहीं रहते तो इस देश की शुद्धतावादी परंपराएं आक्रांताओं के हाथों लगकर प्रदूषित हो जातीं। उन्हें मारा गया, जनेऊ काटे गए, चोटी काटी गई लेकिन ब्राह्मणों ने अपने धर्म, शास्त्र, संस्कृति और परम्पराओं की पवित्रता को प्रदूषित नहीं होने दिया और इसीलिए आज भारतीय धर्म सिर उठाकर खड़ा है। १९८५ से लेकर २०२५ तक मुस्लिम जनसंख्या स्वीडन में १% से बढ़कर 25% तक पहुंच चुकी है।
लेकिन यदि भारत में मुस्लिम जनसंख्या 1000 वर्षों में 1% से 21% तक ही पहुंची है तो इसके पीछे भी ज्ञानेश्वर, एकनाथ, समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, तुलसीदास, दयानंद जैसे महान ब्राह्मणों का हाथ है जिन्होंने सनातन धर्म और संस्कृति को गतिशील बनाए रखे। इसलिए इन पर आक्रमण करने से समूचे भारत को समाप्त करने की धारणा और विश्वास ही ऐसे बयानों का मूल है।
जैसे औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर को मुस्लिम बनाकर पूरे भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने का स्वप्न देखा था, लेकिन गुरुदेव के बलिदान ने पूरे भारत को आंदोलित कर दिया। वैसे ही आज के भारत के निर्माण में गुमनामी के साथ बलिदान देने वाले ब्राह्मणों के योगदान को उपेक्षित कर के ऐसे व्यक्त देना एक ऑर्केस्ट्रेटेड नैरेटिव का हिस्सा है।
समाज के सभी वर्गों, जातियों और धर्मों से यही अपेक्षा है कि इस तरह के वक्तव्य देने वाले वर्मा जैसे लोगों को नौकरी, समाज और मंचों से बहिष्कृत किया जाय, कारागार में भेजा जाय ताकि यह संक्रामक रोग समाज को संक्रमित न करे। जातियों पर और धर्मों पर आधारित संगठनों को नेपथ्य में भेजा जाय और उनकी जवाबदेही तय की जाय तथा किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता न दी जाए।
संविधान की रट लगाने वाले संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और संविधान की किताबों को ऐसे वक्तव्यों की आग में जला रहे हैं। यह देश बेहतर मनुष्यों, बेहतर नेताओं, बेहतर अधिकारियों और बेहतर साधुओं को डिजर्व करता है। मनोरंजन के लिए ऐसे वक्तव्य देने वालों को सर्कस में गधों के स्थान पर खड़ा करने की जरूरत है। ज्ञान और संवेदना के अभाव में ऐसा बयान देने वाले लोगों को मानसिक चिकित्सालय में डालने की जरूरत है।
माधव कृष्ण, द प्रेसीडियम इंटरनेशनल स्कूल अष्टभुजी कॉलोनी बड़ी बाग लंका गाजीपुर, 27 नवम्बर 2025







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