76★#डॉक्टर_शिवपूजन_राय –
मुल्कपरस्ती का पैग़ामबर
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शहादत ऐसा अज़ीम मरतबा है जो इंसान को फ़ना से बक़ा तक पहुँचा देता है। वतन की मिट्टी पर अपनी जान लुटा देने वाले अफ़राद सिर्फ़ तारीख़ के अवराक़ तक महदूद नहीं रहते, बल्कि क़ौम के दिलों की धड़कन बनकर हमेशा ज़िंदा रहते हैं। हिंदुस्तान की आज़ादी की जंग में न जाने कितने जाँबाज़ ऐसे हैं, जिनके नाम सुनहरे हरफ़ों में लिखे गए और कुछ ऐसे भी जिनकी याद वक़्त की गर्द में धूमिल हो गई।
तारीख़े-हिंद आज़ादी के सफ़हात उन अमर सपूतों के ख़ूने जिगर से सुर्ख़रु हैं जिन्हों ने अपनी क़ुर्बानियों से वतन की आबरू को महफ़ूज़ किया। ग़ुलामी की तीरगी को चीर कर आज़ादी की सहर का पैग़ाम देने का काम किया। उन्हीं वतन परस्त पैग़ाम्बरों में ग़ाज़ीपुर ज़िले की तहसील मुहम्मदाबाद की सरज़मीन से भी कई अज़ीम सपूत निकले, जिन्होंने आज़ादी की तहरीक में अपनी जानों का नज़राना पेश किया। इन्हीं में से एक बुलंद हौसलों वाला नौजवान डॉक्टर शिवपूजन राय थे, जिन्हों ने अपनी निहायत कम उम्री में वो कारनामा अंजाम दिया, जिसे हिंदुस्तान की अवाम सदियों सदियों याद करती रहेगी।
डॉक्टर शिवपूजन राय की पैदाइश 1 मार्च 1913 को ग़ाज़ीपुर ज़िले के क़स्बा शेरपुर के एक जांबाज़ वतनपरस्त भूमिहार ख़ानदान में हुई। बचपन से ही उनमें इल्मी तलब और मुल्की सरोकार की झलक नुमायाँ थी। इल्म की तलाश ने उन्हें तालीमी मराहिल से गुज़ारा, मगर उनके दिल का मक़सद महज़ शख़्सी तरक़्क़ी नहीं था। वह हर वक़्त इस सोच में रहते कि मुल्क किस तरह ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद होगा।
बचपन ही से शिवपूजन राय पर सरफ़रोश इंक़लाबियों की क़ुरबानियों का असर था। मंगल पांडे, चंद्रशेखर आज़ाद और रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, अशफ़ाक़ुल्ला ख़ान जैसे पुरनूर चेहरे उनके ज़हन में समाये हुए थे। यही वजह थी कि तालीम के साथ-साथ वह सियासी शऊर और इंक़लाबी रहनुमाओं की सोहबत में भी पेश-पेश रहे।
सन 1942 में जब मुल्क की सियासी फ़िज़ा "भारत छोड़ो आंदोलन" की गूंज से गूँज रही थी, उस वक़्त शिवपूजन राय नौजवानों की पहली सफ़ में खड़े थे। उनकी क़ाबिलियत और सरगर्मी का ये आलम था कि उन्हें उसी साल ज़िला कांग्रेस कमेटी का महासचिव मुन्तख़ब किया गया। यह कोई मामूली इज़्ज़त अफ़ज़ाई नहीं थी, बल्कि नौजवान लीडरशिप की एक बुलंद मिसाल थी।
महासचिव बनने के बाद डॉक्टर शिवपूजन राय ने गाँव-गाँव, कूचों-कूचों में नौजवानों को एकजुट होने का आह्वान किया। वह लोगों को बताते कि "ग़ुलामी का बोझ सिर्फ़ बेड़ियों से नहीं होता बल्कि क़ौम की रूह पर भी पड़ता है हमारी आत्मा को भी मजरूह करता है"। वह इंक़लाबी जज़्बे से लबरेज़ अवाम में ख़िताब करते और कहते: "वतन की ख़िदमत से बड़ी कोई इबादत नहीं, और अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी हासिल करना हमारी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी और मक़सद है।"
अगस्त 1942 का माहौल हिन्दुस्तान की तारीख़ में एक इंक़लाबी मोड़ साबित हुआ। महात्मा गांधी की पुकार "अंग्रेज़ो भारत छोड़ो" ने पूरे मुल्क में चिंगारी भड़का दी। जगह-जगह नौजवान, बूढ़े, औरतें, मर्द सब अपनी जान हथेली पर लेकर आज़ादी की जंग में कूद पड़े।
इसी माहौल में 18 अगस्त 1942 को डॉक्टर शिवपूजन राय ने भी नौजवान इंक़लाबियों के साथ मुहम्मदाबाद तहसील का रूख़ किया। उनकी नज़र में तहसील का आलमी मरकज़ एक ऐसी जगह थी जहाँ तिरंगा फहराना ग़ुलामी की बुनियादों को हिला देने वाला काम था।
वह अपने हमराह वतनपरस्तों श्री वंश नारायण राय, श्री वंश नारायण राय द्वितीय, श्री वशिष्ठ नारायण राय, श्री ऋषिकेश राय, श्री राजा राय, श्री नारायण राय और श्री रामबदन उपाध्याय― के साथ तहसील के अहाते में दाख़िल हुए। भीड़ जोश से नारे बुलंद कर रही थी: "भारत माता की जय", "जय हिंद" और "इंक़लाब ज़िंदाबाद"।
तहसील के बाहर मौजूद अंग्रेज़ सिपाही और अफ़सर बौखला उठे। उन्होंने भीड़ को ख़बरदार किया कि आगे बढ़ना मौत को दावत देना है। लेकिन नौजवानों की आँखों में मौत का ख़ौफ़ नहीं, बल्कि आज़ादी का जुनून था, सरफ़रोशी की तमन्ना उनके दिलों में मचल रही थी।
डॉक्टर शिवपूजन राय तिरंगे को हाथों में थामे क़दम दर क़दम तहसील की छत की जानिब बढ़े। उनकी शख़्सियत में वो जुरअत थी जो दुश्मन की गोलियों की बौछारों को भी मात दे रही थी। तहसीलदार ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर निकाली और सीधा डॉक्टर शिवपूजन राय की छाती पर निशाना साधा।
एक, दो नहीं बल्कि पाँच गोलियाँ उनके सीने में उतारी गईं। वह ज़ख़्मी होकर भी तिरंगे को ज़मीन पर गिरने न दिए। 29 बरस का यह नौजवान जब सरज़मीने-वतन की ख़ाक पर गिरा तो उसकी आख़िरी सांस भी मुल्क की आज़ादी के तराने से गूँज रही थी।
ग़ाज़ीपुर की धरती ने उस दिन आठ शहीदों को अपने दामन में समेट लिया। इस तारीख़ी आज़ादी की लड़ाई में उनके साथ उनके साथियों ने भी वतन के नाम पर अपनी जानें क़ुर्बान कीं। शहीद पार्क मुहम्मदाबाद में सभी के मुजस्समें उनकी शहादत की यादगार की शक्ल में आज भी खड़े हैं। यह आठों जाँबाज़ “अष्ट शहीद” के नाम से आज भी मुहम्मदाबाद की तारीख़ में याद किए जाते हैं।
शिवपूजन राय की शहादत का असर महज़ ग़ाज़ीपुर तक सीमित न रहा। पूरे पूर्वांचल में यह वाक़िया एक तूफ़ान की तरह फैला। नौजवानों ने समझ लिया कि अंग्रेज़ों की गोलियाँ आज़ादी के रास्ते की रुकावट नहीं बन सकतीं। उनकी शहादत से हौसले बुलंद हुए और आन्दोलन ने नई रफ़्तार पकड़ ली।
मुहम्मदाबाद का ये ख़ून में नहाया हुआ मंज़र सिर्फ़ एक हादसा नहीं था, बल्कि इसने ग़ाज़ीपुर और बलिया की ज़मीन को अंग्रेज़ी ग़ुलामी से आज़ाद कर दिया। कुछ दिन तक कांग्रेस राज का एलान चलता रहा, मगर फिर अंग्रेज़ी फ़ौज जिला मजिस्ट्रेट मुनरो और चार सौ बलूची सिपाहियों के साथ शेरपुर पर चढ़ आई। वहाँ लूटपाट, आगज़नी और क़त्लेआम का ऐसा आलम बरपा कि तारीख़ का एक काला सफ़हा बन गया। अस्सी मकान जला दिए गए, चार सौ उजाड़ दिए गए और मासूम औरतें-बच्चे तक रहम से महरूम रहे।
सन 1945 में नेशनल हेराल्ड ने इस ज़ुल्म को “ग़ाज़ीपुर की नादिरशाही” कहा। लेकिन अफ़सोस, अख़बारों ने भी शहीदों के नाम और उनकी तादाद को सही तौर पर दर्ज नहीं किया। यही वो बे-इंसाफ़ी थी जिसने इन गुमनाम फ़िदाइयों को तारीख़ के हाशिए पर धकेल दिया।
हक़ीक़त ये है कि इस मुल्क की हुकूमतें हर साल लाल क़िले पर झंडा तो फहराती रहीं, मगर मुहम्मदाबाद और शेरपुर के इन नौजवानों की कुर्बानियों को याद करने का वक़्त किसी ने न निकाला। ये न किसी नवाबी घराने के बेटे थे, न किसी दौलतमंद ख़ानदान के वारिस। ये तो किसानों और ज़मींदारों के फ़रज़ंद थे, जिन्होंने अपनी मिट्टी को माँ समझा और उस माँ की हिफ़ाज़त के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी।
डॉक्टर शिवपूजन राय की ज़िन्दगी और शहादत हमें यह पैग़ाम देती है कि मुल्कपरस्ती महज़ नारे लगाने का नाम नहीं, बल्कि अपनी जान और माल को वतन पर कुर्बान करने का हौसला माँगती है। उनकी शख़्सियत इस बात का सबूत है कि अगर इरादे पक्के हों तो ग़ुलामी की कोई ताक़त आज़ादी की राह में आड़े नहीं आ सकती।
“क़ौमें अपनी कुर्बानियों से ज़िन्दा रहती हैं। अगर शहीदों के ख़ून की ताज़ा ख़ुशबू नस्ल-ए-जदीद तक न पहुँचे, तो आज़ादी का फूल भी मुरझा जाता है। आज की नौजवान नस्ल अगर अमर शहीद डॉक्टर शिवपूजन राय के किरदार से सबक ले तो हर एक दिल में वतन की मुहब्बत और क़ुर्बानी का जज़्बा फिर से ज़िंदा हो सकता है। आज़ादी की हिफ़ाज़त सिर्फ़ शहीदों के लहू से नहीं, बल्कि हमारी मिल्लत, वफ़ादारी और मुल्क से वाबस्तगी से भी होती है।
फ़ख़्र और ख़ुशी की बात है कि आज भी शेरपुर और मुहम्मदाबाद के लोग आपस में मिलकर अपने शुहदा और मुल्क-परस्ती के पैग़ामबर डॉक्टर शिव पूजन राय की याद ताज़ा करते हैं। हर साल 18 अगस्त को अक़ीदत और एहतराम के साथ यौमे शहादत मनाया जाता है, ताकि नई नस्ल जान सके कि उनकी आज़ादी इन्हीं अज़ीम शख़्सियतों की क़ुर्बानियों की सौग़ात है।
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सरफ़राज़ अहमद आसी
यूसुफ़पुर मुहम्मदाबाद ज़िला ग़ाज़ीपुर
(पुस्तक-"#यूसुफ़पुर_मुहम्मदाबाद_के_अदबी_गौहर" से)।
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