जीवन ब्लैक एंड वाइट नहीं है: दो समाजसेवी और एक मृत कार्यकर्ता
जो पुल बनाएँगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएँगे।
सेनाएँ हो जाएँगी पार
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएँगे।
(अज्ञेय)
(१)
कुंवर वीरेंद्र सिंह, शीर्षदीप
यह बहुत पहले मेरे सीनियर कल्पेश गज्जर ने कहा था जब मैंने एक कंपनी छोड़ते हुए कहा था कि यहां बहुत राजनीति है। उसने कहा था कि, ब्लैक एंड वाइट जैसा कुछ भी नहीं होता जीवन में। यह सब कुछ जीवन का हिस्सा है, या तो आप इसके साथ सहज बनो या आप खेल से बाहर हो जाओ।
इस बीच गाजीपुर में दो घटनाएं हुईं। पहली घटना जिसमें गाजीपुर के समाजसेवी द्वय कुंवर वीरेंद्र सिंह जी और रक्तवीर शीर्षदीप की सेवाओं को लेकर प्रश्नचिह्न खड़े किए गए। इस पर बहुत सारी चर्चाएं हुईं और एक दिन यह समाचार पत्रों के स्थानीय संस्करण की मुख्य घटना भी बना।
शीर्षदीप ने एक दिन कहा कि, भैया! कुछ लोगों ने इस घटना पर चुप्पी साध ली और हमारे पक्ष में कुछ भी नहीं लिखा। वास्तव में, मैं और डॉ. छत्रसाल सिंह 'क्षितिज' इस पर चर्चा कर रहे थे और हम दोनों इस विषय पर एकमत थे कि किसी घटना को एकांगी तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए।
चिकित्सालय के प्रभारी को प्रशासनिक अधिकार है कि वह अस्पताल की सुरक्षा के लिए नियम बनाएं और उनका क्रियान्वयन करें। लेकिन कोलकाता के चिकित्सालय की घटना का यह अर्थ नहीं कि प्रत्येक समाजसेवी कटघरे में खड़ा किया जाए।
गाजीपुर के जिलाधिकारी ने इस पर तर्कसंगत निर्णय देते हुए कहा था कि ऐसे समाजसेवियों के लिए पहचान पत्र जारी होगा जिससे उनके उत्साह और सेवा की भावना पर रोक न लगे।
अब सच तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत राय ही रख सकता है। शोध में प्राथमिक स्रोत और सूचना का सर्वाधिक महत्व होता है। व्यक्तिगत रूप से मैंने एक बार कॉलोनी में एक मरणासन्न बछड़े के लिए कुंवर वीरेंद्र सिंह से सहायता मांगी थी और वह तुरंत पशुपालन विभाग से एक चिकित्सक लेकर आ गए थे जिससे बछड़े का जीवन बच गया।
यह वह समय था जब मैं गाजीपुर में रहना सीख रहा था। कुंवर साहब ने न तो मुझसे कोई सुविधा शुल्क लिया और न ही किसी तरह के प्रशंसा की अपेक्षा की। बाद में उन्होंने जिस तरह से शवों के अंतिम संस्कार के लिए स्वयं को समर्पित किया वह एक बहुत बड़ा कार्य है।
शीर्षदीप के रक्तदान से संबंधित समाजसेवा पर मैंने कुछ दिन पूर्व ही एक पोस्ट लिखा था और कहा था कि, एक अत्यधिक घातक परिस्थिति में शीर्षदीप ने मेरे एक मित्र को रक्त उपलब्ध कराया था। उन्होंने न ही कोई धन लिया और न ही किसी तरह का मानपत्र। मिलते ही गले लग जाना, चरण स्पर्श करना, भैया कहकर सम्मान देना, यह सब असाधारण है।
इसलिए व्यक्तिगत रूप से मैं उन दोनों समाजसेवियों का प्रशंसक हूं। मैं प्राचार्य श्री मिश्रा जी की सावधानी और आर जी के अस्पताल जैसी घटनाओं की पुनरावृति न होने देने के संकल्प की सराहना करता हूं, लेकिन यदि उनके किसी लिखित या मौखिक आदेश से इन दो समाजसेवियों की गरिमा को ठेस पहुंचती है या उनकी सेवा में बाधा पहुंचती है तो यह निःसंदेह समाज की हानि होगी।
शीर्षदीप और वीरेंद्र जी से यही निवेदन होगा कि अपना कार्य करते रहें। समाज एक लंबे समय तक परीक्षा लेता है और उस परीक्षा में हर समाजसेवी को अपने संकल्प, चरित्र और लक्ष्य के साथ अनन्य भाव से खड़े रहकर, बिना किसी दुर्भावना के उत्तीर्ण होना पड़ता है। यह एक लंबी प्रक्रिया है।
(२)
स्वर्गीय सीताराम उपाध्याय
दूसरी घटना जिसमें नोनहरा के थाना प्रभारी और सिपाही की तथाकथित पिटाई से भाजपा कार्यकर्ता सीताराम उपाध्याय जी की मृत्यु हो गई, ने पूरे गाजीपुर भाजपा के कार्यकर्ताओं में उबाल ला दिया। उनका क्रोध भी वैध है। आखिर अपनी सरकार में अपने ही कार्यकर्ता की पिटाई कोई भी पार्टी कैसे देख सकती है, वह भी मृत्यु हो जाने तक।
मेरी पूरी संवेदना उपाध्याय जी के परिवार के साथ है। पुलिसिया बर्बरता स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक है। हिंसा लोकतंत्र के लिए घातक है चाहे वह कार्यकर्ताओं की हो या प्रशासन की। यदि प्रशासन शांतिपूर्ण प्रदर्शन और धरने की अनुमति नहीं दे सकता है तो इसका अर्थ है कि वह असहमति की अनुमति नहीं देना चाहता।
यह असहमति की सहिष्णुता ही लोकतांत्रिक स्थिरता का आधार है। प्रथम दृष्टया नोनहरा पुलिस प्रभारी इसमें असफल सिद्ध हुए हैं। यदि यह विरोध उनके विरुद्ध ही था तो भी उन्हें इसे स्वीकार करना चाहिए था, प्रदर्शनकारियों को सुनना चाहिए था।
भाजपा के सबसे निष्ठावान कार्यकर्ता का भी भाजपा के स्थानीय नेताओं के विरुद्ध आक्रोश से भरा संदेश व्हाट्सएप और फेसबुक पर घूम रहा है। भाजपा के एक स्थानीय नेता का यह कहना कि इस धरने से भाजपा संगठन का कोई संबंध नहीं है, सभी को चुभने लगा है । लेकिन मुझे उनके इस वक्तव्य में कोई समस्या नहीं दिखती है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना हो गई लेकिन जब संगठन का नेतृत्व धरना प्रदर्शन निर्धारित करता है तभी वह उसे भाजपा का धरना प्रदर्शन कह सकता है। लेकिन इसके साथ यह बात भी ध्यातव्य है कि एक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं की समस्या पूरे संगठन की समस्या क्यों नहीं बन पाई और स्थिति यहां तक पहुंच गई। क्या कार्यकर्ता और संगठन अलग अलग हैं?
सारी बात फिर वहीं आकर खड़ी हो जाती है, ब्लैक एंड वाइट के मध्य एक ग्रे क्षेत्र। यहां खड़े होकर दोनों पक्षों को देखना होगा। दोनों के पास अपने अपने तर्क हैं और ये ग्रे तर्क ही जीवन हैं। किसी एक पक्ष को सार्वभौम सत्य नहीं कहा जा सकता और न ही दूसरे पक्ष को पूरी तरह से खारिज किया जा सकता है।
उपाध्याय जी का मरना इसलिए भी दुख दे रहा है क्योंकि पूंजीवाद के समय में राजनैतिक और वैचारिक निष्ठाओं का कोई मूल्य नहीं रह गया है। धन देकर लोग दल बदल लेते हैं, ठेके पाने लगते हैं, पुरस्कृत हो जाते हैं, उपमुख्यमंत्री बन जाते हैं, विधायक और संसद बन जाते हैं। लेकिन वर्षों से पुल बना रहे कैडर के लोग बंदर बनकर उछलते कूदते और हाथ मिलते रह जाते हैं।
भाजपा का यह पुराना रोग है। उपराष्ट्रपति के लिए जगदीप धनखड़ को चुना गया जो कि देवीलाल के विश्वस्त सहयोगी थे। पुराने भाजपाई मुंह ताकते रहे। बहरहाल, राजनीति बहुत जटिल है। इसलिए राजनैतिक क्षेत्रों में काम करने वाले जमीनी लोगों से यही कहना है कि राजनीति के खेल को समझें और उसे खेल की तरह खेलें, अपना जीवन न बना लें।
और यदि आपने राजनीति को जीवन बना लिया है तब साम दाम दंड भेद के माध्यम से इसे बढ़िया से खेलें। और अपनी जीविका के साथ समझौता मत कीजिए यदि आप निष्ठावान कार्यकर्ता हैं। यदि आप एक महत्तर लक्ष्य के लिए राजनीति में हैं फिर तो और सभी बातें बेमानी हो जाती है।
अंत में, एक आदर्श सिद्धांत....
पतंजलि योग सूत्र का समाधिपाद कहता है:
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः
बहुत समय तक निरन्तर और श्रद्धा के साथ सेवन किया हुआ वह अभ्यास दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है। किसी भी कार्यक्षेत्र में यह सूत्र बिल्कुल खरा उतरता है। बल और उत्साह से युक्त वह अभ्यास कैसे साधक को योग में प्रतिष्ठित करेगा इस पर महर्षि कहते हैं कि एक बार के अभ्यास से कुछ भी होने वाला नहीं है |
लम्बे समय तक, निरंतरता पूर्वक, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, तप और विद्यापुर्वक अनुष्ठान किया हुआ होना चाहिए वह अभ्यास | ऐसा अभ्यास ही दृढ भूमि वाला होता है | दृढ भूमि से आशय है कि ऐसा अभ्यास जिसका आधार दृढ है | एक बार मुझे मेरे गणित के अध्यापक सरीखन यादव सर ने समझाते हुए कहा था कि बार बार कार्यक्षेत्र बदलना बंद कर, एक ही दिशा में प्रयास करो।
साधक में बल भी है और उत्साह भी लेकिन कभी कभी योग में प्रवृत होने का अभ्यास करता है तो ऐसा अभ्यास उसे योग में गतिमान नहीं कर सकता है | इसलिए लम्बे समय और निरंतरता के साथ, श्रद्धा, तप, ब्रह्मचर्य और विद्यापुर्वक किया गया अभ्यास ही फलदायी होता है |
हम लोग थोड़े बहुत प्रयास के बाद टूट जाते हैं, संकल्पों की इतिश्री कर देते हैं और बाद में पछताते हैं... अचानक से कुछ संस्कार अत्यंत वेग से आते हैं और हमारी उर्जा उस आंधी, तूफ़ान में नष्ट हो जाती है फिर ग्लानि भाव, अपराध बोध से हमारा सारा चित्त मलिन हो जाता है |
इसका केवल एक ही कारण है कि हमने जो संकल्प लिए और उन संकल्पों की पूर्ति हेतु जो अभ्यास हमने किया था उसका आधार बहुत ही कमजोर था जो व्युत्थान के समय उठने वाले परिस्थितियों की मार को सहन नहीं कर पाया |
यदि हमने अभ्यास श्रद्धा,तप,विद्या और ब्रह्मचर्यपूर्वक किये हों तो हमारी स्थिति व्युत्थान संस्कारों में भी अडिग रहती है | हमें अपने आधार मजबूत करने होंगे, बार बार गिरकर भी उतनी ही दृढ़ता से उठना होगा, संभलना होगा और पुनः जुट जाना होगा अपनी वास्तविक स्थिति को पाने के लिए | यह केवल योग के ऊपर ही लागू नहीं होता, यह प्रत्येक उस स्थिति पर लागू होता हैं जहाँ भी हमने अपने संकल्पों को संजोया होगा|
हमारे भीतर हार के संस्कार बहुत प्रबल हैं इसलिए जब भी साधक कोई संकल्प के साथ अपने अभ्यास आरंभ करता है तो पिछले हार के संस्कार और संकल्प के विरुद्ध में संस्कार एकसाथ मिलकर साधक को डिगाने का काम करते हैं और यदि साधक के भीतर तीव्र अभीप्सा नहीं है अपने संकल्प को पूर्ण करने की तो हवा के एक झटके में सबकुछ नष्ट हो जाता है |
सूत्र में एक शब्द आया है सत्कार- यह बहुत ही सुन्दर शब्द है | जब भी हमारे घर में कोई अतिथि आता है तो हम उसका सत्कार करते हैं | हम आथित्य सत्कार तभी कर सकते हैं जब मन में अतिथि को लेकर श्रद्धा का भाव हो, उसका आगमन प्रसन्नता देता हो, मन निश्चल हो तब अपनी सुविधाएँ कम करके भी अतिथि की सेवा करये हैं|
अभ्यास, सेवा, कार्यक्षेत्र के प्रति भी जब हमारा मन इतने ही श्रद्धा भाव से भरा हुआ होगा, तब हम इन्हें प्रथम वरीयता देंगे, उसके रक्षणार्थ हम तप करने को भी प्रतिबद्ध हों, अभ्यास की महिमा का ज्ञान हमें भली भांति हो तभी हम अभ्यास की रक्षा कर सकते हैं और ऐसा सत्कारपूर्वक किया गया अभ्यास हमारी रक्षा करता है |
फिलहाल, मेरे लिए यह समय इन दोनों समाजसेवियों और सभी जमीनी कार्यकर्ताओं के साथ मेरे व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर खड़े होने का है जिससे ये सभी समाजसेवा के क्षेत्र में एक लंबी पारी खेल सकें।
माधव कृष्ण, १२ सितम्बर २०२५, गाजीपुर