बकरीद विशेष: बलि प्रथा और हिंदू
(१)
कल व्हाट्सएप पर एक श्लोक अर्थसहित आया:
सिंहान्नैव गजान्नैव व्याघ्रान्नैव च नैव च|
अजापुत्रम् बलिम् दद्यात् देवो दुर्बलघातक:।
अर्थात् सिंह से नहीं , हाथी से नहीं, बाघ से नहीं, बकरी के बच्चे की बलि देनी चाहिए। यह कहने के बाद वह व्हाट्सएप संदेश कहता है: इससे सिद्ध होता है कि ईश्वर भी दुर्बलों को ही मारता है। यह बात गले के नीचे नहीं उतरती। जिस ईश्वर को हम दीनानाथ और दीनबंधु कहते हैं, वह दुर्बलों को क्यों मारेगा? जी ईश्वर की सत्ता सर्वत्र व्याप्त है, जिसके सभी संतानें हैं, वह अपने किसी भी संतान की बलि लेकर संतुष्ट कैसे होगा?
इस श्लोक से मुझे बकरीद की याद आ गई। कुर्बानी देने के लिए सर्वाधिक प्रचलित पशु बकरा है। बकरे के अतिरिक्त अन्य जो भी पशु कुर्बानी के लिए चुने जाते हैं वे हैं: गाय, भैंस, बैल, ऊंट इत्यादि। इसमें से ऐसा कोई भी पशु नहीं है जो बंधक बनाए जाने के प्रयास में मनुष्य को उचित हिंसक चुनौती दे सके। इसका अर्थ तो यही हुआ कि मनुष्यों ने अपनी सुविधानुसार पशुओं को बलि के लिए चुना और फिर उनके पक्ष में श्लोकों और आयतों का संदर्भ देना शुरू कर दिया।
इस्लाम में बकरीद की कुर्बानी का अब मुस्लिम समुदाय के अंदर ही विरोध प्रारंभ हो चुका है लेकिन इस श्लोक ने हिंदुओं में काफी समय तक प्रचलित बलि प्रथा की तरफ मेरा ध्यान आकर्षित किया। यहां तक कि अनेक तांत्रिक परम्पराओं में अश्वमेध, नरमेध जैसी बलि प्रथाएं आज भी यदा कदा सामने आ जाती हैं। समाचार पत्रों में ऐसे तांत्रिकों के गिरफ्तार होने की घटनाएं भी आती हैं जो लोगों को धनवान या पुत्रवान बनाने के लिए छोटे बच्चों या पड़ोसियों की बलि देने के लिए प्रेरित कर डालते हैं।
वेदों में अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख मिलता है। इसका सीधा सीधा अर्थ निकाला गया: यज्ञ में घोड़ों की बलि या कुर्बानी। वह तो भला हो महर्षि दयानंद सरस्वती का जिनसे अधिक वेदों का प्रामाणिक विद्वान आधुनिक इतिहास में नहीं मिलता। उन्होंने स्पष्ट किया कि अश्वमेध यज्ञ का अर्थ है: राजा द्वारा यज्ञ में अपनी समस्त सामर्थ्य का जनहित में बलिदान करने का संकल्प। अश्व ऊर्जा का प्रतीक है। इसलिए अश्व जहां जहां भी गया और यदि उसे किसी ने नहीं पकड़ा तो इसका अर्थ यह है कि वहां अराजकता है, वहां कोई राजा नहीं है। इसलिए अश्व छोड़ने वाला राजा का दायित्व है कि वहां के प्रजा की देखभाल और सुरक्षा करे।
तो इन श्लोकों के अनर्थ उन विद्वानों द्वारा निकाले गए जिन्हें मैं तामसिक विद्वान कहता हूं। तामसी बुद्धि का अर्थ है: बुद्धि तो है लेकिन वह विपरीत या उल्टा अर्थ निकालती है। राजसी बुद्धि का अर्थ है: अयथावत अर्थ निकालना, जो अर्थ होना चाहिए उससे अलग। यही हुआ है आज तक भारतीय दर्शनशास्र के साथ। यहां तक कि अनेक हिंदू धर्म के कट्टर समर्थकों ने भी इन श्लोकों का गलत अर्थ निकाला है और इस आधार पर बलि प्रथा जैसी कुप्रथाओं का समर्थन कर उन्हें बढ़ावा दिया है।
इस श्लोक में अजापुत्र शब्द आया है। अजा का अर्थ बकरी भी है और माया भी। अजा का अर्थ है, जिसका जन्म न हुआ हो। वेदों में त्रैधवाद है, अर्थात जीव, ईश्वर और प्रकृति तीनों अनादि हैं। इस तरह से माया अनादि हुई और अजा भी यानि अजन्मा। अजापुत्र का अर्थ है, माया का पुत्र। जैसे भागवत पुराण में अजामिल की कथा आई है और मैं हमेशा कहता हूं कि इन कथाओं का एक गूढ़ अर्थ है, उसे शब्दार्थ के आधार पर नहीं समझा जा सकता है। तो अजामिल का अर्थ हुआ, वह व्यक्ति जो माया से मिल चुका है।
अजामिल एक ब्राह्मण था, ब्रह्मचर्य में दीक्षित। एकदिन समिधा एकत्र करते समय वह एक वैश्या के सौंदर्य पर मोहित हो गया और सब कुछ छोड़कर उस पतिता के साथ जीवन यापन करने लगा। माया की कामना नामक शक्ति से उत्पन्न वासना से वह मिल गया। उसका तप समाप्त हो गया। उसने पुत्र का नाम नारायण रखा। मृत्यु शय्या पर उसने जैसे ही अपने पुत्र नारायण का नाम पुकारा, नारायण से जुड़ी हुई उसकी स्मृतियां कौंध गईं। उसे याद आया कि वह युवावस्था में कैसे त्रिसंध्या करता था और मंत्र पढ़ता था: ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्।
उसे अपना तपोमय जीवन और फिर वासनामय जीवन याद आ गए और उसने प्रायश्चित करने का संकल्प ले लिया। तपोमय जीवन में वापस लौटने के कारण वह धीरे धीरे स्वस्थ हो गया। अब हम इस कथा के प्रसंग से उपर्युक्त श्लोक को समझ पाएंगे। जब देवी के पास सिंह ले जाया गया, तो उन्होंने सिंह की बलि लेने से अस्वीकार कर दिया। जब उनके पास हाथी ले जाया गया तो उन्होंने हाथी की बलि लेने से भी मना कर दिया। और जब बाघ ले जाया गया तो उन्होंने भाग लेने से भी मना कर दिया।
उन्होंने पूछने पर कहा कि, मुझे अजापुत्र चाहिए। तो मोटी बुद्धि के लोगों ने अजापुत्र का अर्थ बकरी का बच्चा लगाया, और इस तरह से हिंदुओं के वाममार्गियों, शाक्तों और तांत्रिकों के मार्ग में बलि की प्रथा का आरंभ हुआ। जबकि अजापुत्र का अर्थ हुआ, माया का पुत्र। हम ईश्वर के अंश हैं। स्वामी विवेकानन्द बार बार याद दिलाते हैं कि हम देवताओं के पुत्र हैं, अमर की संतानें हैं। हमें अपनी दिव्यता याद रहनी चाहिए। लेकिन हम माया जनित विकारों में आकंठ लिप्त हो जाते हैं, जैसे धन सौंदर्य सत्ता कीर्ति बल इत्यादि और इनको पाने के लिए अनर्थकारी कृत्य करते हैं।
इस प्रकार हम देवपुत्र से अजापुत्र या मायापुत्र बन जाते हैं। देवी मां को इसी मायापुत्र की बलि चाहिए। और वह बलि भी कैसी? एक संकल्प कि, मां हम अपने सभी माया जनित विकारों से भरी बुद्धि और मस्तिष्क को आपके चरणों में अर्पित करते हैं, हमें शुद्ध भक्ति दो। इसी विकार युक्त सिर के सभी विकारों और कुविचारों को हम सिर के प्रतीक नारियल में डालकर, उस नारियल को फोड़ डालते हैं। हमारे आश्रम में प्रार्थना है, गुरु को सिर पर राखिए चलिए आज्ञा माहि। कह कबीर ता दास को तीन लोक डर नाहि। गुरु को सिर पर ही क्यों रखना है? क्योंकि सिर में माया की बुद्धि नहीं, गुरु प्रदत्त बुद्धि होनी चाहिए। तब मनुष्य सही मार्ग पर चलेगा।
माया द्वारा शासित मस्तिष्क दुर्बल होता है और भयग्रस्त होता है। जैसे पांडवों के पूर्वज राजा विचित्रवीर्य अत्यधिक संभोग के कारण शारीरिक रूप से कमजोर हो गए और असमय मर गए। सत्ता के लिए जीने वाले राजनेता हमेशा भयग्रस्त रहते हैं और सत्ता बनाए रखने के लिए लोगों की हत्या करवाने में भी संकोच नहीं करते। इस श्लोक में देवी कहती हैं कि, देवता दुर्बल को मारते हैं इसलिए मुझे अजापुत्र चाहिए। वास्तव में मायापुत्र रोगग्रस्त या तनावग्रस्त या भयग्रस्त होकर जल्दी मर जाते हैं, और मरे हुए लोगों के समान संवेदनहीन हो जाते हैं। इसलिए इस श्लोक का आह्वान है कि, अपने मस्तिष्क को देवी को अर्पण करो और उस देवी के निर्देश के अनुसार सत्य न्याय धर्म के मार्ग पर चलो। एक नया जीवन, और पुराने दुष्कर्मयुक्त जीवन का बलिदान।
इस लेख का मांसाहार से कोई सम्बन्ध नहीं। लेकिन पूजा पाठ और यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि चढ़ने वाली कुप्रथा में अंधा विश्वास करने वाले लोगों के लिए संभवतः यह लेख सत्य गूढ़ अर्थ अवश्य प्रस्तुत करेगा। वेदों में अश्वमेध इत्यादि के व्याकरण युक्त वैदिक अर्थ पर प्रकाश डालने के लिए सभी लोग महर्षि दयानंद सरस्वती की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढ़ सकते हैं। किसी और भाष्य पर विश्वास करने लायक नहीं है क्योंकि सायणाचार्य और मैक्समूलर से भी भाष्य में अनेक गलतियां हुई हैं, विशेषकर मैक्समूलर से जो संस्कृत के प्रामाणिक विद्वान नहीं थे। और उन्हीं मैक्समूलर के भाष्य को आधार बनाकर अनेक आधुनिक तामसिक विद्वानों ने वेदों के मूल अर्थ को समझने में अनजाने या जानबूझकर अक्षम्य गलतियां की हैं।
(२)
सनातन अध्यात्म को समझने के लिए केवल तीन शास्त्र पर्याप्त हैं: ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषद। लेकिन इनमें धर्म के सूक्ष्म तत्व हैं और सूक्ष्म तत्त्वों में प्रवेश करने के लिए सूक्ष्म मेधा चाहिए। यह कठोपनिषद का कथन है। इसके लिए विद्यार्थी वर्षों वर्षों तक गुरुकुल में रहकर गुरु के निर्देशानुसार भोजन करने और जीवन व्यतीत करने के बाद, सूक्ष्म बुद्धि वाले बन पाते थे। तब वे इस ब्रह्मविद्या ग्रहण करने के अधिकारी बनते थे। मोटी बुद्धि के लोग इन शास्त्रों का अर्थ नहीं समझ सकते। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के प्रवक्ताओं की कौन कहे, वोल्गा से गंगा पुस्तक में राहुल सांकृत्यायन से भी वेदों का अर्थ समझने में भारी भूल हुई है।
जनसामान्य अध्यात्म के सामान्य तत्त्वों से दूर न रहे, इसके लिए महर्षि वेदव्यास ने अठारह पुराणों की रचना की। सूक्ष्म बुद्धि वालों के लिए श्रुतियां हैं, मोटी बुद्धि वालों के लिए पुराण हैं क्योंकि इनमें रोचक कथाएं हैं। इन रोचक कथाओं के माध्यम से सामान्य मनुष्यों को अपने इष्टदेव के और गुरु के प्रति निष्ठा और प्रेम का भाव विकसित करने की प्रेरणा मिलती है। इसीलिए वही सूक्ष्म आध्यात्मिक तत्व शिव, देवी, गणेश, स्कंद, नारायण इत्यादि अनेक देवों और देवियों के विभिन्न कथाओं के माध्यम से इन पुराणों में व्यक्त किए गए हैं। अनपढ़ या तामसिक लोगों के लिए ये सभी कथाएं विरोधाभासी लग सकती हैं। क्योंकि हर पुराण में ईश्वर के एक रूप को प्रधान और अन्य रूपों को छोटा बताया गया है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इन सभी पुराणों में सभी विशेषण, स्तुतियां और तत्त्वज्ञान एक ही है।
इसलिए एक मनुष्य को वही पुराण पढ़ना चाहिए जिसमें उसके इष्ट का महिमामंडन है। बार बार इन कथाओं को सुनने से मनुष्य के मन में श्रद्धा का भाव विकसित होता है। और कभी कभी संशय भी उत्पन्न होता है। यह संशय उत्पन्न होने के बाद वह जब अधिकारी गुरु से पूछता हैं, तब उसे इसका गूढ़ अर्थ पता चलता है। जैसे एक बार बाबा गंगारामदास से किसी ने पूछा कि, दया अवगुण कैसे बन जाती है? तो गुरुदेव ने श्रीमद्भागवत पुराण की प्रसिद्ध कथा के आधार पर कहा कि, देखो राजा जड़ भरत कैसे एक हिरण पर दया करने के कारण अंततः मोहग्रस्त हो गए थे। इसी तरह श्रीमद्भागवत पुराण पढ़कर स्वामी विवेकानंद को लगा कि इसमें दूध, दही के महासागर और पृथ्वी के मध्य में मेरु पर्वत की बात हो रही है। यह भूगोल के अनुसार गलत है। लेकिन स्वामी जी भी एक सामान्य भूल कर जाते हैं कि पौराणिक भाषा प्रतीकात्मक है, उसमें ऋषि सागर के माध्यम से यौगिक भाषा में सात चक्रों और पर्वत के माध्यम से शरीर के मेरुदंड की बात कर रहा है।
श्रीमद्भागवत पुराण में ही भगवान परशुराम द्वारा अपनी माता रेणुका के सिर काटने की घटना भी आती है। इस पर बड़ी कविताएं लिखी गईं और तामसिक विद्वानों ने इसके आधार पर समूचे भारतीय अध्यात्म दर्शन को पाखंड और स्त्री विरोधी घोषित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। जब मैं उनसे पूछता हूं कि, सिर काटा तो जोड़ा कैसे? तो वह कहते हैं कि, यह कवर अप करने के लिए कोरी कहानी है। इस तरह वे एक हिस्से को कहानी बना देते हैं और एक हिस्से को सत्य घटना। बहरहाल, वे लोग जो प्रोपगंडा के लिए जीते हैं, उन्हें सत्य के शोध और कथा के गूढ़ अर्थ से क्या लेना देना! उन्हें तो बस अपने पंथ से पुरस्कार और वाहवाही चाहिए।
बहरहाल, माता रेणुका जब पानी लेने गईं तब उन्होंने गंधर्वों के एक दल को जलक्रीड़ा करते देखा। गंधर्व अर्थात आजकल के बॉलीवुड वाले हीरो हीरोइन। गंधर्व अच्छा गाते हैं, नाचते हैं, बजाते हैं, अच्छे दिखते हैं, अच्छा कपड़ा पहनते हैं। माता रेणुका एक उदासीन आश्रम की विरक्त तपस्विनी थीं। इस नए संसार को देखकर उनका मन कामासक्त हो गया। अब वह आश्रम आने के बाद तपस्या में मन नहीं लगा पा रही थीं। उनके पति महर्षि जमदग्नि ने उनसे बातचीत करने के बाद पता लगा लिया कि वह कामविकार से ग्रस्त हैं।
उन्होंने अपने पुत्रों से उनका सिर काट देने को कहा लेकिन उनका भावार्थ केवल उनके छोटे पुत्र परशुराम समझ सके। वे ब्रह्मज्ञानी थे। उन्होंने अपनी माता रेणुका से बातचीत करके गंधर्वों के सांसारिक और भौतिक जीवन की नश्वरता का ज्ञान कराया और उन्हें याद दिलाया कि कैसे उन्होंने राजसी जीवन छोड़कर एक तपस्वी पति का स्वयंवर किया था ताकि वह आध्यात्मिक उन्नति कर सकें। माता रेणुका ब्रह्मविद्या ग्रहण कर कामरोग से मुक्त हो गईं। उनका एक नया जन्म हुआ। अब उनका वह पुराना मस्तिष्क नहीं रहा। एक तरह से प्रतीकात्मक रूप से परशुराम ने उनका सिर काट दिया। जब वह अपने पिता से कहते हैं कि, मेरी माता को स्वीकार करो, मैंने उनका पुराना सिर काट दिया है और अब वह नए सिर के साथ हैं। तब महर्षि जमदग्नि प्रसन्न हुए कि उनका पुत्र परशुराम ब्रह्मज्ञ हो चुका है।
द्विज का अर्थ दूसरी बार जन्म लेने वाला। क्या हम वास्तव में दुबारा जन्म लेते हैं? नहीं, सारा खेल तो बुद्धि या मस्तिष्क का ही है। इसलिए कुर्बानी या बलिदान का अर्थ भी समझना होगा। ज्ञान प्राप्त करना और उसके अनुसार आचरण करना ही दूसरा जन्म है। मुझे पूरी आशा है कि इस्लाम में भी कोई उठेगा और बकरीद पर दी जाने वाली कुर्बानी का भावार्थ सामने रखकर अपनी सीमित सामर्थ्य में ही सही, पर सत्य सामने रखेगा। मैं इंटरनेट पर बॉलीवुड के मुस्लिम सितारों से लेकर अन्य विद्वानों की बकरीद के मूल अर्थ को समझाने के प्रयास देख रहा हूं। और विद्वानों का अर्थ केवल समझाना है। समझेगा केवल वही जो समझना चाहता है।
(३)
इसी प्रकरण में मुझे कबीर साहब भी याद आते हैं। कबीर साहब हमारे आश्रम के पूर्वज गुरु हैं। हमारी गुरु परम्परा के मध्य गुरु स्वामी रामानंद हैं, उनके १२ महाभागवत शिष्य थे। इनमें हमारी गुरु परम्परा के स्वामी भावानंद जी कबीर साहब के गुरुभाई थे। स्वामी रामानंद ने अधिकारी भेद से कबीर साहब को निराकार राम की भक्ति और स्वामी भावानंद को साकार राम की भक्ति की दीक्षा दी थी।
कबीर साहब की भाषा भी पुराणों की तरह ही यौगिक और गूढ़ है। सामाजिक विषमताओं पर बार बार प्रहार करने के कारण वह सभी के प्रिय और पूज्य हैं। एक वर्ग के लिए वह विशेष प्रिय बन सके और उसने उन्हें सिर माथे पर बैठा लिया क्योंकि उस वर्ग को उनके माध्यम से सनातन धर्म के विषय में दुष्प्रचार करने में सहायता मिलती है। जब हम एकांगी होकर कबीर साहब के किसी एक पक्ष को ही पकड़ पाते हैं तब कबीर साहब आत्मकल्याण के गुरु न होकर, उस पंथ के हथियार बन जाते हैं, उसी प्रकार जैसे भगवान बुद्ध भी आज कुछ विशेष सम्मोहित लोगों के हथियार बने हुए हैं।
कबीर साहब के अनेक ऐसे पद हैं जहां वे खुलकर आत्म बलिदान या कुर्बानी की बात करते हैं। क्योंकि उनकी भाषा आधुनिक हिंदी के निकट है इसलिए हम उसे समझ पाते हैं। लेकिन यदि हम पुनः उसके शब्दार्थ पर चले जाएं तब तो युद्ध करने, सिर काट लेने और शरीर नष्ट कर देने से ही हम कबीरपंथी बन पाएंगे। अब हम ऐसे कुछ पदों पर दृष्टि डालते हैं:
गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव।
खेत बुहार्या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव॥1॥
भावार्थ: गगन में युद्ध के नगाड़े बज उठे, और निशान पर चोट पड़ने लगी। शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, तब कहता है कि `अब मुझे कट-मरने का उत्साह चढ़ रहा है।'
`कबीर' सोई सूरिमा, मन सूं मांडै झूझ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज॥2॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - सच्चा सूरमा वह है, जो अपने वैरी मन से युद्ध ठान लेता है, पाँचों पयादों को जो मार भगाता है, और द्वैत को दूर कर देता है। [ पाँच पयादे, अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर। दूज अर्थात द्वैत अर्थात् जीव और ब्रह्म के बीच भेद-भावना।]
`कबीर' संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहा, और हरि से लगन जुड़ गई। इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में।
सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत॥4॥
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है। पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता।
अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर॥5॥
भावार्थ - अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है। साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं, कभी हिचकता नहीं। यहां सिर सौंपने का अर्थ वही है, अपनी बुद्धि नहीं अपने गुरु की बुद्धि से आध्यात्मिक मार्ग पर चलना।
जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद॥6॥
भावार्थ - जिस मरण से दुनिया डरती है, उससे मुझे तो आनन्द होता है ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को ! यह मरना बाबा गोरखनाथ की भाषा में है, मरो हे जोगी मरो। मरने का अर्थ है अपने सभी विकारों और सांसारिकता को मार देना, न कि आत्महत्या करना।
कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर॥7॥
भावार्थ - बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं। यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता है।
`कबीर' यह घर पेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं॥8॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - यह प्रेम का घर है, किसी खाला का नहीं , वही इसके अन्दर पैर रख सकता है, जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले। [ सीस अर्थात अहंकार। पाठान्तर है `भुइं धरै'। यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जचता है। सिर को उतारकर जमीन पर रख देना, यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूर-वीरता और निरहंकारिता को व्यक्त करता है।] सिर को काटने से वही तात्पर्य है जो महर्षि जमदग्नि द्वारा माता रेणुका का सिर काटने से है। अर्थात दूसरा जन्म लेना द्विज की भांति।
`कबीर' निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद॥9॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम ही है। मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा। प्रेम रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता है, जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय। यहां भी सिर वैसे ही काटना है जैसे भगवान परशुराम ने माता रेणुका का सिर काटा था अर्थात अहंकारी काम विकार वाले सिर का परिशोधन। द्विज बन जाना।
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥10॥
भावार्थ - अरे भाई ! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता है यह महँगा है और सस्ता भी - यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर देकर खरीद ले जा सकता है। जब तक हम पाने अहंकार से भरे मस्तिष्क के साथ हैं तब तक हम प्रेम नहीं कर सकते।
`कबीर' घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥11॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - क्या ही मार-धाड़ मचा दी है इस चेतन शूरवीर ने।सवार हो गया है प्रेम के घोड़े पर। तलवार ज्ञान की ले ली है, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर वह चोट- पर-चोट कर रहा है।
जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ।
धड़ सूली सिर कंगुरैं, तऊ न बिसारौं तुझ॥12॥
भावार्थ - मेरे अगर उतने भी शत्रु हो जायं, जितने कि रात में तारे दीखते हैं, तब भी मेरा धड़ सूली पर होगा और सिर रखा होगा गढ़ के कंगूरे पर, फिर भी मैं तुझे भूलने वाला नहीं।
सिरसाटें हरि सेविये, छांड़ि जीव की बाणि।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि॥13॥
भावार्थ - सिर सौंपकर ही हरि की सेवा करनी चाहिए। जीव के स्वभाव को बीच में नहीं आना चाहिए। सिर देने पर यदि हरि से मिलन होता है, तो यह न समझा जाय कि वह कोई घाटे का सौदा है।
`कबीर' हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ।
जबलग आस सरीर की, तबलग दास न होइ॥14॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -हरि तो सबका ध्यान रखता है,सबका स्मरण करता है , पर उसका ध्यान-स्मरण कोई नहीं करता। प्रभु का भक्त तबतक कोई हो नहीं सकता, जबतक देह के प्रति आशा और आसक्ति है।
कबीर साहब के इन चुनिंदा पदों को यदि भावार्थ की दृष्टि या आध्यात्मिक दृष्टि से न पढ़ा जाय तो वह हिंसक, पिछड़ा, आत्महत्या और दूसरों की हत्या के लिए प्रेरित करने वाले धर्मगुरु के रूप में जाने जायेंगें। लेकिन ऐसा नहीं है। उनसे बड़ा धर्मगुरु नहीं है। वह महानतम आध्यात्मिक सूर्यों में से एक हैं। यह प्रतीकात्मकता भी भारतीय दर्शनशास्र और अध्यात्म की खूबी है। इसे गुरुकृपा का अंजन लगाकर पढ़ने से वास्तविक अर्थ प्रकट होता है। बाबा गंगारामदास कहते हैं कि, शास्त्रों पर ताला लगा है। इसलिए उसे पढ़कर भी उसका अर्थ दृष्टिगोचर नहीं होता। इसकी चाभी या कुंजी गुरु के पास है, जब वह कृपा करके यह चाभी दे देते हैं तभी इसका अर्थ स्पष्ट हो पाता है।
माधव कृष्ण, ८ जून २०२५, गाजीपुर