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2025 ~ Lav Tiwari ( लव तिवारी )

Lav Tiwari On Mahuaa Chanel

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रविवार, 3 अगस्त 2025

नैतिकता में अंतर यूरोप अमेरिका और भारत

नैतिकता में अंतर होता है। हर जगह समान नैतिकता नहीं है। यूरोप और अमेरिका के दक्षिणपंथी इस बात के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं कि गर्भ में जो बच्चा आ गया, चाहे वह जैसे आ गया उसे मारा नहीं जा सकता क्यूंकि वह एक जीव है, उसमें प्राण आ चुका है, लेकिन विवाह पूर्व सेक्स को वह बहुत महत्व नहीं देते। विवाह के बिना बच्चे हो जायें, वह भी उनके लिए बड़ा मुद्दा नहीं है, उनका बड़ा मुद्दा है कि जो जीव गर्भ में आ गया, उसे जीने का अधिकार है।

भारत में लोगों के लिए गर्भ में आया बच्चा ज़्यादा महत्व का मुद्दा नहीं है, बल्कि एक समय जो जितना बड़ा दक्षिणपंथी था, उसने तकनीक ने मौक़ा दिया तो जमकर बच्चों को मारा, केवल अविकसित भ्रूण को ही नहीं बल्कि बीस पच्चीस सप्ताह के गर्भ को भी गिराया और आज भी यह सतत जारी है। कई जगह तो स्वीकार्य परंपरा थी बच्चियों को दूध में डुबोकर मारने की, सही याद हो तो दूधपिटी कहते थे। मज़ेदार बाद यह है कि जो जो समुदाय इन गर्भ में पल रहे भ्रूण को मारने में सबसे आगे थे वह विवाह पूर्व सेक्स के सबसे प्रबल विरोधी रहे, आज भी हैं। 

अब कौन सही है, कौन ग़लत यह नहीं कहा जा सकता लेकिन व्यक्ति बचपन से जिन चीजों को परिवार से सीखता रहता है वह उसे अधिक महत्व और मूल्य की लगती हैं। वह उसका जीवनमूल्य बन जाता है। लेकिन इस आधार पर यह कहना कि भारत का विचार अधिक सही है अथवा यूरोप और अमेरिका का विचार अधिक सही है, अनुचित है। सबकी अपनी विकासयात्रा है, सबकी अपनी सोच है। हाँ, जो भी अति की तरफ़ जाएगा वह समाप्त होने को बाध्य है। 

यूरोप में गर्भ बचाने के चक्कर में सिंगल मदर इस कदर बढ़ी कि अब परिवार के प्रति प्रेम फिर से लौट रहा है। बलात्कार के बाद भी गर्भ ठहर जाने पर बच्चा पैदा ही करना होगा, इस पर विचार विमर्श चल रहा है। भारत में भी धीरे धीरे अनर्गल परम्पराये ढलान पर हैं। सबकी अपनी अपनी नैतिकता है जिसमे अलग अलग प्राथमिकता है पर वास्तव में दिक्कत तब होती है जब कोई व्यक्ति, समाज और सभ्यता कॉमन सेंस को किनारे लगाकर अति की तरफ़ जाने लगता है। हमें मध्य मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।



शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

मुमकिन है वो साथ न आये हाथ में उसका हाथ न आये रचना - लव तिवारी

मुमकिन है वो साथ न आये 
हाथ में उसका हाथ न आये... 

अब मुझको तुम भूल ही जाओ 
उन के लबों पे ये बात न आये... 

बिना तेरे कट तो रही है रात.. 
मगर ऐसी कातिल रात न आये...

प्यास बहुत है दिल में बाकी 
पर ये थोड़े दिन की बरसात न आये..



बुधवार, 30 जुलाई 2025

कउवा कान ले के भागल धावल सगरी गाँव- डॉ एम डी सिंह

 कउवा कान ले के भागल धावल सगरी गाँव 

अइसे गहि के केहू छींकल जागल सगरी गाँव 


एक चिचिअइले समै चिचिआइल अरे बाप रे बाप 

भइल बउंका के पाछे देखा पागल सगरी गाँव 


लउर कपारे भेंट ना अस  बाप बाप चिल्लाइल

बिना मउअत के मउअत देवे लागल सगरी गाँव 


होरहा होरहा होरहा,  भइल  सिवाने हल्ला  

एक कियारी रहिला जम्मल धांगल सगरी गाँव 


बरध बंहेतरा बहक केहू क कइलस बड़ हेवान 

कान धरि के  राम दुहाई मांगल सगरी गाँव 


डॉ एम डी सिंह



साप्ताहिक मानव धर्म संगोष्ठी-माधव कृष्ण जुलाई २०२५ गाजीपुर

 साप्ताहिक मानव धर्म संगोष्ठी


स्थान: द प्रेसीडियम इंटरनेशनल स्कूल योग कक्ष, अष्टभुजी कॉलोनी, बड़ी बाग, लंका, गाजीपुर 


दिन: शनिवार, 26 जुलाई 2025

समय: शाम 7 बजे से 9 बजे तक


आयोजक: नगर शाखा, श्री गंगा आश्रम, मानव धर्म प्रसार


साप्ताहिक संस्कारशाला के कुछ निष्कर्ष


मानव धर्म प्रसार


1. जापान के बौद्ध संत की तरह बुद्ध के विचारों का प्रसार बुद्ध की करुणा दृष्टि अपनाकर ही हो सकता है।

2. शिव का नाम जपने के बाद शिव की तरह कल्याणकारी हो जाना है। महर्षि दधीचि शिवभक्त थे। शिव को जपने का परिणाम यह हुआ कि दधीचि ने अपने आराध्य की भांति ही लोककल्याण के लिए बिना कुछ सोचे अपना शरीर दे दिया।

3. गुरुनानक देव की इच्छा थी कि अच्छे लोग अपनी अच्छाई के साथ फैल जाएं, और बुरे लोग एक स्थान पर सीमित रहें ताकि उनकी बुराई से समाज का अहित न हो।

4. ईश्वर का सर्वत्र और सबमें दर्शन करना चाहिए। यही सबसे बड़ा और सहज ध्यान है।

5. निस्वार्थ प्रेम देने वाला ही गुरु है।

6. प्रेम एकरस होता है। जो चढ़ती उतरती है वह मस्ती नहीं है। प्रेम की मस्ती तो हमेशा चढ़ी रहती है।

7. सादे कपड़े पहनो, बेईमानी का अन्न न खाओ, खुद तकलीफ सह लो, दूसरों को सुख दो, भिखारी खाली हाथ न जाए, कोई बेकसूर होने के बाद भी गाली दे तो भी हाथ जोड़ लो तो भजन खुल जाता है। चिड़ियों और चींटियों को जहां देखो, भोजन दे दो। दीनता और शांति से भजन में प्रगति होती है।

8. सुमिरन का अर्थ है परमात्मा का स्मरण। अपना कार्य करते हुए प्रभु का स्मरण करना ही सिमरन है। सांस सांस सिमरन करे, वृथा न जाए सांस। प्राप्त पर्याप्त है, इसलिए ईश्वर को हमेशा स्मरण करते रहना चाहिए।

9. भजन के साथ आत्मावलोकन भी आवश्यक है।  मन की गति गहन है।

10. सदा सकारात्मक दृष्टिकोण होना चाहिए।

11. कर्म का अटल सिद्धांत है, जो करोगे सो भरोगे।


कुछ कहानियां


अमीर खुसरो पहले मुल्तान के हाकिम के यहां नौकरी करते थे, किंतु किसी कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी और वह अपना सारा सामान ऊंटों पर लादकर अपने गुरु हजरत निजामुद्दीन से मिलने दिल्ली की ओर निकल पड़े। इधर हजरत निजामुद्दीन के पास एक गरीब आदमी आया और बोला, मालिक मेरी लड़की की शादी तय हो गई है। यदि आप कुछ मदद कर सकें, तो मैं आपका शुक्रगुजार रहूंगा। हजरत बोले, आज तो मेरे पास देने के लिए कुछ नहीं है, तुम कल आना।

वह आदमी जब दूसरे दिन गया, तो हजरत बोले, आज भी मुझे कुछ नहीं मिला। इस प्रकार तीन दिन बीत गए, लेकिन हजरत के पास भेंट चढ़ाने के लिए कोई नहीं आया। आखिर चौथे दिन जब वह गरीब वापस जाने लगा, तो उन्होंने उसे अपनी जूती ही दे दी। बेचारा मायूस तो हुआ, पर जूती लेकर ही चल पड़ा। रास्ते में खुसरो का काफिला आ रहा था। खुसरो को लगा कि कहीं से पीर की खुशबू आ रही है, किंतु पीर (हजरत निजामुद्दीन) कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। जब वह आदमी इनके सामने से गुजरा, तो वे समझ गए कि खुशबू इसी आदमी के पास से आ रही है।


उन्होंने इसे रोककर पूछा, आप कहां से आ रहे हैं? उसने सारी बात बता दी। तब खुसरो बोले, क्या तुम इस जूती को बेचोगे? उस आदमी ने कहा, ‘आप वैसे ही ले सकते हैं’, लेकिन खुसरो ने पत्नी, दो बच्चों और खुद के लिए एक-एक ऊंट रखकर बाकी सारे ऊंट और उन पर लदा सामान उस आदमी को दे दिया। वह उन्हें दुआ देता हुआ चला गया। खुसरो जब दिल्ली पहुंचे, तो उन्होंने हजरत के चरणों पर वह जूती रख दी। तब उन्होंने पूछा, इसके बदले क्या दिया है तुमने? खुसरो ने सारी चीजें गिना दीं। खुसरो का अपने प्रति यह उत्कट प्रेम देख उनके मुख से निकला, इसकी कब्र मेरी कब्र के पास ही बनाना।

*****

एक फकीर था जापान में, वह बुद्ध के ग्रंथों का अनुवाद करवा रहा था। पहली बार जापानी भाषा में पाली से बुद्ध के ग्रंथ जाने वाले थे। गरीब फकीर था, उसने दस साल तक भीख मांगी। दस हज़ार रुपए इकट्ठे कर पाया, लेकिन तभी अकाल आ गया, उस इलाके में अकाल आ गया।

उसके दूसरे मित्रों ने कहा कि नहीं-नहीं, ये रुपए अकाल में नहीं देने हैं, लोग तो मरते हैं जीते हैं, चलता है सब। भगवान के वचन अनुवादित होने चाहिए, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है।

लेकिन वह फकीर हंसने लगा। उसने वे दस हज़ार रुपए अकाल के काम में दे दिए। फिर बूढ़ा फकीर, साठ साल उसकी उम्र हो गई थी, फिर उसने भीख मांगनी शुरू की। दस साल में फिर दस हज़ार रुपये इकट्ठे कर पाया कि अनुवाद का कार्य करवाए, पंडितों को लाए। क्योंकि पंडित तो बिना पैसे के मिलते नहीं हैं। पंडित तो सब किराए के होते हैं। तो पंडित को तो रुपया चाहिए था, तो वह अनुवाद करे पाली से जापानी में। फिर दस हजार रुपये इकट्ठे किए, लेकिन दुर्भाग्य कि बाढ़ आ गयी और वे दस हजार रुपये वह फिर देने लगा।

तो उसके भिक्षुओं ने कहा:यह क्या कर रहे हो? यह जीवन भर का श्रम व्यर्थ हुआ जाता है। बाढ़ें आती रहेंगी, अकाल पड़ते रहेंगे, यह सब होता रहेगा। अगर ऐसा बार-बार रुपए इकट्ठे करके इन कामों में लगा दिया तो वह अनुवाद कभी भी नहीं होगा।

लेकिन वह भिक्षु हंसने लगा। उसने वे दस हज़ार रुपए फिर दे दिए। फिर उम्र के आखिरी हिस्से में दस-बारह साल में फिर वह दस-पंद्रह हज़ार रुपए इकट्ठे कर पाया। फिर अनुवाद का काम शुरू हुआ और पहली किताब अनुवादित हुई। तो उसने किताब में लिखा :थर्ड एडिशन, तीसरा संस्करण।

तो उसके मित्र कहने लगे :पहले दो संस्करण कहाँ हैं? निकले ही कहाँ? पागल हो गए हो? यह तो पहला संस्करण है।

लेकिन वह कहने लगा कि दो निकले, लेकिन वे निराकार संस्करण थे। उनका आकार न था। वे निकले, एक पहला निकला था जब अकाल पड़ गया था, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी। फिर दूसरा निकला था जब बाढ़ आ गई थी, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी, लेकिन उस वाणी को वे ही सुन और पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री का भाव है। यह तीसरा संस्करण सबसे सस्ता, सबसे साधारण है, इसको कोई भी पढ़ सकता है, अंधे भी पढ़ सकते हैं, लेकिन वे दो संस्करण वे ही पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री की आंखें हैं।




प्रेम और विवाह- माधव कृष्ण ३० जुलाई २०२५ गाजीपुर

जब यात्रा अनंत जन्मों की हो जिसका आधार विशुद्ध प्रेम हो तब वर्ष नहीं गिने जाते। लेकिन फिर भी विवाह की वर्षगांठ मनाई जाती है। अभी एक साहित्यिक संगोष्ठी में दो साहित्यकारों ने 'साहित्य की जाति और धर्म' विषय पर बोलते हुए मेरे अंतरजातीय विवाह का उदाहरण सामने रखा। अंतरजातीय विवाह: यह एक दृष्टि है विभिन्न जातियों में होने वाले विवाह को देखने की। मुझे इस दृष्टि से कोई शिकायत भी नहीं है लेकिन सच तो यह है कि यह दृष्टि जातिवादी दृष्टि है। जो जाति देखने का आदी है वह विवाह को इस श्रेणी में देखकर बांधेगा ही, अंतरजातीय विवाह।


फिल्म हाउसफुल ५ में अक्षय कुमार का एक संवाद है: "प्वाइंट ये नहीं है जिस पर तू स्ट्रेस कर रहा है।" हां, बिलकुल! बिंदु वह नहीं है जिसे आप रेखांकित कर रहे हैं। मूल बिंदु है प्रेम, और यह उपेक्षित होता रहा है।  प्रेम और विवाह, ये दोनों स्थिर और उबाऊ संस्थाएं नहीं हैं। प्रेम और विवाह, दोनों निरन्तर गतिशील, विकासशील और प्रवहमान संस्थाएं हैं। इसलिए जब प्रेम और विवाह एक साथ घटित होते हैं जिसके लिए समाज ने प्रेमविवाह शब्द चुना, तो यह किसी भी मनुष्य के जीवन की एक कोमलता से परिवर्तन कर देने वाली घटना बन जाती है। यह संवेदनाओं का धर्म और चरमोत्कर्ष है।


कुछ लोगों ने हमेशा व्यवस्थित विवाह और प्रेम विवाह के बीच आपसी समझ, मनमुटाव, परिवार का ध्यान इत्यादि के आधार पर एक लकीर खींचने का प्रयास किया है। लेकिन मैं ऐसे किसी अंतर को नहीं देखता। दोनों का केंद्र विवाह है, एक साथ रहने और एक दूसरे के लक्ष्य में सहयोग करने का अदम्य संकल्प। एक में प्रेम विवाह के पूर्व घटित होता है और दूसरे में विवाह के बाद प्रेम घटित होता है। दोनों में असीम धैर्य, आपसी समझ और निर्वहन की अटूट क्षमता आवश्यक है। इसीलिए भारतीय मानस ने विशेष निर्वहन या विवाह जैसे शब्द की संरचना की।


कुछ लोगों ने कहा कि, प्रेम विवाह सामाजिक संरचना को तोड़ देते हैं। यह सच है। जब एक कथावाचक को जाति पूछकर मारा जाता हो या जब किसी गांव में एक मवेशी के चरने पर दो जातियों में खूनी संघर्ष हो जाता हो या जब किसी एक जिले में एक योग्य प्रतिनिधि को दूसरी जाति के लोग वोट नहीं देते हैं, तब क्या सामाजिक संरचना बची रहती है? ऐसी सड़ी गली सामाजिक संरचना को तो ध्वस्त होना ही चाहिए। आश्चर्य है कि, सामाजिक संरचना के नाम पर हम वह सब कुछ बचा लेना चाहते हैं जो विद्वेष और विभाजन का स्रोत है; और इसे बचाने के नाम पर हम हर उस कृत्य और विचार का विरोध करते हैं जिसका आधार विशुद्ध प्रेम है, जिसके अंदर दो समुदायों को जोड़ने की क्षमता है।


भारत की सांस्कृतिक परम्परा में आठ विवाहों की सूची है: ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस, पैशाच। अंतिम दो को अधर्म पर आधारित विवाह माना जाता है क्योंकि इसमें कन्या की इच्छा नहीं होती और उसका हरण कर लिया जाता है। सर्वश्रेष्ठ ब्राह्म विवाह माना जाता है क्योंकि श्रेष्ठ सद्गुणों से युक्त वर और वधू को पारस्परिक और सामाजिक सहमति के बाद विवाह की संस्था में प्रवेश दिया जाता है। लेकिन आज के समय में लड़के या लड़की की सहमति या इच्छा न होने के बाद भी विविध दबावों के द्वारा एक दूसरे के साथ विवाह करने के लिए विवश किया जाता है। जब तक सामाजिक दबाव, लोकलाज, अशिक्षा, खाप या जातीय पंचायतें शक्तिशाली रहे, तब तक ऐसे विवाह को लोग धर्मसम्मत समझते रहे और लोग इन्हें निभा भी लेते थे।  


भय के कारण निर्वाह कर लेने वाले विवाह को किस श्रेणी में डालेंगे, यह तो पाठक ही निर्णय करेंगे। प्रायः कुछ वर्षों पूर्व बिहार में ऐसे विवाह आम बात हो चुके थे जिसमें किसी सजातीय योग्य वर की सूचना पाकर रणवीर सेना या माओवादी संगठन के लोग बीच राह से ही उनका अपहरण कर लेते थे और उनका विवाह अपने समूह की कन्या से विधिवत करा देते थे। उड़ीसा में पढ़ते समय मेरी भेंट एक ऐसे सज्जन के संबंधी से हुई। उन्हें लड़की से साथ तीन दिन तक एक कमरे में विवाह के बाद बंद रखा गया। उनके परिवार वालों को सूचना दी गई और धमकी दी गई कि लड़की के साथ कुछ भी गलत होने पर अतिवादी कदम उठाए जाएंगे। वे लोग आज प्रसन्नतापूर्वक हैं लेकिन ऐसे विवाह को राक्षस विवाह कहते हैं। इसका आरंभ ही अधर्म पर आधारित है।


अब जब संविधान और प्रशासन अधिक शक्तिशाली हो गए हैं, तब ऐसे विवाहों की वास्तविकता सामने आ रही है। अब तक हम सभी जिसे आदर्श विवाह समझते रहे, उनमें संबंध विच्छेद, मन मुटाव और हत्या जैसे समाचार आम बात हो चुके हैं। सद्गुणों से युक्त रहने पर और पारस्परिक सहमति के बाद संविधान भी वयस्कों को स्वेच्छया विवाह की अनुमति देता है। समाज की इस पर मिश्रित  प्रतिक्रिया है। मुंबई और दिल्ली जैसे आर्थिक रूप से समृद्ध और गतिशील महानगर प्रेम विवाहों को पूरी स्वीकृति दे चुके हैं लेकिन वाराणसी, गाजीपुर जैसे जातियों को प्रधानता देने वाले शहरों  में  अभी भी व्यापक स्तर पर इन्हें अस्वीकार कर दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि यह अस्वीकार्यता केवल जातीय विषमता के कारण है।


यह अस्वीकार्यता पारस्परिक अविश्वास, प्रेम के नाम पर लड़कियों को ठगने वाले और उनकी भावना के साथ खेलने वाले लड़कों के कारण भी है। जैसे रावण ने साधु के छद्म वेश में माता सीता का अपहरण किया और माना जाता है कि तब से लोगों ने साधु वेश पर ही अविश्वास करना शुरू कर दिया, लेकिन धन्य हो स्वामी विवेकानंद और महर्षि दयानंद जैसे साधुओं का जिनके कारण समाज में साधुवेश की प्रतिष्ठा बनी रही; वैसे ही कुछ छद्म प्रेमियों के कारण वास्तविक प्रेम को पूरी तरह से नकार देना भी अनुचित होगा। इसके उदाहरण भी असंख्य हैं जैसे भाजपा के पूर्व नेता सिकंदर बख्त जिन्होंने एक हिंदू से विवाह किया और अंत तक निभाया, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जिन्होंने श्रीमती सोनिया जी से प्रेम विवाह किया और आदर्श दंपति बने रहे।


महाभारत के आदिपर्व के संभवपर्व में दुष्यंत द्वारा विवाह का प्रस्ताव रखने पर शकुन्तला उनसे अपने पिता ऋषि कण्व की प्रतीक्षा करने के लिए कहती हैं। दुष्यन्त क्षत्रिय हैं और शकुन्तला ब्राह्मण। वैसे यह और बात है कि शास्त्रों ने कन्या की जाति को नकार दिया है। सभी की भांति यह भी उसके गुण आचरण पर निर्भर करता है। दुष्यन्त राजा थे, सम्भवतः विचलित हुए हों कि कहीं ऋषि कण्व विवाह से मना न कर दें। इसका प्रमाण भी मिलता है कि विवाह के बाद राजा दुष्यंत चिंता करते हुए नगर गए कि यह सुनने के बाद तपस्वी महर्षि कण्व क्या करेंगे। इसलिए उन्होंने उनकी अनुपस्थिति में ही विवाह करने के लिए कहा तब शकुंतला ने पिता का भय दिखाया। उस समय दुष्यंत ने गांधर्व विवाह का प्रस्ताव रखा और इसे शास्त्र संस्तुत और धर्म सम्मत बताया। इसका मूल यह श्लोक है:


आत्मनो बंधुरात्मैव गतिरात्मैव चात्मन:

आत्मनो मित्रमात्मैव तथाssत्मा चात्मन: पिता

आत्मनैवात्मनो दानम् कर्तुमर्हसि धर्मतः 


आत्मा ही अपना बंधु है। आत्मा ही अपना आश्रय है। आत्मा ही अपना मित्र है। वही अपना पिता है। अतः स्वयं का धर्मपूर्वक दान किया जा सकता है। आज का प्रेम विवाह शास्त्रीय संदर्भों में ब्राह्म विवाह और गांधर्व विवाह का मिश्रित रूप है। इस संदर्भ को उठाने की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि मानवीय भावनाएं, घटनाएं हमेशा एक जैसी रही हैं, सनातन रही हैं। बदला केवल समाज और सामाजिक नियम है। इसलिए इन विशुद्ध मानवीय भावनाओं को यथार्थ की अभिव्यक्ति और शक्ति देने के लिए तब धर्मशास्त्र होते थे और उनके नियमों का संदर्भ दिया जाता था। इस श्लोक में भी धर्मतः का प्रयोग हुआ क्योंकि गांधर्व विवाह भी तभी अनुमन्य है जब उसमें धर्म के नियमों का पालन हो अन्यथा उसे पैशाच या राक्षसी विवाह माना जायेगा। आज की परिस्थितियों में धर्म का स्वरूप संविधान ने ले लिया है इसलिए आज ऐसे विवाहों की स्वीकार्यता धर्म के स्थान पर संविधान के नियमों के आलोक में होनी चाहिए। इसलिए धर्मतः के स्थान पर नियमतः शब्द का प्रयोग होना चाहिए।


भारतीय संविधान में, विवाह का अधिकार अनुच्छेद २१ के तहत जीवन के अधिकार का एक हिस्सा माना जाता है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करता है। विवाह के अधिकार में संविधान कुछ मूल बिंदुओं को रेखांकित करता है: (१) व्यक्तिगत स्वतंत्रता: हर वयस्क को अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार है।  (२) गरिमा: विवाह का अधिकार व्यक्ति की गरिमा और स्वायत्तता का एक अभिन्न अंग है। (३) भेदभाव का अभाव: किसी भी व्यक्ति को, चाहे वह लिंग, जाति, धर्म या किसी अन्य आधार पर, विवाह करने से नहीं रोका जा सकता। (४) सुरक्षा: यदि कोई जोड़ा, अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के बाद, परिवार या समाज से धमकी या उत्पीड़न का सामना करता है, तो उन्हें सुरक्षा प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है।


दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक मामले में कहा कि विवाह का अधिकार "मानवीय स्वतंत्रता की घटना" है और इसे माता-पिता या समाज की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी कहा कि एक वयस्क का अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार संविधान द्वारा संरक्षित है। शास्त्रों और संविधान द्वारा मानवीय भावनाओं को अपने कोमलतम और मृदुतम स्वरूप में सुरक्षित और संरक्षित करने के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन यथार्थ और भौंडे यथार्थ के मध्य संघर्ष ने स्थिति को अभी तक जटिल बनाया हुआ है। हिन्दू और मुस्लिम के बीच प्रेम विवाह हुए तो एक बड़े स्तर पर लव जिहाद जैसा नेटवर्क भी लगातार पकड़ा जा रहा है। जातियों के बीच प्रेम विवाह हो रहे हैं लेकिन जातीय पंचायतें द्वारा सम्मान के लिए हत्या के मामले भी सामने आ रहे हैं।


ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है


इन सभी विसंगतियों में एक आशा की किरण यही है कि लोग फिर भी प्रेम कर रहे हैं, क्षुद्र बंधनों को काटकर विवाह कर रहे हैं, आपसी मनमुटाव और अपेक्षाओं को किनारे रखकर निर्वाह कर रहे हैं और एक ऐसे अंधकारमय समाज में प्रेम का दीपक जलाए हुए हैं जिसके आलोक में संसार की सभी जातियों और संप्रदायों की संकीर्णता देखी और जलाई जा सकती है। कौन नहीं चाहता विश्व नागरिक बनना! आज अपने वैवाहिक वर्षगांठ की फोटो देखकर और साहित्य संगोष्ठी के उन वक्तव्यों के कारण मुझे गाजीपुर की धरती के ही महातपस्वी कण्व ऋषि का वह वाक्य याद आ गया जिसमें उन्होंने अपनी पुत्री शकुन्तला से कहा था,


त्वयाद्य भद्रे रहसि मामनादृत्य य: कृत:

पुंसा सह समायोगों न स धर्मोंपघातक:


स्त्री और पुरुष का प्रेम और धर्म पर आधारित विवाह धर्म का अपघातक नहीं है। इससे धर्म नष्ट नहीं होता। एकमात्र शर्त है प्रेम जिसमें यह देख लेने की क्षमता हो कि लड़का दुष्यंत जैसा धर्मात्मा और श्रेष्ठ पुरुष हो, योग्य हो। प्रेम अंधा नहीं होता। प्रेम सूक्ष्मदर्शी होता है। उसमें सूक्ष्म तत्वों को देखने की सामर्थ्य होती है। प्रेम मूर्ख भी नहीं होता। उसमें शकुंतला जैसे प्रश्न पूछने और अधिकार मांगने की बुद्धि होती है। प्रेम घटित होता है लेकिन प्रेम में पड़ना और प्रेम विवाह करना एक सूझबूझभरा निर्णय होता है। यह आकस्मिक दुर्घटना नहीं है। शकुंतला जैसी सदाचारिणी लड़की ही प्रेम के पवित्र आचार को समझ सकती है। विवाह के बाद लक्ष्य की एकाग्रता, केंद्र में आध्यात्मिकता और पारस्परिक सम्मान ही सब कुछ हैं। शकुन्तला ने अपने पिता कण्व से दो आशीर्वाद मांगे: राजा दुष्यंत सदा धर्म में स्थिर रहें, और कभी भी राज्य से भ्रष्ट न हों। यही वैशेषिक दर्शन में धर्म की परिभाषा है:"यतो अभ्युदय निःश्रेयस" का अर्थ है कि धर्म वह है जो मनुष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति और कल्याण की ओर ले जाता है।  


प्रेम और विवाह भी वही सार्थक हैं जिसमें पति और पत्नी एक दूसरे को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों उन्नतियों के मार्ग पर ले जाएं। यह आवश्यक नहीं कि आपने प्रेम के बाद विवाह किया या विवाह के बाद प्रेम, आवश्यक यह है कि आपने अपने सिर में भरे तमाम विकारों को अहंकार के साथ काटकर फेंका या नहीं। फिलहाल जातीय संकीर्णताओं को समाप्त करने के लिए प्रेम और विवाह से अधिक कारगर और कुछ नहीं दिखता। शकुन्तला की बात भी सुन लें जो उन्होंने विस्मृति के शिकार राजा दुष्यंत की सभा में कहा था, पति ही पत्नी के भीतर गर्भरूप से प्रवेश करता है और पुत्ररूप में जन्म लेता है।  पत्नी पति का आधा अंग है। वह धर्म अर्थ और काम का मूल है और संसार सागर से तरने की इच्छा रखने वाले पुरुष के लिए प्रमुख साधन है। पत्नी के साथ पुरुष सुखी और प्रसन्न रहते हैं क्योंकि पत्नी ही घर की लक्ष्मी है। क्रोधित होने पर भी पत्नी के साथ कोई अप्रिय व्यवहार नहीं करना चाहिए।  पत्नी धन, प्रजा, शरीर, लोकयात्रा, धर्म, स्वर्ग, ऋषि और पितर इन सबकी रक्षा करती है। ये वाक्य भी उन सभी लोगों के लिए आलोक स्तंभ हैं जो विवाह, पति और पत्नी को हल्के में लेते हैं या उनका अपमान करने लगते हैं। अंत में मेरे प्रिय कबीर:


प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय ।

राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाय॥


माधव कृष्ण, ३० जुलाई २०२५, गाजीपुर



बुधवार, 16 जुलाई 2025

मोटर न्यूरॉन डिसीज़ एवं मस्कुलर डिस्ट्रॉफी बीमारी को पहचाने फर्जी के डॉक्टर वैद एवं झाड़ फूक से बचें- लव तिवारी

motor neurone disease
स्टेफेन हॉकिंग्स ( फिजिक्स वैज्ञानिक) ऐसा नाम जो एक भयानक बीमारी मोटर न्यूरॉन डिसीज़ से प्रभावित थे। आज इसी तरह के बीमारी से ग्रसित एक छोटी बच्ची जो जिंदगी और मौत के बीच मे सांसे ले रही है उसके परिजनों से मिलना हुआ। बच्ची ने पिछले 14 दिनों से अन्न त्याग रखा है।

मानसी वर्मा
उम्र- 8 वर्ष
माता- श्री मति रिंकी वर्मा
पिता- श्री सन्नी वर्मा
वर्तमान पता- मुक्तिपुरा मरकिंगंज ग़ाज़ीपुर उत्तर प्रदेश
स्थाई पता - ग्राम रुकुनदिनपुर पोस्ट नोनहरा ग़ाज़ीपुर

Motor Neurone Disease में डॉक्टरों और इंटरनेट के द्वारा प्राप्त जानकारियो से यह पता चलता है कि इस बीमारी में नसे सुख जाती है जिससे ब्लड का संचार शरीर मे न होने के कारण मनुष्य कुछ ही वर्ष में मरणासन अवस्था को प्राप्त कर लेता है। सही मायने में ये कहिये की इस जैसी खतरनाक बीमारियों का उपचार अभी तक मेडिकल साइंस के पास नही है लेकिन विदेशों में इस तरह के भयानक बीमारी पर शोध किये जा रहे है।

इस तरह की एक और भयानक बीमारी जिसका नाम है मस्कुलर डिस्ट्रॉफी है, इस बिमारी के भी लगभग 9 प्रकार है जिसमे DMD Duchene Muscular Dystrophy एवं LGMD Limb Gard Muscular Dystrophy के मरीज ज्यादा संख्या में है। इंटरनेट और पिछले कई वर्षों तक इस बीमारी से ग्रसित होने के कारण इस बीमारी के प्रकार और उसकी कुछ जानकारी हमें भी ज्ञात है। जैसा कि एक आप सब ने सुना होगा कि एक छोटी बच्ची को सोशल मीडिया कंपेन से इकट्ठा करके 16.5 करोड़ की दवा के माध्यम से उपचार हुआ है और वो पहले से बेहतर है। हमें ये आशा है कि भविष्य हमारे लिए एक बेहतर इलाज के साथ सुखद परिणाम वाला होगा।

भारत या अन्य कई देशों के पास इन जैसे खतरनाक बीमारियों से निपटने के कोई उपाय नही है। और रोगी के परिजन कुछ लुटेरों डॉक्टरों के झांसे में आ कर लाखों रुपये खर्च कर देते है। पैसा खर्च के साथ अगर रोगी को आराम मिले तो पैसे का सदुपयोग समझ मे आता है।

बीमारी से प्रभावित रोगी के परिजन के एक सवाल ने मुझे इस पोस्ट को लिखने पर मजबूर कर दिया। उसने मुझसे पूछा कि कोई ऊपरी चक्कर तो नही है। परिजनों को फिर से यह बात समझा रहा हूँ कि यह एक भयानक बीमारी है औऱ फर्जी डॉक्टरों के साथ आप लोगों झाड़ फूक टोना ऊपरी चक्कर के चक्कर मे आकर अपने पैसे का दुरुपयोग न करें।

भारतीय प्राइवेट लुटेरे डॉक्टर के सम्बंध में भी एक बात कहूंगा। वो अच्छी तरह से जानते है कि इस तरह के बड़े बीमारी का उपचार उसके पास या किसी के पास नही फिर भी वो आप को मूर्ख बनाकर पैसा ऐठते है। कोरोना काल मे आप सभी ने प्राइवेट हॉस्पिटल और डॉक्टरों के आतंक का रूप रेखा देख चुके है।।

परिजन क्या करें।- हर परिजन अपने बच्चे को बचाने का अंत समय तक प्रयास करता है। लेकिन प्रयास का परिणाम अगर सही न हो तो प्रयास करना मेरी नजर में सही नही है। रोगी के परिजनों को यह सुझाव है भारत के बड़े सरकारी अस्पतालों के विशेषज्ञ के सम्पर्क में आप रह सकते है जैसे ऐम्म्स दिल्ली, नीमांस बेंगलुरु, सी एम सी वेल्लोर, कोई कि बीमारी के संभावित कोई भी जानकारी और उनके उपचार के सम्बंध की जनकारी आपको यही से पता लग सकती है।।

#लवतिवारी #युवराजपुर #ग़ाज़ीपुर २३२३३२



मंगलवार, 15 जुलाई 2025

इस क़दर आइना से वो डरने लगे छुप छुप करके अब तो संवरने लगे

इस क़दर आइना से वो डरने लगे  

छुप छुप करके अब तो संवरने लगे


चांद निकला सफ़र पे लिये रोशनी 

दाग़ उसका दिखाकर वो हंसने लगे


तोड़ना जोड़ना जिनकी फितरत रही 

टूट कर अब तो ख़ुद ही बिखरने लगे


कैसा अंधों का ये तो शहर हो गया 

खोटे सिक्के धड़ल्ले से चलने लगे


खूब कोशिश से वे तो सुधर ना सके 

 वक्त बदला तो "सागर"सुधरने लगे





नाम पाक नापाक इरादा तेरा पाकिस्तान रे भूल रहा है शायद तेरा बाप है हिन्दुस्तान रे

नाम पाक नापाक इरादा तेरा पाकिस्तान रे।

भूल रहा है शायद तेरा बाप है हिन्दुस्तान रे।।


भेष बदलकर धोखा देना आदत तेरी पुरानी है 

मां का दूध पिया है गर तो करता क्यों नादानी है 

दम है प्यारे पास तुम्हारे आजा रण मैदान रे

भूल रहा है शायद तेरा बाप है हिन्दुस्तान रे


याद करो सन् पैंसठ को लाहौर में घुस कर मारे थे 

चरणों में गिर कर तेरे आका रक्षा करो पुकारे थे

दया लगी दे दिये जीत कर फिर से तुझको दान रे

भूल रहा है शायद तेरा बाप है हिन्दुस्तान रे


सन् एकहत्तर में फिर से जो तुमने की मनमानी 

तेरी ऐसी तैसी कर के हमने याद दिला दी नानी 

बांट दिया दो टुकड़ों में, तोड़ दिया अभिमान रे

भूल रहा है शायद तेरा बाप है हिन्दुस्तान रे


पहल गांव में पहल घिनौना तेरी जाति बताता है 

कुत्ते की दुम सीधी करना हमको भी तो आता है 

अबकी "सागर" रेलेंगे मिट जाये नाम निशान रे

भूल रहा है शायद तेरा बाप है हिन्दुस्तान रे



रोइ रोइ करें बेटी फोन अपनी माई के बछिया तोहार अइली घर में कसाई के

 रोइ, रोइ करें बेटी फोन अपनी माई के

बछिया तोहार अइली घर में कसाई के


भेजलू बनाके, सजाके बहू रानी

सासु, ननदिया बनवली नौकरानी

कहिके भिखारिन  मारें झोंटा झोटियाइके

बछिया तोहार अइली घर में कसाई के


माह  छगो बीतल माई अइले गवनवा

मुहंवा से बोलल नाहीं अबले सजनवा

मारेलं लाते, लबदा रोज खिसियाइके

बछिया तोहार अइली घर में कसाई के


डरे नाहीं आवे नीद सुन महतारी

हमरा बा शक कहियो दिहं जारी, मारी

जनवा बचाल माई हमके बोलवाइके

बछिया तोहार अइली घर में कसाई के


 कुछ नाहीं कहब भले आधा पेट खाइब

भउजी के छाड़ी,  पहिनी दिनवा बिताइब

सागर सनेही "माई रोकिल तबाही के

बछिया तोहार अइली घर में कसाई के




सुसुकि सुसिक रोंवे दुअरा पे बाबुल घरवा में रोवताड़ी माई न रे आज होइगइली बिटिया पराई न रे

सुसुकि सुसिक रोंवे दुअरा पे बाबुल

घरवा में रोवताड़ी माई न रे 

आज होइगइली बिटिया पराई न रे।


रहि रहि धधके करेजवा में अगिया

एक ही कोयल बिन सून भइली बगिया    

ना जाने फिर कब चहकी चिरइया,        

         जाने बहार कब आई न रे

आज होइगइली बिटिया पराई न रे


रखलीं जतन से बड़ा रे जोगा के

बहिंया के पलना में झुलना झुलाके

अंखिया से दूर गइली दिल के दुलरुई

केकरा से दुखवा बताईं न रे

आज होइगइली बिटिया पराई न रे


प्रीतिया के रीतिया ह गजबे निराली

कहीं के कली कहीं फूल बन जाली

"सागर सनेही" नेह दूनों ओर बांटे

दूगो परिवार के मिलाई न रे

आज होइगइली बिटिया पराई न रे।



माई महिमा ह जग में अपार बालमा एके मानेला सगरी संसार बालमा

 माई महिमा ह जग में अपार बालमा

एके मानेला सगरी संसार बालमा


मथवा मुकुट सोहे ललकी चुनरिया

कंगना कलाई सोहे अंगुरी मुनरिया

ऊ त शेरवा पर बाड़ी सवार बालमा

माई महिमा ह जग में अपार बालमा


दुर्गति हारिणी कहीं दुर्गा कहइली

कहीं विन्ध्य वासनी के नाम से पुजइली

भरल रहेला उनके दरबार बालमा

माई महिमा ह जग में अपार बालमा


एक बात अउरी सब कहेला सजनवा

दुख दूर होइ जाला कइके दरशनवा

भरे अनधन से ओकर भंडार बालमा

माई महिमा ह जग में अपार बालमा


सागर सनेही राख मनवा में आश हो

मनसा पुरइहें माई कर विश्वास हो

हई आश विश्वास के आधार बालमा

माई महिमा ह जग में अपार बालमा



पीके शराब संइया देलें रोज गरिया करम हमार फूटल बा ए महतरिया

 पीके शराब संइया देलें रोज गरिया

करम हमार फूटल बा ए महतरिया


टोकला पर कहें पीहीं आपन कमाई

देले नाहीं पइसा हमके तोर बाप माई

बोलबी जो ढेर खइबी लबदा के मरिया

करम हमार फूटल बा ए महतरिया


घर में ना बाटे अब एगो बरतनवा

धीरे धीरे बेंचि दिहलस सगरी गहनवा

अब त बेचे की खातिर मांगे मोरी सारिया

करम हमार फूटल बा ए महतरिया


मना अगर करीं त तूरे लागे बक्सा

कहेला कि मारि के बिगाड़ देइब नक्शा

काटे खातिर लेके दउरे फरुहा,कुदरिया

करम हमार फूटल बा ए महतरिया


बलमा बेदर्दी के कइसे समझाईं

"सागर सनेही" कुछ रउयें बताईं

हमरा के सूझे नाहीं कवनो डहरिया

करम हमार फूटल बा ए महतरिया



शनिवार, 12 जुलाई 2025

आजकल के बच्चे नही समझ सकते एक पिता का प्रेम त्याग तकलीफ़ और समर्पण

ट्रेन में समय गुजारने के लिए बगल में बैठे बुजुर्ग से बात करना शुरु किया मेरी पत्नी नें " आप कहाँ तक जाएंगे दादा जी "

" इलाहाबाद तक । "

उसने मजाक में कहा " कुंभ लगने में तो अभी बहुत टाइम है । "

" वहीं तट पर बेठकर इंतजार करेंगे कुंभ का

बेटी ब्याह लिए हैं , अब तो जीवन में कुंभ नहाना ही रह गया है । "

" अच्छा परिवार में कौन कौन है । "

" कोई नहीं बस बेटी थी पिछले हफ्ते उसका ब्याह कर दिया । "

" अच्छा ! दामाद क्या करता है । "

" उ हमरी बेटी से पियार करता है । " कहते हुए उन्होंने नम आंखें पंखे पर टिका दी ।

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद जब नीति ने उनके कंधे पर हाथ रखकर धीरे से कहा " दुख बांटने से कम होता है बाबा" तो आंखों से आँसुओ का सैलाब उमड़ पड़ा उनकी । थोडा शांत होने के बाद उन्होंने बताया " बेटी ने कहा अगर उससे शादी नहीं हुई तो जहर खा लेगी । बिन मां की बच्ची थी उसकी खुशी के लिए सबकुछ जानते हुए भी मैंने हां कह दी और पूरे धूमधाम से शादी की व्यवस्था में जुट गया जो कुछ मेरे पास था सब गहने जेवर आवभगत की तैयारियों में लगा दिया । तभी ऐन शादी के एक दिन पहले समधी पधारे और दहेज की मांग रख दी । जब मैंने मना किया तो बेटी ने कहा आपके बाद तो सब मेरा ही है तो क्यों नहीं अभी दे देते । तो हमने घर और जमीन बेचकर नगद की व्यवस्था कर दी । "
" सबकुछ तो उसका ही था बेबकूफ लडकी, आपको मना करना चाहिए था कह देते आपके मरने के बाद सब बेचकर ले जाए " नीति ने कसमसाते हुए कहा
बुजुर्ग मुस्कुरा उठे नीति के इस तर्क पर " कोई बाप अपने सुख के लिए बेटी के गृहस्थी में क्लेश नहीं चाहता बेटा । "

" हद है मतलब उस लडकी के दिल में आपके लिए जरा भी प्यार नहीं
" नहीं ऐसा नहीं है विदाई के वक्त बहुत रोई थी । "
"और आप "
उन बुजुर्ग ने एक फीकी मुस्कान बिखेरी " हम तो निष्ठुर आदमी है हमारी पत्नी सुधा जब उसको हमरी गोद में छोडकर अर्थी पर लेटी थी

उसकी लाश सामने रखी थी और तब भी हम रोने के बदले चुल्हे के पास बैठकर बेटी के लिए दूध गरम कर रहे थे । "

आजकल के बच्चे नही समझ सकते एक पिता का प्रेम त्याग तकलीफ़ और समर्पण 🙏🏻🙏🏻



💕💕

शनिवार, 28 जून 2025

भारतीय आध्यात्मिक परम्परा में जाति- श्री माधव कृष्ण गाज़ीपुर उत्तरप्रदेश

भारतीय आध्यात्मिक परम्परा में जाति

मेरे इष्ट भगवान श्रीकृष्ण हैं। मेरे गुरु परमहंस बाबा गंगारामदास जी हैं। मेरे दीक्षा गुरु भोला बाबा हैं। मेरे जीवन की शक्ति का स्रोत श्रीमद्भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषद हैं। मेरे गुरु के गुरु परमहंस राममंगल दास हैं। परमहंस राममंगल दास के सर्वाधिक प्रिय शिष्य और उनकी परम्परा को आगे ले जाने वाले परमहंस बाबा गंगारामदास हैं। बचपन से आज तक मैंने जातियों में विश्वास नहीं किया भले कुछ भी झेलना पड़े। लेकिन आज के वातावरण में मैं एक पाप करने जा रहा हूं ताकि जातियों पर विवाद करने वाले लोगों की बुद्धि शुद्ध हो।

वह पाप है अपनी गुरु परम्परा के पूर्वजों में से कुछ की जातियां उद्घाटित करने का। मेरे आदि गुरु संत रामानंद जन्म से ब्राह्मण थे। उन्होंने नारा दिया, जात पात पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई। उनके १२ महाभागवत शिष्य थे जिनमें संत कबीर दास जैसे अज्ञात जाति के महापुरुष और संत रविदास जैसे हरिजन जाति के महापुरुष थे। हमारे दादागुरु परमहंस राममंगल दास जी जन्मना ब्राह्मण थे। उनके सबसे प्रिय शिष्य परमहंस बाबा गंगारामदास जी जन्मना यादव थे। मुझे दीक्षा देने वाले भोला बाबा जन्मना यादव हैं और १४ वर्ष की अवस्था से आज ७० वर्ष की अवस्था तक नैष्ठिक संन्यासी हैं।

मुझे गर्व है अपनी भारतीय अध्यात्म परम्परा पर। मुझे गर्व है भोला बाबा पर जिनके जैसा सरल ब्रह्मनिष्ठ संत दुर्लभ है, जिनकी कृपा से मैंने सेवा और साधना की शक्ति का व्यक्तिगत अनुभव किया। मेरे गुरुदेव परमहंस बाबा गंगारामदास जी जैसा अवतारी पुरुष, न भूतो न भविष्यति। उनके जीवन को देखकर ही अध्यात्म के सभी विषयों का ज्ञान हो जाता है। उनके हजारों शिष्यों में अनेक जातियों के लोग हैं, ब्राह्मण भी हैं, मल्लाह भी हैं, और गंगा बाबा ने सभी से एकसमान प्रेम किया। हम सभी गुरु भाइयों में एक दूसरे से जाति पूछना तो दूर, इसे देखने का भीं साहस नहीं है। हम सभी एक साथ खाते हैं, बैठते है और एक दूसरे से अधिक नजदीकी हमारा कोई नहीं है।

गुरुदेव गंगा बाबा ने ११ वर्ष की अवस्था में मेरा हाथ पकड़कर मुझे मानव धर्म का कार्य करने के लिए कहा था। और सालों बाद जब मैं २०१४ जुलाई में कॉरपोरेट करियर छोड़कर भारत वापस आया, उस समय तक मुझे नहीं पता था कि मुझे किसने बुलाया है? आज मेरा रोम रोम अपने गुरु बाबा गंगारामदास की वाणी से उपकृत है। उनके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। मैं कैसे मानव धर्म से और श्री गंगा आश्रम से जुड़ा, मुझे भी नहीं पता, लेकिन वृथा न होय देव ऋषि वाणी। बाबा गंगारामदास को कुछ लोगों ने गालियां दीं, उसी गांव से, लेकिन जब उनके शिष्यों ने प्रतिरोध करना चाहा तो बाबा ने कहा, सहो सहो सहो, मै गाली देने वालों में भी भगवान कृष्ण का साक्षात दर्शन करता हूं।

भारतभूमि ने कभी भी संतों की जाति नहीं पूछी है, उल्टे उन्हें सिर माथे पर बैठाया है। इसलिए सावधान रहने की आवश्यकता है। जिनका एजेंडा जातियों की राजनीति करके लोगों में फूट डालना है और येन केन प्रकारेण सत्ता तक पहुंचना है, वे अब शुद्ध अध्यात्म के क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश कर रहे हैं। समाज में अवैध संविधानविरुद्ध कृत्यों की पुरजोर आवाज में भर्त्सना करने की आवश्यकता है, चाहे वह आपके राजनैतिक एजेंडे को सूट करे या नहीं। हमारे गुरुदेव कहते थे कि, घर घर में आग लगी है, ईश्वर कृपा चाहिए तो इस आग को बुझाने के लिए एक बाल्टी पानी उठा लो। अन्यथा यह आग कर्म के सिद्धांत और न्यूटन के तीसरे नियम के अनुसार तो सबके घर पहुंचने वाली ही है, और उनके घर तो अवश्य जो इसके लिए उत्तरदायी हैं।

हम उस वाल्मीकि की रामायण को अपना आर्ष ग्रन्थ मानते हैं जो पूर्व आश्रम में डकैत थे, हम उस वेदव्यास के ग्रंथों का स्वाध्याय करते हैं जो मल्लाह थे, हम उस तुकाराम के अभंग गाते हैं जो बनिया थे, हम उस नन्हकू बाबा के भक्त हैं जो मल्लाह थे और गंगा बाबा के समकालीन थे और उसी गांव के थे, हम उस अंगुलिमाल को संत के रूप में स्वीकार कर गए जो हत्यारे थे लेकिन बुद्ध की कृपा छाया में आकर संतत्व को प्राप्त हो गए। बांटने वाली शक्तियों को समाप्त करने की आवश्यकता है, उनके झांसे में नहीं आना है। जातियों के पक्ष या विपक्ष में वक्तव्य देने से अच्छा है कि चुप रहें, और बोलना भी है तो मनुष्यता के पक्ष में बोलें।

इस समाज को न बोलना सीखने की जरूरत है, और बोलने की कला भी सीखने की जरूरत है। बोलना ही क्यों है यदि कुछ बोलने के लिए नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में बोलने के लिए चार अर्हताएं बतायीं जिनसे वाणी की तपस्या सिद्ध होती है: १. अनुद्वेगकर वाक्य: ऐसा कुछ मत कहिए जिससे किसी को उद्वेग हो। २. सत्य: मेरे गुरुदेव का महावाक्य है कि झूठ बोलने वाला कभी आगे नहीं बढ़ता है। ३. प्रिय: यदि पहली दो कसौटियां पूरी होती हैं लेकिन वह अप्रिय है, तो भी शांत रह जाइए, मत बोलिए। ४. हित: आप जो कह रहे हैं वह हितकारी है या नहीं। हमें अपनी साधना, सेवा, ज्ञान पर गर्व करना चाहिए, उस पर जो हमने खुद करके अर्जित किया है। उस थोथी जाति पर कैसा गर्व जिस में हम भाग्यवश पैदा हुए और जिसमें हमारा कोई हाथ नहीं!

२०१९ में मुझे एक राजनैतिक पार्टी ज्वाइन करने का ऑफर मिला था लेकिन तब तक गुरुदेव की कृपा से मुझे यह समझ में आ चुका था कि समाज में सकारात्मक संरचनात्मक परिवर्तन करने की शक्ति वर्तमान राजनीति में नहीं है जिसका एकमात्र उद्देश्य है किसी तरह सत्ता तक पहुंचना। इस विश्व को आवश्यकता है परमहंस बाबा गंगारामदास जी जैसे युगपुरुष की, परमहंस राममंगल दास जैसे महापुरुष की। मुझे गर्व है अपनी आध्यात्मिक परम्परा पर, भारत के महान ऋषियों और आचार्यों पर, भारत के महान अवतारों पर, उन शास्त्रों पर जिन्होंने जीवन को सरल बनाया, विशेषकर प्रस्थानत्रय, अपने गुरु आश्रम पर और अपने गुरुदेव पर। और आपको?

माधव कृष्ण, २६ जून २०२५, गाजीपुर


मंगलवार, 24 जून 2025

जियता में नाहीं नाहीं मुअला में अइल, बेटा ई का कइल- रचना विद्या सागर

जियता में नाहीं, नाहीं मुअला में अइल,
बेटा ई का कइल,

रीतियो रिवाज भूलि गइल
जबले जियल माई सबही से कहलस
बचवा हमार आई रहिया निहरलस
आवेके कहिके तूंहूं काहे नाहीं अइल
बेटा ई का कइल, रितियो...............

रुक गइली सांस, आश जिनगी के टूटल
तोहके निहारे खातिर आंख रहे खूलल
प्रीतिया के रीति त्यागी कहाँ अंझुरइल
बेटा ई का कइल रीतियो................

जीवन के साथी जब छोड़ि दिहली साथ हो
कइसे बिताइब दिनवा नइखे सुझात हो
"सागर" होइब हमार कइसे, माई के ना भइल
बेटा ई का कइल रीतियो रिवाज भुलि गइल



गुरुवार, 19 जून 2025

यूनाइटेड यूनिवर्सिटी और हिंदुस्तान समाचार पत्र द्वारा आयोजित प्रतिभा सम्मान समारोह- श्री माधव कृष्ण

यूनाइटेड यूनिवर्सिटी और हिंदुस्तान समाचार पत्र द्वारा आयोजित प्रतिभा सम्मान समारोह में गाजीपुर की प्रतिभाओं के साथ मेरे संवाद के प्रमुख अंश:

१. मनुष्य को ज्ञान से ही मनुष्यता मिलती है।
२. इस ज्ञान का चरमोत्कर्ष संवेदना है, अन्यथा स्वार्थपरक ज्ञान हमें केवल रोबोट बनाता है।
३. लगातार लंबे समय तक एक ही दिशा में प्रयास करना है, जब तक हमें अपना लक्ष्य न मिले।
४. लक्ष्य हमारा अपना होना चाहिए। दूसरे के थोपे हुए लक्ष्य हमें विचलित करते हैं, और असफल बनाते हैं।
५. इसलिए अध्यात्म की भाषा में आत्मबोध होना चाहिए। हम कौन हैं, हम क्या करना चाहते हैं, हमें कहां जाना है, हमारी कमजोरियां क्या है, हमारी शक्ति क्या है इत्यादि।
६. प्रतिभा पलायन जैसी स्टीरियोटाइपिंग से लड़कर सर्वोत्तम शिक्षा और अवसर के लिए सर्वोत्तम स्थान और संस्थानों में जाना चाहिए।
७. अपने सोचने के क्षितिज का विस्तार करना प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है।
८. अंकों से कुछ नहीं होता, मैं इस वाक्य में विश्वास नहीं करता। यदि ज्ञान अर्जन के लिए परिश्रम किया है तो अंक भी आयेंगे। अच्छे अंक अच्छे विद्यार्थी का लक्षण है।
९. अच्छे पढ़े लिखे लोगों और विद्वानों से संसार को समस्या रही है क्योंकि केवल इन्हीं लोगों ने सत्य को मजबूती के साथ और संदर्भ के साथ रखा है।
१०. इसलिए उस विषय को चुनिए जो आप को आपके सत्य के निकटतम ले जाता है। प्रत्येक विषय में अपार संभावनाएं हैं और अनंत गहराई है।

मुख्य अतिथि: श्री संतोष कुमार वैश्य, मुख्य विकास अधिकारी, गाजीपुर
विशिष्ट अतिथि: श्री हेमंत राव, बेसिक शिक्षा अधिकारी; श्री सेंगर, कोतवाल, गाजीपुर
आयोजक: यूनाइटेड विश्वविद्यालय, हिंदुस्तान अखबार (श्री अभिषेक सिंह, श्री प्रवीण राय)
स्थान: कान्हा हवेली, गाजीपुर
दिनांक: १९ जून २०२५, गाजीपुर




मंगलवार, 17 जून 2025

जलवायु परिवर्तन एवं नदी संरक्षण जन चेतना अभियान- लेखक प्रकृति प्रेमी लव तिवारी ग़ाज़ीपुर उत्तरप्रदेश

जलवायु परिवर्तन एवं नदी संरक्षण जन चेतना अभियान का आयोजन दिनांक 26 जून 2025 दिन बृहस्पतिवार को प्रातः 10:00 बजे से आलम पट्टी बलिया रोड गाजीपुर स्थित द ईडेन पैलेस में हो रहा है जिसके मुख्य अतिथि जल पुरुष भाई राजेंद्र सिंह जी है। इस उत्कृष्ठ सामाजिक कार्यक्रम का निमंत्रण पत्र गाजीपुर के जाने-माने महान समाजसेवी श्री श्रीवास्तव जी एवं उनके सहयोगी द्वारा हमें प्रदान किया गया।

आज के वैज्ञानिक युग में जलवायु परिवर्तन और नदी संरक्षण दो अत्यंत महत्वपूर्ण विषय हैं। जलवायु परिवर्तन जहां धरती के वातावरण में दीर्घकालिक बदलाव, जैसे कि औसत तापमान में वृद्धि, वर्षा के पैटर्न में बदलाव, समुद्री स्तर का बढ़ना आदि। इसका मुख्य कारण है मानवीय गतिविधियाँ —जैसे कि जंगलों की कटाई, जीवाश्म ईंधन का अत्यधिक प्रयोग, औद्योगिक प्रदूषण, और कार्बन उत्सर्जन।इस जलवायु परिवर्तन का सीधा असर हमारी नदियों पर भी पड़ता है। नदियाँ सूख रही हैं, उनका जलस्तर घट रहा है, और उनमें प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। वर्षा की अनिश्चितता और ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों का प्राकृतिक प्रवाह प्रभावित हो रहा है। इससे न केवल पेयजल की समस्या उत्पन्न हो रही है, बल्कि कृषि, उद्योग और जैव विविधता पर भी संकट मंडरा रहा है।नदी संरक्षण इसलिए आवश्यक है क्योंकि नदियाँ जीवनदायिनी हैं। इनके बिना न मानव जीवन संभव है, न ही पारिस्थितिकी संतुलन। नदी संरक्षण के लिए हमें निम्नलिखित उपाय करने चाहिए:

१-नदियों में कचरा, प्लास्टिक और रसायनिक अपशिष्ट डालने पर रोक लगानी चाहिए।

२-जल स्रोतों के पास वृक्षारोपण को बढ़ावा देना चाहिए यह वृक्षारोपण जनपद किसी एक दो समाजसेवी से नहीं बल्कि हर व्यक्ति के करने से पर्यावरण एवं नदी संरक्षण जैसे महान कार्य को प्रमुख दिशा मिल सकती है।

३-औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले प्रदूषकों को पहले शोधित करना चाहिए।

४-जलग्रहण क्षेत्रों का विकास करना चाहिए जिससे वर्षा जल का संचयन हो सके।

५-लोगों में जागरूकता फैलानी चाहिए कि स्वच्छ नदियाँ ही हमारे भविष्य की गारंटी हैं।

६-जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करना चाहते हैं, तो हमें नदियों का संरक्षण करना ही होगा। यह कार्य अकेले सरकार का नहीं, बल्कि हम सभी नागरिकों की जिम्मेदारी है।

#जलवायु #परिवर्तन #नदी #संरक्षण #जनचेतना #अभियान #नदी #जीवनदायिनी #गाज़ीपुर #उत्तरप्रदेश २३३००१




शनिवार, 14 जून 2025

शिक्षा के साथ मेरे प्रयोग: अपराजिता सिंह - लेखक श्री माधव कृष्ण

शिक्षा के साथ मेरे प्रयोग: अपराजिता सिंह

हमें अपने आस पास उन युवाओं को देखने और उनकी सफलताओं को प्रोजेक्ट करने की आवश्यकता है, जो नई पीढ़ी के लिए रोल मॉडल बन सकें। आज मैं फिर से एक ऐसी नवयुवती के विषय में लिखने जा रहा हूं, और वह हैं अपराजिता सिंह। गाजीपुर ने एक लंबे समय तक बड़े मकानों, गैंगस्टरों, दबंग नेताओं इत्यादि को अपना नायक बनाया है। उसमें माधव यादव और अपराजिता सिंह जैसे लोगों का सामने आना किसी ताजी हवा के मलयज स्पर्श से कम नहीं। अपराजिता के जीवन में चुनौतियां भी अनगिनत रही हैं। एक बार वह इतनी रुग्ण हो गईं शारीरिक और मानसिक रूप से, कि हम सभी चिंतित हो गए। लेकिन उनके पिता जी प्रिंस भैया मानसिक रूप से अत्यधिक दृढ़ व्यक्ति हैं और उन्होंने संघर्ष करके अपराजिता को पुनः स्वस्थ कर दिया।

अपराजिता मेरे अग्रज प्रिंस सिंह भैया की पुत्री हैं। वह लूर्ड्स कॉन्वेंट की छात्रा रह चुकी हैं। प्रिंस भैया चाहते थे कि अपराजिता को मैं गाइड करूं। अपराजिता आती थीं, और सबके साथ बैठकर ट्यूशन पढ़ती थीं। मेरा काम था केवल उनके संदेहों और प्रश्नों पर अपनी राय रखना, और शेष सारा काम वह स्वयं कर लेती थीं। एक शिक्षक का काम भी यही है, बच्चों को उस स्तर तक ले जाना जहां वे अपने प्रश्नों के उत्तर स्वयं ढूंढ़ सकें। अपराजिता की इच्छा शक्ति के कारण मुझे बहुत श्रम नहीं करना पड़ा। मेरे ऊपर केवल एक बोझ था, और वह था प्रिंस भैया का मुझ पर अतिशय विश्वास। और यह आज तक बना हुआ है इसलिए उनके साथ बच्चों के विषय में बातचीत करते समय मैं अत्यधिक असहज रहता हूं।

अपराजिता पढ़ती थीं, अपना सारा काम समय से पूरा करती रहीं और समय व्यतीत हो गया। अपराजिता बिना किसी सहायता के साथ कम उम्र में ऐसी पेंटिंग बनाती थीं कि पूरा भाव और चेहरा उतर जाय। एक दिन अचानक खबर मिलती है कि अपराजिता ने सबसे कम समय में पीरियॉडिक टेबल के सभी एलिमेंट्स को एक साथ बोलने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है। एक दिन फिर खबर मिलती है कि अपराजिता को भारत के प्रीमियर फैशन इंस्टीट्यूट एन आई एफ टी भुवनेश्वर में प्रवेश मिल गया है। मैं और प्रिंस भैया हमेशा की तरह बच्चों के करियर और इस अवसर के विषय में बातचीत किए। यह हम सबके लिए गर्व की बात थी।

एक दिन पुनः समाचार मिलता है कि अपराजिता ने सबसे अधिक समय तक एक ही योग मुद्रा में रहने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है। अब केवल उनकी उपलब्धियों के समाचार मिलते रहे। हम सब हर्षित होते रहे लेकिन एक दिन सूचना मिली कि वह अत्यधिक अस्वस्थ है और उसे अपने इंस्टीट्यूट से एक वर्ष के लिए घर आना पड़ा ताकि स्वास्थ्य लाभ ले सके। यह किसी भी मेधावी और समर्पित छात्रा के लिए एक सेटबैक होगा, लेकिन गाजीपुर आने के बाद अपराजिता अवसाद में जाने के बजाय रिसर्च में लग गई। उसने एक के बाद एक करीब १५ से ऊपर शोध पत्र लिख डाले और उसे केनेडी यूनिवर्सिटी से मानद डॉक्टरेट की उपाधि मिल गई। उसे गोवा के राज्यपाल से राजभवन में सम्मान मिला। एक शोध पत्र के लिए उसे भारत के रक्षा मंत्रालय से आमंत्रण आया और इस समय वह भारत सरकार की तरफ से रूस के अंतरिक्ष केंद्र में जाने वाले डेलिगेशन की सदस्य के रूप में मास्को में है।

कम उम्र, चुनौतियां, रोग, समस्याएं: ये सब किसके पास नहीं हैं? लेकिन अपराजिता उन सभी छात्रों छात्राओं के लिए एक रोल मॉडल है जो एक छोटी से असफलता पर अवसाद में चले जाते हैं, जो भविष्य को लेकर अत्यधिक आशंकित रहते हैं, जो शराब और ड्रग्स को जीवन बना लेते हैं, जो बॉयफ्रेंड और गर्लफ्रेंड को जीवन का अहम हिस्सा बना लेते हैं, जो इस तरह से इंस्टीट्यूट में एक साल खराब होने पर सब कुछ खत्म हुआ समझ लेते हैं, जो आरक्षण बेरोजगारी और न जाने किन किन बातों को दोष देते रहते है । उन्हें सीखना चाहिए कि जीवन अनंत संभावनाओं का द्वार है। यदि आप कुछ करना चाहते हैं तो आपके पास बहुत कुछ सकारात्मक करने को है, लेकिन यदि आप केवल दूसरों को दोष देना और चिंता करने में जीवन को बर्बाद करना चाहते हैं तो चयन आपका है। अपराजिता मुझसे नियमित मिलती हैं और उनकी बातचीत का बस एक केंद्र होता है: अब आगे और क्या?

फिलहाल, मेरी आज की हीरोइन या नायिका या रोल मॉडल: अपराजिता सिंह। उनसे अपने बच्चों का परिचय अवश्य करवाएं।

माधव कृष्ण, १४ जून २०२५, गाजीपुर




विमान में सैनिको का भोजन

विमान में भोजन
मैं अपनी सीट पर बैठा था, दिल्ली के लिए उड़ान भरते हुए — लगभग 3 घंटे की यात्रा थी। मैंने सोचा, एक अच्छी किताब पढ़ूंगा और एक घंटा सो लूंगा
टेकऑफ़ से ठीक पहले, लगभग 10 सैनिक आए और मेरे आसपास की सीटों पर बैठ गए। यह देखकर मुझे रोचक लगा, तो मैंने बगल में बैठे एक सैनिक से पूछा, “आप कहां जा रहे हैं?
“आगरा, सर! वहां दो हफ्ते की ट्रेनिंग है, फिर हमें एक ऑपरेशन पर भेजा जाएगा,” उसने जवाब दिया
एक घंटा बीत गया। एक घोषणा हुई — “जो यात्री चाहें, उनके लिए लंच उपलब्ध है, खरीद के आधार पर
मैंने सोचा — अभी लंबा सफर बाकी है, शायद मुझे भी खाना लेना चाहिए। जैसे ही मैंने वॉलेट निकाला, मैंने सैनिकों की बातचीत सुनी
“चलो, हम भी लंच ले लें?” एक ने कहा
“नहीं यार, यहां बहुत महंगा है। जमीन पर उतरकर किसी ढाबे में खा लेंगे,” दूसरे ने कहा
“ठीक है,” पहला बोला
मैं चुपचाप एयर होस्टेस के पास गया और कहा, “इन सभी को लंच दे दीजिए।” और मैंने सबका भुगतान कर दिया
उसकी आंखों में आंसू थे। बोली, “मेरे छोटे भाई की पोस्टिंग कारगिल में है, सर। ऐसा लगा जैसे आप उसे खाना खिला रहे हों धन्यवाद।” उसने सिर झुकाकर नमस्कार किया
वो पल मेरे दिल को छू गया
आधे घंटे में सभी सैनिकों को उनके लंच बॉक्स मिल गए
खाना खत्म करने के बाद, मैं फ्लाइट के पीछे वॉशरूम की ओर गया। पीछे की सीट से एक वृद्ध व्यक्ति आए
“मैंने सब देखा। आप सराहना के पात्र हैं,” उन्होंने हाथ बढ़ाते हुए कहा
“मैं भी इस पुण्य में भाग लेना चाहता हूँ,” उन्होंने चुपचाप ₹500 मेरे हाथ में रख दिए
मैं वापस अपनी सीट पर आ गया
आधे घंटे बाद, विमान का पायलट मेरी सीट तक आया, सीट नंबर देखता हुआ
“मैं आपका हाथ मिलाना चाहता हूँ,” वह मुस्कुराया
मैं खड़ा हुआ। उसने हाथ मिलाते हुए कहा, “मैं कभी फाइटर पायलट था। तब किसी ने यूं ही मेरे लिए भोजन खरीदा था। वो प्यार का प्रतीक था, जो मैं कभी नहीं भूला आपने वही याद ताज़ा कर दी
सभी यात्रियों ने ताली बजाई। मुझे थोड़ी झिझक हुई। मैंने ये सब प्रशंसा के लिए नहीं किया था — बस एक अच्छा कार्य किया
मैं थोड़ा आगे बढ़ा। एक 18 साल का युवक आया, हाथ मिलाया और एक नोट मेरी हथेली में रख दिया
यात्रा समाप्त हो गई
जैसे ही मैं विमान से उतरने के लिए दरवाजे पर पहुंचा, एक व्यक्ति चुपचाप कुछ मेरी जेब में रखकर चला गया — फिर एक नोट
विमान से बाहर निकलते ही देखा, सभी सैनिक एकत्र थे। मैं भागा, और सभी यात्रियों द्वारा दिए गए नोट्स उन्हें सौंप दिए
“इसे आप खाने या किसी भी ज़रूरत में उपयोग करिए जब तक ट्रेनिंग साइट पर पहुंचें। जो हम देते हैं, वो कुछ भी नहीं है उस बलिदान के आगे जो आप हमारे लिए करते हैं। भगवान आपको और आपके परिवारों को आशीर्वाद दे,” मैंने नम आंखों से कहा
अब वे दस सैनिक केवल रोटी नहीं, एक पूरे विमान का प्यार साथ लेकर जा रहे थे
मैं अपनी कार में बैठा और चुपचाप प्रार्थना की
“हे प्रभु, इन वीर जवानों की रक्षा करना, जो इस देश के लिए जान देने को तैयार रहते हैं
एक सैनिक एक खाली चेक की तरह होता है — जो भारत के नाम पर किसी भी राशि के लिए भुनाया जा सकता है — यहां तक कि जीवन तक
दुर्भाग्य है कि आज भी बहुत लोग इनकी महानता नहीं समझते
चाहें इसे साझा करें या कॉपी करें — यह आपका निर्णय है
पर जब भी इसे पढ़ें, आंखें नम हो जाती हैं।
पढ़िए। आगे बढ़ाइए।
भारत माता के बेटों का सम्मान — स्वयं का सम्मान है



– जय हिंद👍😊🎺🙏

गुरुवार, 12 जून 2025

ससुरा में दारू पीके घूमेला सजनवा रे भउजी हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी

ससुरा में दारू पीके घूमेला सजनवा रे भउजी

हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी


सुनिला कि संइया मोरा बने रंगबजवा

दिन भर मस्त रहे पीके दारू गंजवा

बेरिया कुबेर आके मांगे घरे खनवां रे भउजी

हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी


सुनिला जेठानी से लड़ावेला नजरिया 

ओकरा के लेके घूमें हाट औ बजरिया 

चोरी चोरी किने साड़ी, साया गहनवा रे भउजी 

हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी 


कुछु नाही कहब भले आधा पेट खाइब

लुगरी पहिर हम जिनगी बिताइब

चौका,चुल्ह करब हम धोइब बरतनवा रे भउजी 

हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी 


जबरी जो भेजबू तबो नाहीं जाइब 

कुलवा में तोहरी हम दगिया लगाइब

सागर सनेही मान हमरो कहनवा रे भउजी 

हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी


रचना विद्या सागर स्नेही जी







आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता रचना श्री सुनील यादव युवा किसान मोहम्मदाबाद ग़ाज़ीपुर

आजकल के नेता लोग के देखी राजनीति हो

तिरंगा सोच ता आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता


पार्टी जातिवाद वाला नारा लगवेल।

आवे जब वोट सबके पहड़ा पढ़ावेल।।

हो.....पहड़ा पढ़ावेल।।

बनल एकता में डाले नेता फुटनीति हो तिरंगा सोच त

आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता

हो तिरंगा सोच ता


ओटवा से पहले सब शरीफे बुझाला।

पा जाले कुर्सी तब करेलन घोटाला।।

हो...करेलन घोटाला।।

आजकल के नेता लोग के यहे राजनीति हो तिरंगा सोच ता

आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता

हो तिरंगा सोच ता


पार्टी ए क झंडा सब कर गाड़ी पर देखात बा।

धीरे धीरे सबही तिरंगा के भुलात बा

हो.....तिरंगा के भुलात बा

आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता

हो तिरंगा सोच ता


लिखे ओमप्रकाश देखी के आवत रोवाई

लागता हमार कहियो देशवा लुटाई

अरे......देशवा लुटाई

दिन पर दिन बिगड़े देशवा के स्थिति हो

हो तिरंगा सोच ता

आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता

हो तिरंगा सोच ता







सोमवार, 9 जून 2025

बकरीद विशेष: बलि प्रथा और हिंदू- माधव कृष्ण ८ जून २०२५ गाजीपुर

बकरीद विशेष: बलि प्रथा और हिंदू

(१)
कल व्हाट्सएप पर एक श्लोक अर्थसहित आया:

सिंहान्नैव गजान्नैव व्याघ्रान्नैव च नैव च|
अजापुत्रम् बलिम् दद्यात् देवो दुर्बलघातक:।

अर्थात् सिंह से नहीं , हाथी से नहीं, बाघ से नहीं, बकरी के बच्चे की बलि देनी चाहिए। यह कहने के बाद वह व्हाट्सएप संदेश कहता है: इससे सिद्ध होता है कि ईश्वर भी दुर्बलों को ही मारता है। यह बात गले के नीचे नहीं उतरती। जिस ईश्वर को हम दीनानाथ और दीनबंधु कहते हैं, वह दुर्बलों को क्यों मारेगा? जी ईश्वर की सत्ता सर्वत्र व्याप्त है, जिसके सभी संतानें हैं, वह अपने किसी भी संतान की बलि लेकर संतुष्ट कैसे होगा?

इस श्लोक से मुझे बकरीद की याद आ गई। कुर्बानी देने के लिए सर्वाधिक प्रचलित पशु बकरा है। बकरे के अतिरिक्त अन्य जो भी पशु कुर्बानी के लिए चुने जाते हैं वे हैं: गाय, भैंस, बैल, ऊंट इत्यादि। इसमें से ऐसा कोई भी पशु नहीं है जो बंधक बनाए जाने के प्रयास में मनुष्य को उचित हिंसक चुनौती दे सके। इसका अर्थ तो यही हुआ कि मनुष्यों ने अपनी सुविधानुसार पशुओं को बलि के लिए चुना और फिर उनके पक्ष में श्लोकों और आयतों का संदर्भ देना शुरू कर दिया।

इस्लाम में बकरीद की कुर्बानी का अब मुस्लिम समुदाय के अंदर ही विरोध प्रारंभ हो चुका है लेकिन इस श्लोक ने हिंदुओं में काफी समय तक प्रचलित बलि प्रथा की तरफ मेरा ध्यान आकर्षित किया। यहां तक कि अनेक तांत्रिक परम्पराओं में अश्वमेध, नरमेध जैसी बलि प्रथाएं आज भी यदा कदा सामने आ जाती हैं। समाचार पत्रों में ऐसे तांत्रिकों के गिरफ्तार होने की घटनाएं भी आती हैं जो लोगों को धनवान या पुत्रवान बनाने के लिए छोटे बच्चों या पड़ोसियों की बलि देने के लिए प्रेरित कर डालते हैं।

वेदों में अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख मिलता है। इसका सीधा सीधा अर्थ निकाला गया: यज्ञ में घोड़ों की बलि या कुर्बानी। वह तो भला हो महर्षि दयानंद सरस्वती का जिनसे अधिक वेदों का प्रामाणिक विद्वान आधुनिक इतिहास में नहीं मिलता। उन्होंने स्पष्ट किया कि अश्वमेध यज्ञ का अर्थ है: राजा द्वारा यज्ञ में अपनी समस्त सामर्थ्य का जनहित में बलिदान करने का संकल्प। अश्व ऊर्जा का प्रतीक है। इसलिए अश्व जहां जहां भी गया और यदि उसे किसी ने नहीं पकड़ा तो इसका अर्थ यह है कि वहां अराजकता है, वहां कोई राजा नहीं है। इसलिए अश्व छोड़ने वाला राजा का दायित्व है कि वहां के प्रजा की देखभाल और सुरक्षा करे।

तो इन श्लोकों के अनर्थ उन विद्वानों द्वारा निकाले गए जिन्हें मैं तामसिक विद्वान कहता हूं। तामसी बुद्धि का अर्थ है: बुद्धि तो है लेकिन वह विपरीत या उल्टा अर्थ निकालती है। राजसी बुद्धि का अर्थ है: अयथावत अर्थ निकालना, जो अर्थ होना चाहिए उससे अलग। यही हुआ है आज तक भारतीय दर्शनशास्र के साथ। यहां तक कि अनेक हिंदू धर्म के कट्टर समर्थकों ने भी इन श्लोकों का गलत अर्थ निकाला है और इस आधार पर बलि प्रथा जैसी कुप्रथाओं का समर्थन कर उन्हें बढ़ावा दिया है।

इस श्लोक में अजापुत्र शब्द आया है। अजा का अर्थ बकरी भी है और माया भी। अजा का अर्थ है, जिसका जन्म न हुआ हो। वेदों में त्रैधवाद है, अर्थात जीव, ईश्वर और प्रकृति तीनों अनादि हैं। इस तरह से माया अनादि हुई और अजा भी यानि अजन्मा। अजापुत्र का अर्थ है, माया का पुत्र। जैसे भागवत पुराण में अजामिल की कथा आई है और मैं हमेशा कहता हूं कि इन कथाओं का एक गूढ़ अर्थ है, उसे शब्दार्थ के आधार पर नहीं समझा जा सकता है। तो अजामिल का अर्थ हुआ, वह व्यक्ति जो माया से मिल चुका है।

अजामिल एक ब्राह्मण था, ब्रह्मचर्य में दीक्षित। एकदिन समिधा एकत्र करते समय वह एक वैश्या के सौंदर्य पर मोहित हो गया और सब कुछ छोड़कर उस पतिता के साथ जीवन यापन करने लगा। माया की कामना नामक शक्ति से उत्पन्न वासना से वह मिल गया। उसका तप समाप्त हो गया। उसने पुत्र का नाम नारायण रखा। मृत्यु शय्या पर उसने जैसे ही अपने पुत्र नारायण का नाम पुकारा, नारायण से जुड़ी हुई उसकी स्मृतियां कौंध गईं। उसे याद आया कि वह युवावस्था में कैसे त्रिसंध्या करता था और मंत्र पढ़ता था: ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्।

उसे अपना तपोमय जीवन और फिर वासनामय जीवन याद आ गए और उसने प्रायश्चित करने का संकल्प ले लिया। तपोमय जीवन में वापस लौटने के कारण वह धीरे धीरे स्वस्थ हो गया। अब हम इस कथा के प्रसंग से उपर्युक्त श्लोक को समझ पाएंगे। जब देवी के पास सिंह ले जाया गया, तो उन्होंने सिंह की बलि लेने से अस्वीकार कर दिया। जब उनके पास हाथी ले जाया गया तो उन्होंने हाथी की बलि लेने से भी मना कर दिया। और जब बाघ ले जाया गया तो उन्होंने भाग लेने से भी मना कर दिया।

उन्होंने पूछने पर कहा कि, मुझे अजापुत्र चाहिए। तो मोटी बुद्धि के लोगों ने अजापुत्र का अर्थ बकरी का बच्चा लगाया, और इस तरह से हिंदुओं के वाममार्गियों, शाक्तों और तांत्रिकों के मार्ग में बलि की प्रथा का आरंभ हुआ। जबकि अजापुत्र का अर्थ हुआ, माया का पुत्र। हम ईश्वर के अंश हैं। स्वामी विवेकानन्द बार बार याद दिलाते हैं कि हम देवताओं के पुत्र हैं, अमर की संतानें हैं। हमें अपनी दिव्यता याद रहनी चाहिए। लेकिन हम माया जनित विकारों में आकंठ लिप्त हो जाते हैं, जैसे धन सौंदर्य सत्ता कीर्ति बल इत्यादि और इनको पाने के लिए अनर्थकारी कृत्य करते हैं।

इस प्रकार हम देवपुत्र से अजापुत्र या मायापुत्र बन जाते हैं। देवी मां को इसी मायापुत्र की बलि चाहिए। और वह बलि भी कैसी? एक संकल्प कि, मां हम अपने सभी माया जनित विकारों से भरी बुद्धि और मस्तिष्क को आपके चरणों में अर्पित करते हैं, हमें शुद्ध भक्ति दो। इसी विकार युक्त सिर के सभी विकारों और कुविचारों को हम सिर के प्रतीक नारियल में डालकर, उस नारियल को फोड़ डालते हैं। हमारे आश्रम में प्रार्थना है, गुरु को सिर पर राखिए चलिए आज्ञा माहि। कह कबीर ता दास को तीन लोक डर नाहि। गुरु को सिर पर ही क्यों रखना है? क्योंकि सिर में माया की बुद्धि नहीं, गुरु प्रदत्त बुद्धि होनी चाहिए। तब मनुष्य सही मार्ग पर चलेगा।

माया द्वारा शासित मस्तिष्क दुर्बल होता है और भयग्रस्त होता है। जैसे पांडवों के पूर्वज राजा विचित्रवीर्य अत्यधिक संभोग के कारण शारीरिक रूप से कमजोर हो गए और असमय मर गए। सत्ता के लिए जीने वाले राजनेता हमेशा भयग्रस्त रहते हैं और सत्ता बनाए रखने के लिए लोगों की हत्या करवाने में भी संकोच नहीं करते। इस श्लोक में देवी कहती हैं कि, देवता दुर्बल को मारते हैं इसलिए मुझे अजापुत्र चाहिए। वास्तव में मायापुत्र रोगग्रस्त या तनावग्रस्त या भयग्रस्त होकर जल्दी मर जाते हैं, और मरे हुए लोगों के समान संवेदनहीन हो जाते हैं। इसलिए इस श्लोक का आह्वान है कि, अपने मस्तिष्क को देवी को अर्पण करो और उस देवी के निर्देश के अनुसार सत्य न्याय धर्म के मार्ग पर चलो। एक नया जीवन, और पुराने दुष्कर्मयुक्त जीवन का बलिदान।

इस लेख का मांसाहार से कोई सम्बन्ध नहीं। लेकिन पूजा पाठ और यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि चढ़ने वाली कुप्रथा में अंधा विश्वास करने वाले लोगों के लिए संभवतः यह लेख सत्य गूढ़ अर्थ अवश्य प्रस्तुत करेगा। वेदों में अश्वमेध इत्यादि के व्याकरण युक्त वैदिक अर्थ पर प्रकाश डालने के लिए सभी लोग महर्षि दयानंद सरस्वती की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढ़ सकते हैं। किसी और भाष्य पर विश्वास करने लायक नहीं है क्योंकि सायणाचार्य और मैक्समूलर से भी भाष्य में अनेक गलतियां हुई हैं, विशेषकर मैक्समूलर से जो संस्कृत के प्रामाणिक विद्वान नहीं थे। और उन्हीं मैक्समूलर के भाष्य को आधार बनाकर अनेक आधुनिक तामसिक विद्वानों ने वेदों के मूल अर्थ को समझने में अनजाने या जानबूझकर अक्षम्य गलतियां की हैं।

(२)
सनातन अध्यात्म को समझने के लिए केवल तीन शास्त्र पर्याप्त हैं: ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषद। लेकिन इनमें धर्म के सूक्ष्म तत्व हैं और सूक्ष्म तत्त्वों में प्रवेश करने के लिए सूक्ष्म मेधा चाहिए। यह कठोपनिषद का कथन है। इसके लिए विद्यार्थी वर्षों वर्षों तक गुरुकुल में रहकर गुरु के निर्देशानुसार भोजन करने और जीवन व्यतीत करने के बाद, सूक्ष्म बुद्धि वाले बन पाते थे। तब वे इस ब्रह्मविद्या ग्रहण करने के अधिकारी बनते थे। मोटी बुद्धि के लोग इन शास्त्रों का अर्थ नहीं समझ सकते। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के प्रवक्ताओं की कौन कहे, वोल्गा से गंगा पुस्तक में राहुल सांकृत्यायन से भी वेदों का अर्थ समझने में भारी भूल हुई है।

जनसामान्य अध्यात्म के सामान्य तत्त्वों से दूर न रहे, इसके लिए महर्षि वेदव्यास ने अठारह पुराणों की रचना की। सूक्ष्म बुद्धि वालों के लिए श्रुतियां हैं, मोटी बुद्धि वालों के लिए पुराण हैं क्योंकि इनमें रोचक कथाएं हैं। इन रोचक कथाओं  के माध्यम से सामान्य मनुष्यों को अपने इष्टदेव के और गुरु के प्रति निष्ठा और प्रेम का भाव विकसित करने की प्रेरणा मिलती है। इसीलिए वही सूक्ष्म आध्यात्मिक तत्व शिव, देवी, गणेश, स्कंद, नारायण इत्यादि अनेक देवों और देवियों के विभिन्न कथाओं के माध्यम से इन पुराणों में व्यक्त किए गए हैं। अनपढ़ या तामसिक लोगों के लिए ये सभी कथाएं विरोधाभासी लग सकती हैं। क्योंकि हर पुराण में ईश्वर के एक रूप को प्रधान और अन्य रूपों को छोटा बताया गया है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इन सभी पुराणों में सभी विशेषण, स्तुतियां और तत्त्वज्ञान एक ही है।

इसलिए एक मनुष्य को वही पुराण पढ़ना चाहिए जिसमें उसके इष्ट का महिमामंडन है। बार बार इन कथाओं को सुनने से मनुष्य के मन में श्रद्धा का भाव विकसित होता है। और कभी कभी संशय भी उत्पन्न होता है। यह संशय उत्पन्न होने के बाद वह जब अधिकारी गुरु से पूछता हैं, तब उसे इसका गूढ़ अर्थ पता चलता है। जैसे एक बार बाबा गंगारामदास से किसी ने पूछा कि, दया अवगुण कैसे बन जाती है? तो गुरुदेव ने श्रीमद्भागवत पुराण की प्रसिद्ध कथा के आधार पर कहा कि, देखो राजा जड़ भरत कैसे एक हिरण पर दया करने के कारण अंततः मोहग्रस्त हो गए थे। इसी तरह श्रीमद्भागवत पुराण पढ़कर स्वामी विवेकानंद को लगा कि इसमें दूध, दही के महासागर और पृथ्वी के मध्य में मेरु पर्वत की बात हो रही है। यह भूगोल के अनुसार गलत है। लेकिन स्वामी जी भी एक सामान्य भूल कर जाते हैं कि पौराणिक भाषा प्रतीकात्मक है, उसमें ऋषि सागर के माध्यम से यौगिक भाषा में सात चक्रों और पर्वत के माध्यम से शरीर के मेरुदंड की बात कर रहा है।

श्रीमद्भागवत पुराण में ही भगवान परशुराम द्वारा अपनी माता रेणुका के सिर काटने की घटना भी आती है। इस पर बड़ी कविताएं लिखी गईं और तामसिक विद्वानों ने इसके आधार पर समूचे भारतीय अध्यात्म दर्शन को पाखंड और स्त्री विरोधी घोषित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। जब मैं उनसे पूछता हूं कि, सिर काटा तो जोड़ा कैसे? तो वह कहते हैं कि, यह कवर अप करने के लिए कोरी कहानी है। इस तरह वे एक हिस्से को कहानी बना देते हैं और एक हिस्से को सत्य घटना। बहरहाल, वे लोग जो प्रोपगंडा के लिए जीते हैं, उन्हें सत्य के शोध और कथा के गूढ़ अर्थ से क्या लेना देना! उन्हें तो बस अपने पंथ से पुरस्कार और वाहवाही चाहिए।

बहरहाल, माता रेणुका जब पानी लेने गईं तब उन्होंने गंधर्वों के एक दल को जलक्रीड़ा करते देखा। गंधर्व अर्थात आजकल के बॉलीवुड वाले हीरो हीरोइन। गंधर्व अच्छा गाते हैं, नाचते हैं, बजाते हैं, अच्छे दिखते हैं, अच्छा कपड़ा पहनते हैं। माता रेणुका एक उदासीन आश्रम की विरक्त तपस्विनी थीं। इस नए संसार को देखकर उनका मन कामासक्त हो गया। अब वह आश्रम आने के बाद तपस्या में मन नहीं लगा पा रही थीं। उनके पति महर्षि जमदग्नि ने उनसे बातचीत करने के बाद पता लगा लिया कि वह कामविकार से ग्रस्त हैं।

उन्होंने अपने पुत्रों से उनका सिर काट देने को कहा लेकिन उनका भावार्थ केवल उनके छोटे पुत्र परशुराम समझ सके। वे ब्रह्मज्ञानी थे। उन्होंने अपनी माता रेणुका से बातचीत करके गंधर्वों के सांसारिक और भौतिक जीवन की नश्वरता का ज्ञान कराया और उन्हें याद दिलाया कि कैसे उन्होंने राजसी जीवन छोड़कर एक तपस्वी पति का स्वयंवर किया था ताकि वह आध्यात्मिक उन्नति कर सकें। माता रेणुका ब्रह्मविद्या ग्रहण कर कामरोग से मुक्त हो गईं। उनका एक नया जन्म हुआ। अब उनका वह पुराना मस्तिष्क नहीं रहा। एक तरह से प्रतीकात्मक रूप से परशुराम ने उनका सिर काट दिया। जब वह अपने पिता से कहते हैं कि, मेरी माता को स्वीकार करो, मैंने उनका पुराना सिर काट दिया है और अब वह नए सिर के साथ हैं। तब महर्षि जमदग्नि प्रसन्न हुए कि उनका पुत्र परशुराम ब्रह्मज्ञ हो चुका है।

द्विज का अर्थ दूसरी बार जन्म लेने वाला। क्या हम वास्तव में दुबारा जन्म लेते हैं? नहीं, सारा खेल तो बुद्धि या मस्तिष्क का ही है। इसलिए कुर्बानी या बलिदान का अर्थ भी समझना होगा। ज्ञान प्राप्त करना और उसके अनुसार आचरण करना ही दूसरा जन्म है। मुझे पूरी आशा है कि इस्लाम में भी कोई उठेगा और बकरीद पर दी जाने वाली कुर्बानी का भावार्थ सामने रखकर अपनी सीमित सामर्थ्य में ही सही, पर सत्य सामने रखेगा। मैं इंटरनेट पर बॉलीवुड के मुस्लिम सितारों से लेकर अन्य विद्वानों की बकरीद के मूल अर्थ को समझाने के प्रयास देख रहा हूं। और विद्वानों का अर्थ केवल समझाना है। समझेगा केवल वही जो समझना चाहता है।

(३)
इसी प्रकरण में मुझे कबीर साहब भी याद आते हैं। कबीर साहब हमारे आश्रम के पूर्वज गुरु हैं। हमारी गुरु परम्परा के मध्य गुरु स्वामी रामानंद हैं, उनके १२ महाभागवत शिष्य थे। इनमें हमारी गुरु परम्परा के स्वामी भावानंद जी कबीर साहब के गुरुभाई थे। स्वामी रामानंद ने अधिकारी भेद से कबीर साहब को निराकार राम की भक्ति और स्वामी भावानंद को साकार राम की भक्ति की दीक्षा दी थी। 

कबीर साहब की भाषा भी पुराणों की तरह ही यौगिक और गूढ़ है। सामाजिक विषमताओं पर बार बार प्रहार करने के कारण वह सभी के प्रिय और पूज्य हैं। एक वर्ग के लिए वह विशेष प्रिय बन सके और उसने उन्हें सिर माथे पर बैठा लिया क्योंकि उस वर्ग को उनके माध्यम से सनातन धर्म के विषय में दुष्प्रचार करने में सहायता मिलती है। जब हम एकांगी होकर कबीर साहब के किसी एक पक्ष को ही पकड़ पाते हैं तब कबीर साहब आत्मकल्याण के गुरु न होकर, उस पंथ के हथियार बन जाते हैं, उसी प्रकार जैसे भगवान बुद्ध भी आज कुछ विशेष सम्मोहित लोगों के हथियार बने हुए हैं।

कबीर साहब के अनेक ऐसे पद हैं जहां वे खुलकर आत्म बलिदान या कुर्बानी की बात करते हैं। क्योंकि उनकी भाषा आधुनिक हिंदी के निकट है इसलिए हम उसे समझ पाते हैं। लेकिन यदि हम पुनः उसके शब्दार्थ पर चले जाएं तब तो युद्ध करने, सिर काट लेने और शरीर नष्ट कर देने से ही हम कबीरपंथी बन पाएंगे। अब हम ऐसे कुछ पदों पर दृष्टि डालते हैं:

गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव।
खेत बुहार्या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव॥1॥
भावार्थ: गगन में युद्ध के नगाड़े बज उठे, और निशान पर चोट पड़ने लगी। शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, तब कहता है कि `अब मुझे कट-मरने का उत्साह चढ़ रहा है।'

`कबीर' सोई सूरिमा, मन सूं मांडै झूझ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज॥2॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - सच्चा सूरमा वह है, जो अपने वैरी मन से युद्ध ठान लेता है, पाँचों पयादों को जो मार भगाता है, और द्वैत को दूर कर देता है। [ पाँच पयादे, अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर। दूज अर्थात द्वैत अर्थात् जीव और ब्रह्म के बीच भेद-भावना।]

`कबीर' संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहा, और हरि से लगन जुड़ गई। इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में।

सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत॥4॥
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है। पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता।

अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर॥5॥
भावार्थ - अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है। साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं, कभी हिचकता नहीं। यहां सिर सौंपने का अर्थ वही है, अपनी बुद्धि नहीं अपने गुरु की बुद्धि से आध्यात्मिक मार्ग पर चलना।

जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद॥6॥
भावार्थ - जिस मरण से दुनिया डरती है, उससे मुझे तो आनन्द होता है ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को ! यह मरना बाबा गोरखनाथ की भाषा में है, मरो हे जोगी मरो। मरने का अर्थ है अपने सभी विकारों और सांसारिकता को मार देना, न कि आत्महत्या करना।

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर॥7॥
भावार्थ - बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं। यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता है।

`कबीर' यह घर पेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं॥8॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - यह प्रेम का घर है, किसी खाला का नहीं , वही इसके अन्दर पैर रख सकता है, जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले। [ सीस अर्थात अहंकार। पाठान्तर है `भुइं धरै'। यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जचता है। सिर को उतारकर जमीन पर रख देना, यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूर-वीरता और निरहंकारिता को व्यक्त करता है।] सिर को काटने से वही तात्पर्य है जो महर्षि जमदग्नि द्वारा माता रेणुका का सिर काटने से है। अर्थात दूसरा जन्म लेना द्विज की भांति।

`कबीर' निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद॥9॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम ही है। मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा। प्रेम रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता है, जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय। यहां भी सिर वैसे ही काटना है जैसे भगवान परशुराम ने माता रेणुका का सिर काटा था अर्थात अहंकारी काम विकार वाले सिर का परिशोधन। द्विज बन जाना।

प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥10॥
भावार्थ - अरे भाई ! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता है यह महँगा है और सस्ता भी - यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर देकर खरीद ले जा सकता है। जब तक हम पाने अहंकार से भरे मस्तिष्क के साथ हैं तब तक हम प्रेम नहीं कर सकते।

`कबीर' घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥11॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - क्या ही मार-धाड़ मचा दी है इस चेतन शूरवीर ने।सवार हो गया है प्रेम के घोड़े पर। तलवार ज्ञान की ले ली है, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर वह चोट- पर-चोट कर रहा है। 

जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ।
धड़ सूली सिर कंगुरैं, तऊ न बिसारौं तुझ॥12॥
भावार्थ - मेरे अगर उतने भी शत्रु हो जायं, जितने कि रात में तारे दीखते हैं, तब भी मेरा धड़ सूली पर होगा और सिर रखा होगा गढ़ के कंगूरे पर, फिर भी मैं तुझे भूलने वाला नहीं।

सिरसाटें हरि सेविये, छांड़ि जीव की बाणि।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि॥13॥
भावार्थ - सिर सौंपकर ही हरि की सेवा करनी चाहिए। जीव के स्वभाव को बीच में नहीं आना चाहिए। सिर देने पर यदि हरि से मिलन होता है, तो यह न समझा जाय कि वह कोई घाटे का सौदा है।

`कबीर' हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ।
जबलग आस सरीर की, तबलग दास न होइ॥14॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -हरि तो सबका ध्यान रखता है,सबका स्मरण करता है , पर उसका ध्यान-स्मरण कोई नहीं करता। प्रभु का भक्त तबतक कोई हो नहीं सकता, जबतक देह के प्रति आशा और आसक्ति है।

कबीर साहब के इन चुनिंदा पदों को यदि भावार्थ की दृष्टि या आध्यात्मिक दृष्टि से न पढ़ा जाय तो वह हिंसक, पिछड़ा, आत्महत्या और दूसरों की हत्या के लिए प्रेरित करने वाले धर्मगुरु के रूप में जाने जायेंगें। लेकिन ऐसा नहीं है। उनसे बड़ा धर्मगुरु नहीं है। वह महानतम आध्यात्मिक सूर्यों में से एक हैं। यह प्रतीकात्मकता भी भारतीय दर्शनशास्र और अध्यात्म की खूबी है। इसे गुरुकृपा का अंजन लगाकर पढ़ने से वास्तविक अर्थ प्रकट होता है। बाबा गंगारामदास कहते हैं कि, शास्त्रों पर ताला लगा है। इसलिए उसे पढ़कर भी उसका अर्थ दृष्टिगोचर नहीं होता। इसकी चाभी या कुंजी गुरु के पास है, जब वह कृपा करके यह चाभी दे देते हैं तभी इसका अर्थ स्पष्ट हो पाता है।

माधव कृष्ण, ८ जून २०२५, गाजीपुर