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अगस्त 2024 ~ Lav Tiwari ( लव तिवारी )

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शुक्रवार, 30 अगस्त 2024

कितने कमाल लगते हो हुस्न में बेमिसाल लगते हो। रचना लव तिवारी

कितने कमाल लगते हो
हुस्न में बेमिसाल लगते हो।

आदत किसी और कि न बिगड़े।
रोशन जहाँ के आफताब लगते हो।

अंधरे रात के उजाला बनकर
चाँदनी रात के माहताब लगते हो।

किसको मालूम है कितनो की हसरत हो तुम।
मुझसे दूर रह कर भी मेरे पास लगते हो।

दुनियाभर की हर ख़ुशी तुम्हें ख़ुदा बक्शे।
तूम इस जहाँ में अपने खास लगते हो।

ऐसी खूबसूरती का क़ायल मरते दम तक रहेगा लव।
मेरी दुनिया मेरी चाहत मेरे दिल के पास रहते हो।

आफ़ताब- सूर्य
महताब- चंद्रमा
रचना- लव तिवारी गाज़ीपुर
उत्तर प्रदेश


सोमवार, 26 अगस्त 2024

दिल देने, दिल लेने की जो बात कही थी तुमसे। दिल को आज सुकून मिला जब बात हुई फिर तुमसे- रचना लव तिवारी

दिल देने, दिल लेने की जो बात कही थी तुमसे।
दिल को आज सुकून मिला जब बात हुई फिर तुमसे।।

आदत मेरी कैसे सुधरेगी तुम ही तुम हो जहन में।
मेरा मुझको मिल जाता बस एक चाह बन गई तुमसे।

मेरे ख्वाबों की मलिका तुमसा कोई और नही।
तुम मेरी जान हो प्रिये एक रात कही से तुमसे।।

उसके बाद जीना मरना सब है तुम्हारी हाथों में।
मुझको दे दो जीवन, या मौत की सौगात मिलेगी तुमसे।।

तुझको चाहने वालों की ये दुनियां में बहुतेरे है।
मेरी मंजिल बन जाओ जज़्बात समझो अगर दिल से।।

वर्षो की चाहत लिए अगर समझ सको मेरे दर्द को
मेरे तुम हक़ीम हो इस मर्ज की इलाज़ बस तुमसे।

दिल देने, दिल लेने की जो बात कही थी तुमसे।
दिल को आज सुकून मिला जब बात हुई फिर तुमसे।।

रचना लव तिवारी 
ग़ाज़ीपुर उत्तर प्रदेश




शनिवार, 24 अगस्त 2024

खबर आ रही पूरब में कलकत्ते से - माधव कृष्ण



खबर आ रही पूरब में कलकत्ते से
जहर झर रहा मधुमक्खी के छत्ते से

अस्पताल में बैठे हैं गुलदार कई
घूम रहे बेख़ौफ़ परिन्दे मस्ती में

झुण्ड कपोतों का अनशन पर बैठा है
जब से अबला एक मरी है बस्ती में

चूहे चुप हैं साथ निभाते बिल्ली का
ये भी कुचले जायेंगे मदमस्ती में

आने वाला कल भी डूबेगा पूरा
भरा हुआ है पानी इतना कश्ती में

बिल्लों की पदचाप शहर है सहमा सा
बोल रहा सन्नाटा इनकी गश्ती में

शहर उबलकर कल फिर से सो जाएगा
ओस बूँद कह रहे नीम के पत्ते से

खबर आ रही पूरब में कलकत्ते से
जहर झर रहा मधुमक्खी के छत्ते से

-माधव कृष्ण, २४ अगस्त २०२४, गाजीपुर


बुधवार, 14 अगस्त 2024

फिर क्यो नही मुझको मेहनत का फल देते हो साहब।। रचना लव तिवारी

ग़रीबी और ज़िल्लत भरे जीवन के हक देते हो साहब।
फिर क्यो नही मुझको मेहनत का फल देते हो साहब।।

आदमी मैं भले ही पढ़ न पाया मेहनत तो करता हूँ न।
फिर क्यों नही मेरे मजदूरी को हक़ देते हो साहब।।

कभी बारिश कभी सूखा कभी वैसे की भारी दिक्कत
फिर क्यों नही तकलीफ से निपटने हल देते हो साहब।

मेरी दुनिया मैं भी भूख प्यास और लाचारी है ही न
फिर क्यों नही मुझको जीने का मरहम देते हो साहब।।

बेटी जवान और बेटे की पढ़ाई की चिंता भी जायज है
फिर क्यों नही मुझको शांति भरा कल देते हो साहब।।

रचना लव तिवारी



जिंदगी में कभी तो तुम मेरी होगी इसी बसर में मैंने जिंदगी जी है। रचना लव तिवारी

बस तुमसे ही मोहब्बत की है
पूरी दुनिया से ही बग़ावत की है

मेरी यादों के बस तुम्हीं हो वारिस
दिल ने क्या ख़ूब वसीयत की है।

जिंदगी में कभी तो तुम मेरी होगी
इसी बसर में मैंने जिंदगी जी है।

रात भर तुम्हारी याद में तड़पता हूँ
कुछ नहीं सिर्फ़ तमसे मोहब्बत की है।

मेरी दुनिया मेरे ईश्वर मेरे मन्दिर हो तुम
इसीलिए बस तुम्हारी इबादत की है।

मेरा इष्ट मुझसे नाराज न हो जाये
क्यो बस तुम्हारी ही मैंने बंदगी की है।





मंगलवार, 13 अगस्त 2024

उसको जो चाहे वो हर ख़ुशी दे दे। रचना लव तिवारी ग़ाज़ीपुर

किसी को न चाहे सब कुछ देते हो मालिक।
मेरे महबूब को क्यों नही खुशी देते।।

मेरी दुनिया मेरा खज़ाना है वो
उसके चेहरे को क्यों नही हँसी देतें।

तेरी रहमतों में उसका भी नाम शामिल हो।
उसकी हसरतों को क्यों नही गति देते।

उसका सामना अगर मौत से हो कभी।
मेरी हिस्से की उसको जिंदगी दे दे।।

मेरी ख्वाईश मेरी आरजू मेरी बंदगी है वो
उसको जो चाहे वो हर ख़ुशी दे दे।।





शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

बांग्लादेश अल्पसंख्यक इस्लाम और लोकतंत्र- श्री माधव कृष्णा

बांग्लादेश, अल्पसंख्यक, इस्लाम और लोकतंत्र

बांग्लादेश मुक्ति युद्ध अंततः असफल हो गया. कभी इस मुक्ति संग्राम में भारत को उतरना पड़ा था. मैं हमेशा यह सोचता था कि बांग्लादेशी नागरिक इस संग्राम में पाकिस्तानी सेना द्वारा नरसंहार रोकने के लिए भारत के प्रति कृतज्ञ होंगे. ऐसा होना भी चाहिए था. लेकिन राष्ट्रवादी बंगाली नागरिकों, छात्रों, बुद्धिजीवियों , धार्मिक अल्पसंख्यकों और सशस्त्र कर्मियों की सामूहिक हत्या, निर्वासन और नरसंहार बलात्कार में लिप्त पाकिस्तानी सेना और समर्थक मिलिशिया को घुटने पर लाने वाले भारत के प्रति बांग्लादेश में इतनी घृणा का विषाक्त वातावरण क्यों है?

यह बात कभी गले के नीचे नहीं उतरती थी. मुझे इसका पहला सार्वजनिक उदाहरण मिला था 2015 में. एक क्रिकेट श्रृंखला के दौरान अपना पहला मैच खेलते हुए, भारतीय बल्लेबाजों को मुस्तफिजुर रहमान के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा था. तब एक बांग्लादेशी अखबार ने भारतीय खिलाड़ियों के आधे मुंडे हुए सिर की तस्वीर प्रकाशित की थी, ताकि मुस्तफिजुर की 'कटर' या धीमी गेंदों के बाद के प्रभावों को दिखाया जा सके.

इस फोटो ने बहुत कुछ कह दिया. आजकल अख़बार भी अपने पाठक वर्ग की कुरुचियों को बखूबी समझते हैं और उसे हवा देते हैं. अभी इस फोटो को भारतीय पचा भी नहीं पाए थे कि, एक और फोटो वायरल होना शुरू हुआ, जिसमें एशिया कप के फाइनल के पहले तस्कीन अहमद धोनी का कटा हुआ सिर पकड़े था. इसे एक बांग्लादेशी समर्थक ने ट्विटर पर साझा किया था. यह एक प्रवृत्ति की तरफ इशारा करती है. इन दो तस्वीरों ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया कि, क्या बांग्लादेश में वास्तव में सब कुछ ठीक चल रहा है?

इस सप्ताह मुझे ही नहीं, पूरी दुनिया को इसका उत्तर मिल गया. अपनी मजबूत सांस्कृतिक और भाषाई जातीयता को लेकर मुक्ति संग्राम करने वाला शेख मुजीबुर्रहमान का बांग्लादेश अब इस्लामिक कट्टरपंथियों के चंगुल में आ चुका है. ऐसा मैं नहीं, ऐसा बांग्लादेश से जान बचाकर भागी विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार तसलीमा नासरीन सालों से कह रही हैं, और वही भाषा अब शेख हसीना के साथ कुछ बचे खुचे उदारवादी बांग्लादेशी भी बोल रहे हैं.

ऐसा केवल वे ही नहीं, बल्कि आधिकारिक आंकड़े भी कह रहे हैं. अमेरिकी मानवाधिकार लेखक और कार्यकर्त्ता रिचर्ड बेंकिन ने अपनी प्रामाणिक पुस्तक में लिखा है कि, भारत के 1947 के विभाजन के बाद, पूर्वी पाकिस्तान की आबादी में हिंदू एक तिहाई थे; जब 1971 में पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना, तब उनकी संख्या पाँचवें हिस्से से भी कम थी; 30 साल बाद दसवें हिस्से से भी कम; और आज आठ प्रतिशत से भी कम. बांग्लादेशी हिंदुओं को सरकार द्वारा सहन की जाने वाली हत्या, बलात्कार, अपहरण, जबरन धर्म परिवर्तन, भूमि हड़पने और बहुत कुछ का सामना करना पड़ता है, जिसमें 2009 में ढाका पुलिस स्टेशन के पीछे हुआ नरसंहार भी शामिल है.

अब बड़ा प्रश्न यह आता है कि, भारतभूमि, बांग्लादेश और पकिस्तान में अंतर क्या है? तीनों देश कभी एक ही भूखण्ड के हिस्से थे. सोचने पर केवल यही समझ में आता है कि, पाकिस्तान और बांग्लादेश में इस्लाम के अनुयायी बहुसंख्यक हैं, और अभी तक भारत में हिन्दू धर्म के अनुयायी बहुसंख्यक हैं. आप इसे नकार भी सकते हैं, लेकिन आंकड़ों को नकारना असंभव होगा. इन दो देशों को यदि छोड़ भी दिया जाय, तो भी कश्मीर में इस्लाम का शासन स्थापित करने के लिए हिन्दुओ के नरसंहार और पलायन को कैसे नकारा जा सकता है?

यह एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है, इस्लाम का प्रतिनिधित्व करने वाले चरमपंथियों की मंशा पर. यह एक और बड़ा प्रश्न खड़ा करता है कि, क्या इस्लामिक देशों में लोकतंत्र और सह-अस्तित्त्व के सिद्धांत जीवित रह सकते हैं?

अहमद मौसल्ली ( अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ बेरूत में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर) सहित मुस्लिम लोकतंत्रवादियों का तर्क है कि कुरान में निरंकुशता से दूर लोकतंत्र की अवधारणाएँ हैं. इन अवधारणाओं में शूरा (परामर्श), इज्मा (आम सहमति), अल-हुर्रिया (स्वतंत्रता), अल-हक्कूक अल-शरीय्या (वैध अधिकार) शामिल हैं. उदाहरण के लिए, शूरा ( अल इमरान - कुरान 3:159, अश-शूरा - कुरान 42:38).

इन संकेतों के बाद भी इस्लामिक राज्यों में लोकतंत्र का न पनप पाना और अल्पसंख्यकों का समाप्त होना क्या इस बात की ओर संकेत करता है कि इस्लाम और लोकतंत्र दो विरोधी विचारधाराएँ हैं? प्रोफेसर मुसल्ली का तर्क है कि निरंकुश इस्लामी सरकारों ने अपने स्वार्थ के लिए कुरान की अवधारणाओं का दुरुपयोग किया है. यह बात समझ में आती है क्योंकि पूरी दुनिया में सत्ता पाने के लिए लोगों ने अलग-अलग सिद्धांतों का दुरूपयोग किया है.

उन्होंने इस बात पर बल देते हुए कहा, समाज के अन्य वर्गों की कीमत पर यह होता है. इस्लामिक देशों में ये अन्य वर्ग हैं अल्पसंख्यक हिन्दू या ईसाई या बौद्ध इत्यादि जिन्हें इस्लाम के नाम पर मारना या धर्मान्तरित कर देना अधिक सरल है, और इसे बहुसंख्यक मुस्लिमों का मुखर समर्थन प्राप्त है.

सैद्धांतिक रूप से इस्लाम में सभी समान हैं. केवल धर्मनिष्ठता और सदाचार के आधार पर ही श्रेष्ठता का निर्णय होता है. लेकिन इस्लामिक शासन में धर्मनिष्ठता और सदाचार के मानक कौन निर्धारित करेगा? निश्चित तौर पर शरीयत, कुरआन और हदीसें ही इनके मानक निर्धारित करेंगी. लेकिन इन धर्मग्रंथों की सही व्याख्या कौन करेगा? कौन काफिर है, कौन सही है, कौन गलत है? और एक काफिर की इस्लामिक देश में कौन सुनेगा? उनकी हैसियत क्या है?

२०२० में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में लाहौर से 250 किमी दूर खुशाब जिले के कायदाबाद तहसील में ईशनिंदा के आरोप में राष्ट्रीय बैंक के मैनेजर की बैंक के ही एक सिक्योरिटी गार्ड ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. जुलूस निकालते हुए हजारों मुस्लिमों की भीड़ ने उसका अभिनन्दन किया था. जबकि बैंकर के परिवार का कहना था कि गार्ड काम नहीं करता था, और डांटने पर उसने ईशनिंदा की आड़ में यह कुकृत्य कर दिया.

हदीस की गलत व्याख्या और अनुवाद करने वालों पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्द बांग्लादेशी विद्वान डॉ खोंडकर अब्दुल्ला जहाँगीर ने लिखा है कि, "हदीस के नाम पर झूठ का एक क्षेत्र अनुवाद और व्याख्या है। हम आम तौर पर किताबों और उपदेशों में हदीसों का हवाला देने में खुद को 100% स्वतंत्रता देते हैं। हम हदीस के सार का जैसा चाहें वैसा अनुवाद करते हैं, अनुवादों के बीच स्पष्टीकरण जोड़ते हैं और इसे 'हदीस' कहते हैं। लेकिन एक शब्द के हेरफेर से साथी भ्रमित हो जायेंगे!"

"हदीस शरीफ़ कहता है कि हलाल कमाई में एक पल के लिए खड़ा होना एक हज़ार अस्वद के लिए लैलतुल क़द्र सलात पेश करने से बेहतर है', या 'किसी रैली या जुलूस में एक टका खर्च करना' 'अच्छे काम का इनाम मिलेगा 70 लाख'...लेकिन वह झूठ गिना जाएगा. क्योंकि पैगम्बर ने ऐसा कभी नहीं कहा." पैगम्बर ने जो नहीं कहा या किया, उसको भी मनमाने तरीकों से बताकर अनेक इस्लामिक विद्वान समाज में विद्वेष पैदा कर रहे हैं और मुस्लिम युवाओं का ब्रेनवाश कर रहे हैं.

जब धर्म प्रधान हो जाता है, और संविधान की शक्ल ले लेता है, तब धार्मिक उन्माद को लोकतंत्र का जामा पहनाने पर भी एक दिन ऐसी घटनाएँ आम होने लगती हैं जिसमें बेगुनाहों को मारने पर लोग गर्व का अनुभव करें. दुःख की बात यह है कि इन ग्रंथों में तमाम घटनाएँ प्रक्षिप्त की जाती हैं ताकि अल्पसंख्यकों की सम्पत्ति और महिलाओं को छीनने को धर्मसंगत सिद्ध किया जा सके, और इनका विरोध करने वालों के विरुद्ध फतवे जारी कर दिए जाते हैं.

चरमपंथी इस्लामिक सलाफी विद्वानों ने दावा किया है कि लोकतंत्र हराम और यहां तक ​​कि शिर्क है यदि इसका प्रयोग शरीयत के मूल सिद्धांतों को खारिज करने के लिए किया जाता है, जैसे निषिद्ध चीजों को अनुमति देना. उनका आरोप है कि यह शरीयत को खारिज करता है. जैसे चुनाव के समय शराब बांटना. वे सत्ता में आने और इस्लामी शासन स्थापित करने के लिए बुरे लोगों को भी प्रश्रय देते हैं. लोकतंत्र तभी तक वैध है जब तक यह इस्लामी सिद्धांतों को बढ़ावा देने के लिए उपयोग में आता है.

दुनिया बदल रही है, और बदलती रहेगी. ऐसे कानूनों की आवश्यकता भी होगी जिनका वजूद किसी धर्मग्रन्थ में न हो. तो क्या इसका अर्थ है कि जटिल होते जा रहे विश्व में नए कानून ही न बनाये जाएँ? पारंपरिक इस्लामी सिद्धांत धर्म ( दीन ) और राज्य ( दौला ) के मामलों में अंतर करता है, लेकिन जोर देता है कि राजनीतिक अधिकार और सार्वजनिक जीवन को धार्मिक मूल्यों द्वारा निर्देशित होना चाहिए.

मुस्लिम विद्वान और विचारक, मुहम्मद असद अपनी पुस्तक इस्लाम में राज्य और सरकार के सिद्धांत में , लिखते हैं कि, देखा जाए तो आधुनिक पश्चिम में जिस तरह से 'लोकतंत्र' की कल्पना की गई है, वह प्राचीन यूनानी स्वतंत्रता की अवधारणा की तुलना में इस्लामी अवधारणा के कहीं अधिक निकट है; क्योंकि इस्लाम का मानना ​​है कि सभी मनुष्य सामाजिक रूप से समान हैं और इसलिए उन्हें विकास और आत्म-अभिव्यक्ति के लिए समान अवसर दिए जाने चाहिए.

यह एक मूल बात कि, सभी मनुष्य सामाजिक रूप से एक समान हैं, इस्लामिक देशों में जमीनी हकीकत में कभी नहीं बदल पायी. आज बांग्लादेश और पाकिस्तान में हिदुओं की समाप्तप्राय जनसंख्या इस का पुख्ता सबूत देती है. इस्लामी धर्मतंत्र और लोकतंत्र वैकल्पिक विचारों के प्रति असहिष्णु होते हैं. आज बांग्लादेश से शेख हसीना का जाना एक सकारात्मक राजनीति का अवसान है. चरमपंथियों का सत्तारोहण किसी भी सभ्य समाज के लिए खतरे की घंटी है. भारत और तमाम पश्चिमी देश सभी के लिए आदर्श होने चाहिए क्योंकि वहां अल्पसंख्यकों की स्थिति इतनी अच्छी है कि लोग वहां शरणार्थी बनना भी अपने अस्तित्त्व के लिए श्रेष्ठ समझते हैं.

भारतवर्ष के ऋषियों ने घोषणा की कि जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता निवास करते हैं. इसी तरह बहुसंख्यक समुदाय के बीच अल्पसंख्यकों का सम्मान और सुरक्षा ही उस देश की महानता का सूचकांक है. और इस दृष्टि से भारत में फलती फूलती अल्पसंख्यक जनसंख्या हमें भरोसा दिलाती है कि हम एक महान देश के निवासी हैं. जो अल्पसंख्यक भारत छोड़कर पाकिस्तान और बांग्लादेश गए, उन्हें भी इस बात का अहसास होगा कि भारत क्या है? और यदि भारत ऐसा है तो निश्चित तौर पर ऋषियों द्वारा संस्कारित हिन्दू जाति को खुद पर गर्व क्यों नहीं करना चाहिए!

सन्दर्भ सूची:
१. (A Quiet Case of Ethnic Cleansing: The Murder of Bangladesh's Hindus, Richard L. Benkin, ISBN: 9788188643523, 8188643521, Publisher: Akshaya Prakashan)

२. (3:159) यह अल्लाह की दयालुता है कि तुमने उनके साथ नरमी बरती। यदि तुम कठोर हृदय वाले होते तो वे अवश्य ही तुमसे अलग हो जाते। अतः उन्हें क्षमा कर दो और उनके लिए क्षमा की प्रार्थना करो और महत्वपूर्ण मामलों में उनसे परामर्श करो। और जब तुम किसी कार्य पर दृढ़ निश्चय कर लो तो अल्लाह पर भरोसा रखो। निस्संदेह अल्लाह भरोसा करनेवालों को प्रिय है।

३. For instance, shura, a doctrine that demands the participation of society in running the affairs of its government, became in reality a doctrine that was manipulated by political and religious elites to secure their economic, social and political interests at the expense of other segments of society," (In Progressive Muslims 2003).


४. https://www.hadithbd.com/books/link/?id=4644





मंगलवार, 6 अगस्त 2024

मोहर्रम और कांवड़ यात्रा आस्था के प्रश्न- लेखक श्री माधव कृष्ण ग़ाज़ीपुर

मोहर्रम और कांवड़ यात्रा: आस्था के प्रश्न

मोहर्रम के हथियार और खून के मातम से आम जनता को उतनी ही समस्या है जितनी कांवड़ यात्रियों के डी जे के कर्णभेदी संगीत पर रास्तों में असभ्य तरीकों से नाचते हुए रास्ता जाम करने से. दोनों में भेद नहीं है. दोनों आस्था के प्रश्न हैं, दोनों मजहब के शक्ति प्रदर्शन का तरीका हैं. दोनों पर अलग-अलग सरकारों का रुख अपने अपने वोट बैंक को साधने की विवशता है.

पहले, मोहर्रम पर बात कर लेते हैं. हम एक महापुरुष को अन्यायपूर्ण तरीके से मारे जाने पर मातम मनाते हैं. लेकिन भीड़ में हथियार से खुद को चोट पहुंचाते हुए और खून बहाते हुए कैसा मातम? मातम मनाना तो तब सार्थक होता जब हमारा संकल्प होता कि अब हम ऐसे किसी अन्याय को नहीं होने देंगे.

मैं एक मुस्लिम विद्वान से बात कर रहा था और वह कह रहे थे कि ईश्वर के संदेशवाहक पैगम्बर मोहम्मद साहब 8 जून 632 ई तक इस धरती पर रहे. कर्बला की घटना 10 अक्टूबर, 680 ई को हुई. इस तरह की अनेक दुर्घटनाएं इतिहास में दर्ज हो चुकी हैं. यहाँ तक कि जलियाँवाला बाग़ की घटना पर भी मातम मनाना चाहिए. इस्लाम और पैगम्बर ने मातम मनाने की व्यवस्था नहीं दी है, लेकिन अब यह परम्परा का रूप ले चुका है.

उनका कहना था कि, खुद वह इसके विरोधी हैं लेकिन परम्परा में आ जाने के कारण अब उनके घर से ताजिया उठता है, और उनकी असहमति के बावजूद इसे रोक पाना उनके हाथ में नहीं है. लेकिन उनकी एक बात बड़ी अच्छी लगी कि, हम सब एक किरदार निभाने आये हैं. उस किरदार को पूरी शिद्दत से निभायेंगे, भले हमें कोई सुने या न सुने.

हिन्दू ही नहीं, अनेक अमनपसंद मुसलमान भी इस तरह के मातम को ह्रदय से स्वीकार नहीं कर पाते हैं. इस्लाम एक शुद्धतावादी धर्म है. इसने अपनी शुद्धता को बचाए रखने के लिए आख़िरी पैगम्बर और अंतिम किताब भी दे दी लेकिन मुख्य हदीस से अलग अनेक हदीसें लिखकर इस्लाम के मूल सिद्धांतों से समझौते किये गए, इस्लाम के विद्वानों ने एक नया शब्द दिया, ज़ईफ़ हदीस या कमज़ोर हदीस.

हदीस की शब्दावली के विज्ञान में, यह एक ऐसी हदीस को संदर्भित करता है जिसके वर्णनकर्ताओं के पास अच्छी नैतिकता नहीं होती है या जिनकी याददाश्त कमजोर होती है। एक कमजोर हदीस वह है जिसमें सहीह और अच्छी हदीस के गुण नहीं पाए जाते हैं। हदीस इस्लामिक पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के कथनों, कार्यों या आदतों का वर्णन करने वाले विवरण या रिपोर्ट को कहते हैं। यह शब्द अरबी भाषा से आता है और इसके अर्थ "रिपोर्ट (विवरण)", "लेखा" या "रिवायत" हैं.

कांवड़ यात्रा का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है. कहते हैं, कांवड़ यात्रा का संबंध सागर के मंथन से है. जब अमृत से पहले विष निकला और दुनिया उसकी गर्मी से जलने लगी, तो महादेव शिव ने विष को अपने अंदर धारण कर' लिया. त्रेता युग में, शिव के भक्त रावण ने कांवड़ का उपयोग करके गंगा का पवित्र जल लाया और इसे पुरामहादेव में शिव के मंदिर पर डाला। इस प्रकार शिव को विष की नकारात्मक ऊर्जा से मुक्ति मिली.

यह घटना अविश्वसनीय और हास्यास्पद है. भगवान शिव को विष पीड़ित करेगा, यह सोचना भी असंभव है. बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी. त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी.. चर अरु अचर नाग नर देवा. सकल करहिं पद पंकज सेवा...जिस महादेव से विष से भरे सर्पराज वासुकि लिपटे रहते हों, उन्हें विष से फर्क भी पड़ता होगा, यह सोचना भी आस्था से खिलवाड़ है.

तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा।। हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी।। श्रीरामचरित मानस की यह चौपाई भगवान शिव के विषय में सब कुछ कह देती है. जब कामदेव को जला दिया गया, और यह सूचना देते हुए ऋषियों ने माता पार्वती से उनके विचित्र व्यवहार की शिकायत की, तब माता उमा ने कहा कि सदायोगी शिव अजन्मा, अनिंद्य, कामरहित और भोगहीन हैं. उन्हें कोई विकार छू ही नहीं सकता है.

उस महायोगी निर्विकार महाकाल भगवान महादेव के भक्तों को बियर और शराब खरीद कर पीते हुए और नाचते हुए देखना किसी भी शिवभक्त के गले नहीं उतरेगा. रास्तों पर परेशानी, सो अलग से. सच बताऊँ, तो एक हिन्दू होने के बाद भी कांवड़ यात्रा में असभ्यता के इन वीभत्स चित्रों से मैं असहज हो जाता हूँ. इन यात्राओं में झगड़े भी होते हैं और आम आदमी को तकलीफें भी. महादेव शिव के गुणों को धारण करने के संकल्प से बड़ा कौन सा अभिषेक भगवान को प्रसन्न करेगा?

अब प्रश्न यह उठता है कि, इसका समाधान क्या है? क्योंकि सरकारें अपने अपने वोट बैंक को साधती हैं. एक सरकार मोहर्रम को प्रश्रय देते हुए सड़कों पर नमाज तक की अनुमति दे देती है, तो दूसरी सरकार कांवड़ यात्रियों पर पुष्प वर्षा करती है. मैंने कभी किसी सरकार को सड़कों पर बच्चों को पढ़ने पढ़ाने की अनुमति देने की खबर नहीं पढ़ी, और न ही कभी किसी सरकार को स्कूल जाने वाले बच्चों पर फूल बरसाते हुए देखा.

इसका समाधान यही है कि, आस्था और राजनीति के उन प्रदर्शनों को सड़कों के स्थान पर स्टेडियम में सीमित कर दिया जाय, जहाँ पर उस आस्था और विचारधारा के लोग जाकर अपने अपने काम कर सकें. वहां वे खून बहायें, नारे लगाएं, नाचें या पीयें, आम जनता इससे अप्रभावित रहेगी. लेकिन स्टेडियम से बाहर उन्हें सामान्य नागरिकों की ही तरह सभी नियमों को मानते हुए और किसी की समस्या का कारण न बनते हुए चलना पड़ेगा.

यदि यह हो पाया तो जनसामान्य को सहज जीवन जीने में मदद मिलेगी. जनता उन लोगों को सुनती है और समझती है जो लोग उसे और असभ्य बनाने में लगे हुए हैं. कट्टरता की भाषा मनुष्य के सहज आक्रामक मन को भाता है. लेकिन जनता उन लोगों से दूर भागती है जो उसे संस्कारित करने का प्रयास करते हैं और सही बात बताते हैं. फिर भी मेरे उस मुस्लिम विद्वान मित्र की भाषा में, अपने किरदार को तो जीना ही पड़ेगा, आवाज तो लगानी ही पड़ेगी. प्रश्न कोई भी हो. और आस्था किसी प्रश्न से बढ़कर नहीं है.

माधव कृष्ण, ६ अगस्त २०२४, गाजीपुर



शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

मुंशी प्रेमचंद की घृणा चेतना प्रवाह में मेरा वक्तव्य- श्री माधव कृष्ण


आज की संगोष्ठी आरम्भ होने से पहले वरिष्ठ इतिहासकार विश्वविमोहन शर्मा जी श्रीरामचरित मानस में भगवान परशुराम के चरित्र चित्रण से असहमति व्यक्त कर रहे थे. वास्तव में वैष्णव साहित्य में परशुराम को भगवान् विष्णु का आवेश अवतार माना जाता है, और भगवान राम को पूर्ण अवतार. श्रीमद्भगवद्गीता में दिव्य चेतना शस्त्रधारियों में श्रीराम के रूप में अवतरित हुई. इस सूत्र पर बड़े शास्त्रार्थ हुए क्योंकि शस्त्रधारियों और शस्त्रवेत्ताओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पौराणिक नाम परशुराम का है. लेकिन उनके परशु के आवेग में राम का विवेक नहीं है. आवेश क्षणिक है. वह किशोर लक्ष्मण का वध करने और बालक गणेश का दांत तोड़ने में भी नहीं हिचकता है. शस्त्र धारण करना महत्त्वपूर्ण नहीं है. महत्त्वपूर्ण है उसके साथ आने वाले उत्तरदायित्व को समझना और उसका निर्वहन करना, और यहीं श्रीराम अचानक बड़े हो जाते हैं. विवेक ही पूर्णता है. अपनी पत्नी का अपहरण करने वाले रावण को बार-बार शांति के लिए प्रस्ताव भेजना ही एक मनुष्य का ईश्वर के रूप में परिवर्तन है. आवेग से विवेक की यात्रा ही परशुराम से श्रीराम की यात्रा है.

समकालीन साहित्य आवेग और आवेश का साहित्य बनता जा रहा है. खेमों की पारस्परिक घृणा वीभत्स रूप में अभिव्यक्ति पा रही है. बड़े साहित्यकार भी ‘सुमित्रानंदन पन्त का अधिकांश साहित्य कूड़ा-कचरा है’ जैसे वक्तव्य रखने का लोभ संवरण नहीं कर पाते. साहित्यिक आलोचनाएँ या तो प्रशंसा या निंदा का एकायामी रूप ले चुकी हैं. विचारधाराओं की लहरें एक दूसरे के किलों से टकराती हैं, और एक दूसरे को ख़ारिज करके लौट जाती हैं. उनमें एक दूसरे के गढ़ में रुकने, ठहरने और विमर्श के लिए समय और साहस नहीं बचा, ऐसा प्रतीत होता है. मुंशी प्रेमचंद इस समय के लिए एक समाधान लेकर आते हैं. उनके लिए घृणा, निंदा इत्यादि मनोवृत्तियाँ स्वाभाविक हैं और उनका काम है मनुष्य के सबसे बड़े धर्म ‘आत्मरक्षा’ को साधना.

“यह क्रोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है. निंदा का भय न हो, क्रोध का आतंक न हो, घृणा की धाक न हो तो जीवन विशृंखल हो जाएँ और समाज नष्ट हो जाएँ... घृणा का ही उग्र रूप भय है और परिष्कृत रूप विवेक. ये तीनों एक ही वस्तु के नाम हैं, उनमें केवल मात्रा का अंतर है।” हम सभी जो अपने आप को साहित्यकार कहलाना पसंद करते हैं, के लिए मुंशी प्रेमचंद एक बड़ा पाथेय छोड़ गए हैं. साहित्यकार बनने में तो पूरी उम्र लग जाती है. यह तो उस अलकेमिस्ट की तरह है जो शीशे से सोना बनाने की प्रक्रिया में खुद ही सोना बन जाता है. हम कुछ रचनाओं का सृजन करके साहित्य को थोड़ा समृद्ध कर सकते हैं, लेकिन सालों-साल और शायद पूरा जीवन लगाने के बाद जब हमारी घृणा विवेक का रूप ले लेती है, तब हमारे और मुंशी प्रेमचंद के बीच की दूरी समाप्त होती है.

मुंशी प्रेमचन्द जैसे बड़े लोग किसी एक के नहीं होते जैसे स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गांधी जैसे महापुरुष किसी एक के नहीं है. इन लोगों की महत्ता इस बात में निहित है कि सुविधाजनक उद्धरणों के दौर में हर वैचारिक धड़े के पास इनके व्यक्तित्व का एक पक्ष किसी न किसी के काम का है, और उसी को जोर शोर से प्रचारित करके इन्हें अपने खेमे का सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है. इनकी महत्ता इस बात में भी है कि इनसे घृणा करने वाले इस तरफ भी हैं और उस तरफ भी. मुंशी प्रेमचंद से जितनी घृणा जन्मना ब्राह्मणवादी साहित्यकार करते हैं उतनी ही घृणा सुमनाक्षर जैसे रंगभूमि की प्रतियाँ जलाने वाले दलित साहित्यकार या एक्टिविस्ट भी.

गाजीपुर में ही एक संगोष्ठी में एक भोजपुरी भाषा के लिए कार्यरत तिवारी जी ने कहा था कि, मुंशी प्रेमचन्द कायस्थ थे इसलिए उन्होंने कायस्थों पर नहीं लिखा जबकि उनके समय में कायस्थ ही उच्च पदों पर आसीन थे; उन्होंने केवल ब्राह्मणों को निशाना बनाया क्योंकि उस समय ब्राह्मण कायस्थों के प्रतिस्पर्धी थे क्योंकि ये दोनों ही पढ़े लिखे थे. माना कि, हम लोग उत्तर आधुनिकता के विखंडनवादी दौर से गुजर रहे हैं लेकिन फिर भी प्रेमचन्द जैसे महान साहित्यकारों को अपने मन के निकृष्टतम कोने में घसीटने का प्रयास स्वतः असफल हो जाता है. ऐसा नहीं है कि मुंशी प्रेमचंद को इस आरोप का ज्ञान नहीं था.

इसका उत्तर देते हुए उन्होंने अपने इसी निबंध में लिखा कि, “जीवन में आदमी को सभी तरह के अनुभव होते हैं. प्राय: सभी समुदायों में उसके मित्र हो सकते हैं और शत्रु भी, फिर वह किसी एक समुदाय को क्यों चुनकर उन्हीं के प्रति घृणा फैलायेगा? हाँ, चूँकि धर्म के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने वाले, श्रद्धा की आड़ में श्रद्धालुओं को नोचने वाले, गया में मुसलमानों और चमारों तक से पिंडदान का संस्कार कराने वाले और नाना प्रकार से धर्म का पाखंड रचने वाले उस समुदाय के लोग हैं, जो दुर्भाग्यवश ब्राह्मण कहे जाते हैं, पर जो ब्राह्मणत्व से उतना ही दूर हैं, जितना नरक से स्वर्ग... यह उस समुदाय को बदनाम करने वाले लोग हैं जिन्होंने सच्चे जीवंत और सच्चे विचारों की सरिता बहाई थी, जो हिन्दू समाज के पथ प्रदर्शक थे। उनका यह पतन!”

मुंशी प्रेमचंद ब्राह्मणत्व की भारतीय दार्शनिक परिभाषा का हवाला देते हैं और उसे जन्म से अलग खड़ा करते हैं, “लेखक की दृष्टि में ब्राह्मण कोई समुदाय नहीं , एक महान पद है जिस पर आदमी बहुत त्याग, सेवा और सदाचरण से पहुँचता है. हरेक टके-पंथी पुजारी को ब्राह्मण कहकर मैं इस पद का अपमान नहीं कर सकता...” मुंशी प्रेमचन्द ऐसे आलोचकों को अपने उपन्यास ‘सम्राटई का मुकुट’ भी बड़ी खुशी से दे देना चाहते हैं. आलोचकों की यह जमात सदा से सक्रिय रही है. मुंशी प्रेमचंद की गतिशील जीवन दृष्टि में आर्य समाज, तिलक और गांधी जी का योगदान था. आचार्य रामचंद्र तिवारी उनके साहित्य में गांधी जी की विनयशीलता, तिलक की तेजस्विता और आर्य समाज की तार्किकता देखते हैं.

दूसरा धड़ा जो अपने को दलित साहित्यकार कहता है, वह भी मुंशी प्रेमचंद से बहुत प्रेम नहीं करता है. दलित साहित्यकार आज भी मानते है कि दलितों की पीड़ा का आख्यान दलित ही कर सकता है क्योंकि ‘जाके पांव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई’. वे इस तथ्य को भी भुला देते हैं कि मुंशी प्रेमचंद ने दलितों-वंचितों के प्रति किया गए अत्याचार और शोषण को पूरी बेबाकी से प्रस्तुत किया, दलित वर्ग को जगाने का कार्य किया. सोहनलाल सुमनाक्षर के नेतृत्व में इन लोगों ने रंगभूमि की प्रतियाँ जलाईं, जिसका नायक एक जागरूक साहसी दलित है. एक अन्य दलित साहित्यकार डॉ धर्मवीर ने उन्हें ‘सामंत का मुंशी’ एवं ‘लिजलिजा चाकर’ कहा. यही दलित साहित्य की सीमा है जो वाह्य आलोचना करती है, उपन्यास जलाती है. मुंशी प्रेमचंद अपने विचारों से कुरीतियों का लगातार दहन करने में लगे हुए हैं.

‘मंदिर’ कहानी की पात्र सुखिया कहती है, ‘तो क्या भगवान ने चमारों को नहीं सिरजा है?..क्या चमारों का भगवान कोई और है?...मेरे छू लेने से ठाकुर को छूत लग गयी...मुझे बनाया तो छूत नहीं लगी.” मुंशी प्रेमचन्द सामाजिक यथार्थ से संतुष्ट नहीं हैं, इन कुरीतियों से उपजे क्रोध को विचार की शक्ल देने में लगे हुए हैं, और इन विचारों में अन्तर्निहित सौन्दर्यबोध को पहचानते हुए उन्हें कलात्मक औदात्य देने का कार्य करते हैं. प्रतिक्रियाओं के कारण दलित साहित्य का सौन्दर्यबोध सपाटबयानी तक सीमित रह गया. प्रेमचंद का क्रोध सात्त्विक क्रोध है. और यही उनकी घृणा और क्रोध का विवेक है. घृणा से उपजा यह विवेक ही उनके साहित्य की शक्ति है.

कतिपय लोगों ने मुंशी प्रेमचंद को हिन्दू धर्म पर चोट पहुंचाने वाला बताया है. हिन्दू धर्म की व्यावहारिक समस्याओं पर तो महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानन्द के साथ-साथ महर्षि दयानंद सरस्वती ने भी करारा प्रहार किया है. मुंशी प्रेमचंद के अनुसार “‘कु’ और ‘सु’ का संग्राम ही साहित्य का इतिहास है.” कुछ लोग यह जानते होंगे कि मुंशी जी ने इस्लाम की कट्टरता पर भी एक कहानी लिखी है, ‘दिल की रानी.’ उसमें तैमूर के सामने लड़के के वेश में बेगम हमीदा कहती हैं, “मैं कहता हूँ, हम काफिर सही लेकिन तेरे तो हैं क्या इस्लाम जंजीरों में बंधे हुए कैदियों के कत्ल की इजाजत देता है?”

“...खुदा ने अगर तुझे ताकत दी है, अख्तियार दिया है तो क्या इसीलिये कि तू खुदा के बंदों का ख़ून बहाये ? क्या गुनाहगारों को कत्ल करके तू उन्हें सीधे रास्ते पर ले जायगा?... इस खयाल को दिल से निकाल दे कि तू खूँरेजी से इस्लाम की खिदमत कर रहा है. एक दिन तुझे भी परवरदिगार के सामने अपने कर्मों का जवाब देना पड़ेगा और तेरा कोई उज्र न सुना जायगा; क्योंकि अगर तुझमें अब भी नेक और बद की तमीज बाकी है, तो अपने दिल से पूछ. तूने यह जिहाद खुदा की राह में किया या अपनी हविस के लिये और मैं जानता हूँ, तुझे जो जवाब मिलेगा, वह तेरी गर्दन शर्म से झुका देगा.”

इसलिए मुंशी प्रेमचंद के समग्र पाठ की आवश्यकता है. उन्हें नोच नोचकर खाने या अपना बनाने की आवश्यकता नहीं है. भारतेंदु हरिश्चंद्र के बाद हिन्दी साहित्य को एक बड़े फलक पर व्यापक संवेदनशीलता के साथ लिखने वाला सांस्कृतिक सामाजिक विमर्शकार मिला. भारतेंदु जी के पास समय कम था, काम अधिक था इसलिए उनका कार्य गहराई में प्रवेश नहीं कर सका लेकिन मुंशी प्रेमचंद ने इस विमर्श को औदात्य के साथ विस्तार और गाम्भीर्य दोनों दिया. उनकी प्रगतिशीलता मानवतावाद का पर्याय है. वह विखंडन नहीं, समस्याओं की तरफ लोगों का ध्यान ले जाने में विश्वास रखती है. उनके लिए मनुष्य के सबसे निकट मनुष्य है, और इसमें किसी भी तरह की वैचारिक निष्ठा का स्वागत भी है, और उसका कफ़न भी तैयार है. उनका साहित्य जीवन की व्यापक अनुभूति से जुड़ा हुआ है.

प्रेमचन्द से पूर्व का उपन्यासकार और कथाकार पाठकों के मनोरंजन और मनोतुष्टि में लगा हुआ था. जैसे आज अनेक लोग कहते हुए मिलते हैं कि, आपका भाषण और लेखन जनता के अनुरूप और अनुकूल होना चाहिए, अन्यथा आप असफल हो जायेंगे. लेकिन पाठको और श्रोताओं के संस्कार को उन्नत बनाने का प्रयास ही एक वक्ता और लेखक की सफलता है. जातिवाद, साम्प्रदायिकता, पैरोडी, सेक्स, इरोटिका और पोर्न परोसने वाले लोगों से साहित्य, सिनेमा और राजनीति का भला नहीं होने वाला है. वे भौतिक रूप से समृद्ध और लोकप्रिय दिखते होंगे लेकिन वास्तविक सफलता के मानक देखने के लिए सरदार भगत सिंह जैसों की तरफ देखना होगा. आज मुंशी प्रेमचन्द जी की जयन्ती पर हमें इन बातों को याद रखना होगा, और प्रेमचंद से अपने लेखक की दूरी मिटाने का हर संभव प्रयास करना होगा.

माधव कृष्ण, इतिहासकार विश्वविमोहन शर्मा जी के आवास पर साहित्य चेतना समाज द्वारा आयोजित संगोष्ठी, ३१ जुलाई २०२४

फोटो क्रेडिट: श्री वेद प्रकाश राय जी