गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ वर्ष- लेखक श्री माधव कृष्ण ग़ाज़ीपुर उत्तरप्रदेश

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ वर्ष

(१)
संघ से मेरा संबंध अनुभवों, अध्ययनों, तार्किक विश्लेषणों और दूसरों के कहे सुने के प्रकाश में अनेक पड़ावों से गुजरा है, और इस लेख का निष्कर्ष मैं पहले ही दे देता हूं ताकि किसी को संदेह न रहे, और वह यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा समन्वयकारी, राष्ट्रभक्त, दूरदर्शी और निष्काम सामाजिक संगठन होना हम भारतवासियों का सौभाग्य है।

मैं बचपन में शाखा के स्वयंसेवक के रूप में संघ परिवार से जुड़ा। हम खेलते थे, प्रार्थना करते थे, बौद्धिक सुनते थे और अपने बीच में जिला प्रचारक कहे जाने वाले किसी अधेड़ उम्र के फूलचंद जी और नगर प्रचारक कहे जाने वाले युवा अरविंद जी को खेलता और खिलखिलाता देखकर आश्चर्य करते थे।

फूलचंद जी कभी कभी घर आते थे और हम लोगों को सम्मिलित शाखा के लिए जगाते हुए ले जाते थे। अरविंद जी का सौम्य स्वभाव और उनकी मृदुभाषिता से हम सभी उन्हें अपने बड़े भाई की तरह देखते थे। आज भी जब मैं लोगों से और अनेक नेताओं या विचारकों के मुख से संघ को घृणा फैलाने वाले संगठन के रूप मने चिह्नित करते हुए देखता हूं तो अपना बचपन याद करता हूं।

मैं दिमाग पर बहुत जोर डालकर सोचने का प्रयास करता हूं कि कभी किसी प्रचारक ने या संघ के बड़े पदाधिकारी ने मुस्लिमों या किसी अन्य धर्म के विरुद्ध हमें खड़ा करने की कोशिश की हो, मुझे मेरे अनुभवों और अध्ययन के प्रकाश में एक भी ऐसी घटना नहीं मिलती है। यह सच है कि संघ हिंदू संगठन है, लेकिन संघ के हिंदू की परिभाषा में इस भारत में रहने वाला प्रत्येक नागरिक आता है, चाहे उसकी विचारधारा या धर्म या जाती या भाषा कुछ भी हो। इसलिए मैं सभी से संघ के एकात्मता स्तोत्र के अध्ययन का अनुमोदन करता हूं। उसका मूल पाठ मैं यहां परिशिष्ट में संलग्न करने जा रहा हूं।

एकात्मता स्तोत्र भारत की राष्ट्रीय एकता का उद्बोधक गीत है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में गाया जाता है। यह संस्कृत में है। इसमें आदिकाल से लेकर अब तक के भारत के महान सपूतों एवं सुपुत्रियों की नामावलि है जिन्होने भारत एवं महान हिन्दू सभ्यता के निर्माण में योगदान दिया। इसके अलावा इसमें आदर्श नारियाँ, धार्मिक पुस्तकें, नदियाँ, पर्वत, पवित्रात्मायें, पौराणिक पुरुष, वैज्ञानिक एवं सामाजिक-धार्मिक पर्वतक आदि सबके नामों का उल्लेख है।

बाबा भीमराव अंबेडकर, महात्मा फुले, महात्मा गांधी, रसखान, दशमेश गुरू गोबिंद सिंह इत्यादि महापुरुषों के नाम इस स्तोत्र में हैं। इन महापुरुषों के नाम इसलिए रेखांकित कर रहा हूं कि इनके शिक्षित और अशिक्षित दोनों प्रकार के कुछ अनुयायियों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर एक प्रकार की वितृष्णा, घृणा और अंधविरोध का मुखर भाव देखने को मिलता है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामान्य स्वयंसेवकों में यह घृणा मुझे नहीं दिखी. संघ विविध क्षेत्रों में कार्य करने वाले इन मनीषियों को एक ही अखण्ड परम्परा का मानता है. इस परम्परा के कारण ही राष्ट्र की वास्तविक रक्षा हुई.

अपनी वेबसाइट पर संघ ने इन महान महापुरुषों के विषय में बताते हुए लिखा है कि, “प्राचीन काल से चलते आए अपने राष्ट्रजीवन पर यदि हम एक सरसरी नजर डालें तो हमें यह बोध होगा कि अपने समाज के धर्मप्रधान जीवन के कुछ संस्कार अनेक प्रकार की आपत्तियों के उपरांत भी अभी तक दिखार्इ देते हैं। यहाँ धर्म-परिपालन करनेवाले, प्रत्यक्ष अपने जीवन में उसका आचरण करनेवाले तपस्वी, त्यागी एवं ज्ञानी व्यक्ति एक अखंड परंपरा के रूप में उत्पन्न होते आए हैं। उन्हीं के कारण अपने राष्ट्र की वास्तविक रक्षा हुर्इ है और उन्हीं की प्रेरणा से राज्य-निर्माता भी उत्पन्न हुए हैं।“

इस प्रकार प्रत्येक स्वयंसेवक महापुरुषों के कृतित्व की बारीकियों को देखने का प्रयास करता है, उनके विचारों के मूल में उतरने का प्रयास करता है. उदाहरण के लिए, यदि मैं बाबा साहेब की २२ प्रतिज्ञाओं के विषय में सोचूँ तो वह हिन्दुत्व के विरुद्ध दीखते हैं, लेकिन यदि उनके कृतित्व की तात्कालिक आवश्यकता के विषय में सोचूँ तो लगता है कि उन्होंने इस राष्ट्र को एक विघटन से बचाया और अस्पृश्यता जैसे अमानवीय कृत्य के विरुद्ध कार्य करके इस राष्ट्र की और हिन्दुत्व की मूल भावना के अनुसार ही कार्य किया है.

संघ इस अखण्ड परम्परा को युगानुकूल बनाने की बात करता है, “अत: हम लोगों को समझना चाहिए कि लौकिक दृष्टि से समाज को समर्थ, सुप्रतिष्ठित, सद्धर्माघिष्ठित बनाने में तभी सफल हो सकेंगे, जब उस प्राचीन परंपरा को हम लोग युगानुकूल बना, फिर से पुनरुज्जीवित कर पाएँगे। युगानुकूल कहने का यह कारण है कि प्रत्येक युग में वह परंपरा उचित रूप धारण करके खड़ी हुर्इ है। कभी केवल गिरि-कंदराओं में, अरण्यों में रहनेवाले तपस्वी हुए तो कभी योगी निकले, कभी यज्ञ-यागादि के द्वारा और कभी भगवद्-भजन करनेवाले भक्तों और संतों के द्वारा यह परंपरा अपने यहाँ चली है।“

एकात्मता स्तोत्र में प्रत्येक युग और क्षेत्र से चयनित महापुरुषों के नाम हमें प्रेरित करते हैं कि, वर्तमान समय की समस्याओं का राष्ट्रहित में समाधान खोजने के लिए तत्पर होना ही संघ के स्वयंसेवक का कार्य है, न कि अतीतजीवी होकर अतीत का गुणगान करना. वह केवल प्रेरणा देने से संतुष्ट नहीं है. वह इस पुनीत कार्य के लिए एक संगठन बनाने का पक्षधर है जिसकी शक्ति समाज में सर्वव्यापी बनकर खड़ी हो. युगानुकूल आवश्यकता को पूरा करने वाले लोगों को ही संघ स्वयंसेवक मानता है. इसके अतिरिक्त स्वयंसेवक की अन्य कोई परिभाषा नहीं है. यही स्वयंसेवकों की संघ द्वारा स्वीकृत परिभाषा है.

“आज के इस युग में जिस परिस्थिति में हम रहते हैं, ऐसे एक-एक, दो-दो, इधर-उधर बिखरे, पुनीत जीवन का आदर्श रखनेवाले उत्पन्न होकर उनके द्वारा धर्म का ज्ञान, धर्म की प्रेरणा वितरित होने मात्र से काम नहीं होगा। आज के युग में तो राष्ट्र की रक्षा और पुन:स्थापना करने के लिए यह आवश्यक है कि धर्म के सभी प्रकार के सिद्धांतों को अंत:करण में सुव्यवस्थित ढंग से ग्रहण करते हुए अपना ऐहिक जीवन पुनीत बनाकर चलनेवाले, और समाज को अपनी छत्र-छाया में लेकर चलने की क्षमता रखनेवाले असंख्य लोगों का सुव्यवस्थित और सुदृढ़ जीवन एक सच्चरित्र, पुनीत, धर्मश्रद्धा से परिपूरित शक्ति के रूप में प्रकट हो और वह शक्ति समाज में सर्वव्यापी बनकर खड़ी हो। यह आज के युग की आवश्यकता है।“

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पास घृणा करने के लिए बहुत सी घटनाएँ हैं लेकिन उसने राष्ट्र सर्वोपरि रखा, और जब राष्ट्र सर्वोपरि हो जाता है तब व्यक्तिगत राग-द्वेष बेमानी हो जाते हैं. संघ ने अपने विरुद्ध प्रायोजित और संगठित दुष्प्रचार झेला, और आज भी झेल रहा है. महिला महाविद्यालय में मेरे एक असिस्टेंट प्रोफेसर मित्र ने एक बार एक व्हाट्स एप्प समूह में लिखा कि, गुरूजी माधव राव सदाशिव राव गोलवरकर ने विचार नवनीत में लिखा है कि ब्राह्मण पुरुषों को शूद्र स्त्रियों का बलात्कार करना चाहिए.

मैं पढ़कर स्तब्ध था. उनके कुछ व्याख्यानों को पढ़कर मुझे संदेह तो था कि वह बिना अध्ययन किये बोलते हैं, लेकिन उनकी पीड़ा या कुण्ठा या व्यथा इस स्तर तक अभिव्यक्त होगी, यह नहीं पता था. मैंने उनसे पूछा कि आपने विचार नवनीत के किस पृष्ठ पर इसे पढ़ा है? उन्होंने पूछा कि, नहीं लिखा है क्या? मैंने कहा, नहीं. और तब उन्होंने उस पोस्ट को हटा लिया. संघ के ऊपर लगाए गए सभी आरोप इसी सामान्य श्रेणी में आते हैं. या यूं कहूँ के, कम से कम मेरे सामने आज तक संघ पर जो भी आरोप लगे हैं, वे उन लोगों द्वारा लगाये गए हैं जिन्होंने संघ की शैली का कभी भी व्यक्तिगत अनुभव नहीं लिया है या जिन्होंने संघ के साहित्य का एक पृष्ठ भी नहीं पढ़ा है.

महात्मा गांधी की हत्या के लिए संघ को दोषी ठहराने वालों ने न तो उच्चतम न्यायालय के निर्णय का सम्मान किया और न ही कांग्रेस सरकार द्वारा संघ पर लगाये गए प्रतिबंध को हटाने के निर्णय का. २ अक्टूबर २०१९ को संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने कहा था कि, “उनके जन्म के 150वें वर्ष में उनका स्मरण करते हुए हम सबका यह संकल्प होना चाहिये कि उनके पवित्र, त्यागमय व पारदर्शी जीवन तथा स्व आधारित जीवनदृष्टि का अनुसरण करते हुए हम लोग भी विश्वगुरु भारत की रचना के लिये अपने जीवन में समर्पण व त्याग की गुणवत्ता लायें।“ पूरा भाषण परिशिष्ट में दिया गया है.

महात्मा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली के तुगलक रोड पुलिस स्टेशन में एक प्राथमिक सूचना रिपोर्ट दर्ज हुई, उस समय संघ प्रमुख गुरूजी चेन्नई में संघ की एक बैठक में सम्भ्रांत लोगों से बातचीत कर रहे थे. वह जैसे ही चाय पीने जा रहे थे उसी समय किसी ने उन्हें महात्मा गांधी की हत्या की सूचना दी. उन्होंने कप नीचे रखा और दुखी होकर बोला कि, “इस देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य?” (“What a misfortune for the country!”). आरएसएस प्रमुख ने अपना देशव्यापी दौरा रद्द कर दिया और नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय लौट आए। एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए, गांधीजी के निधन पर शोक व्यक्त करने के लिए सभी आरएसएस शाखाओं को 13 दिनों के लिए बंद रखने का आदेश दिया गया.

1925 में संगठन की स्थापना के बाद से, शाखाएँ साल के 365 दिन बिना किसी अवकाश के चलती रहीं। यही आरएसएस का मूल सिद्धांत है। हालाँकि, संगठन ने गांधीजी के लिए एक अपवाद रखा, जो आरएसएस में गांधीजी के प्रति सम्मान को दर्शाता है. गुरूजी ने पंडित नेहरू को पत्र में लिखा कि, “ऐसे कुशल कर्णधार पर, जिसने इतने विविध स्वभावों को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें सही मार्ग पर लाया, आक्रमण वास्तव में केवल एक व्यक्ति के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए एक विश्वासघात है। निस्संदेह आप, अर्थात् वर्तमान सरकार के अधिकारी, उस देशद्रोही व्यक्ति के साथ उचित व्यवहार करेंगे। लेकिन यह हम सभी के लिए परीक्षा की घड़ी है। वर्तमान कठिन समय में, अविचल विवेक, मधुर वाणी और राष्ट्रहित के प्रति एकनिष्ठ समर्पण के साथ, अपने राष्ट्ररूपी जहाज को सुरक्षित रूप से आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हम सभी पर है.”
सरदार पटेल को लिखे पत्र में गुरु गोलवरकर ने गांधी जी को देख को एक करने वाला बताया, “आइए, हम उस महान एकीकरणकर्ता के असामयिक निधन से जो दायित्व हम पर आया है, उसे वहन करें, उस आत्मा की पवित्र स्मृतियों को जीवित रखें जिसने विविध प्रकृतियों को एक सूत्र में पिरोया था और सभी को एक मार्ग पर अग्रसर किया था। तथा सही भावनाओं, संयमित वाणी और भ्रातृ प्रेम के साथ अपनी शक्ति का संरक्षण करें तथा राष्ट्रीय जीवन को चिरस्थायी एकता के सूत्र में पिरोएँ।“

लेकिन बिना किसी प्रमाण के, जैसे आजकल संघ पर उच्चतम न्यायालय की चेतावनियों के बावजूद, गांधी जी की हत्या के निर्लज्ज दोष मढ़े जाते हैं, उसी प्रकार ४ फरवरी १९४८ को संघ पर कुख्यात बंगाल स्टेट प्रिजनर्स एक्ट का प्रयोग कर प्रतिबंध लगा दिया गया जिसे आज तक पंडित नेहरू स्वयं एक काला कानून मानते आये थे. 12 जुलाई १९४९ को यह प्रतिबंध उठा लिया गया. संघ के ७७००० कार्यकर्ता अपने प्रमुख के साथ जेल भेजे गए थे लेकिन सरकार को संघ की संलग्नता का कोई प्रमाण नहीं मिला. सरदार पटेल ने नेहरू जी को लिखे पत्र में इसे स्वीकार किया,

“बापू की हत्या के मामले की जाँच की प्रगति से मैं लगभग रोज़ाना जुड़ा रहा हूँ। सभी मुख्य अभियुक्तों ने अपनी गतिविधियों के बारे में लंबे और विस्तृत बयान दिए हैं। इन बयानों से यह भी साफ़ ज़ाहिर होता है कि आरएसएस का इसमें कोई हाथ नहीं था।“ सरदार पटल ने बाद में संघ प्रमुख गुरु जी को एक पत्र लिखा और कहा कि, “मेरे आस-पास के लोग ही जानते हैं कि संघ पर से प्रतिबंध हटने पर मुझे कितनी खुशी हुई थी। आप सभी को शुभकामनाएँ.”

बात यहाँ भी समाप्त नहीं हुई. संघ अभी कांग्रेस की सरकार और शीर्ष नेताओं की घृणा और संदेह के राडार में बना हुआ था, जैसे आज बना हुआ है. 1966 में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने हत्याकांड की गहन जाँच के लिए एक नया न्यायिक आयोग गठित किया। सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति जेएल कपूर ने इसकी अध्यक्षता की। आयोग ने 101 गवाहों और 407 दस्तावेजों की जाँच की। पैनल की रिपोर्ट 1969 में प्रकाशित हुई। इसके प्रमुख निष्कर्ष ये थे: (क) यह साबित नहीं हुआ है कि वे (आरोपी) आरएसएस के सदस्य थे, न ही यह साबित हुआ है कि उस संगठन का हत्या में हाथ था। ख) इस बात का कोई सबूत नहीं है कि आरएसएस, महात्मा गांधी या कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के खिलाफ हिंसक गतिविधियों में लिप्त था.

इन सभी जांचों और प्रतिबन्धों से साफ़ निकल आने के बाद भी संघ आज भी अनेक लोगों की घृणा और ऐसे निराधार वक्तव्यों के निशाने पर है. राहुल गांधी ने मार्च 2014 में ठाणे में एक रैली कहा था, "आरएसएस के लोगों ने गांधीजी की हत्या की और आज उनके लोग (भाजपा) उनकी बात करते हैं... उन्होंने सरदार पटेल और गांधीजी का विरोध किया था।" 19 जुलाई को, सुप्रीम कोर्ट ने राहुल से कहा था कि वह गांधीजी की हत्या के लिए आरएसएस को ज़िम्मेदार ठहराने वाली अपनी टिप्पणियों पर खेद व्यक्त करें या मानहानि के मुकदमे का सामना करने के लिए तैयार रहें।

मानहानि के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, "आपने आरएसएस के खिलाफ इतना बड़ा बयान क्यों दिया और संगठन से जुड़े सभी लोगों को एक ही चश्मे से क्यों देखा... आप किसी संगठन की पूरी तरह निंदा नहीं कर सकते।" सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर राहुल अपना बचाव करना चाहते हैं और खेद व्यक्त करने को तैयार नहीं हैं, तो बेहतर होगा कि वह मुकदमे का सामना करें।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अगस्त २०१६ में अपने बयान से पलट गए और सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उनका इरादा कभी भी पूरे आरएसएस पर मोहनदास (महात्मा) गांधी की हत्या का आरोप लगाने का नहीं था. कांग्रेस उपाध्यक्ष के वकील कपिल सिब्बल ने अदालत को बताया, "राहुल गांधी ने कभी भी आरएसएस को एक संस्था के रूप में इस अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया।" लेकिन इसके बाद भी संघ ने घोषित या अघोषित रूप से न तो राहुल गांधी के विरुद्ध कोई आधिकारिक वक्तव्य दिया और न ही उनके विरुद्ध कोई दुष्प्रचार किया.

संघ ने एक नहीं, तीन-तीन प्रतिबंध झेले, और ये सभी शक्तिशाली केंद्र सरकार द्वारा लगाये गए थे. 1948-49: साल 1948 में गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन कांग्रेस की सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया था. इसके पीछे मुख्य वजह यह माना जाता है कि गांधी का हत्यारा नाथूराम गोडसे संघ से जुड़ा था. 1949 में संघ पर से प्रतिबंध हटा. 1975-77: पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की सरकार ने आपातकाल के दौरान संघ पर प्रतिबंध लगा दिया था. उस समय संघ ने भूमिगत रहकर आंदोलन और विपक्षी दलों को अपना सहयोग दिया. 1977 में जनता पार्टी सरकार बनी तो संघ पर से प्रतिबंध हटा लिया गया. 1992-93: बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद नरसिंह राव सरकार ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया. अदालत ने साक्ष्य न मिलने पर कुछ ही समय बाद प्रतिबंध हटा दिया था.

नई दिल्ली के विज्ञान भवन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की व्याख्यानमाला '100 वर्ष की संघ यात्रा- नए क्षितिज' में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि आरएसएस कभी भी तीन बिन्दुओं पर समझौता नहीं कर सकता. संघ में सबकुछ बदल सकता है लेकिन ये तीन बातें उसकी जड़ है और ये कभी नहीं बदलेंगीं. पहली है, व्यक्ति निर्माण से समाज के आचरण में परिवर्तन संभव. दूसरी बात, पहले समाज को बदलना पड़ता है, तो व्यवस्था अपने आप ठीक हो जाती है. तीसरी अहम बात कि, हिंदुस्तान हिंदू राष्ट्र है. संघ व्यक्ति निर्माण, समाज सेवा और हिन्दुत्व की समावेशी विचारधारा को केंद्र में रखकर सतत प्रयास करता रहा है और जमीन पर कार्य करता रहा है. यही कारण है कि संघ ने उकसावे और राग-द्वेष जैसी भावनाओं से संगठन को दूर रहकर विश्व में एक सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर लिया है.

मैं संघ को एक लोकतान्त्रिक संगठन के रूप में देखता हूँ. संघ के पास अपार जनसमर्थन होने के बाद भी इसने सदैव संवैधानिक और लोकतान्त्रिक उपायों का आश्रय लिया है. इसने न तो नक्सलियों की तरह लोगों की हत्याएं कीं और कानून हाथ में लिया, और न ही किसी प्रकार के मीडिया दुष्प्रचार के द्वारा लोगों में भारत, इसकी परम्पराओं, इसके धर्म या संस्कृति को लेकर भ्रांत नैरेटिव खड़ा करने का प्रयास किया है. इसने न तो द्रमुक की भांति लोगों को भाषाई आधार पर लड़ाने का प्रयास किया है, और न ही हिंदुत्व की बात करने वाले एक अन्य संगठन शिवसेना (उद्धव) की भांति लोगों को क्षेत्रीय श्रेष्ठता के भाव के आधार पर उकसाने का कार्य किया है.

संघ जाति नहीं देखता. यह संघ की शाखा ही थी जिसने मुझे अपने नाम से जातिसूचक शब्द या सरनेम हटाने के लिए प्रेरित किया, और आज भी मैं जातिसूचक शब्द नाम से हटाने का प्रबल पक्षधर हूँ. भंगी कॉलोनी में राष्ट्रीय सेवक संघ के लगभग 500 सदस्यों को संबोधित करते हुए, गांधीजी ने कहा कि वे वर्षों पहले वर्धा में राष्ट्रीय सेवक संघ के शिविर में आए थे, जब संस्थापक श्री हेडगेवार जीवित थे। स्वर्गीय श्री जमनालाल बजाज उन्हें शिविर में ले गए थे और वे (गांधीजी) उनके अनुशासन, छुआछूत की पूर्ण अनुपस्थिति और कठोर सादगी से बहुत प्रभावित हुए थे। तब से यह संघ विकसित हुआ है। गांधीजी का मानना था कि सेवा और आत्म-बलिदान के आदर्श से प्रेरित कोई भी संगठन निश्चित रूप से मज़बूत होगा।“

आज कुछ लोग अपने को संघ का स्वयंसेवक कहते तो हैं लेकिन दुसरे लोगों के प्रति अपशब्दों या घृणा का प्रयोग करते हैं. संघ ऐसे लोगों को स्वयंसेवक नहीं कहता. वह तो “लक्ष्य तक पहुंचे बिना पथ में पथिक विश्राम कैसा” के गीत गाते हुए अपने लक्ष्य की ओर निरंतर कार्यरत कार्यकर्ताओं को ही स्वयंसेवक कहता है. जब महात्मा गांधी जी ने कोलकाता और दिल्ली से प्राप्त संघ के विरुद्ध शिकायतों पर गुरूजी से बात की तो गुरु जी ने एक बड़ी ईमानदार अभिव्यक्ति दी, “यद्यपि मैं संघ के प्रत्येक सदस्य के सही आचरण की गारंटी नहीं दे सकता, फिर भी संघ की नीति विशुद्ध रूप से हिंदुओं और हिंदू धर्म की सेवा है, और वह भी किसी और की कीमत पर नहीं। संघ आक्रमण में विश्वास नहीं करता है। वह अहिंसा में विश्वास नहीं करता है। उसने आत्मरक्षा की कला सिखाई। उसने कभी प्रतिशोध नहीं सिखाया।“

गुरूजी के इस वक्तव्य के आलोक में संघ को देखना समीचीन होगा. भारतीय सनातन परम्परा को एकतरफा अहिंसा से नपुंसक बनाने वाली नीति में संघ विश्वास नहीं रखता. संघ हिन्दू धर्म की सेवा किसी अन्य को मारकर नहीं करना चाहता. संघ प्रतिशोध में विश्वास नहीं करता है इसलिए संघ ने अपने ऊपर हो रहे निरंतर आघातों के बावजूद विरोधियों से भी संवाद स्थापित करने का प्रयास किया है जिसमें प्रणव मुखर्जी, राहुल गांधी और अब २०२५ में भारत के मुख्य न्यायाधीश गवई जी की माता जी हैं. अनेक विरोधी संघ के संवाद सत्रों में भाग लेने से मना कर देते हैं लेकिन सभी लोग इस बात को अब बेहतर समझते हैं कि संघ से घृणा की जा सकती है, लेकिन संघ के कार्यों और राष्ट्र के प्रति समर्पण की उपेक्षा नहीं की जा सकती है.

माधव कृष्ण, ०३.१०.२०२५, वृन्दावन, मथुरा






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