ऐ मेरी तनहाई ये जो अक्सर तू
मेरे साथ साथ ही रहती है ना
अब तुझे गले लगाकर
मंजिल के तरफ़
चलना है मुझे ही
ये जो नाज़ुक सी मेरी हसरतें
तपते हुए सहरा से, तेरे मौजों के किनारे
दौड़ी चली आती थीं ना
और नहीं दौड़ सकतीं ये
अब इनसे मिलने के वास्ते मचलना है तुझे ही।
स्वरचित कविता से
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