सोच रहा हूं किससे पूछूं
अमूर्त की अभिलाषा है भाषा
मूर्त की परिभाषा है भाषा
हम कह सकें समझा सकें
अंतःकरण को गा सकें
अभिव्यक्ति की प्रत्याशा है भाषा
परभाषा पहचान नहीं है
बातचीत की जान नहीं है
कौन राष्ट्र क्या बोल रहा है
किन शब्दों से मुख खोल रहा है
वर्तिका किन अक्षरों से तोल रहा है
पूछ रहे संपूर्ण जगत की
जिज्ञासा है भाषा
मैं मिला एक दिन पूछा उससे
तुम किस देश की भाषा हो हिंदी
चुप क्लान्त
बोल रहे भिन्न-भिन्न तुम सभी जन
तुम्हारी गढ़ भाषा क्या है
चुप नितांत
पूछा मैंने अपने जनक राष्ट्र से
तुम ही बोलो तुम्हारी भाषा क्या
चुप आद्यांत
सोच रहा हूं किससे पूछें ?
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