आज डाॅन "विकास दूबे" मीडिया के खबरों में छाया हुआ है ऐसे ही एक और #रंगबाज# था उस लड़के का नाम था 'श्रीप्रकाश शुक्ला'.
इन दोनो मे कई समानताएं है कुछ का आक़लन मैने किया है कुछ का आक़लन आप स्वत: लगा लेंगे खबरे जो रोज आ ही रही है !
दोनो उत्तर प्रदेश से है,
दोनों ब्राम्हण वर्ग से है,
दोनों ही पढ़ाई लिखाई में अच्छे रहे थे,
दोनों को हथियारों का शौक था,
दोनो के रहन-सहन और
जीवनशैली भी करीब-करीब एक जैसी ही लगती है,
दोनों इस अपराध और वोट बैंक की गंदी राजनीति की उपज है जो सुविधानुसार इस्तेमाल कीए गएं एक तो मार डाला गया अब दूसरे का न0. कभी भी लग सकता है ??
शुक्ला गोरखपुर के मामखोर गांव का रहने वाला था। उसके पिता मास्टरी करते थे. खुराक अच्छी थी तो श्रीप्रकाश पहलवानी में निकल गया. लोकल अखाड़ों में उसने अच्छा नाम कमाया. लेकिन पुलिस रिकॉर्ड में पहली बार नाम आया 20 साल की उमर में, साल था 1993 । राकेश तिवारी नाम के लफंगे ने उसकी बहन को देखकर सीटी बजा दी. श्रीप्रकाश ने उसे तत्काल मारडाला और पुलिस से बचने के लिए बैंकॉक भाग गया।
लौटा तो उसके मुंह में खून लग चुका था और उसे ज्यादा की दरकार थी। बिहार में मोकामा के सूरजभान में उसे गॉडफादर मिल गया। धीरे-धीरे उसने अपना एंपायर बिल्ड किया और यूपी, बिहार, दिल्ली, पश्चिम बंगाल और नेपाल में सारे गैरकानूनी धंधे करने लगा। उसने फिरौती के लिए किडनैपिंग, ड्रग्स और लॉटरी की तिकड़म से लेकर सुपारी किलिंग तक में हाथ डाल दिया. एक अंदाजे के मुताबिक, अपने हाथों से उसने करीब 20 लोगों की जानें लीं।
श्रीप्रकाश एक शान-ओ-शौकत वाली जिंदगी जी रहा था. लेकिन उसे और ज्यादा चाहिए था। उसे एहसास था कि यूपी में बड़े-बड़े माफिया हैं जो उसे नौसिखिये से ज्यादा नहीं समझेंगे। उन्हें ठोंक-पीट के ही अपने नीचे लाना होगा. उसने तय कर लिया कि वह एक-एक करके हर मठाधीश का काम लगाएगा।
शाही को बीच लखनऊ में भून दिया
यूपी में क्राइम की दुनिया की धुरी था। महाराजगंज के लक्ष्मीपुर का विधायक वीरेंद्र शाही। 1997 की शुरुआत में श्रीप्रकाश ने लखनऊ शहर में वीरेंद्र शाही को गोलियों से भून दिया। हल्ला हो गया की नए लड़के ने शाही को पेल दिया। पुराने माफियाओं की भी हवा टाइट हो गई। श्रीप्रकाश ने अपनी हिट लिस्ट में दूसरा नाम रखा कल्याण सरकार में कैबिनेट मंत्री हरिशंकर तिवारी का। जो चिल्लूपार विधानसभा सीट से 15 सालों से विधायक थे। जेल से चुनाव जीत चुके थे। श्रीप्रकाश ने अचानक तय किया कि चिल्लूपार की सीट उसे चाहिए । उसने बहुत कम समय में बहुत दुश्मन बना लिए।
यूपी कैबिनेट में हरिशंकर तिवारी को छोड़कर वह पूरी ब्राह्मण लॉबी के करीब था।
STF की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रभा द्विवेदी, अमरमणि त्रिपाठी, रमापति शास्त्री, मार्कंडेय चंद, जयनारायण तिवारी, सुंदर सिंह बघेल, शिवप्रताप शुक्ला, जितेंद्र कुमार जायसवाल, आरके चौधरी, मदन सिंह, अखिलेश सिंह और अष्टभुजा शुक्ला जैसे नेताओं से उसके रिश्ते थे ।
बिहार सरकार में बाहुबली मंत्री थे बृज बिहारी प्रसाद। UP के आखिरी छोर तक उनका सिक्का चलता था। श्रीप्रकाश शुक्ला ने पटना में उन्हें गोलियों से भून डाला. 13 जून 1998 को वह इंदिरा गांधी हॉस्पिटल के सामने वह अपनी अपनी लाल बत्ती कार से उतरे ही थे कि एके-47 से लैस 4 बदमाश उन्हें गोलियों से गुड आफ्टरनून कह के फरार हो गए।
इस कत्ल के साथ श्रीप्रकाश का मैसेज साफ था, कि रेलवे के ठेके को उसके अलावा कोई छू नहीं सकता. कई छुटभइयों बदमाशों को तो उसने दौड़ा दौड़ा कर मारा था।
बृजबिहारी के कत्ल का मामला अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि यूपी पुलिस को ऐसी खबर मिली कि उनके हाथ पांव फूल गए। श्रीप्रकाश शुक्ला ने यूपी के CM कल्याण सिंह की सुपारी ले ली थी । 6 करोड़ रुपये में सीएम की सुपारी लेने की खबर UP पुलिस की STF के लिए बम गिरने जैसी थी।
STF का अब एक ही मकसद था- श्रीप्रकाश शुक्ला, जिंदा या मुर्दा । सारे घोड़े दौड़ा दिए गए। अगस्त 1998 के आखिरी हफ्ते में पुलिस को अहम सुराग मिला। पता चला कि दिल्ली के वसंत कुंज में श्रीप्रकाश ने एक फ्लैट लिया है। उसका धंधा अंधेरे में ही परवान चढ़ता था. शाम का झुटपुटा होते ही वह अपने मोबाइल फोन से कॉल करने लगता।
मगर उससे एक बड़ी गलती हो गई. उसके पास 14 सिम कार्ड थे. लेकिन पता नहीं क्यों, जिंदगी के आखिरी हफ्ते में उसने एक ही कार्ड से बात की. इससे पुलिस को उसकी बातचीत सुनना और उस इलाके को खोजना आसान हो गया।
पुलिस को पता चला कि वह वसंत कुंज के अपने ठिकाने से निकलकर अपनी गर्लफ्रेंड से मिलने गाजियाबाद जाएगा । पुलिस ने उसकी वापसी के समय जाल बिछा दिया. दिल्ली-गाजियाबाद स्टेट हाइवे पर फोर्स लग गई.
दोपहर 1.50 बजे उसकी नीली सिएलो कार मोहननगर फ्लाइओवर के पास दिखी तो वहां पुलिस की 5 गाड़ियां तैनात थीं ।
स्टेट हाइवे से एक किलोमीटर हटकर उसे घेर लिया गया. उसने भी रिवॉल्वर निकाल ली. उसने 14 गोलियां दागीं तो पुलिस वालों ने 45. मिनटों में उसका और उसके साथियों का काम तमाम हो गया. तारीख थी 22 सितंबर 1998. सवा 2 बजे तक ऑपरेशन बजूका पूरा हो गया था।
शुक्ला का ऐसा अंत नहीं होता अगर वह बदमाशी और रंगबाजी के नशे में चूर न होता. वह राजनीति में उतरना चाहता था और मुमकिन है कि जल्दी ही कानून से पटरी बैठा लेता. उसकी मौत से कुछ महीनों पहले लोग मजाक में कहने लगे थे कि कहीं वह यूपी का मुख्यमंत्री न बन जाए।
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