शनिवार, 16 अगस्त 2025

भगवान श्रीकृष्ण- माधव कृष्ण

 भगवान श्रीकृष्ण: एको देवो देवकीपुत्र एव

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अनुग्रहार्थम् लोकानाम् विष्णु: लोकनमस्कृत:।
वसुदेवात् तु देवक्याम् प्रादुर्भूतो महायशा:।।
महाभारत के आदिपर्व में महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने कहा कि, वसुदेव और देवकी के माध्यम से भगवान विष्णु प्रकट हुए। वह लोक द्वारा नमस्कृत हैं, लोक उनके आगे झुकता है। लोक न ही धन के आगे झुकता है, न ही सत्ता के समक्ष। लोक सहज सरल समूह है, और वह सहजता से उसके समक्ष ही झुक सकता है जिसके हृदय की विशालता के आगे सब कुछ छोटा हो गया हो। लोक सबको स्वीकार भी नहीं करता। एक लंबे समय तक परखने के बाद लोक किसी को नमस्कार करता है। आबालब्रह्मपर्यन्त सभी श्रीकृष्ण को अपने निकट पाते हैं।
श्रीकृष्ण भगवान विष्णु हैं, अणु के रूप में सभी में व्याप्त हैं। विष्णु शब्द ही समानता का प्रतीक है। हम सभी के अंदर वह एकमेव परम सत्ता समान रूप से बैठी है। इसलिए किसी भी प्रकार का भेदभाव या श्रेष्ठता या हीनता की ग्रंथि रखने की आवश्यकता नहीं है। श्रीकृष्ण जिस सहजता से ग्वाल बालों के हाथों से खाना खाते हैं उसी सहजता से चक्रवर्ती सम्राट धृतराष्ट्र और बाद में युधिष्ठिर की राजसभा में सबके साथ बैठते हैं।
वह हमारे बीच इसीलिए आए ताकि लोक पर अनुग्रह कर सकें। वह लोक जिसका कभी अपना तंत्र नहीं रहा। उस लोक के लिए श्रीकृष्ण राजतंत्र से लड़ते रहे जो उनके अपने मामा का था, उन्होंने राजवैभव के लिए न ही दुराचारी कंस से हाथ मिलाया और न ही उस महान दिल्ली की सत्ता से जिसके दरबार में भीष्म जैसे अप्रतिम ज्ञानी और सूर्यपुत्र कर्ण जैसे सेनापति बैठते थे।
भगवान श्रीकृष्ण के हृदय में केवल सत्य, न्याय और धर्म के लिए संशयरहित प्रेम था। भारत के सम्राट धृतराष्ट्र द्वारा सर्वोत्तम विधि से स्वागत और पूजन के बाद भी वह उनके दरबार में एक स्त्री के बलात्कार के प्रयासों को भूल नहीं सके, उन्होंने पांच धर्मात्माओं के साथ छल को अपनी शांति वार्ता का मूल बिंदु बनाया, शांति के लिए अंतिम प्रयास करते समय उन्होंने उनके लिए सम्मानजनक अस्तित्व की मांग रखी।
क्या जाता था उनका? उनकी लड़ाई नहीं थी, न ही कंस से, न ही धृतराष्ट्र और उसके पुत्रों से, न ही बाणासुर या शिशुपाल या रुक्मी से। लेकिन रुक्मिणी ने एक पत्र लिखा कि उनका विवाह उनकी अनुमति और सहमति के बिना लंपट राजा शिशुपाल से हो रहा है, और भगवान श्रीकृष्ण अकेले दौड़ पड़ते हैं उन्हें मुक्त करने के लिए। सुदामा द्वार पर खड़े हैं। द्वारपालों ने हमेशा राजाओं तक जाने से लोक को रोका है। लोक की सुनता कौन है!
लेकिन जैसे ही उनके कानों में सुदामा के गिड़गिड़ाने की आवाज जाती है, वह दौड़ पड़ते हैं, रोते हैं, उनका अभ्यर्चन करते हैं। उनके राज्य में कोई इतना गरीब है, यह देख नहीं पाते और अपना सब कुछ उन्हें नयन नीचे करके दे देते हैं, इतने संकोच के साथ कि अपने घर जाने से पहले सुदामा को पता भी नहीं चलता कि मुझे वह सारी भौतिक समृद्धि मिल चुकी है जो एक सामान्य जीवन जीने से कई गुना अधिक है। यह है लोक अनुग्रह।
इसलिए वह महायश हैं, उनके जैसा यशस्वी कोई नहीं। चोर से लेकर सम्राट, बालक से लेकर वृद्ध, योगी से लेकर परमहंस सिद्ध, वह सभी को एकसमान प्रिय हैं। उन्हें देखकर कंस की दासी कुब्जा भी प्रेम से भर जाती है और सम्राटों का चंदन उन्हें लगा बैठती है, सब्जी और फल बेचने वाली गरीब वृद्धा भी प्रेम से भरकर अपनी पूरी टोकरी ही उनको सौंप देती है, और सम्राट के घर पली बढ़ी राजकुमारी रुक्मिणी उन्हें अपना सर्वस्व मान बैठती है।
अनादिनिधनो देव: स कर्ता स जगत: प्रभु:।
अव्यक्तमक्षरम् ब्रह्म प्रधानम् त्रिगुणात्मकम्।।
उनका आदि अंत नहीं है। होगा भी कैसे, ५५०० वर्षों से अधिक बीत गए, और आज भी उनके व्यक्तित्व की मिठास श्रीमद्भागवत पुराण, गर्ग संहिता और महाभारत जैसे ग्रंथों के माध्यम से हमें भक्ति और कर्त्तव्य के पावन पथ पर आमंत्रित करती रहती है, और उनके ज्ञान का एक अंश श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में संसार के सभी मनीषियों को एकसमान रूप से विस्मित करता रहता है। वह विष्णु हैं, हमारे भीतर और संसार के प्रत्येक जड़ चेतन में बैठे हैं, उनका आदि और अंत कैसे हो सकता है!
उनके प्रकाश से यह सब कुछ आलोकित है। वह द्युतिमान देव केवल प्रेम की आंखों से देखे जा सकते हैं। उन्हें महामना अर्जुन ने संशय की भौतिक आंखों से देखने का प्रयास किया और आँखें मलता रह गया। भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम में आँखें जब दिव्य हो जाती हैं, तब उनका एक अंश समझ में आता है। मुझे इसमें कोई आश्चर्य नहीं दिखता कि लंपट साहित्यकारों और मनुष्यों ने उनके इर्द गिर्द अपनी वासना को आध्यात्मिक रूप देने की कुचेष्टा में ऐसी कथाएं गढ़ डालीं जिनका भगवान से कोई संबंध नहीं है।
इसलिए वह अर्जुन जी से कहते हैं, दिव्यम् ददामि ते चक्षुं पश्य मे योगम् ऐश्वरम्। यह अनुभव भी कर पाना कि वह द्युतिमान देव कैसे हैं, बिना दिव्यता के संभव नहीं है। दिव्यता ही दिव्य को धारण कर सकती है, देख सकती है, सुन सकती है, अनुभव कर सकती है। इसलिए दिव्यता के लिए ऋषियों के मार्ग से चलना पड़ता है। "इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।"
श्रीमद्भगवद्गीता के १८वें अध्याय का ६७वां श्लोक उस दिव्यता को सुनने के लिए भी चार अर्हताएं निर्धारित करता है। यह ज्ञान तपस्या न करने वाले, भक्त न होने वाले, और आध्यात्मिक विषयों को सुनने की इच्छा न रखने वाले व्यक्ति को कभी नहीं बताना चाहिए। साथ ही, जो मेरी निंदा करता है, उसे भी यह ज्ञान नहीं बताना चाहिए। "राम चरित जे सुनत अघाहीं, रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं"
उनके साथ दिन और रात रहने वाले पुजारी गण भी उन्हें नहीं समझ सकते जब तक वे दिव्यता के लिए उनकी कृपा का प्रयास न करें। भगवान श्रीकृष्ण ही शस्त्रधारियों में भगवान श्रीराम हैं, उनके श्रीमद्भगवद्गीता के इस कथन के बाद भी ब्रजभूमि में रासलीला की चटखारे लेकर अनैतिक अनाध्यात्मिक व्याख्या करने वाले पंडितों ने गोस्वामी तुलसीदास जी का अपमान किया कि, आखिर रामभक्त को भी भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आना पड़ा।
गोस्वामी तुलसीदास भगवान के श्रीविग्रह के सामने बैठ गए और कहा,
कहाँ कहों छवि आपकी भले विराजे नाथ |
तुलसी मस्तक तब नबें, धनुष बाण लेऊ हाथ ||
लोक ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकृत होते देखा,
कित मुरली, कित चन्द्रिका, कित गोपियन के साथ |
अपने जन के कारने, श्री कृष्ण भये रघुनाथ ||
जहां कोई हठ नहीं, दुराग्रह नहीं, जिसने वज्रगंभीर वाणी में यह उद्घोष किया हो कि, जिस भाव से लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं उसी भाव के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पृथा पुत्र! सभी लोग जाने या अनजाने में मेरे मार्ग का ही अनुसरण करते हैं।, क्या उनके अनुयायियों में कभी किसी और महापुरुष या विचारधारा के लिए संकीर्णता और घृणा का भाव हो सकता है! उन महान भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष सभी संकीर्णताओं का नाश हो जाता है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4.11।।
वह भगवान श्रीकृष्ण संपूर्ण जगत के कर्ता और प्रभु हैं। जैसे प्रत्येक संतान के अंदर उसके माता, पिता, पितामह इत्यादि का अंश होता है, उसी प्रकार हम सभी के अंदर भगवान श्रीकृष्ण हैं, वह भी अंश रूप में नहीं, पूर्ण रूप से। इसीलिए वह विष्णु हैं। लोग बिग बैंग सिद्धांत के सार पर बहस करते रहें, लेकिन सभी के अंदर अवस्थित चैतन्य और जड़ता, के निमित्त और उपादान उनके अतिरिक्त और कोई नहीं है। उनका महान व्यक्तित्व हमें अपने अंदर के अज्ञान आवरण को हटाकर अपने विष्णुपद को प्रकाशित करने की प्रेरणा देता है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते॥
भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों को न उनकी पूर्णता पर संदेह है, और न ही अपनी पूर्णता पर। इसलिए निष्काम कर्मयोग के माध्यम से उनके भक्त अपनी अपूर्णता के भ्रम को समाप्त कर देते हैं। भगवान बुद्ध इसी तथ्य को समझकर कहते थे, न आत्मा है, न कोई और गति, सब कुछ पूर्ण है, पूर्णता ही उत्पन्न होती है और पूर्णता ही विलीन हो जाती है, कौन किसमें मिला, क्या बचा, क्या गया, यह चिंतन का विषय नहीं। सब कुछ शून्य है, वह सब कुछ जिसका हमने अस्तित्व माना था आज तक, वह सब कुछ उस परमब्रह्म के अतिरिक्त कुछ था नहीं नहीं।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।11.31।।
भगवान श्रीकृष्ण अव्यक्त हैं। उनके रहते हुए भी उन्हें न ही दुर्योधन समझ सका और न ही प्रजापिता ब्रह्मा। उनके नित्य सखा अर्जुन भी पूछते हैं कि, हे आदिपुरुष, मैं आपको विशेषरूप से जानना चाहता हूं। मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता। और वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण की प्रवृत्ति को कौन जान सकता है? जिसे भगवान श्रीकृष्ण चाहते हैं, वह ही उन्हें थोड़ा बहुत जान पाता है। उसके अतिरिक्त कौन उस अनन्त प्रकाश के समक्ष आँखें खोल सकता है। उसके आंखों की रक्षा के लिए ही प्रभु ने माया का जगत रच रखा है।
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन।।
चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी।।
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा।।
राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे।।
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा।।
वह अक्षर भी हैं। वह नष्ट नहीं होते। जब वह ब्रह्माण्ड के अणु अणु में व्याप्त हैं, तब वह नष्ट होकर भी अपने अव्यक्त स्वरूप में ही आ जाते हैं। फिर नष्ट कौन हुआ और जन्म किसने लिया? इसलिए उनकी लीला संवरण भी एक रहस्य है, एक ज्ञान है। इसलिए वह व्याध के प्राणघातक तीर लगने के बाद उसे अभयदान देते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की कीर्ति को भी कतिपय लोगों ने नष्ट करने का प्रयास किया लेकिन वह अक्षर रही। हमारे अंदर बैठा उनका अक्षर स्वरूप ही हमें निष्काम भाव से धन, स्त्री और यश की लालसा के बिना निरंतर कर्त्तव्य पथ पर चलने की प्रेरणा देता है क्योंकि यह अनंत जन्मों की यात्रा है, न हम नष्ट होंगे और न ही हमारा किया हुआ एक छोटा सा कल्याणकारी कर्म।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।।
आरम्भ का नाम अभिक्रम है इस कर्मयोगरूप मोक्षमार्ग में अभिक्रम का यानी प्रारम्भ का कृषि आदि की तरह नाश नहीं होता। जैसे ओला, अति वर्षा या सूखे में खेती का कोई भी प्रयास फ़लहीन हो जाता है, वैसे कर्मयोग के प्रारम्भ का फल अनैकान्तिक या संशययुक्त नहीं है। जैसे चिकित्सक की दवा का उल्टा असर भी हो सकता है और रोगी मर सकता है, वैसे चिकित्सादि की तरह इसमें प्रत्यवाय या विपरीत फल भी नहीं मिलता है। इस कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा सा भी अनुष्ठान या साधन भी जन्ममरणरूप महान् संसार के भय से रक्षा किया करता है।
अर्जुन जी जब पूछते हैं कि, हो सकता है लंबे समय तक धर्म का पालन करने वाला योगी भी भटक जाए, संसार का आकर्षण और प्रलोभन ही कुछ ऐसा है, तब क्या ऐसा योगी "न घर का और न घाट का" या "न माया मिली न राम" वाली स्थिति में दोनों तरफ से हानि का भागी नहीं बन जायेगा? तब अक्षर भगवान श्रीकृष्ण उनके संशय को अपने स्वरूप से ही नष्ट करते हुए कहते हैं, कल्याण की दृष्टि से किया जाने वाला कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता। ऊर्जा क्या कभी नष्ट होती है? ऐसा योगभ्रष्ट योगी पुनः जन्म लेता है, पुनः उसी मार्ग पर चलता है, और वहां से चलता है जहां तक की यात्रा वह पूरी कर चुका है, और अंततः पूर्णता प्राप्त करता है।
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38।।
क्या वह ब्रह्म के मार्ग में मोहित तथा आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न मेघ के समान दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है?
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
नहि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।।6.40।।
उस पुरुष का, न तो इस लोक में और न ही परलोक में ही नाश होता है; हे तात ! कोई भी शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है।।
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।6.43।।
वह पुरुष वहाँ पूर्व देह में प्राप्त किये गये ज्ञान से सम्पन्न होकर योगसंसिद्धि के लिए उससे भी अधिक प्रयत्न करता है।।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।6.44।।
उसी पूर्वाभ्यास के कारण वह अवश हुआ योग की ओर आकर्षित होता है। योग का जो केवल जिज्ञासु है वह शब्दब्रह्म का अतिक्रमण करता है।।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।6.45।।
प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों से (शनै: शनै:) सिद्ध होता हुआ, तब परम गति को प्राप्त होता है।।
क्या भगवान श्री कृष्ण के अक्षर या अविनाशी होने का कोई और प्रमाण चाहिए? जिनके रोम रोम से निकली इस महान अभयवाणी ने सदियों शताब्दियों से महावीर अर्जुन, भगवान गौतम बुद्ध, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, सैम मानेकशॉ जैसे महान कर्मयोगियों को बिना किसी भय और लोभ के अपने कर्त्तव्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी हो, जिनके कृपा प्रसाद से अनेक कर्मयोगी अपने नाम की परवाह न करते हुए छोटे से गांव या घाटी में लोककल्याण के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर देते हैं, जिनके अक्षर ब्रह्म रूप से प्रेरणा पाते हुए क्रांतिकारी फांसी के फंदों से झूल गए, उस अक्षर भगवान श्रीकृष्ण के अनंत अविनाशी स्वरूप का एक अंश समझना भी हमारा सौभाग्य होगा।
भगवान श्रीकृष्ण ही ब्रह्म हैं। ब्रह्म एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ सर्वोच्च सार्वभौमिक सिद्धांत है। इसे 'परम' या 'परम' वास्तविकता भी कहा जाता है। संस्कृत मूल "बृह"' से यह शब्द बना है, जिसका अर्थ है "बढ़ना या विस्तार करना"। प्रत्येक जीव में वह हैं क्योंकि प्रत्येक जीव ही अपना विस्तार करने में लगा है। इसलिए उसे क्षर ब्रह्म भी कहा जाता है, वह नष्ट होता तो है लेकिन अपना विस्तार करता है क्योंकि उसके अंदर ब्रह्म ही है। अपने जीवनकाल में भगवान श्रीकृष्ण सत्य, न्याय और धर्म के प्रसार में लगे रहे और सज्जन शक्तियों का विस्तार कर अपने ब्रह्मस्वरूप का परिचय देते रहे।
उनके विस्तार के विषय में कुछ कह सकना भी धृष्टता होगी। अर्जुन जी ने उनसे अपने स्वरूप और विभूतियों के विषय में विस्तार से बताने के लिए कहा। विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन। भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।10.18।। भगवान श्रीकृष्ण ने समन्वय और सर्वव्यापकता का अपना स्वरूप बताया, और बताने के बाद यह कहा कि, कितना बताया जाय, बस इतना समझ लो कि यह सब कुछ दृश्य और अदृश्य सभी लोक केवल मेरे एक अंश में अवस्थित हैं। अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।10.42।।
वह भगवान श्रीकृष्ण त्रिगुणमय प्रधान हैं। इस पर अब आगे उनकी कृपा से लिखने का प्रयास करूंगा।
(क्रमशः)
माधव कृष्ण, द प्रेसीडियम इंटरनेशनल स्कूल अष्टभुजी कॉलोनी बड़ी बाग लंका गाजीपुर, श्री गंगा आश्रम, १६ अगस्त २०२५, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी



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