बुधवार, 3 दिसंबर 2025

सेक्स, जूलियस रॉबर्ट ओपेनहाइमर और श्रीमदभगवदगीता -माधव कृष्ण

सेक्स, जूलियस रॉबर्ट ओपेनहाइमर और  श्रीमदभगवदगीता 
-माधव कृष्ण

जूलियस रॉबर्ट ओपेनहाइमर (२२ अप्रैल १९०४ - १८ फ़रवरी १९६७) एक सैद्धान्तिक भौतिकविद् एवं अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कली) में भौतिकी के प्राध्यापक थे. वह परमाणु बम के जनक के रूप में विख्यात हैं। वह द्वितीय विश्वयुद्ध के समय परमाणु बम के निर्माण के लिये आरम्भ की गयी मैनहट्टन परियोजना के वैज्ञानिक निदेशक थे। न्यू मैक्सिको में जब ट्रिनिटी टेस्ट हुआ और इनकी टीम ने पहला परमाणु परीक्षण किया तो उनके मुंह से श्रीमदभगवदगीता का एक श्लोक निकल पड़ा:
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद् भासस्तस्य महात्मनः॥११.१२॥
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।११.३२।।

इसका अनुवाद कुछ इस प्रकार है:
अगर आकाश में एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जायँ, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा-(विराट् रूप परमात्मा-) के प्रकाश के समान शायद ही हो।
श्रीभगवान् ने कहा -मैं सम्पूर्ण लोकोंका क्षय करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय मैं इन सब लोगोंका संहार करनेके लिये यहाँ आया हूँ। तुम्हारे प्रतिपक्षमें जो योद्धा लोग खड़े हैं, वे सब तुम्हारे युद्ध किये बिना भी जीवित नहीं रहेंगे।

स्पष्ट रूप से, ओपेनहाइमर विश्व के दार्शनिकों और विचारकों को समझने के लिए प्रयत्नशील रहते थे. वह संस्कृत सीखने का प्रयास भी कर रहे थे, और यह प्रकरण ही इस समय उनके ऊपर आधारित फिल्म ‘ओपेनहाइमर’ (निर्देशक: क्रिस्टोफर नोलन, अभिनेता : सिलियन मर्फी, २०२३) पर आये संकट का कारण बन गया है. इस फिल्म में गीता के श्लोक ११.३२ को वैज्ञानिक ओपेनहाइमर ने दो बार पढ़ा. पहली बार, जब उनकी प्रेमिका जीन उनके साथ सम्भोग कर रही हैं, वह बीच में अलग होती हैं, उनकी पुस्तकों में से एक पुस्तक निकलती हैं, उनके ऊपर आती हैं, पुस्तक खोलती हैं और उसका अर्थ पूछती है. ओपेनहाइमर कहते हैं, मैं काल हूँ, दुनियां का विनाशक. दूसरी बार, जब परमाणु परीक्षण सफलतापूर्वक हो जाता है, वह पुनः गीता का श्लोक पढ़ते हैं.

मैं पहले दिन यह शो देखने गया था. परमाणु बम के जनक के वैचारिक अंतर्द्वंद्व को दिखाती इस फिल्म की गंभीर विषय-वस्तु को देखते हुए बहुत भीड़ नहीं थी, थिएटर में लगभग १५ की संख्या थी. इसमें ओपेनहाइमर के तीन पक्षों को दिखाया गया है. पहला, परमाणु बम द्वारा अमेरिका को द्वितीय विश्व युद्ध में विजयी बनाने का प्रयास करने वाले एक देशभक्त का; दूसरा, अपनी यहूदी जाति के लोगों का नरसंहार करने वाले हिटलर के जर्मनी से प्रतिशोध लेने का स्वप्न देखने वाले एक जातिभक्त का. फिल्म में वह कहते हैं कि इस परमाणु बम की खोज पहले हो जाती तो इसे जर्मनी पर प्रयोग करते. 

तीसरा, जापान में परमाणु बम के बाद मारे गए लाखों लोगों का दर्द सुनकर अमेरिका की परमाणु प्रसार नीति का मुखर विरोध करने वाले मानवीय चेतना से सम्पन्न एक संवेदनशील मनुष्य का पक्ष. इस फिल्म का आधार इन तीनों पक्षों के बीच चल रहा अंतर्द्वन्द्व और मानवीय चेतना का भौतिकता के साथ संघर्ष है. इस कारण उनके ऊपर अमेरिकी सरकार द्वारा जांच बैठती है, यह देखने के लिए कि कहीं वह सोवियत सरकार के साथ तो नहीं खड़े हैं! यही इस फिल्म की पटकथा है.

सम्भोग के क्षणों में श्रीमदभगवद्गीता के श्लोक का एक अर्थ पढ़ने पर विवाद इतना बढ़ चुका है कि केंद्र सरकार ने इस दृश्य को हटाने का आदेश दे दिया है. किसी आनंद प्रकाश के फेसबुक वाल पर लिखे एक लम्बे चौड़े विरोध के बाद निष्कर्ष था, “अगर इस डायरेक्टर क्रिस्टोफर नोलन में हिम्मत है तो, बाइबल का कोई अंश या कुरान की कोई आयत इस  बेहूदे अश्लील रूप से अपनी फ़िल्मों में दिखाए। इतने जूते पड़ेंगे कि गिनना भूल जाएगा और अगर पाकिस्तान चला गया तो बगैर मुकदमे सूली पर चढ़ा दिया जाएगा।“

मुझे भारतीय दर्शन और संस्कृति से प्रेम है, लेकिन मैं अपने दर्शन और संस्कृति को इस्लामिक या अन्य कट्टरपंथियों के स्तर पर नहीं ले जाना चाहूँगा. मुझे मेरा धर्म और दर्शन उसकी तात्त्विक गाम्भीर्य, उदारता, समावेशी स्वरूप और शास्त्रार्थ की परम्परा के लिए पसंद है. मैं अपने दर्शन के पक्ष में शास्त्रार्थ करता हूँ क्योंकि मैं इसके विरोध में खड़े लोगों के छिछलेपन को देख सकता हूँ और उन्हें सही अर्थ और संदर्भ समझा सकता हूँ. लेकिन मैं यह निर्धारित नहीं करना चाहूंगा कि गीता और उपनिषद को पढ़ने का समय क्या हो! गीता और उपनिषद मनुष्य मात्र के लिए कहा गया शाश्वत ज्ञान है.

क्या हम यह कहना चाहते हैं कि श्रीकृष्ण जिन्हें वासुदेव कहते हैं, जिनका सर्वत्र वास है, जो समूची सृष्टि को एक अंश से  व्याप्त कर के भी पूर्ण और परे हैं, वह भगवान् श्रीकृष्ण जीवन के किसी क्षण में व्याप्त नहीं है? श्रीमद्भगवद्गीता युद्ध के क्षेत्र में कही गयी, लेकिन उसमें एक सूत्र आता है: प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः (१०.२८). आदि शंकराचार्य ने इस पर भाष्य लिखते हुए कहते हैं, प्रजनः प्रजनयिता अस्मि कंदर्पः कामः, प्रजा को उत्पन्न करने वाला कामदेव मैं हूँ. सृष्टि की सर्वाधिक शक्तिशाली काम ऊर्जा का स्रोत भी दैवीय है. 

इसलिए भारतीय दर्शन, धर्म और संस्कृति में सेक्स या सम्भोग या प्रजनन को अधर्म या पाप घोषित नहीं किया गया. इस पर चर्चा की गयी, इसके सूत्र दिए गए और इसका नियमन किया गया. यह अपलायनवाद ही सनातन धर्म है, भारतीय दर्शन का मूल है. यहाँ कुछ भी श्रीकृष्ण से अलग नहीं है. विश्व की प्रथम यौन संहिता कामसूत्र इसी भारतभूमि पर और इसी सनातन धर्म के अनुयायी द्वारा रची गयी. उसे हमने पथभ्रष्ट घोषित कर पत्थर नहीं मारे. हमने उन्हें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना करने के कारण महर्षि वात्स्यायन कहा.

वात्स्यायन ने कामसूत्र में मुख्यतया धर्म, अर्थ और काम की व्याख्या की है। उन्होने धर्म-अर्थ-काम को नमस्कार करते हुए ग्रन्थारम्भ किया है। धर्म, अर्थ और काम को 'त्रयी' कहा जाता है। वात्स्यायन का कहना है कि धर्म परमार्थ का सम्पादन करता है, इसलिए धर्म का बोध कराने वाले शास्त्र का होना आवश्यक है। अर्थ-सिद्धि के लिए तरह-तरह के उपाय करने पड़ते हैं इसलिए उन उपायों को बताने वाले अर्थशास्त्र की आवश्यकता पड़ती है और सम्भोग के पराधीन होने के कारण स्त्री और पुरुष को उस पराधीनता से बचने के लिए कामशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है। 

महर्षि के कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का शृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी सम्पदित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झाँकियाँ प्रस्तुत की हैं तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका ‘रतिमंजरी’ में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है. महाकवि जयदेव स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक थे और भक्त कवियों में अपूर्व सम्मानजनक स्थान रखते हैं.

भगवान श्रीकृष्ण ने एक अन्य सूत्र में धर्म के अविरोधी या धर्मानुकूल कामना को अपनी विभूति या स्वरूप बताया है: धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।७.११।। आदि शंकराचार्य ने इसका भाष्य लिखते हुए कहा, किञ्च धर्माविरुद्धः धर्मेण शास्त्रार्थेन अविरुद्धो यः प्राणिषु भूतेषु कामः यथा देहधारणमात्राद्यर्थः अशनपानादिविषयः स कामः अस्मि. प्राणियोंमें जो धर्म के अविरुद्ध शास्त्रानुकूल कामना है जैसे देहधारण मात्र के लिये खाने-पीने की इच्छा आदि. वह (इच्छारूप) काम भी मैं ही हूँ। इस पहले सूत्र के माध्यम से श्रीभगवान ने सेक्स या सम्भोग को हीन या हेय या निकृष्ट न मानते हुए, उसके उद्देश्य को स्पष्ट कर दिया: प्रजा उत्पत्ति. 

दूसरे सूत्र में उन्होंने कामनापरक गतिविधियों का सीमांकन कर दिया. सेक्स या सम्भोग अनियंत्रित, असामाजिक, लोकमत और वेदमत के विरुद्ध नहीं होना चाहिए. भारतीय दर्शन के आश्रम व्यवस्था का गृहस्थ मार्ग और तंत्र मार्ग, सम्भोग के मार्ग से गुजरते हुए स्वाभाविक और प्राकृतिक काम इच्छा के स्वतः समाप्त होने का मार्ग हैं. इसे ही दार्शनिक ओशो ने सम्भोग से समाधि कहा. विवाह की अभूतपूर्व भारतीय संस्था भी कामेच्छा को नियमित करते हुए सामाजिक जीवन में गतिशील और क्रियाशील बने रहने की प्रेरणा देती है.

इसलिए, यह तर्क कि, यदि ऐसा फिल्मांकन कुरआन या बाइबिल का होता, तो उन्हें सूली चढ़ा दिया गया होता, हिन्दुओं के लिए स्वीकार्य नहीं है. हम विमर्श वाली प्रजाति हैं. हमने सदियों से तर्क किया हैं, चिन्तन किया है और शास्त्रार्थ किया है और आज भी कर रहे हैं. मैं हमेशा गीता का चिन्तन करता रहता हूँ, और उन स्थानों पर और उन अवस्थाओं में भी मनन करता हूँ जिन्हें हम अशौच कहते हैं. गीता ने मेरा त्याग नहीं किया, लेकिन अनन्य चिन्तन के कारण गीता अद्भुत रूप से मेरे समक्ष अपने अर्थों को नए नए तरीकों से प्रकट करती रहती है.

यह कट्टरपंथी विरोध तब शोभा देता जब गीता के किसी अर्थ का अनर्थ किया गया होता या गीता जलाई जाती या गीता के महानायक भगवान श्रीकृष्ण के विद्रूपण का प्रयास होता. लेकिन यह विरोध इसलिए शोभा नहीं देता कि ओपेनहाइमर इसका एक सूत्र अपने इंटिमेट क्षणों में कहते हैं. हरि व्यापक सर्वत्र समाना. अंततः सर्वोत्कृष्ट श्रीकृष्ण के शब्दों में, यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।६.३०।। (जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।)

चर्चा तो इस बात की होनी चाहिए कि श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने और चिन्तन करने वालों में से हम लोग महाबाहु अर्जुन, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविन्द, स्वामी सहजानंद सरस्वती, टी एस इलियट, शोपेन्होवर, ओपेनहाइमर, ए पी जे अब्दुल कलाम, टैगोर बनने के कितने करीब हैं!

-माधव कृष्ण
२८.७.२३


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