स्वामी विवेकानंद और सनातन का विवेक
(आयाम संस्था के संयोजक वरिष्ठ साहित्यकार देवेंद्र आर्य जी के आमंत्रण पर गोरखपुर प्रेस क्लब में मेरा व्याख्यान)
सभा अध्यक्ष महोदय प्रोफेसर चितरंजन मिश्र जी, प्रोफेसर अवधदेश प्रधान जी, प्रोफेसर राजेश मल्ल जी, इस कार्यक्रम के संयोजक श्री देवेंद्र आर्य जी और यहां उपस्थित आप सभी आर्गियूमेंटेटिव इंडियंस!!
*संघी या भाजपाई या कम्युनिस्ट होने का ठप्पा: पहचान का संकट: हर विमर्शकार अभिशप्त हैं।*
ये एक प्रिसाइज टर्म होगा मुझे लग रहा है इस विमर्श के कार्यक्रम में जो लोग बैठे हैं उनको समझने के लिए। यह एक प्रश्न जो हमारे दिमाग में कौंध रहा है कि युवाओं के बीच में वामपंथ धूमिल क्यों पड़ रहा है? एक समय यही विचार सनातनियों के बीच में कौंध रहा था कि सनातन धर्म की परंपराएं क्यों धूमिल पड़ रही है? लोगों का विश्वास क्यों होता है? यह तो चलता रहेगा। कभी यहां धूल जमा होगी, कहीं वहां धूल जमा होगी। और मैं बड़ा शुक्रगुजार हूं अपने संचालक महोदय का कि इन्होंने बड़ी साफ गोई से कहा कि मेरा नाम आने पर कुछ लोगों ने फोन किया और कहा, ये संघी और भाजपाई है। सच बताऊ तो ये लेबलिंग मेरे लिए या संभवत: जो लोग भी खुलकर विमर्श करते हैं उनके लिए कुछ नया नहीं है। यदि मैं स्वयंसेवक हूं तो यह मेरी व्यक्तिगत वैचारिक निष्ठा है।
जब मैं समकालीन सोच का संपादक था डॉक्टर पी एन सिंह के साथ और गांधी विशेषांक निकाला। उस गांधी विशेषांक में संपादकीय में मैंने लिखा कि इस देश को गांधीवाद की आवश्यकता है और गांधीवाद लेफ्ट से, राइट से और अंबेडकरवाद से, तीनों से ऊपर है क्योंकि इसके पास तीनों के लिए स्पेस है और इन तीनों से अलग भी कुछ देने को है तो मुझसे बोला गया कि आप या तो कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो के हिसाब से बात करो या संपादकीय छोड़ दो। ठीक है? मैंने कहा कि मैं यहां पर स्वतंत्र विचार विमर्श करने आया हूं। मैंने छोड़ दिया। मुझे बोला गया, डॉक्टर पी एन सिंह कहे कि देखो हम लोगों को ऐसा मुझे सुनने में आया है कि तुम हमारे जड़ में बैठकर हमारे ही पेड़ में मट्ठा डाल रहे हो। मैंने कहा कि सर इस पर फिर बात करेंगे। ऐसा कुछ है नहीं। मैं स्तब्ध था कि अपने तर्क और विश्लेषण के लिए प्रख्यात कम्युनिस्ट या प्रगतिशील विचारधारा का जमीनी स्वरूप कितना संकीर्ण है!
2020 में भाजपा के प्रबुद्ध प्रकोष्ठ ने मुझे मोदी एट 20 के कार्यक्रम में जिला स्तरीय कार्यक्रम में बोलने के लिए बुलाया गया तो उसमें मैंने कहा कि आंतरिक सुरक्षा, आतंकवादरोधी नीति जिसे आप सीमा पर रोक दे रहे हो, विदेश नीति ये सारी चीजें बहुत अच्छी हैं लेकिन लोगों में रोजगार को लेकर एक भ्रम का माहौल बना हुआ है, अनिश्चितता का माहौल बना है, उच्च शिक्षा के प्रोफेसर को नहीं पता कि कब आप यूजीसी से अनुदान बंद करवा दोगे। बहुत सारे लोगों को नहीं पता है कि आने वाले दिनों में आप ऐसा और क्या कर दोगे जिससे कि समाज में भय का वातावरण बढ़े। गिरीश यादव जी बैठे थे, युवा कल्याण मंत्री थे। जब मैं बोल कर आया तो उन्होंने मुझे कहा कि, आप भाजपाई नहीं हैं क्या? मैंने कहा मैं प्रबुद्ध हूं और मेरा काम गुण दोष गिनाना है। उस दिन के बाद से मैं कभी गया नहीं। बाद में किसी भाजपा के वरिष्ठ कार्यकर्ता ने मुझे बोला कि हमारे सर्कल में यह चर्चित है कि आप कम्युनिस्ट है।
मुझे लगता है कि हर प्रबुद्ध या बुद्धिजीवी को इस पहचान के संकट से गुजरना होता है और यह पहचान का संकट ही एक विमर्शकार की पहचान है।
*विमर्श क्या है?*
महान अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन आर्गुमेंटेटिव इंडियंस में लिखते हैं कि भारत एक लंबे समय से बौद्धिक विश्लेषण, अन्वेषण, लंबी बहसों का केंद्र रहा है। यहां विचारों पर प्रश्न खड़ा करने की स्वतंत्रता थी और इस तर्क पूर्ण परंपरा ने भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं की रक्षा करने में बड़ी महती भूमिका निभाई। वह यह भी सुझाव देते हैं कि भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वभाव की अगर रक्षा करनी हो तो इस आर्गुमेंटेटिव ट्रेडिशन को जिंदा रखना पड़ेगा। इस विमर्श को जिंदा रखना होगा। लेकिन यह विमर्श है क्या? इस विमर्श से हमें मिलता क्या है? हम कहते हैं हमें स्वाधीनता चाहिए। स्वतंत्रता चाहिए। लेकिन हम अगर अपने हृदय से पूछे तो हम किसी को ना स्वतंत्रता देने के लिए तैयार है और ना हम स्वतंत्र होने के लिए तैयार है। हम खूंटे से बंधे हुए लोग हैं। हम दूसरी तरफ झांकना नहीं चाहते और हमारी तरफ अगर कोई झांकना चाहता है तो हम उसको झांकने नहीं देना चाहते।
विमर्श स्वतंत्रता देती है। और भारतीय संस्कृति के अनुसार, यह स्वतंत्रता है कैसी? भारतीय ज्ञान परंपरा में दोनों तरफ सेनाएं खड़ी है। युद्ध का बिगुल बज चुका है। युद्ध करें या ना करें इसके प्रॉस एंड कांस पर चर्चा होती है। और उस चर्चा में सब कुछ बताने के बाद श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं,
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63।।
आदि शंकर के भाष्य में विमर्श शब्द आया है। उन्होंने कहा विमर्श का अर्थ क्या है, विमर्शनम आलोचनम कृत्वा। और विमर्शनम का अर्थ क्या है? आलोचनम कृत्वा: हमारे लोचन से जो कुछ आ रहा है सामने सबको देख लो, अच्छी तरह से गुण दोष के साथ परख लो। मैंने जो कहा उसको मान नहीं लेना, अर्जुन! और कैसे यह विमर्श हो? कैसे एकतरफा आलोचना नहीं करना? अशेषण: ऐसे करना कि कुछ शेष ना रहे; और ऐसा विमर्श करने वाले को फिर वह स्वतंत्रता देते हैं जो भारतीय ज्ञान परंपरा का एक महत्वपूर्ण सूत्र है, जिसे हमने भुला दिया। अगर नहीं भुलाया होता तो इस भारत में शैव और वैष्णवों के बीच में फसाद नहीं हुए रहते। अगर हमने यह नहीं भुलाया होता तो वैष्णवों में बौद्धों में वैदिक धर्म के अनुयायियों में इतने तीखे संघर्ष नहीं होते। यदि यह आज भी जीवित रहता और भारत में आकर बस जाने वाले सेमेटिक धर्मों ने भी इसको आत्मसात कर लिया होता तो यहां पर हिंदू मुस्लिम वैमनस्य या जबरन धर्मान्तरण जैसी घटनाएं नहीं होतीं। श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, अब यह स्वतंत्रता है तुम्हें कि तुम जैसा जैसी इच्छा करते हो वैसा करो, युद्ध करो या मत करो, इस अशेष विमर्श के बाद। अब मेरी ओर से कोई दबाव नहीं है। यह बहुत बड़ी बात है।
*विमर्श स्वतंत्र करती है*
बड़ी बात इसलिए है क्योंकि उनके सामने एक ऐसा प्रसिद्ध राजपुरूष है जो योद्धा है, एक बड़ा धनी सेलिब्रिटी है जो उनका अनुयाई बनने के लिए तैयार है। वह कह रहा है,
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।2.7।
मैं आपका शिष्य हूं और आपकी शरण में हूं। तो बड़ी स्पष्ट बात है। हम सब तो यही चाहते हैं कि हमारे अंधभक्त बने, हमसे कोई प्रश्न न करे, हमारी स्थापनाओं और निष्कर्षों को स्वीकार करे, हमारी शरण में रहे। अंध अनुयाई बने। भाजपाई मीडिया हमारे लिए रहे या जो भी मीडिया पहले होती थी जो कांग्रेस के लिए काम करती थी वह रहे। हम तो यही चाहते हैं लेकिन यहां पर एक स्वतंत्रता है।
विमर्श वही स्वतंत्रता देने का काम करती है और विमर्श करने के बाद भी अगर हम स्वतंत्र नहीं हो पाए तो हमारे विमर्श में खोट है; और विमर्श में अगर खोट नहीं है तो नीयत में खोट है। नि:संदेह भारत शास्त्रार्थ की भूमि थी, चिरंतन काल से यहां वाद विवाद संवाद होते रहे। लेकिन यह भी दुखद है इतना सब होने के बावजूद हजार वर्षों से यह भारत अंधकार की भूमि रही। आक्रमण होते रहे। बार-बार दासत्व का दंश झेलना पड़ा इस देश को। लोगों ने सोचने का प्रयत्न नहीं किया कि जिस देश में धर्म की इतनी बड़ी-बड़ी सैद्धांतिकी बतियाई जाती हो उस देश के लोग क्या कुछ धनलोलुप क्रूर आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर सकते थे! कुछ तो खोट रही होगी कि आक्रमणकारी आते गए और हम हारते गए।
महर्षि दयानंद सरस्वती इसको दूसरी तरह से देखते हैं। वह महर्षि कहते हैं कि यह सब इसलिए हुआ है क्योंकि महाभारत काल में जितने भी सेलिब्रिटी थे, वारियर्स थे, फिलॉसफर्स थे सब मर गए, मारे गए। दयानंद सरस्वती एक अलग ही तरह के धर्मयोद्धा ऋषि है। महर्षि दयानंद सरस्वती की इस बात में एक मेरिट है कि जिस देश में फिलॉसोफर्स मर जाएंगे, वह स्वतंत्र नहीं रह सकता। और फिलॉसफर्स कौन है? जो रीजनिंग जानते हैं, वह भी इमानुएल कांट की भाषा में, वे दार्शनिक हैं। जो रीजनिंग नहीं करेंगे, रीजंड डिबेट नहीं करेंगे, जो इस जीवन की परिस्थितियों से संग्राम से जूझने के लिए आगे नहीं आएंगे, उनके देश का यही हश्र होगा। यह देश जातिवाद को झेल रहा है, सांप्रदायिक संकीर्णता को झेल रहा है। क्यों? क्योंकि यहां विमर्श होने बंद हो गए। स्वतंत्रता छिन गई।
*विमर्श का विवेक*
विमर्श होते तो रहे लेकिन जैसा मैंने कहा उस विमर्श में कुछ खोट रही होगी और ये विमर्श की खोट कैसी है? विमर्श सबके बूते की बात नहीं है। विमर्श के लिए भी एक विवेक चाहिए जिसको हम विमर्श का विवेक कह सकते हैं। विवेक जहां नहीं रहेगा वहां विमर्श का पथ भ्रांत रहेगा, लक्ष्यहीन रहेगा। एक छोटा सा उदाहरण है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं रामचरितमानस में। आज ये जो कुंभ हुआ है जिस कुंभ में न जाने सैकड़ों लोगों की जान गई या हजारों लोगों की कोई नहीं जानता, जिसका प्रदर्शन और प्रचार होता रहा विज्ञापन होता रहा वो कुंभ बना किस लिए था? क्या केवल स्नान के लिए बना था गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं: ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग। कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥ ये जो कुंभ होता है इस कुंभ में चार चीजें होती थी: पहला ब्रह्म का निरूपण: उस ब्रह्म को कैसे देखा जाए। बाद में आप जब स्वामी विवेकानंद को पढ़ोगे, श्रीमद् भगवत गीता पढ़ोगे तो आप देखोगे कि इस ब्रह्म का निरूपण करते करते स्वामी विवेकानंद और भारत के महानतम मनीषी उपनिषदों के ऋषि उस ब्रह्म को इस चलती फिरती जनता में देखने की वकालत करते इसमें बैठा है, सब में बैठा है।
गीता तो ये कहती है, समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29।।
तुम परम गति पाने की बात करो, लेकिन वह गंगा नहाने से नहीं मिलेगा, वेद पढ़ने से नहीं मिलेगा। न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः। एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।11.48।।
परम सत्य उग्र तप करने से नहीं मिलेगा, क्रियाएं करने से नहीं मिलेगा, वेद पढ़ने से नहीं मिलेगा, यज्ञ करने से नहीं मिलेगा, दान करने से नहीं मिलेगा। तब अगला प्रश्न यही है कि कैसे मिलेगा। वह ब्रह्म है कहां? तो कहते हैं सम पश्य सर्वत्र। चारों तरफ देखो। समवस्थितमीश्वरम। सब में समान रूप से बैठा हुआ है और हमने जिसको सनातन कहा उस सनातन की वायवी व्याख्या करने वाले लोगों ने कह दिया, ब्रह्म कहीं और है ब्राह्मण में अधिक है, शूद्र में कम है। ये सारी जो धूल जमा हो गई थी, कुंभ में इस पर चर्चा होती थी, ब्रह्म निरूपण धर्म विधि।
*धर्म और सनातन धर्म*
हम लोग आज जब धर्म की बात करते हैं विशेषकर सनातन धर्म की, तब आरोप लगता है कि इसमें तो कोई कर्मकांड नहीं है। ये कैसा धर्म? इसकी तो कोई अपनी एक किताब नहीं है। ये कैसा धर्म? हम भूल जाते हैं कि हम इस धर्म को सेमेटिक धर्मों के समानांतर नहीं खड़ा कर सकते। सेमेटिक धर्मों की अपनी परिभाषाएं हैं। मार्क्स की अपनी परिभाषा है। उस धर्म के अनुसार हो सकती है। यहां का जो धर्म है वो धर्म कुछ अलग है। जिस मनु को लोग गालियां देते हैं वह मनु कहता है कि, ये सब धर्म है ही नहीं।
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ जो इन दस का पालन कर रहा है वह धार्मिक है। यहै धर्म है यहां पर, भारत भूमि पर। यहां धर्म की गजब गजब विचित्र परिभाषाएं दी गई जिनका आधुनिक परिभाषाओं, सेमेंटिक या अब्राहमिक धर्मों की परिभाषाओं से कहीं मेल नहीं था। धर्म विधि का अर्थ है कि जो धर्म है देश काल परिस्थिति के अनुसार कैसे उसका पालन किया जाना चाहिए, इस पर चर्चा होती थी।
नंबर दो कुंभ में तीसरा तत्व विभाग कितने तत्व है? अच्छा, तत्व पर एक बड़ी सुंदर चर्चा आती है श्रीमद् भागवत पुराण में। दार्शनिक उद्धव कहता है भगवान कृष्ण से कि, सुना है सांख्य में 24 तत्व है लेकिन कुछ मनीषी कहते हैं 26 है, कुछ मनीषी कहते हैं तीन है, कुछ कहते हैं केवल एक है। सही क्या है? श्री कृष्ण कहते हैं कि आम खाओ गुठलियां न गिनो। जो 24 तत्व महर्षि कपिल की संख्या के अनुसार जाते हैं वो 24 देखते हैं। जो उसमें आत्मा और परमात्मा अलग से जोड़ देते हैं वो 26 देखते हैं। जो कहते हैं कि ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या वो केवल एक परमात्मा देखते हैं। वे कहते हैं एक ही तत्व है। श्री कृष्ण कहते हैं कि तुमको इससे मतलब नहीं होना चाहिए कि लोग क्या कहते हैं, कितने तत्व हैं। कहते हैं कि तुमको इससे मतलब होना चाहिए कि क्या तुम्हारे मस्तिष्क में बैठ रहा है और किस अनुसार तुम अपना जीवन सही दिशा में ले जा सकते हो।
*सनातन विवेक*
कितनी खुली छूट कितनी स्वतंत्रता!!! ईश्वर की भक्ति क्या है इस पर चर्चा होती है। और ये चर्चा तब तक असंभव है जब तक इस चर्चा में इस भक्ति की चर्चा में ज्ञान ना हो और वैराग्य ना हो। हमने भुला दिया कि आज हम जिस सनातन विवेक की बात कर रहे हैं उस विवेक का निकष होता है। याद रखिए विवेक वह शब्द है जिसको भारत की ज्ञान परंपरा भारतीय मनीषा ने बहुत कस के पकड़ा है। आज से नहीं बहुत सालों से। महर्षि पतंजलि अपने योग दर्शन में कहते हैं:
परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः। जो विवेकी व्यक्ति है जिसके पास विवेक है वह विवेकी व्यक्ति चारों तरफ जा के देख रहा है सबका फल तो दुख ही है। हमने बहुत सारी मिठाई खा ली उसका परिणाम क्या हो रहा है? डायबिटीज हो गया तो दुख ही परिणाम है। वो शुरू में ही संभल जा रहा है। तो विवेक का अर्थ महर्षि पतंजलि के अनुसार कि जब आप देखते हो कि दुख है जिसको भगवान गौतम बुद्ध कहते हैं संसार में दुख है तो वह ये देखता है कि जो हम कर रहे हैं अगर इसका परिणाम दुख है तो इसको कैसे करें कि दुख ना मिले।
इसको श्री कृष्ण कहते हैं भगवत गीता में, योग कर्मसु कौशलम। जुड़ो तो ऐसी कुशलता से जुड़ो कि दुख ना हो। तो आदि शंकर ने तो विवेक की महत्ता प्रतिपादित करने के लिए 580 श्लोकों का एक लंबा चौड़ा विवेक चूड़ामणि लिख डाला। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि दुनिया में एक महानतम हृदय हुआ है और एक महानतम मस्तिष्क हुआ है। जो महानतम ह्रदय हैं वो भगवान बुद्ध है जिन्होंने एक भेड की जान बचाने के लिए अपनी गर्दन बलि वेदी पर रख दी कि मुझे मारो लेकिन इस निरीह पशु को छोड़ दो।
और महानतम मस्तिष्क आदि शंकराचार्य है जिनके मस्तिष्क से ज्ञान की जो धारा फूटी उसने 32 वर्षों में जिसने पूरे भारत को आप्लावित कर दिया। उनके अनुयायियों का क्या हाल हुआ? जो आदि शंकर घूमते रहे इधर से उधर, भारत में चारों तरफ विमर्श करते रहे संवाद स्थापित करते रहे, उनके अनुयाई शंकराचार्य बनकर एक गद्दी पर पेट फुलाकर बैठे रहे। उन नामधारियों से इस भारत को न्यूनतम लाभ हुआ। उल्टे उन्होंने ब्रह्म ब्रह्म ब्रह्म करके इस देश में ऐसी अकर्मण्यता फैलाई कि देश रोगग्रस्त हो गया। स्वामी जी इस तरह से बात करते हैं, विश्लेषण करते है। सनातन विवेक जो दुख के उन्मूलन और पूर्ण स्वतंत्रता का पक्षधर रहा।
*सैद्धांतिक बनाम व्यावहारिक विवेक*
अगर बर्ट्रेंड रसेल की लैंग्वेज में मैं कहूं तो वह विवेक कभी भी कम्युनिटी वर्च्यू का रूप नहीं ले सका। इंडिविजुअली हम बहुत गुणवान हैं, बहुत विवेकवान है। लेकिन जब हम एज अ कम्युनिटी दृष्टिपात करते हैं तो समाज अंधविश्वासों और दोषों से भरा हुआ है। अभी हम लोग बैठे थे तो मैं संत ज्ञानेश्वर की बात कर रहा था। संत ज्ञानेश्वर के माता पिता को जल समाधि लेनी पड़ी ताकि उनके बच्चों की देखभाल हो सके, समाज उनको शिक्षा दे सके। इन घटनाओं के आलोक में कहना पड़ेगा कि सनातन विवेक सामुदायिक चेतना का रूप नहीं ले सका। इसलिए आवश्यक यह है कि आज जब हम यहां बैठे हैं तो हम इस बात पर भी चर्चा करें कि हम सनातन विवेक के किस रूप की बात कर रहे हैं। सनातन विवेक के दो रूप है। पहला व्यावहारिक सनातन विवेक जो जमीन पर दिखाई देता है। और इसका एक रूप ऐसा है कि इसने बाबा साहेब आंबेडकर जैसे महापुरुष को भी बड़ी पीड़ा पहुंचाई और उनके जैसे अनेक लोगों को ये पीड़ा पहुंचाता रहा है। और इस पीड़ा का ही यह परिणाम था कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जब जाति का विनाश लिखते हुए महात्मा गांधी से संवाद स्थापित करते हैं तो वह कहते हैं कि मैं मानता हूं कि महर्षि दयानंद सरस्वती की वर्ण व्यवस्था की वैदिक व्याख्या तर्क सम्मत है लेकिन फिर भी इसके लीगल इंप्लीमेंटेशन को लेकर और अन्य कारणों से मैं इसको पूरी तरह से खारिज करता हूं। वह अपने व्यावहारिक राजनैतिक कारणों से एकतरफा खारिज करते रहे वो और इस तरह से उन्होंने पूरे इस हिंदू धर्म को या पूरे सनातन विवेक को खारिज कर दिया।
दूसरी तरफ है सैद्धांतिक सनातन विवेक। वह सैद्धांतिक सनातन विवेक जिसके आधार पर महात्मा गांधी हरिजन के 18 जुलाई 1936 के अंक में लिखते हैं कि डॉक्टर अंबेडकर ने अपने भाषण में संदेहपूर्ण प्रामाणिकता और मूल्य तथा दलित हिंदुओं के शोचनीय मिथ्या निरूपण को जो धर्म के सही उदाहरण नहीं हैं चुनकर गंभीर गलती की है। हम भी शायद येही गलती करते हैं। क्या चैतन्य देव, ज्ञानदेव, तुकाराम, तिरुवल्लवर, रामकृष्ण परमहंस, राजा राममोहन रॉय, महर्षि देवेंद्र नाथ टैगोर, विवेकानंद व अन्य विद्वानों द्वारा सिखाया गया धर्म पूरी तरह से गुण रहित है? स्वामी महात्मा गांधी का निष्कर्ष था कि कोई धर्म उसके सबसे खराब उदाहरण से नहीं बल्कि सबसे अच्छे परिणाम से परखा जाना चाहिए, बेस्ट स्पेसिमन से।
*स्वामी विवेकानन्द का सनातन विवेक*
अब ये सारे नाम महत्वपूर्ण है जो महात्मा गांधी ने लिए। लेकिन आज जिस सियासत की आप बात कर रहे हो उस सियासत को अगर सनातन विवेक के नाम पर किसी को पकड़ना हो तो इन सारे नामों में से वह जाती है स्वामी विवेकानंद को पकड़ने। 1894 के एक पत्र में स्वामी विवेकानंद लिखते हैं, अपने गुरु भाइयों से कहते हैं: तुम लोग अग्नि की तरह चारों तरफ फैल जाओ और उस विराट की उपासना का प्रसार करो। लोगों के साथ विवाद करने से काम नहीं चलेगा। लोगों के साथ मिलकर काम करना पड़ेगा। हमारी जाति से अब कोई आशा नहीं है। यह स्वामी जी कह रहे हैं। हमारी जाति से अब कोई आशा नहीं है। किसी के मस्तिष्क में कोई मौलिक विचार ही नहीं है। एक पकड़ लिया तुमने विष्णु को, और केवल शंख चक्र, गधा, पद्म बस किए जा रहे हो। एक तुमने रामकृष्ण परमहंस को पकड़ लिया और तुम कहे जा रहे हो कि ठाकुर ने ये किया, ठाकुर ने वो किया, ठाकुर का ये चमत्कार। वो कह रहे मैं सुनने को तैयार हूं। लेकिन मुझे ये बताओ कि ठाकुर से और शंख चक्र गधा पद्म वाले से मिलकर उसको जानकर उसके बारे में पढ़कर तुमने क्या मौलिक किया? तुम समाज में उतर कर क्या कर रहे हो? घंटा दाई ओर बजना चाहिए या बाई ओर? चंदन माथे पर लगाना चाहिए या अन्यत्र? आरती दो बार करनी चाहिए या चार बार? इन प्रश्नों को लेकर जो दिन रात माथा पच्ची किया करते हैं वही सच में भाग्यहीन है और इसीलिए हम लोग श्रीहीन है और जूते के ठोकरों के आदि बन चुके हैं।
आलस्य और वैराग्य में आकाश पाताल का अंतर है। यदि भलाई चाहते हो तो घंटा आदि को गंगा जी में फेंक दो। साक्षात् भगवान नारायण की विराट और स्वराट की, मानव देहधारी प्रत्येक मनुष्य की पूजा में तत्पर हो जाओ। उसकी पूजा का अर्थ है उसकी सेवा। तुम लोगों में इन बातों को समझने तक की बुद्धि नहीं है। यह हमारे देश के लिए प्लेग के समान है और यह पूरा देश पागलों का अड्डा बन चुका है। जब उस समय यह बातें होती थी, वह नवजागरण का समय कहा जाता है, जब लोग सनातन से भाग रहे थे, जब श्री रामकृष्ण परम हंस का अवतरण हुआ था। उस समय लोग इन्हीं कारणों से भागते थे। स्वामी विवेकानंद इसी पर करारा प्रहार करते हैं और यकीन मानिए जिसने भी स्वामी विवेकानंद साहित्य के दस खंडों को पढ़ा है ये उनकी निर्मम आलोचना का केवल एक उदाहरण मात्र है। वे उस विचार के पक्षधर हैं जो सैद्धांतिक विवेक और व्यावहारिक विवेक के बीच में समन्वय स्थापित कर सके।
*आलोचना की अवधि बहुत छोटी होती है*
स्वामी विवेकानंद के इसी समन्वय से उनका प्रैक्टिकल वेदांत जन्म लेता है। व्यावहारिक वेदांत जमीन पर उतरने की बात करता है। इतनी निर्मम आलोचना के बाद प्रश्न आता है कि इसके बाद भी स्वामी विवेकानंद भारतीय लोकमानस और जनमानस के इतने प्रिय बने रहे। और आज की जो सियासत है जिसको आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी कहते हो उसके एक लोकनायक के रूप में भी वो खड़े हैं। उसके एक सैद्धांतिक नायक के रूप में भी खड़े हैं। क्यों? हमने एक गलती की और अभी एक छोटा सा मैं सूत्र देना चाहूंगा स्वामी विवेकानंद के माध्यम से जो हमारे माननीय देवेंद्र आर्य जी पूछ रहे थे कि युवाओं में आज वामपंथ धूमिल क्यों पड़ता जा रहा है? स्वामी विवेकानंद जब कर्म योग की बात करते हैं तो कर्म योग पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि आलोचना की अवधि बहुत छोटी होती है। आलोचना छोटे समय तक की जा सकती है। लंबे समय तक लगातार आप केवल आलोचना करोगे तो जनमानस पूछेगा काम क्या किया?
वामपंथ से गलती तो हुई है। आपने सनातन की व्यावहारिक गलतियों को दर्शाया। बड़ी अच्छी बात है। बहुत अच्छा काम किया। होना भी चाहिए। वही काम स्वामी जी करते हैं। वही काम महर्षि दयानंद करते हैं। लेकिन आप लगातार 60-70 सालों से यही करते आ रहे हैं। आपको क्या भारतीय दर्शन में और ज्ञान परंपरा में कुछ भी काम का नहीं मिला? आपको दुर्गा माता आर्यों की रखैल दिखती है। आपको महिषासुर मूल निवासियों का नेता दिखता है, द्रविड़ों का नेता दिखता है। सवाल तो उठेंगे। आपको शास्त्रों में सब गलत चीजें दिखाई देती है।
एक दिन मैं डॉक्टर पी एन सिंह के सामने बैठा हुआ था। देवेंद्र आर्य जी का एक बड़ा मजेदार कमेंट था बहुत पहले जब इन्होंने मेरी एक पुस्तक विचार सम्पुट पर लिखा था। इन्होने कहा था कि आप पी एन सिंह से टकराते भी हैं और उनके प्रशंसक भी है। हां ऐसा है। पी एन सिंह ने लिखा था, भजगोविंदम ने पूरे देश को अकर्मण्य बना दिया। मैंने उनसे बस यही पूछा कि, आपने भज गोविंदम पढ़ा है? उन्होंने कहा, यह केवल एक सूत्र है, इसमें पढ़ना क्या है। मैंने कहा कि, नहीं, यह पूरा का पूरा एक गीत है। तो वह बहुत हंसने के बाद कहे, हमको नहीं मालूम था। मैंने फिर कहा कि, इस गीत में आदि शंकर ने यह लिखा है, देयम दीन जनाय च वित्तम नेयम सज्जन संगे चित्तम। दीन जन, जितने भी हैं गरीब लोग हैं, उनको अपना पैसा दे दो और पैसा देकर फिर इधर आना मेरे पास। हर सनातन विवेक यही भाषा बोलता है, कबीर साहब ने भी यही कहा, जो घर फूंके अपना चलो हमारे साथ।
मैंने कहा कि, आपको नहीं लगता कि यह थोड़ा कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो के आसपास कुछ है। उन्होंने कहा कि, अब तो लिखा वापस नहीं लिया जा सकता है। तो स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि इसलिए आलोचना करो, निर्मम करो लेकिन छोटी अवधि तक करो और उसके बाद संरचनात्मक कार्यों में लग जाओ क्योंकि इस देश को इस भूमि को यहां के जितने भी निवासी हैं, हमारी जो वैश्विक दृष्टि है इसको संरचना की आवश्यकता है, इसको निर्माण की आवश्यकता है। विध्वंस बहुत थोड़े समय के लिए चलता है। जितनी सियासत है, जितने भी ये नेता लोग शीर्ष पर जाते है, आलोचना कर करके पहुंच तो जाते है लेकिन फिर उसके बाद उनको पता नहीं है कि अगला रास्ता क्या है, इसलिए वह गिर जाते हैं और सत्ता से च्युत हो जाते हैं।
बौद्ध धर्म की भारत में अवनति क्यों हुई इस पर स्वामी विवेकानंद एक स्थान पर लिखते हैं, भगवान बुद्ध जैसा महान करुणा सागर तो इस देश में हुआ ही नहीं, इतना बड़ा हृदय था उनका, मैं मस्तिष्क का भी पक्षधर हूं हृदय का भी पक्षधर हूं; लेकिन जब मस्तिष्क और हृदय में से पकड़ने की बात आएगी तो मैं हृदय को पकडूंगा क्योंकि इस दुनिया का व्यापार हृदय से चलता है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि भगवान बुद्ध जब तक थे तब तक तो सब ठीक था। लेकिन उनके जाते ही जाते उनके धर्म संघ ने उनके अनुयायियों ने शास्त्रार्थ शुरू कर दिए। महान संन्यासी बुद्ध का धर्म राज प्रसादों का धर्म बन गया, विलासिताओं का अड्डा बन गया। और तो और इस बौद्ध धर्म ने निषेध की पद्धति अपनाई।
जो हमारे उपनिषदों का ज्ञान कांड है जो नेति नेति करता है, उसी नेति नेति के तर्ज पर बौद्ध धर्म ने भी निषेध किया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन स्वामी विवेकानंद की इस स्थापना से सहमत हैं कि बौद्ध धर्म हिंदू धर्म का विकास मात्र है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि बौद्ध धर्म भी अपनी निषेधात्मक प्रवृत्ति में आ गया और अटक गया। जितनी वैदिक स्थापनाएं थी सही या गलत वह कहता रहा, यह गलत है यह गलत है यह गलत है। ठीक है सब गलत है। आप कहते हो सब शून्य है। बात भी सही है चलो शून्य है। लेकिन इसके बाद जो अगला प्रश्न उठता है कि जनमानस कितने सालों तक सुनेगा कि ये गलत है ये गलत है। उसको भी आधार चाहिए अपने मन को टिकाने के लिए। शून्य वह आधार नहीं हो सकता। तो उन्होंने पूछा कि वह कौन सा आधार होना चाहिए। वहां पर बौद्ध धर्म के उस समय के जो नेता थे वे जवाब नहीं दे सके और उसी समय आदि शंकर घुसते हैं। और
*संघर्षों के मूल में शब्दकोश हैं*
आदि शंकर कहते हैं, देखो भाई, ये सारी की सारी जो लड़ाई है ना, ये शब्दकोशों की लड़ाई है। टेक्निकल टर्म्स की लड़ाई है। जो शून्य है वही पूर्ण है। दूसरी तरफ आदि शंकर के घुसते ही पूरा माजरा बदल गया। जनता को आधार चाहिए था। जो चाहिए था वो मिलने लगा और इस तरह से आदि शंकर ने दिखा दिया कि बौद्ध धर्म कुछ नया नहीं दे रहा है। ये हमारी ही परंपरा की तार्किक निष्पत्ति है। यही सनातन विवेक था। इसलिए आलोचना तो करो लेकिन आलोचना करने के साथ संरचनात्मक कार्यों पर अपनी दृष्टि जमाओ। ये स्वामी विवेकानंद का कर्म योग का सूत्र है। स्वामी विवेकानंद ने इस जड़ सनातन विवेक का अंग बनना स्वीकार नहीं किया, लेकिन जमीन की गहराइयों में उतर कर सनातन विवेक की जड़ों को तलाशने का काम उन्होंने जरूर किया। स्वामी जी ने गतिशीलता पर बात की।
*सनातन विवेक जड़ता नहीं, गतिशीलता है*
27 जनवरी 1900 को पैसाडोना के शेक्सपियर क्लब में उन्होंने कहा और यह जरूरी है हम सबके लिए चाहे हम किसी भी परंपरा के हो, लुढ़कते हुए पत्थर में काई नहीं लगती। आप एक जगह पड़े हुए हो पत्थर बनकर तो काई जरूर लग जाएगी। अपने जीवन के गत 14 वर्षों में कभी भी मैं एक स्थान पर एक साथ एक माह से अधिक नहीं रहा, सदा सदा भ्रमण करता रहा। सनातन जड़ों की तलाश करते हुए उन्हें ये दिखाई पड़ा कि धन और शक्ति इस जाति के आदर्श कभी नहीं रहे। जिस भारत की हम बात कर रहे हैं यहां का एकमात्र आदर्श रहा है धर्म। यही भारत का आदर्श है और जिस दिन इस पर आघात होना शुरू होगा उस दिन भारत अपने केंद्रीय पहचान को समाप्त कर देगा। यह जाति समाप्त हो जाएगी। यही वह है जिस पर भक्त कवि मध्यकालीन भक्त कवि टिके रहे और उन्होंने पूरे भारतीय जनमानस को संभाले रखा। जब भी हम महान मस्तिष्कों के सनातन विवेक पर विचार करते हैं तो हम यह देखते हैं कि उन्होंने हृदय पक्ष को छोड़ दिया था। इसलिए आज हम जिस सनातन चेतना का भोंडा उभार देख रहे हैं वह केवल और केवल प्रतिक्रिया पर आधारित है।
1990 तक 1996 तक मैं यह मानता रहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों के नाम पर हमको डराने का प्रयास कर रही है। मैं मानता था। 1997 में मैं राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान राउंकेला का छात्र बना। मेरे सीनियर रैगिंग करने के लिए रात में घुसते थे और हम लोगों की बड़ी रैगिंग होती थी उस समय। तो एक सीनियर था कश्मीरी जिसका नाम था अंकुश कौल। अंकुश कौल ने मुझे दो चार थप्पड़ मारे, और जब मैं रोने लगा, तो उसने कहा कि रो मत यार। ये रैगिंग है। तेरी क्या रैगिंग हुई? जो मेरी रैगिंग हुई थी; हम लोग लाल मस्जिद के बगल में रहते थे। शाम को मस्जिद से अनाउंसमेंट हुआ कि कोल साहब, अगर कल दोपहर तक आप घाटी छोड़कर नहीं निकलोगे तो आपकी बहू और बेटी हमारे मस्जिद में पाई जाएंगी। उसने कहा कि सोच उस रेगिंग का समय! हम लोग रातों रात घाटी खाली करके भागे और हमें यह डर था कि कहीं हमारा पड़ोसी हमें देख ना ले, पकड़ ना ले। तब तक यह डर था। हमें यह डर झूठ लगता था कि नहीं ऐसा नहीं है। लेकिन आज ये जो राजनैतिक उभार है, ये जो प्रतिक्रिया देख रहे हो, ये जो सियासत देख रहे हो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी बहुत पहले से देख रहे थे, क्योंकि संघ कैडर वाला जमीनी संगठन है, वह जमीनी वास्तविकता दिखाने में सफल हो गए। ऑन रिकॉर्ड सफल हो गए कि इस्लामिक चेतना का जो यह काम चल रहा है, यह जो संघर्ष चल रहा है, इस संघर्ष के दायरे में तुम भी आओगे। आज नहीं तो कल आओगे।
हम हृदय पक्ष को छोड़ नहीं सकते। हमारा मस्तिष्क पक्ष कहता रहेगा सर्वत्र ब्रह्म दर्शन ब्रह्म सत्यम जगनमिथ्या, लेकिन जब जमीन पर बरसात का पानी पड़ता है और धूल लगती है तो बरसात का पानी पीने लायक नहीं रहता। कुछ यही इस सनातन विवेक के साथ भी हुआ है, अस्तित्व पर संकट आ रहा है जब इस तरह की लड़ाईया चल रही है, जब मास पलायन दिख रहा है, जब इस तरह के दंगे में फसाद दिख रहे हैं तो लोग जाकर अब उस विवेक उस व्यावहारिक विवेक के झंडे के नीचे एकजुट होने में सुरक्षित अनुभव कर रहे हैं जो सैद्धांतिक सनातन विवेक से कोसों दूर है। इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए। आज यह जाति इस अंधकार युग जो विगत 1000 सालों का अंधकार युग रहा है, जो आक्रमण होते रहे, उस आक्रमण से उस दासत्व के बोध से अपने को निजात दिलाने के लिए जातीय गौरव बोध के रूप में भी स्वामी विवेकानंद को देखती है। वैसे तो स्वामी विवेकानंद ने इसको नवजीवन दिया।
*आलोचना का विवेक और आलोच्य की भाषा*
एक बात सिर्फ यह है कि जब हम बाबा साहब अंबेडकर के लेखन की तरफ दृष्टि डालते हैं, जब हम राहुल सांकृत्यायन जी की वोल्गा से गंगा पढ़ते हैं और ऐसे ही बहुत सारे कम्युनिस्ट विचारों की पुस्तक पढ़ते हैं तो इन लोगों ने निश्चित तौर पर सनातन विवेक की जो विकृतियां है उस पर बड़ा निर्मम प्रहार किया। बड़ा करारा प्रहार किया। लेकिन क्योंकि वे सभी बुद्धिवादी थे। उन्होंने थोड़ी निरंकुशता बरती। निरंकुशता इस मामले में बरती कि स्वामी विवेकानंद कहते हैं एक स्थान पर कि, ज्ञानियों की निरंकुशता अज्ञानियों की निरंकुशता से कहीं अधिक प्रबल होती है। जब पंडित और ज्ञानवान अपने मतों को औरों पर लादना शुरू कर देते हैं तो वे बाधाओं और बंधनों को रचने के लिए ऐसे लाखों उपाय सोच लेते हैं जिसको तोड़ने की शक्ति अज्ञानियों में नहीं होती है। स्वामी विवेकानंद का यह एक वाक्य शास्त्रों की जड़ और वायवी व्याख्या करने वाले पंडितों पर भी प्रहार करता है और इसे एक तरफ खारिज कर देने वालों पर भी विवेकसम्मत प्रहार करता है। स्वामी विवेकानंद इन दो विपरीत ध्रुवों के बीच में खड़े हैं। वे कहते हैं आलोचना का विवेक क्या है? वह कहते हैं किसी राष्ट्र में यदि तुमको कुछ कार्य करना है तो उसी राष्ट्र की विधियों को अपनाना पड़ेगा। उस राष्ट्र की उस आदमी की भाषा को बोलना पड़ेगा। हम कहते हैं ना, भगवान गौतम बुद्ध सफल हुए। उन्होंने जन भाषा को अपनाया। धर्म के उन सनातन तत्वों का जब वह प्रचार करते हुए कहते हैं, एष धम्म सनातनम, तो वे वहीं पर जा रहे हैं। उन्ही की भाषा में प्रचार कर रहे हैं। प्रत्येक जाति के हृदय को स्पर्श करने के लिए तुमको उसी की भाषा में बोलना पड़ेगा। स्वामी विवेकानंद के पास आलोचना का अभूतपूर्व विवेक है। और केवल विवेक से काम नहीं चलेगा। स्वामी विवेकानंद के पास आलोच्य की भाषा भी है। इसलिए हम सभी लोग उनको अपने गौरव के रूप में देखते हैं। ये आलोच्य की भाषा कैसी होगी? एक छोटी सी कहानी है। आदि शंकर बनारस में गंगा स्नान करके निकलते हैं। मंदिर की तरफ जाते हैं, सामने चांडाल अपने परिवार पुत्रों के साथ आ जाता है। आदि शंकर कहते हैं गच्छ गच्छ। जाओ भाई यहां से जाओ। अद्वैत के प्रतिपादक है लेकिन अद्वैत उनके आचरण में नहीं उतरा है। जैसे बहुत सारे लोग कम्युनिस्ट हो सकते हैं लेकिन कम्युनिज्म हम में उतरा नहीं है। सनातन वाले हैं सनातन हमारे अंदर उतरा नहीं है। तो वो कहते गच्छ गच्छ। तो जो चांडाल था वह अगर जड़ सनातनी रहता तो बेचारा सिर नीचे करके निकल गया रहता। और वह अगर जड़ कम्युनिस्ट रहता तो लाल झंडा लेकर लड़ने के लिए कूद जाता और कहता तुम्हारा धर्म अफीम है, मैं इसको नहीं मानता।
लेकिन आदि शंकर के सामने वह चांडाल जाकर कहता है, अन्नामयात् अन्नमयम् अथवा चैतन्यात् चैतन्यम् , यतिवर? अरे यतिवर, सन्यासियों में श्रेष्ठ, आप किसको दूर जाने को कह रहे हो, ये शरीर जो अन्नमय है अथवा इसको संभालने और चलाने वाली जो चेतना है उस चैतन्य को? अपने चैतन्य से दूर जाने को कह रहे थे और एक बात समझ लेना कि ये जो चैतन्य है ना, इसकी हालत बिल्कुल वही है कि एक चांडाल के दरवाजे पर कीचड़ में जो पानी है उसमें भी उसका प्रतिबिंब सूर्य का जैसे बनता है वैसा ही प्रतिबिंब राजा के दरवाजे पर पड़े सोने के बर्तन में पड़ता है। आदि शंकर स्तब्ध रह गए और आदि शंकर केवल स्तब्ध ही नहीं रहे बल्कि वहीं पर उसके पैरों पर गिरकर उन्होंने कहा कि, तुम तो मेरे गुरु होने लायक हो और उन्होंने मनीषा पंचकम की रचना कर डाली। ये हमारा सनातन विवेक था और इस सनातन विवेक की जड़ता फिर से आगे आई कि उस पहले दलित महानायक को अपने देश के विमर्श का केंद्रीय तत्व केंद्रीय महापुरुष बनाने के स्थान पर हमने उसको भगवान शंकर का अवतार घोषित कर दिया और यही हम करते आए हैं। जिस जिस महापुरुष के आचरण को ज्ञान को अपने आचरण में उतारना चाहिए था अपने जीवन का हिस्सा बनाना चाहिए था उसको हमने अवतार बना दिया।
*सनातन विवेक का आदर्श स्वरूप*
स्वामी विवेकानंद को भी हम वीरेश्वर महादेव का अवतार मानते हैं। यह तो अच्छा हुआ कि स्वामी जी कह कर गए कि अगर मेरी फोटो और मूर्ति की पूजा की स्थापना की तो मैं भूत बनकर उनको डराऊंगा। मैं अपनी बात को समेटता हूं। उन्होंने कहा कि हमारे इस देह पर, जो आध्यात्मिकता और दार्शनिकता का हम प्रचार करने निकले हैं, इस पर बहुतेरे कुसंस्कार है, बहुतेरे धब्बे हैं, घाव है। और इन घावों को हमें काट कर चीर फाड़ करके निकालना होगा। ये कुसंस्कार क्या है? उस समय क्या थे? आज क्या है? ये हम लोगों को सोचना पड़ेगा। इन कुसस्कारों को देख पाना और उनको नष्ट कर पाने का साहस ही मेरे हिसाब से सनातन का विवेक है। उन्होंने विश्व के धर्म के रूप में और विश्व के भावी धर्म के रूप में वेदांत को देखा। ये सही है। लेकिन साथ में उन्होंने ये भी कहा कि इंडिविजुअलिटी को प्रश्नय देना पड़ेगा। हर इंडिविजुअल का अपना एक धर्म हो। इसके साथ ही वेदांत चल सकता है। गाजीपुर में मैं एक मुस्लिम माइनॉरिटी स्कूल में गया और मैंने कहा कि हम लोगों को स्वामी विवेकानंद से बात करनी चाहिए। तो वहां के जो प्रिंसिपल थे खालिद अमीर सर, उन्होंने कहा कि हिंदू फकीर को मैं अपने मुस्लिम स्कूल में क्यों डालू? मैंने कहा कि, क्योंकि उस हिंदू फकीर ने कहा है कि इस देश को अगर अच्छे से चलाना है तो इसको वेदांती मस्तिष्क चाहिए और मुसलमानों का शरीर चाहिए। वेदांती मस्तिष्क और इस्लामिक शरीर चाहिए। वो बड़े आश्चर्यचकित हुए। मैने उन्हें किताबें दी। फिर उनके साथ विवेकानंद पर दो तीन बार उनके स्कूल में सेमिनार हुआ। उस विवेकानंद को सही मायनो में प्रस्तुत करना उनके उनके मार्ग पर चलना हम लोगों की जिम्मेदारी भी है। क्योंकि आज जो सनातन विवेक जिस तरह से सामने आ रहा है, वह नहीं है जो स्वामी विवेकानंद चाहते थे।
वर्तमान भारत पर अपने व्याख्यान का उपसंहार करते हुए वह कहते हैं कि तुम मत भूलना कि नीच अज्ञानी दरिद्र चमार और मेहतर तुम्हारे रक्त और भाई हैं, बार-बार यह कहो कि अज्ञानी भारतवासी ज्ञानी भारतवासी ब्राह्मण भारतवासी चांडाल भारतवासी सब मेरे भाई हैं। मुझे मनुष्यत्व दो मेरी दुर्बलता को दूर करो। मुझे मनुष्य बनाओ। संसार की समस्त मदान्धता कट्टरता को दूर करने वाला जो सनातन विवेक है स्वामी विवेकानंद ने उसका परिचय अपने पहले भाषण में भी शिकागो में दे दिया उस समय समन्वय का मार्ग स्थापित करते हुए उन्होंने उसमें दो श्लोक डाले।
पहला श्लोक था शिव महिम्न स्तोत्र का,
त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति।
प्रभिन्न प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च॥
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां।
नृमाणेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥7॥
हे शिव ! आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग है – सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि। लोग अपनी रुचि के अनुसार कोई एक मार्ग को पसंद करते है। मगर आखिरकार ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समुद्र में जाकर मिलता है, वैसे ही, यह सभी मार्ग आप तक पहुंचाते हैं। सचमुच, किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है ॥
दूसरा श्लोक था गीता का, वह कहता है,
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4.11।।
वर्तमान मनुष्य जिस मार्ग से भी तुम चल रहे हो मेरे पास आ रहे हो, अलग-अलग रास्ते हैं सब जाएंगे एक ही तरफ जायेंगे।
ये जो मदान्धता फैल रही है कट्टरता फैल रही है अंधता फैल रही है इस युग में स्वामी विवेकानंद निसंदेह एक प्रकाश स्तंभ साबित होंगे और मुझे लगता है कि हम सभी यहां जितने भी विमर्श प्रेमी बैठे हैं हम चाहे जिस खूटे से भी बंधे हो समय आ गया है खूटा काटने का और उस अनंत आकाश में निर्बंध दौड़ लगाने का।
व्याख्यान को समाप्त करते हुए आप सभी से यही अनुरोध करना है कि सनातन विवेक को वास्तव में समझना हो और आपके पास समय नहीं हो तो स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो के विश्व धर्म संसद में दिए गए पहले भाषण को अवश्य पढ़ लें। यह एक सार्वभौम धर्म की आधारशिला है।
At the World’s Parliament of Religions, Chicago, 11 September 1893
Sisters and Brothers of America,
It fills my heart with joy unspeakable to rise in response to the warm and cordial welcome which you have given us. I thank you in the name of the most ancient order of monks in the world; I thank you in the name of the mother of religions; and I thank you in the name of the millions and millions of Hindu people of all classes and sects.
My thanks, also, to some of the speakers on this platform who, referring to the delegates from the Orient, have told you that these men from far-off nations may well claim the honour of bearing to different lands the idea of toleration. I am proud to belong to a religion which has taught the world both tolerance and universal acceptance. We believe not only in universal toleration, but we accept all religions as true. I am proud to belong to a nation which has sheltered the persecuted and the refugees of all religions and all nations of the earth. I am proud to tell you that we have gathered in our bosom the purest remnant of the Israelites, who came to southern India and took refuge with us in the very year in which their holy temple was shattered to pieces by Roman tyranny. I am proud to belong to the religion which has sheltered and is still fostering the remnant of the grand Zoroastrian nation. I will quote to you, brethren, a few lines from a hymn which I remember to have repeated from my earliest boyhood, which is every day repeated by millions of human beings: ‘As the different streams having their sources in different places all mingle their water in the sea, so, O Lord, the different paths which men take through different tendencies, various though they appear, crooked or straight, all lead to Thee.’
The present convention, which is one of the most august assemblies ever held, is in itself a vindication, a declaration to the world, of the wonderful doctrine preached in the Gita: ‘Whosoever comes to Me, through whatsoever form, I reach him; all men are struggling through paths which in the end lead to Me.’ Sectarianism, bigotry, and its horrible descendant, fanaticism, have long possessed this beautiful earth. They have filled the earth with violence, drenched it often and often with human blood, destroyed civilization, and sent whole nations to despair. Had it not been for these horrible demons, human society would be far more advanced than it is now. But their time is come; and I fervently hope that the bell that tolled this morning in honour of this convention may be the death-knell of all fanaticism, of all persecutions with the sword or with the pen, and of all uncharitable feelings between persons wending their way to the same goal.
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