परिचय:-
नाम - बीना राय
जन्म:- 27 /9/1981
निवास स्थान : गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
कार्य - शिक्षण व लेखन
जन्म स्थान : कोलकाता, पश्चिम बंगाल
अभिरूचियां : अध्ययन, अध्यापन व लेखन
प्रकाशित पुस्तक - 1-खुशनसीब हो गए
2-अंगारे गीले राख से
अन्य प्रकाशन - 18 साझा संकलन पुस्तकों में प्रकाशित
उद्देश्य: मानवता और साहित्य की सेवा
संप्रतियां : अंग्रेजी विषय की शिक्षिका के रूप में 20 वर्ष से कार्यरत एवं अपने जिला गाजीपुर महिला काव्य मंच की वर्तमान अध्यक्षा। काशी काव्य संगम मंच वाराणसी की उपाध्यक्षा।
सृजनात्मिका महिला काव्य मंच वाराणसी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष
साहित्य संस्थाओं से सम्मानित।
अखिल भारतीय अनुबंध साहित्यिक पुरस्कार से सम्मानित।
शांतिदूत साहित्य सम्मान 2021 से सम्मानित
साहित्य मनीषी सम्मान 2021 से सम्मानित
नारी शक्ति सम्मान 2023 से सम्मानित
नव उदित साहित्य सम्मान भोपाल 2023 से सम्मानित
काशी कजरी रत्न 2023 से सम्मानित
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इनकी कहानियां,लेख, लघुकथा व कविताएं प्रकाशित होती रहती हैं।
वर्तमान पता- रामनगर, वाराणसी
1- *मुकाम युद्ध के*
खून से सनी धरती
मानवता के धूप को
हर वक्त है तरसती
ऐसी ही कुछ उपलब्धियां
नाम हैं युद्ध के।
भूखमरी और बेरोज़गारी
लाचारी और महामारी
ऐसे ही कुछ खास
परिणाम हैं युद्ध के।
किसी के अहं और
ज़िद की सरपरस्ती
नफ़रतों के आग
हर दिशा में उगलती
ऐसे ही कुछ मुकाम हैं युद्ध के।
किया भारत ने बहुत बार
युद्ध का सामना स्वीकार
लेकिन कभी किसी देश पर
खुद से किया ना वार
क्यों कि हम समझते हैं
विनाशक अंजाम युद्ध के
युद्ध से हम डरते हैं
ऐसा ना तुम समझना
वसुधैव कुटुंबकम् है
हिंद का सलोना सपना
मगर साक्षी समय रहा है
और जानती है दुनिया
जब जंग दुश्मन चाहे
समझौते से ना माने
किस क़दर लिए हैं
हमने इंतिक़ाम युद्ध के
स्वरचित कविता
बीना राय
ग़ाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश
2- *दहेज मुक्त विवाह*
चलो ख़त्म मिलकर
दहेज का रिवाज़ हम करें
अंत से इस कुप्रथा के
सुखी समाज हम करें
माँ के गहने गिरवी रखे जाते
जिसे वो रखती थी सहेज कर
बिक जाता जमीन पिता का
करने को खर्चा इस दहेज पर
डूब जाते हैं कर्ज मे भाई कई
बहन को ससुराल भेजकर
इस अपयशी रिवाज के विरोध में
कुछ नेक काज हम करें
अंत से इस कुप्रथा के
सुखी समाज हम करें
वर हो चाहे जैसा पर
वधू हो सुंदर और सुसंस्कृत
मांगें बढ़ती ही जाती हैं
लोभ कर लेते वो अनियंत्रित
भूलकर रिश्तों की मधुरता
ध्यान करते हैं धन पर केंद्रित
ऐसे लोभियों को
कन्या सौंप कर
कैसे नाज़ हम करें
अंत से इस कुप्रथा के
सुखी समाज हम करें
जो बेटी बाबुल के आंगन मे
चिड़ियो सी चहचहाती है
ताने से दहेज के अक्सर
ससुराल मे घुट जाती है
कहींकहीं तो धन की
लोलुपता मे जिंदा
जला दि जाती है
ऐसी वेदनाओं के
जड़ को काट कर
नई आगाज़ हम करें
अंत से इस कुप्रथा के
सुखी समाज हम करें।
स्वरचित कविता
बीना राय
गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
3- *मर भी ना सके हम तिरे प्यार में*
बारहा गिरे, बारहा उठे
फिर बारहा झुके हम तिरे प्यार में
मर मर कर जिए,जीते जी मरे,
मर भी ना सके हम तिरे प्यार में
तेरे आखिरी दरस को हम मांगते रहे
चांद को निहार शब भर जागते रहे
तिश्नगी मिरी क्यों मिट ना सकी
क्यों तड़पते रहे हम तिरे प्यार में
मर भी ना सके हम तिरे प्यार में
तन्हाइयों के शोर में हम पागल हुए
कोई मरहम मिला ना जब घायल हुए
खुद से रूठकर खुद भागते हुए
खुद ही में छुपे हम तिरे प्यार में
मर भी ना सके हम तिरे प्यार मे
ये आलम सारा ही झूठा लगा
ग़म मेरा दिल को सिर्फ सच्चा लगा
ग़म रहनुमा अब ग़म ही खुदा
ग़म से रौशन हुए हम तिरे प्यार में
मर भी ना सके हम तिरे प्यार में
स्वरचित नज़्म
बीना राय
गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश
4- *थोड़ी सी तो जा संवर*
हर दफ़्'अ ऐतबार कर
जो तबाहियों में किया बसर
ऐ हयात खुद के वास्ते
थोड़ी सी तो जा संवर
ना रख किसी से भी हसद
फिदा हो तू तस्कीन पर
वो रब जो तेरे साथ है
किस बात का तुझे है डर ।
ऐ हयात खुद के वास्ते
थोड़ी सी तो जा संवर
तू राह में चलते हुए
मंजिल पे ही रख नज़र
तू धुन में अपनी मस्त हो
कर शान से पूरी सफ़र
ऐ हयात खुद के वास्ते
थोड़ी सी तो जा संवर
माना है मुश्किलें बहुत
आसान नहीं है ये डगर
तू चमक में कोशिशों की
सवांर ले मन का नगर।
ऐ हयात खुद के वास्ते
थोड़ी सी तो जा संवर।
हयात - जिंदगी
हसद- जलन
तस्कीन- शांति
स्वरचित नज़्म
बीना राय
गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश
5- जिसे पूजने लगोगे तुम ख़ुदा की तरह
बदलेगा रफ्ता-रफ्ता बेवफा की तरह।
तुम ही हो मेरी मंजिल वो कहेगा हर घड़ी
मिल गये तो छोड़ देगा रास्ता की तरह ।
दैरो-हरम की सीढ़ी रोने लगी है मुझपर
उसे मांगकर थके जब इक दुआ की तरह।
कल राह में मिला था चुपचाप से यूं गुज़रा
अरमानों की शजर से एक धुआं की तरह।
वो समंदर तुम्हें भी खारा बना के बहता
अच्छे भले हो मीठे एक दरिया की तरह।
बिखरी है टूटकर जो ये जिंदगी संवार लो
कुछ भी नहीं है *बीना* हौसला की तरह ।
स्वरचित
बीना राय
गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश
6- *फैसला आखिर कर ही लिया*
दिल ने उसकी कठोर से कठोर
बातों को भी बड़ी इत्मीनान से
सुनते ही रहना चाहा तो था
क्यों कि वो आवाज़ ही एक
ऐसी चीज थी उसकी जिसपर मर
मिटा था ये नाजुक दिल कभी
मगर रूह से उसकी मुसलसल
बेरूखी के तलवों से अपने वजूद का
कुचलना बर्दाश्त न हो सका और
इसने उसे भूल जाने का फैसला
आखिर कर ही लिया।
वैसे आसान नहीं होता दिल में
बस जाने वाले को दिल से निकालना
लेकिन कुछ जरूरी फैसले लेने में
बहुत देर करना भी ठीक नहीं होता।
शायद पाकीज़गी भरी मिरी मोहब्बत
और उसके वास्ते रोज रोज दुआओं में
हाथ उठाकर उसकी खैर मांगना
और बदले में उसके प्यार के
दो लब्ज़ों से मिरी रूह का महरूम होना
और सिसकते रहना, रब को भी मंजूर नहीं था।
मंजूर भी आखिर कैसे होता रब को
क्यों कि ये दिल रब की ही तरह
उसकी भी इबादत जो करने लगा था।
रब तो रब ठहरा और वो सिर्फ
रब का बनाया एक बंदा।
बाखुदा तो सिर्फ ख़ुदा का होना ही
अच्छा है उसके बनाए किसी बंदे का नहीं ।
ख़ैर ख़ुदा खैर करे अपने सारे
बंदों और बाखुदाओं की।
वो संभाल ही लेता है देर सबेर
अपने बनाए सारे बंदों और बाखुदाओं को भी।
*स्वरचित छंदमुक्त कविता*
बीना राय
गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश
7- *दुनिया में छा जाएंगे*
जीता वो जिद्दी
दुश्मन तो क्या
हम भी कहां अभी हारे हैं
जग ने हो मानी
हार भले पर
हमने कहां स्वीकारे हैं
फिर उठना है
फिर लड़ना है
आंखों में दुश्मन के गड़ना है
लिख लो कहीं तुम
लगने हैं बाकी
हिम्मत के मेरे जयकारे हैं
जग ने हो मानी हार भले पर
हमने कहां स्वीकारे हैं।
बीता बहारों का
मौसम तो क्या
पतझड़ में हम गाएंगे
अंधियारों में किस्मत के
अनुभव के दीप जलाएंगे
अब क्या चहकना
अब क्या बहकना
जज़्बातों में अब
क्या लुढ़कना
सांसों की सूरज
ढलने से पहले
दुनिया में में छा जाएंगे।
अंधियारों में किस्मत के
अनुभव के दीप जलाएंगे।
8-
*छंदमुक्त कविता*
*क्या मैं लिख पाऊंगी*
कभी कभी मैं अपनी ही किसी
तस्वीर को दिल से चूम लेती हूं
देती रहती हूं दुआ अक्सर
अपने खूबसूरत ख्वाबों से भरी
इन खूबसूरत आंखों को
जिसने निराश हो कर कभी
नहीं छोड़ा हौसला ख्वाबों को संजोने का
अदा करती रहती हूं शुकराना
घनघोर अजाबों से जीतने पर
अपने मेहरबां उस रब का जिसने भर दी
मेरे वजूद की झोली अपने रहमतों से यूं ही
एक बार दुआ में दोनों हाथ उठाने पर
निहारती हूं एक टक उन पदचिन्हों को
मेरे दुःख में निस्वार्थ भाव से
साथ देने वाले भाई-बहनों और दोस्तों के
और संकल्प भी लेती हूं उन्हीं पदचिन्हों
पर चलते रहने का जिसपर चलकर
बन जाना चाहती हूं काबिल मैं भी किसी
तन्हा और परेशान व्यक्ति के दुःख में
अपने सामर्थ्य भर साथ निभाने का
मैं कामना करती हूं मुसलसल
अपने हिस्से की जिंदगी को
जिंदादिली से जीकर
कुछ लाचार और भीगी आंखों से
गर्म नमी को मिटाकर
अपने चाहने वालों के दिलों में
खुद के भी अस्तित्व को कायम रखने की
अक्सर सींचती रहती हूं अपनी
तमाम हसरतों की क्यारियों को
ताकि वो मुश्किलों के पहाड़ में भी
खिला सकें फूल साहस, उम्मीद और समृद्धि के
रखती हूं सबसे बड़ी एक चाहत
और पूछती हूं अपने आप से
क्या मैं लिख पाऊंगी स्वयं पर बीती
एक ऐसी किताब जिसे पढ़कर
भीग जाएं आंखे मेरे बाद उन लोगों की भी
जो बात बात पर किसी निर्दोष को
बदनाम करने और उसके सुखी संसार में
अनायास ही अपने ईर्ष्या
की आग लगाने से बाज़ नहीं आते
क्या मैं लिख पाऊंगी एसी किताब?
स्वलिखित कविता
बीना राय
गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश
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