नाले मेरे रूह के
नाले मेरे रूह के
जा के तेरे रुह तक
हो के अनसुने
वापस मुझतक
हो जाते हैं फिर
क़ैद-ए - मकां
कहने को तो हैं
यादें तिलस्मी
पर यही देते हैं
आंखों को नमी
सहरा जब बन जाता है
दिल का मेरे ज़मीं
यादें ही भिगो देती हैं
बन कर इक रवां
नाले मेरे रूह के........
दिल में रही हरदम
इक हलचल
चलते रहे फिर भी
हम मुसलसल
हुआ ना कुबूल कोई
तेरे बाद दिल को
वजह-ए- तस्कीं यहां
नाले मेरे रूह के........
(नाले- चीख पुकार
क़ैदे मकां- मकान में बंद
सहरा- रेगिस्तान
रवां- झरना
मुसलसल- लगातार
वजह-ए-तस्कीं- सुकून का जरिया)
स्वरचित रचना
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