योगासन
(जिला योगासन स्पोर्ट्स एसोसिएशन द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में विशिष्ट अतिथि के रूप में मेरा सम्पूर्ण व्याख्यान)
-माधव कृष्ण
परम श्रद्धेय मुख्य अतिथि डॉ आनन्द सिंह जी, संघ के अध्यक्ष विशाल जी और सचिव दुर्गादत्त जी, विभिन्न विद्यालयों से अपने प्रतिभागी छात्रों के साथ आये आदरणीय गुरुजनवृन्द और प्रिय प्रतिभागियों,
कभी आपने सोचा है कि इंग्लैंड के प्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक सर आइज़ैक न्यूटन गुरुत्वाकर्षण के नियम को कैसे देख पाए? क्योंकि यह एक नियम है, इसलिए यह सदियों से अपने प्रभाव के साथ अमूर्त स्वरूप में अवस्थित था. एक समकालीन लेखक, विलियम स्तुकेले, सर आइजैक न्यूटन के साथ १५ अप्रैल १७२६ को केनसिंगटन में न्यूटन के साथ हुई बातचीत के आधार पर लिखते हैं, “जब वह ध्यान की मुद्रा में बैठे थे उसी समय एक सेब के गिरने के कारण ऐसा हुआ। यह सेब हमेशा भूमि के सापेक्ष लम्बवत में ही क्यों गिरता है? यह बगल में या ऊपर की ओर क्यों नहीं जाता है, बल्कि हमेशा पृथ्वी के केंद्र की ओर ही गिरता है।“ न्यूटन इस विचार के साथ जुड़ गये.
न्यूटन अपने प्रारम्भिक निष्कर्ष से ही संतुष्ट नहीं हो गए, प्रत्युत वह गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से जुड़ गए. उन्होंने अपने आप से कहा कि क्या ऐसा उतना ऊपर भी होगा जितना ऊपर चाँद है और यदि ऐसा है तो, यह उसकी गति को प्रभावित करेगा और संभवतया उसे उसकी कक्षा में बनाये रखेगा. उन्होंने अनुमान लगाया कि यही बल अन्य कक्षीय गति के लिए जिम्मेदार है और इसीलिए इसे सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नाम दे दिया। इस एक विचार से न्यूटन का जुड़ जाना, विज्ञान के इतिहास की एक महान घटना बन गया.
आज हम जिस योगासन प्रतियोगिता के लिए उपस्थित हैं, वह मात्र कुछ मांसपेशियों और हड्डियों के संचालन का कौशल नहीं है. उसके मूल में यही है – जुड़ जाना, कनेक्शन. हमारा अस्तित्त्व केवल हमारा नहीं है. हमारे परिवेश, जीव जंतुओं, मनुष्यों, चट्टानों, पूर्ववर्ती ऋषियों, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, जल, अग्नि इत्यादि सभी की हमारे अस्तित्त्व में एक महती भूमिका है. इन सभी के साथ जुड़ जाना और इनके प्रति संवेदनशील होना ही योग है. योग हमारे अस्तित्त्व को परिभाषित करता है.
जब मुझे कानपुर में विद्या प्रकाशन द्वारा इंटरमीडिएट की परीक्षा मे योग्यता सूची में छठवां स्थान प्राप्त करने के लिए सम्मानित किया गया, तो मुझसे भाषण देने का आग्रह किया गया. मैंने अपने भाषण में एक श्लोक कहा, “आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । ज्ञानं हि तेषामधिको विशेष: ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः ॥“ मनुष्य और पशु आहार, नींद, मैथुन और भय की क्रियाओं में एकसमान हैं. मनुष्यों में ज्ञान वह विशेष शक्ति है जिसके बिना मनुष्य पशु के समान है.
उस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि ने मुझसे पूछा, ज्ञान की अंतिम परिणति क्या है? फिर उन्होंने अपने-आप उत्तर दिया, संवेदनशीलता. योग हमें संवेदनशील बनाने का माध्यम है. जब हम जुड़ते हैं, तब हम संवेदनशील बनते हैं. एक छोटा सा उदाहरण लेते हैं. इतना बड़ा देश! इतनी समृद्ध संस्कृति! महापुरुषों और अवतारों की कृपा इस देश पर जितनी हुई, उतनी किसी और भूमि पर नहीं हुई. फिर भी हमने दासता का एक लंबा समय देखा. मुस्लिम, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, यूनानी, अंग्रेज और न जाने किन-किन लोगों ने हमें गुलाम बनाया और हम पर अत्याचार किया!
क्या हम दुर्बल थे? क्या हमारी संख्या उनसे कम थी? क्या हम उनसे कम उन्नत थे? इनमें से प्रत्येक का उत्तर है – नहीं.
हम प्रत्येक रूप से उन सभी आक्रमणकारियों से श्रेष्ठ थे लेकिन हममें एक कमी थी, हम आपस में युक्त नहीं थे. हम एक दूसरे से, अपने पड़ोसियों से, इस संस्कृति से, यहाँ की नदियों और पुरखों से, यहाँ के शास्त्रों से और मनीषियों से उस प्रकार से ‘युक्त’ नहीं थे जैसे हमें युक्त होना चाहिए था. प्रत्येक जाति गुलाम होने के पूर्व ही गुलाम बन जाती है, क्योंकि उसकी मानसिकता गुलामों की बन जाती है.
आज हम स्वतंत्र हैं, स्वतंत्रता का ७७वाँ पर्व मनाने जा रहे हैं, लेकिन हम आज भी दासत्व के बोध से मुक्त नहीं हो सके हैं. आज भी हम अपने धर्म, शास्त्र, संस्कृति, मनीषियों, अवतारों, भूमि, राष्ट्र से युक्त नहीं हो पा रहे हैं. हमें पचासों वर्षों से बताया जा रहा है कि, हम संपेरों के देश वाले थे, हमारे पास विज्ञान और दर्शन नहीं थे, हमारे पास इतिहास-बोध नहीं था, हम गरीब और आपस में लड़ने-झगड़ने वाले लोग थे, अस्पृश्यता, स्त्री-उत्पीड़न, दलित-उत्पीड़न इत्यादि हमारी संस्कृति के अंग थे. इसके उदाहरण देने के लिए हमारे महाकाव्यों में परिवर्तन किये गए, शम्बूक-वध और सीता परित्याग की कथाएँ प्रक्षिप्त की गयीं. हमारे पास संवेदना, ज्ञान, योग, शक्ति और श्रद्धा का अभाव था, इसलिए हम इन क्षेपकों का प्रतिवाद करने के स्थान पर शांत रहे. यह सहिष्णुता हमारी दुर्गुण बन चुकी है.
जब मैं इंडोनेशिया के बाली द्वीप में गया था, मैंने भीम, अर्जुन, गरुड़, सूर्य, भैरव इत्यादि की बड़ी-बड़ी मूर्त्तियां मुख्य स्थानों पर देखीं. मुझे आश्चर्य हुआ कि बाली के लोग आज भी इन महानायकों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं जबकि हमारे देश में इनको देखकर नयी पीढ़ी कहती है, “ये कूल नहीं हैं. ये काल्पनिक हैं.” एक दूकान में घूमते समय मैंने महिला दुकानदार से पूछा, ये कौन हैं? उसका उत्तर था, प्रभु क्रेस्ना और जेम्बावान्ती; ये एक चालाक शासक थे और हमारे देश पर राज्य करते थे. मैंने दूसरी मूर्ति की ओर संकेत किया और पूछा, ये कौन हैं? उसका उत्तर था, ये भारत के लवर-बॉय हैं, प्रभु राम.
मैंने हंसकर कहा, नहीं! भारत में लवर-बॉय तो श्रीकृष्ण माने जाते हैं; प्रभु श्रीराम तो गंभीर और मर्यादित अवतार हैं. उसने तर्क किया, नहीं! प्रभु श्रीराम ही मानव इतिहास में ऐसे अकेले पुरुष हुए हैं जिन्होंने अपनी पत्नी का अपहरण होने पर अपने भाई और कुछ भालू-बंदरों के साथ मिलकर एक विश्व-विजेता शासक रावण की पूरी लंका को धूल में मिला दिया. यह प्रेम की पराकाष्ठा है. उस महिला को प्रणाम करने पर जब मैं आगे बढ़ा, मुझे लगा कि वहां के लोग दासत्व के बोध से मुक्त हैं इसलिए वे अभी भी अपनी संस्कृति और सांस्कृतिक नायकों को विशुद्ध रूप में समझते हैं. उनके मस्तिष्क में किसी ने भगवान् श्रीराम और भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति विष नहीं भरा है.
वहां के लोग रात में झीलों और जंगलों में नहीं जाते हैं, न ही उनका गाइड हमें शाम ढलने के बाद वहां ले जाने के लिए तैयार हुआ. उसका कहना था कि, इनकी स्पिरिट अर्थात आत्मा परेशान होगी. परमात्मा को सर्वत्र देखने का आह्वान करते हमारे शास्त्र वहां के लोगों के जीवन में दिखे. इसलिए वहां की नदियाँ और जंगल साफ़ हैं. योग की अनेक परिभाषाएं हैं, जिनमें से एक परिभाषा योगेश्वर के रूप में विख्यात भगवान् श्रीकृष्ण ने दी है: जिसमें दुःखों के संयोगका ही वियोग है, उसीको 'योग' जानना चाहिये। तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्। योग की इससे अधिक सरल, प्रामाणिक और उपयोगी परिभाषा नहीं मिलती है. जिस किसी माध्यम से, दुखों से हमारा वियोग हो जाए, वही योग है.
हम वह हैं जिससे हम जुड़े हैं। मिट्टी, हवा, पानी, आकाश और आग जैसे तत्वों से हमारा सम्बन्ध हैं, इसलिए यह शरीर वही है। मन और बुद्धि के स्तर पर हम मन और बुद्धि हैं। इसलिए कहीं मन गया तो हम शरीर से अलग कहीं और चले जाते हैं। बुद्धि के स्तर पर भी यही सच है। नास्ति बुद्धि: अयुक्तस्य। जो जुड़ा ही नहीं है किसी से, उसकी बुद्धि ही नहीं हो सकती। बुद्धि के लिए योग चाहिए। इसलिए बुद्धि का प्रयोग करते मनुष्य भी पृष्ठभूमि में किसी न किसी से युक्त हैं। बुद्धि सामान्यतया मन का साथ देती है, मन इन्द्रियों को स्वाद, सुगंध, स्पर्श सुख, कर्णप्रिय शब्द और सौंदर्य के पीछे भगाता है, और हम आजीवन सुख दुख का अनुभव करते हुए खत्म हो जाते हैं।
इसलिए भारत के दार्शनिकों ने बुद्धि को बुद्धि से परे अनश्वर देही से संयुक्त करने का निर्देश दिया, जिसे आत्मा या शून्य या ईथर कहा गया। बुद्धि आत्मा के धर्म का पालन करते हुए मन को नियमित करे, मन इन्द्रियों पर लगाम लगाये ताकि इन्द्रियों का विषयों से जुड़ाव भी नियमित और संयमित हो सके। हमारा जुड़ना हमें परिभाषित करता है। सांसारिक स्तर पर यह जुड़ना कुसंग या सत्संग बन जाता है, कम से कम भारत की आध्यात्मिक भूमि पर सत्संग और कुसंग के परिणामों के विवेचना की आवश्यकता नहीं।
भारत की दार्शनिक परम्परा में यह बड़ा प्रश्न है कि हमारा योग किससे हो, कैसे हो! जुड़ने के विविध तरीके खोजे गए, जुड़ने के लिए उचित पात्र और विषय की खोज की गई। इसलिए भारत भूमि द्वारा सम्पूर्ण विश्व को योग एक अनूठा दान है। जब विश्व क्या प्रकृति क्या मनुष्य, सभी के अंधाधुंध दोहन में लगा हुआ है! कैसे हमारी स्वार्थ सिद्धि हो! भले पर्यावरण, मनुष्य, पशु, पक्षी जीवित रहें अथवा नहीं! तब योग शब्द की महत्ता और बढ़ जाती है। प्रगति, विकास, वैभव, स्वास्थ्य, स्वाद, सुख या सत्ता मनुष्यता, जीवन या पर्यावरण की कीमत पर नहीं।
इसलिए योग एक व्यापक अर्थ में प्रयोग किया गया। हम जुड़ सकें, सबसे, आस पास, समर्थक विरोधी सबसे। पश्चिमी योगी जीसस क्राइस्ट यही कहते हैं जब वह कहते हैं कि तुम परमात्मा को क्या खाक प्रेम करोगे जिसे तुमने देखा नहीं, यदि तुम अपने पड़ोसी से प्रेम नहीं कर सके जिसे तुम रोज देखते हो। वह भी इस योग की संवेदना को ही अपने शब्दों में व्यक्त कर रहे।
ऐसा नहीं कि योग सोकर उठे और हो जायेगा। अभ्यास और वैराग्य की आवश्यकता है। अनेक विघ्न हैं, क्लेश हैं इस मार्ग पर। अभ्यासवैराग्याभ्यां तत निरोध:। अभ्यास करना होगा, वैराग्य अपनाना होगा। आसान नहीं है कि एक अनपढ़ या छिछला अध्ययन किया हुआ व्यक्ति भारतीय दर्शन की अनर्गल व्याख्या करे और आप उससे जुड़ पाएं। परन्तु सम्वाद स्थापित करने के लिए उपेक्षा और करुणा के यौगिक सिद्धांतों का पालन करते हुए क्रोध से वैराग्य और सम्वाद का अभ्यास करना होगा।
भारतीय संविधान में वर्णित समता और सामाजिक न्याय, हजारों साल पहले ऋषियों ने समत्व योग के नाम से परिभाषित कर दिया था। इसी का एक अन्य रूप ज्ञानयोग के रूप में सामने आया जिसमें केवल मनुष्य ही नहीं पेड़ पौधे कीड़े हाथी कुत्ते और गाय में भी एक तत्त्व को देखने का अनुशासन दिया गया।
इसलिए दार्शनिकों ने अभ्यासयोग और संन्यासयोग की भी विवेचना की। योग का क्षेत्र अद्भुत है। योग एक अनुशासन है। यह २४ घंटे आजीवन चलने वाला कार्य है। आज का दिवस हमें योग के विविध आयामों की तरफ आकृष्ट तो करता ही है, हमें अपने संस्कृति के इस महान तत्व को आत्मसात करने की प्रेरणा भी देता है, साथ ही उन तत्वों से सावधान रहने की प्रेरणा भी देता है जो आज भी आस्तीन के सांपों की तरह हमें सँपेरों के देश और संस्कृति वाला सिद्ध करने में लगे रहते हैं। उन्हें सिर्फ इतना ही कहना है, भाई हमारा दर्शन पढ़ लो।
आज आप सभी जिन योगासनों का अभ्यास कर उनकी प्रतियोगिता में सम्मिलित हुए हैं, वे आसन अष्टांग मार्ग की तीसरी सीढ़ी हैं. यदि आप सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य जैसे सार्वभौम महाव्रतों का नैष्ठिक पालन नहीं करते हैं, आप आसन सिद्ध नहीं कर सकते. योग एक वैज्ञानिक सिद्धांत है. यदि आप पवित्रता, संतोष, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान, तप जैसे पांच नियमों का पालन नहीं करते, योगासन आपको लाभ नहीं पहुंचाएंगे.
आसन का शाब्दिक अर्थ है - संस्कृत शब्दकोष के अनुसार आसनम् (नपुं.) - आस् (धातु) +ल्युट (प्रत्यय) । जिसके विभिन्न अर्थ हैं जैसे - 1. बैठना, 2. बैठने का आधार, 3. बैठने की विशेष प्रक्रिया, 4. बैठ जाना इत्यादि। गोरक्षनाथादि द्वारा प्रवर्तित षडंग-योग (छः अंगों वाला योग) में आसन का स्थान प्रथम है। चित्त की स्थिरता, शरीर एवं उसके अंगों की दृढ़ता और कायिक सुख के लिए इस क्रिया का विधान मिलता है। विभिन्न ग्रन्थों में आसन के लक्षण ये दिए गए हैं- उच्च स्वास्थ्य की प्राप्ति, शरीर के अंगों की दृढ़ता, प्राणायामादि उत्तरवर्ती साधनक्रमों में सहायता, चित्तस्थिरता, शारीरिक एवं मानसिक सुख दायी आदि। पतंजलि ने मन की स्थिरता और सुख को लक्षणों के रूप में माना. शरीर की स्थिति विशेष जिसमें शरीर बिना हिले- डुले स्थिर व सुखपूर्वक देर तक बैठा रह सकता है, उस अवस्था को आसन कहते हैं । आसन करते समय शारीरिक गतिविधियों या चेष्टाओं को सहज प्रयत्न द्वारा शिथिल या रोक देने से और अनन्त (आकाश या परमात्मा) में सहज ध्यान लगाने से साधक के आसन की सिद्धि हो जाती है । आसन के सिद्ध हो जाने पर साधक को सर्दी- गर्मी, भूख- प्यास, लाभ- हानि आदि द्वन्द्व आघात अर्थात कष्ट उत्पन्न नहीं करते हैं ।
आशा है, आप सभी इन बातों का ध्यान रखेंगे, और याद रखेंगे कि योग केवल पढ़ने का नहीं, अभ्यास का नाम है। धन्यवाद.
-माधव कृष्ण
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