सोमवार, 28 अगस्त 2023

हम सुधरेंगे जग सुथरेगा कहते-सुनते आए हैं रचना --कुमार शैलेन्द्र

 हम सुधरेंगे

जग सुथरेगा,
कहते-सुनते आए हैं ।
दिन बहुरेंगे
फूल खिलेंगे,
आँगन चन्द्रकलाएँ हैं।
करने की आपाधापी में
जीना ही हम भूल गये,
भ्रम की अंध सुरगों में हम
काँटे बनकर झूल गये,
फूलों की नन्हीं किलकारी,
नव दुःस्वप्न व्यथाएँ हैं ।।
कब किसको कितना क्या देना
रत्ती भर यह भान नहीं,
शक्ति स्रोत धरती आँचल का
किञ्चित भी सम्मान नहीं,
सदियों से उर में जिसके,
स्वर्णिम आभाएँ हैं ।।
कोल्हू के बैलों-सा हम
सुधियों के सैकत पेर चुके,
तेल निकलता नहीं देख हम
रक्तिम नयन तरेर चुके,
चूके बादल- झंझा ने,
बिजली बरसाये हैं ।।
सौदागर वैभवी तृषित मन
ठेंगा सूरज को दिखलाए,
दहन हो रही हवनकुण्ड में
संचित जीवन प्रण समिधाएँ ,
बाँझ हो रहा सच ज़मीन का,
दहकी अग्नि -कथाएँ हैं ।।






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