रविवार, 26 फ़रवरी 2023

सागर पर सेतु निर्माण के समय- प्रभु राम और गिलहरियों की अद्भुत कहानी।

सागर पर सेतु निर्माण के समय
सभी गिलहरियां अपने मुंह में मिट्टियां भरकर लाती थीं और पत्थरों के बीच उनको भर देती थीं। इस दौरान उन्हें वानरों के पैरों के बीच से होकर गुजरना होता था। वानर भी इन गिलहरियों से तंग आ चुके थे। क्योंकि उन्हें भी गिलहरी को बचाने हुए निकलना होता था लेकिन वानरों को यह नहीं मालूम था कि ये गिलहरियां यहां वहां क्यों दौड़ रही है। तभी एक वानर ने उस पर चिल्लाते हुए कहा कि तुम इधर-उधर क्यों भाग रही हो। तुम हमें काम नहीं करने दे रही।
तभी उनमें से एक वानर ने गुस्से में आकर एक गिलहरी को उठाया और उसे हवा में उछाल कर फेंक दिया। हवा में उड़ती हुई गिलहरी भगवान का नाम लेती हुई सीधा श्रीराम के हाथों में ही जाकर गिरी। प्रभु राम ने स्वयं उसे गिरने से बचाया था। वह जैसे ही उनके हाथों में जाकर गिरी और उसने आंखें खोलकर देखा, तो प्रभु श्रीराम को देखते ही वह खुश हो गई। उसने श्रीराम से कहा कि मेरा जीवन सफल हो गया, जो मैं आपकी शरण में आई।
तब श्रीराम उठे और वानरों से कहा कि तुमने इस गिलहरी को इस तरह से क्यों लज्जित किया। श्रीराम ने कहा कि क्या तुम जानते हो गिलहरी द्वारा समुद्र में डाले गए छोटे पत्थर तुम्हारे द्वारा फेंके जा रहे बड़े पत्थरों के बीच के फासले को भर रहे हैं? इस वजह से यह पुल मजबूत बनेगा। यह सुन वानर सेना काफी शर्मिंदा हो गई। उन्होंने प्रभु राम और गिलहरी से क्षमा मांगी।
तब श्रीराम हाथ में पकड़ी हुई गिलहरी को अपने पास लाए और उससे इस घटना के लिए क्षमा मांगी। उसके कार्य को सराहना देते हुए उन्होंने उसकी पीठ पर अपनी अंगुलियों से स्पर्श किया। श्रीराम के इस स्पर्श के कारण गिलहरी की पीठ पर तीन रेखाएं बन गई, जो आज भी हर एक गिलहरी के ऊपर श्रीराम के निशानी के रूप में मौजूद हैं। यह तीन रेखाएं राम, लक्षमण और सीता की प्रतीक है।

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

जमुना तट श्याम खेलत होली,जमुना तट श्याम खेलत होली - पारंपरिक होली गीत

जमुना तट श्याम खेलत होली-२
केकर हाथे कनक पिचकारी केकरा हाथे अबीर झोली
जमुना तट श्याम खेलत होली-२

श्याम के हाथे कनक पिचकारी, राधा के हाथे अबीर झोली
जमुना तट श्याम खेलत होली-२

मार पिचकारी केहो भिझावत, भीजत होके कौन गोरी।
श्याम मार मार पिचकारी भिझावत, रंग में भीझे राधा गोरी।
जमुना तट श्याम खेलत होली-२

जमुना तट श्याम खेलत होली-२
केकर हाथे कनक पिचकारी केकरा हाथे अबीर झोली
जमुना तट श्याम खेलत होली-२



गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग-२ शिव शंकर खेलत फ़ाग- पारंपरिक होली गीत - मनोज तिवारी

गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग-२
शिव शंकर खेलत फ़ाग-२
गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग-२

केकर भींगे लाल चुनरियां-२ केकर भिंगेला श्रीपाग-२
गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग-२
केकर भिंगेला श्रीपाग-२
गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग-२
गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग

गौरी के भिंगेला लाल चुनरिया, शिव के भिंगेला श्रीपाग-२
गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग-२
शिव के भिंगेला श्रीपाग-२
गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग-२

कहवा झुराबे लाल चुनरियां कहा झुरबो श्रीपाग
गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग-२
कहवां झुराबे श्रीपाग-२
गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग-२

काशी में झुराबे लाल चुनरियां, झारखंड श्रीपाग
गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग-२
झारखंड श्रीपाग-२
गौरी संग लिए शिव शंकर खेलत फ़ाग-२


होली बरसाने में खेलत नन्दकिशोर- पारंपरिक होली गीत

राग/ थाट काफ़ी

होली बरसाने में खेलत नन्दकिशोर-३
खेलत नन्दकिशोर, खेलत नन्दकिशोर
होली बरसाने में खेलत नन्दकिशोर-२

उड़त गुलाल लाल भैये बदरा, होके भोर-बीभोर
खेलत नन्दकिशोर, खेलत नन्दकिशोर
होली बरसाने में, खेलत नन्दकिशोर-२

इत ते आयी कुँवर राधिका, उतते कुँवर कन्हाई।
खेलत फ़ाग परस्पर हिलमिल, शोभा बरन न जाई रे
कैसी धूम मचाई, बिरज में धूम मचाई।।

होली बरसाने में खेलत नन्दकिशोर-३
खेलत नन्दकिशोर, खेलत नन्दकिशोर
होली बरसाने में खेलत नन्दकिशोर-२




गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

गायत्री मंत्र की साधना खुद को तपाकर निखारने की साधना है।गायत्री मंत्र जाप करने से ईश्वर की प्राप्ति होती है


॥गायत्री मन्त्र एवं विभिन्न मालाएँ॥

गायत्री मंत्र की साधना खुद को तपाकर निखारने की साधना है।गायत्री मंत्र जाप करने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। ये दो वेदों के संगम से निर्मित है।यजुर्वेद के मंत्र –ॐ भूर्भुवः स्वः,और ऋग्वेद के-तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् (छंद ३/६२/१०) को जोड़कर बना है।मंत्र में सवित्र (सूर्य) देव की उपासना है,इसलिए इसे सावित्री मंत्र भी कहा जाता है।

चौदहवां ब्राह्मण अंतर्गत ‘गायत्री’ के तत्त्वज्ञान एवं माहात्म्य का वर्णन किया गया है।उपनिषद गायत्री के तीन चरणों की ही उपासना की बात कहते हैं चौथा चरण ‘दर्शन’ चरण है,अर्थात् देखा जाने वाला।उसे अनुभूतिगम्य कहा गया है।यह पद सत्य में स्थित है।गायत्री प्राण में स्थित है।इस गायत्री ने गयों,अर्थात् प्राणों का त्राण किया है।इसीलिए इसे ‘गायत्री’ कहते हैं।गायत्री महाशक्ति का मुख ‘अग्नि’ है।गायत्री विद्या में निष्णात व्यक्ति के समस्त पाप भस्म हो जाते हैं।वह शुद्ध,पवित्र व अजर-अमर हो जाता है।(बृहदारण्यकोपनिषद :पांचवां अध्याय:चौदहवां ब्राह्मण)


॥गायत्री ध्यानम्॥
मुक्ता-विद्रुम-हेम-नील धवलच्छायैर्मुखस्त्रीक्षणै-
र्युक्तामिन्दु-निबद्ध-रत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम्‌।
गायत्रीं वरदा-ऽभयः-ड्कुश-कशाः शुभ्रं कपालं गुण।
शंख,चक्रमथारविन्दुयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे॥
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मोती,मूंगा,सुवर्ण,नीलम् तथा हीरा इत्यादि रत्नों की तीक्ष्ण आभा से जिनका मुख मण्डल उल्लसित हो रहा है।चंद्रमा रूपी रत्न जिनके मुकुट में संलग्न हैं।जो आत्म तत्व का बोध कराने वाले वर्णों वाली हैं।जो वरद मुद्रा से युक्त अपने दोनों ओर के हाथों मेंअंकुश,अभय,चाबुक,कपाल,वीणा,शंख,चक्र,कमल धारण किए हुए हैं ऐसी गायत्री देवी का हम ध्यान करते हैं।
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ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं,ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ॥
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यह यजुर्वेद के मन्त्र ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’और ऋग्वेद के छन्द ‘तत् सवितुर्वरेण्यं।भर्गोदेवस्य धीमहि।धियो यो न: प्रचोदयात्।'(ऋग्वेद ३,६२,१०) के मेल से बना है।इस मंत्र में सवितृ देव की उपासना है इसलिए इसे ‘सावित्री’ भी कहा जाता है।ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है।इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रूप में भी पूजा जाता है।
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‘भू:’ -पृथ्वी,अग्नि,ऋग्वेद और प्राण है।
‘भुव:’ -अन्तरिक्ष,वायु,सामवेद और अपान है।
‘स्व:’ -स्वर्गलोक, आदित्य,यजुर्वेद और व्यान है।
‘मह:’ -‘आदित्य’ (ब्रह्म),चन्द्रमा,ब्रह्म और अन्न है।
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[यह तैत्तिरीयोपनिषद की ‘शिक्षावल्ली’ के पँचम अनुवाक से उद्धरित किया गया है।-दिगम्बर ध्यानी]
गायत्री मंत्र का जाप अत्यंत लाभप्रद होता है।इस मंत्र का भाव यह है कि, ‘उस प्राणस्वरूप,दुःखनाशक,सुखस्वरूप, सर्वश्रेष्ठ,तेजस्वी,पापनाशक,देवस्वरूप परमेश्वर को हम अन्तःकरण में अपनाएं।वह परमेश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।’ अतः इसके जप से बौद्धिक क्षमता एवं स्मरण क्षमता का विकास होता है। 🌻🙏🌻

गायत्री वेदजननी गायत्री पापनाशिनी।
गायत्र्या: परमं नास्ति दिवि चेह च पावनम्॥ (विनयावनत ;दिगंबर ध्यानी)
गायत्री वेदजननी गायत्री पापनाशिनी।
गायत्र्या: परमं नास्ति दिवि चेह च पावनम्॥
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{गायत्री वेदों की जननी है।गायत्री पापों का नाश करने वाली है।गायत्री से अन्य कोई पवित्र करने वाला मन्त्र स्वर्ग और पृथिवी पर नहीं है।} ‘शंखस्मृति’
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गायत्री वा ईद सर्वं भूतं यदिदं किंच वाग्वै गायत्री वाग्वा इद सर्वं भूतं गायति च त्रायते च॥

🌻🙏🌻 जो मनुष्य नियमित रूप से गायत्री का जप करता है वह पापों से वैसे ही मुक्त हो जाता है जैसे केंचुली से छूटने पर सांप होता है। 🌻🙏🌻

मित्रों!वेदमाता गायत्री वह दैवी शक्ति है जो कि मनुष्य को सद्बुद्धि की ओर प्रेरित करती है जो प्रमुखतः हमारे मन,बुद्धि,चित्त और हमारे अंतःकरण पर अपना प्रभाव डालती है।हमारे अवगुणों का अंधकार गायत्री रूपी दिव्य प्रकाश से हटने लगता है।मित्रों यह हमनें विगत बारह साल से अनुभव किया है।यह बहुत लाभकारी है।गायत्री की महिमा का वेद,शास्त्र,पुराण सभी वर्णन करते हैं।अथर्ववेद में गायत्री की स्तुति की गई है,जिसमें उसेआयु,प्राण,शक्ति,पशु,कीर्ति,धन और तेजस्व यानी ब्रह्मतेज प्रदायिनी कहा गया है।सद्ज्ञान की उपासना का नाम ही गायत्री कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।गायत्री कामधेनु है जो कि मनुष्यों के सभी कष्टों का समाधान कर देती है।गायत्री कोई स्वतंत्र देवी देवता नहीं है वह तो परब्रह्म परमात्मा का क्रिया भाग है।गायत्री उपासना वस्तुतः भगवान की उपासना का सर्वश्रेष्ठ सरल और शीघ्र सफ़ल मार्ग है।गायत्री सद्बुद्धिदायक मन्त्र है,इसके जाप से सतोगुण की हमारे आचरण में अद्भुत रूप से सतोगुण की बृद्धि होती है।शरीर और मन की शुद्धि सांसारिक जीवन को अनेक दॄष्टियों से सुख-शान्तिमय बनाती है।गायत्री मंत्र से परमात्मा का वह तेज हमारी बुद्धि को सद्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करता है जो पापनाशिनी है और पापों की पुनरावृत्ति भी नहीं होगी यदि जाप पूर्ण श्रद्धा से किया जाय।आत्मकल्याण के लिए मन की शुद्धि आवश्यक है।मन की शुद्धि के लिए ‘गायत्री मन्त्र’ अद्भुत है।गायत्री मन्त्र में २४ अक्षर हैं।इनका सम्बन्ध शरीर में स्थित ऐसी २४ ग्रन्थियों से है,जो जाग्रत् होने पर सद्बुद्धि प्रकाशक शक्तियों को सतेज करती हैं।गायत्री मन्त्र के उच्चारण से सूक्ष्म शरीर का सितार २४ स्थानों से झंकार देता है और उससे एक ऐसी स्वर-लहरी उत्पन्न होती है,जिसका प्रभाव अदृश्य जगत् के महत्त्वपूर्ण तत्त्वों पर पड़ता है।यह प्रभाव ही गायत्री साधना के फलों का प्रभाव- हेतु है।भगवान् मनु का कथन है-ब्रह्मजी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मन्त्र निकाला है।गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मन्त्र नहीं है।जो मनुष्य नियमित रूप से तीन वर्ष तक गायत्री जप करता है,वह ईश्वर को प्राप्त करता है।जो द्विज दोनों सन्ध्याओं में गायत्री जपता है,वह वेद पढऩे के फल को प्राप्त करता है।अन्य कोई साधन करे या न करे,केवल गायत्री जप से भी सिद्धि पा सकता है।मान्यतानुसार नित्य एक हजार जप करने वाला पापों से वैसे ही छूट जाता है,जैसे केंचुली से साँप छूट जाता है।(बड़े संकोच के साथ कहता हूँ कि-मैं नित्य दो हज़ार नौ सौ सोलह बार गायित्री मंत्र जपता हूँ।(२७माला ×१०८=२९१६)विनयावनत ;दिगंबर ध्यानी
🌻🙏🌻

ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः
पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः
सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

॥मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे॥
मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे।
कैसे तारोगे प्रभु जी मेरो,प्रभु जी कैसे तारोगे।
मैली चारद मैली झील,कहो ना कैसे तारोगे॥
पाप करंता हँसे यह मनवा,जाप करंता रोवे।
भोग रोग में निसदिन जागे,कथा कीर्तन सोवे।
नित नित सोचे उलटा तदबीर,कहो ना कैसे तारोगे॥
मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे…॥
मीरा तुलसी नहीं सुहावे,नौटंकी मन भावे।
राम नाम से जी कतरावे,पल पल काम सतावे।
हमे रुचे ना सूर कबीर,कहो ना कैसे तारोगे…॥
मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे…॥
कंचन और कामिनी मन ने करनी एक करी ना।
हीरे छोड़ बटोरी कंकर,तृष्णा तनिक मरी ना।
ऐसी फूटी पड़ी तकदीर,कहो ना कैसे तारोगे…॥
मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे…॥
मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे।
कैसे तारोगे प्रभु जी मेरो,प्रभु जी कैसे तारोगे॥
🌹🙏🌹          
॥श्री कृष्ण:शरणं मम॥
॥श्री गुरुभ्यो नमः॥
शरणागत; दिगम्बर

॥गायत्री मन्त्र जप की महिमा॥
महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय ९२ में गायत्री मन्त्र जप की महिमा का वर्णन हुआ है।भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गायत्री मन्त्र जप की महिमा का वर्णन इसप्रकार किया गया है:-
जो ग्रहस्‍थ आश्रम में स्‍थित होकर अखण्‍ड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पंच यज्ञों के अनुष्‍ठान में तत्‍पर रहते हैं,वे पृथ्‍वीतल पर धर्म की स्‍थापना करते हैं।जो प्रतिदिन सबेरे और शाम को विधिवत संध्‍योपासना करते हैं,वे वेदमयी नौका का सहारा लेकर इस संसार सागर से स्‍वयं भी तर जाते हैं और दूसरों को भी तार देते हैं।जो ब्राह्मण सबको पवित्र बनाने वाली वेदमाता गायत्री देवी का जप करता है,वह समुद्रपर्यन्‍त पृथ्‍वी का दान लेने पर भी प्रति ग्रह से दुखी नहीं होता। तथा सूर्य आदि ग्रहों में से जो उसके लिये अशुभ स्‍थान में रहकर अनिष्‍टकारी होते हैं, वे भी गायत्री जप के प्रभाव से शान्‍त,शुभ और कल्‍याणकारी फल देने वाले हो जाते हें।जहाँ कहीं क्रूर कर्म करने वाले भयंकर विशालकाय पिशाच रहते हैं, वहाँ जाने पर भी वे उस ब्राह्मण का अनिष्‍ट नहीं कर सकते।वैदिक व्रतों का आचरण करने वाले पुरुष पृथ्‍वी पर दूसरों को पवित्र करने वाले होते हैं।चारों वेदों में वह गायत्री श्रेष्‍ठ है।जो ब्राह्मण न तो ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और न वेदाध्‍ययन करते हैं, जो बुरे फल वाले कर्मों का आश्रय लेते हैं,वे नाम मात्र के ब्राह्मण भी गायत्री के जप से पूज्‍य हो जाते हैं।फिर जो ब्राह्मण प्रात:काल सांयकाल दोनों समय संध्‍या-वंदन करते हैं,उनके लिये तो कहना ही क्‍या? प्रतापति मुनि का कहना है कि;
‘शील,स्‍वाध्‍याय,दान,शौच कोमलता और सरलता-ये सद्गुण ब्राह्मण के लिये वेद से भी बढ़कर हैं।’
जो ब्राह्मण ‘भूर्भुव: स्‍व:’ इन व्‍याहृतियों के साथ गायत्री का जप करता है,वेद के स्‍वाध्‍याय में संलग्‍न रहता है और अपनी ही स्‍त्री से प्रेम करता है,वही जितेन्‍द्रीय,वही विद्वान और वही इस भूमण्‍डल का देवता है।जो श्रेष्‍ठ ब्राह्मण प्रतिदिन संध्‍योपासन करते हैं,वे नि:संदेह ब्रह्मलोक को प्राप्‍त होते हैं।
केवल गायत्री मात्र जानने वाला ब्राह्मण भी यदि नियम से रहता है तो वह श्रेष्‍ठ है ;किंतु जो चारों वेदों का विद्वान होने पर भी सबका अन्‍न खाता है,सब कुछ बेचता है और नियमों का पालन नहीं करता है,वह उत्तम नहीं माना जाता।पूर्व काल में देवता और ऋषियों ने ब्रह्मा जी के सामने गायत्री मंत्र और चारों वेदों को तराजू पर रखकर तौला था।उस समय गायत्री का पलड़ा ही चारों वेदों से भारी साबित हुआ।जैसे भ्रमर खिले हुए फूलों से उनके सारभूत मधु को ग्रहण करते हैं,उसी प्रकार सम्‍पूर्ण वेदों से उनके सारभूत गायत्री का ग्रहण किया गया है।इसलिये गायत्री सम्‍पूर्ण वेदों का प्राण कहलाती है।
नरेश्‍वर! गायत्री के बिना सभी वेद निर्जीव हैं।नियम और सदाचार से भ्रष्‍ट ब्राह्मण चारों वेदों का विद्वान हो तो भी वह निन्‍दा का ही पात्र है,किन्‍तु शील और सदाचार से युक्‍त ब्राह्मण यदि केवल गायत्री का जप करता हो तो भी वह श्रेष्‍ठ माना जाता है।प्रतिदिन एक हजार ‘गायत्रीमंत्र‘ का जप करना उत्तम है,सौ मन्‍त्र का जप करना मध्‍यम और दस मन्‍त्र का जप करना कनिष्‍ठ माना गया है।गायत्री सब पापों को नष्‍ट करने वाली है, इसलिये सदा उसका जप करते रहो।
॥ॐ श्रीगुरुभ्यो नमः॥ -दिगम्बर ध्यानी

॥गायत्री मंत्र॥
॥ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
ॐ : परब्रह्मा का अभिवाच्य शब्द।
भूः भूलोक।
भुवः : अंतरिक्ष लोक।
स्वः : स्वर्गलोक।
त : परमात्मा अथवा ब्रह्म।
सवितुः : ईश्वर अथवा सृष्टि कर्ता।
वरेण्यम : पूजनीय।
भर्गः: अज्ञान तथा पाप निवारक।
देवस्य : ज्ञान स्वरुप भगवान का।
धीमहि : हम ध्यान करते है॥
धियो : बुद्धि प्रज्ञा।
योः : जो।
नः : हमें।
प्रचोदयात् : प्रकाशित करें॥
भावार्थ:- हम ईश्वर की महिमा का ध्यान करते हैं,जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है,जो पूजनीय है,जो ज्ञान का भंडार है,जो पापों तथा अज्ञान की दूर करने वाला हैं- वह हमें प्रकाश दिखाए और हमें सत्य पथ पर ले जाए॥इसे हम ऐसा भी कहते हैं; उस प्राणस्वरूप,दुःखनाशक,सुखस्वरूप,श्रेष्ठ, तेजस्वी,पापनाशक,देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें।वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें॥ गायत्री के चौबीस अक्षरों के देवता?
तत्-का देवता अग्नि,
स-का प्रजापति,
वि-का सोम,
तुः- का ईशान,
य-का नदिति,
रे-का बृहस्पति,
णि-का भग,
यम्-का पित,
भ-का अर्यमा,
र्गो-का सविता,
दे-का तुष्टा,
व-का पूषा,
न्य-का इन्द्र और अग्नि,
धी-का वायु,
म-का कामदेव,
हि-का मित्र और वरुण,
धि-का वभ्रु,
यो-का विश्वदेव,
यो-का विष्णु,
नः-का वसु,
प्र-का तुषित,
चो-का कुबेर,
दु-का अश्विनीकुमार और
यात् का ब्रह्मा देवता है। bhaktipath.wordpress.com मित्रों इस मूल गायत्री मंत्र के अलावा गायत्री के अनेक मंत्र हैं जिनमें कुछ निम्नलिखित हैं।इन मंत्रों के जाप से अनेक प्रकार की बाधाओं का निवारण होता है।यह मनुष्य को सदैव तेजश्वी बनाय रखता है।इन मंत्रों को प्रतिदिन जपने से सुख,सौभाग्य,समृद्धि और ऎश्वर्य की प्राप्ति होती हैं।
१- गणेश गायत्री:-
॥ॐ एक दृष्टाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि।तन्नो बुद्धिः प्रचोदयात्॥
२- नृसिंह गायत्री:-
॥ॐ उग्रनृसिंहाय विद्महे वज्रनखाय धीमहि।तन्नो नृसिंह: प्रचोदयात्॥
३- विष्णु गायत्री:-
॥ॐ नारायण विद्महे वासुदेवाय धीमहि।तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्॥
४- शिव गायत्री:-
॥ॐ पंचवक्त्राय विद्महे महादेवाय धीमहि।तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्॥
५- कृष्ण गायत्री:-
॥ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि।तन्नो कृष्ण: प्रचोदयात्॥
६- राधा गायत्री:-
॥ॐ वृषभानुजायै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि।तन्नो राधा प्रचोदयात्॥
७- लक्ष्मी गायत्री:-
॥ॐ महालक्ष्म्यै विद्महे विष्णुप्रियायै धीमहि।तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्॥
८- अग्नि गायत्री:-
॥ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि।तन्नो अग्नि: प्रचोदयात्॥
९- इन्द्र गायत्री:-
॥ॐ सहस्त्रनेत्राय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि।तन्नो इन्द्र: प्रचोदयात्॥
१०- सरस्वती गायत्री:-
॥ॐ सरस्वत्यै विद्महे ब्रह्मपुत्र्यै धीमहि।तन्नो देवी प्रचोदयात्॥
११- दुर्गा गायत्री:-
॥ॐ गिरिजायै विद्महे शिवप्रियायै धीमहि।तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥
१२- हनुमान गायत्री:-
॥ॐ अंजनी सुताय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि।तन्नो मारुति: प्रचोदयात्॥
१३- पृथ्वी गायत्री:-
॥ॐ पृथ्वीदेव्यै विद्महे सहस्त्रमूत्यै धीमहि।तन्नो पृथ्वी प्रचोदयात्॥
१४- सूर्य गायत्री:-
॥ॐ भास्कराय विद्महे दिवाकराय धीमहि।तन्नो सूर्य: प्रचोदयात्॥
१५- राम गायत्री:-
॥ॐ दशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि।तन्नो राम: प्रचोदयात्॥
१६- सीता गायत्री:-
॥ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे भूमिजायै धीमहि।तन्नो सीता प्रचोदयात्॥
१७- चन्द्र गायत्री:-
॥ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्त्वाय धीमहि।तन्नो चन्द्र: प्रचोदयात्॥
१८- यम गायत्री:-
॥ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि।तन्नो यम: प्रचोदयात्॥
१९- ब्रह्मा गायत्री:-
॥ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारुढ़ाय धीमहि।तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥
२०- वरुण गायत्री:-
॥ॐ जलबिम्वाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि।तन्नो वरुण: प्रचोदयात्॥
२१- नारायण गायत्री:-
॥ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि।तन्नो नारायण: प्रचोदयात्॥
२२- हयग्रीव गायत्री:-
॥ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि।तन्नो हयग्रीव: प्रचोदयात्॥
२३- हंस गायत्री:-
॥ॐ परमहंसाय विद्महे महाहंसाय धीमहि।तन्नो हंस: प्रचोदयात्॥
२४- तुलसी गायत्री:-
॥ॐ श्रीतुलस्यै विद्महे विष्णुप्रियायै धीमहि।तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्॥
🌹🙏🌹

विद्महे= प्रेरणा देना
धीमहि=प्रदीप्त करना

सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गये हैं जिनमें धर्म प्रमुख है।अन्य तीन पुरुषार्थ,अर्थ,काम और मोक्ष हैं! गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी कहा गया है। शास्त्रों के अनुसार गायत्री वेदमाता हैं एवं मनुष्य के समस्त पापों का नाश करने की शक्ति उनमें है।गायत्री मंत्र को वेदों का सर्वश्रेष्ठ मंत्र बताया गया है।इसके जप के लिए तीन समय बताए गए हैं।गायत्री मंत्र का जप का सर्वश्रेष्ठ समय प्रात:काल है इसका जप सूर्योदय से कुछ पहले शुरू किया जाना चाहिए जो कि सूर्योदय तक जारी रहना चाहिए।हाँ,दोपहर से पहले तक अधिक प्रभावशाली रहता है।

॥श्री गायत्री कवचम्॥
॥याज्ञवल्क्य उवाचः॥
स्वामिन् सर्व-जगन्नाथ संशयोऽस्ति महान्मम्।चतुः षष्टि-कलानां च पातकानां तद्वद्॥१॥
मुच्यते केन पुण्येन ब्रहा-रूपं कथं भवेत्।देहश्च देवता-रूपं मन्त्र-रूपं विशेषतः॥२॥
क्रमतः श्रोतुमिच्छामि कवचं विधि-पूर्वकम्।
॥ब्रह्मोवाचः॥
विनियोगः-
“ॐ अस्य श्री गायत्री-कवचस्य ब्रह्म-विष्णु-रुद्रा ऋषयः ऋग्यजुः सामाथर्वाणिच्छन्दांसि पर-ब्रह्म-स्वरूपिणी गायत्री देवता भूः बीजम् भुवः शक्तिः स्वः कीलकम् श्रीगायत्री प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः। ऋष्यादिन्यासः-
ॐ ब्रह्म-विष्णु-रुद्र ऋषिभ्यो नमः शिरसि।ऋग्यजुः सामाथर्वाणिच्छन्दोभ्यो नमः मुखे। पर-ब्रह्म-स्वरूपिणी गायत्री देवता नमः हृदि।
भूः बीजाय नमः गुह्ये।
भुवः शक्तये नमः पादयोः।
स्वः कीलकाय नमः नाभौ।विनियोगाय नः: सर्वाङ्गे।
करन्यासः-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुरित्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः। ॐ भूर्भुवः स्वः वरेण्यं तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ भूर्भुवः स्वः भर्गो-देवस्य मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ भूर्भुवः स्वः धीमह्यनामिकाभ्यां नमः।
ॐ भूर्भुवः स्वः धियो यो नः कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ॐ भूर्भुवः स्वः प्रचोदयात् करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः। षडङ्गन्यासः-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुरि ॐ भूर्भुवः स्वः वरेण्यमिति शिरसे स्वाहाॐ भूर्भुवः स्वः भर्गो-देवस्येति शिखायै वष्ट्। ॐ भूर्भुवः स्वः धीमहीति कवचाय हुम्। ॐ भूर्भुवः स्वः धियो यो नः इति नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भूर्भुवः स्वः प्रचोदयादिति अस्त्राय फट्। इति न्यासं कृत्वाकरौ बद्ध्वा प्रार्थयेत्। तथा च-वर्णास्त्रां कुण्डिका हस्तां शुद्ध-निर्मल-ज्योतिषीम्। सर्वतत्त्वमयीं वन्दे गायत्रीं वेदमातरम्॥१॥
इति सम्प्रार्थ्य ध्यानं कुर्यात्।
॥ ध्यान॥ मुक्ता-विद्रुम-हेम-नील-धवलच्छायैर्मुखै-स्त्रीक्षणैर्युक्तामिन्दु निबद्ध-रत्न-मुकुटां तत्त्वार्थ वर्णात्मिकाम्।
गायत्रीं वरदाऽभयांकुशकशां शूलं कपालं गुणं,शङ्खं चक्रमथारविन्द-युगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे॥
॥ मूल पाठ ॥
ॐ गायत्री पूर्वतः पातु सावित्री पातु दक्षिणे।ब्रह्मविद्या च मे पश्चादुत्तरे मां सरस्वती॥१॥
पावकीं में दिशं रक्षेत्पावकोज्ज्वल शालिनी। यातुधानीं दिशं रक्षेद्यातुधान गणार्दिनी॥२॥
पावमानी-दिशं रक्षेत्पवमान-विलासिनी। दिशं रौद्रीमवतु में रुद्राणी रुद्र-रूपिणी॥३॥
उर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा।एवं दश-दिशो रक्षेत्सर्वतो भुवनेश्वरी॥४॥
ब्रह्मास्त्र स्मरणादेव वाचां सिद्धः प्रजायते।ब्रह्मदण्डश्च में पातु सर्व-शस्त्रास्त्र-भक्षकः॥५॥ ब्रह्म-शीर्षस्तथा पातु शत्रूणां वधकारकः।सप्तव्याहृतयः पातु सर्वदा (स सदा) बिन्दु-संयुताः॥६॥
वेदमाता च मां पातु सरहस्या सदैवता ।देवीसूक्तं सदा पातु सहस्त्राक्षर-देवता ॥७॥
चतुःषष्टिकला विद्या दिव्याद्यां पातु देवता।बीजशक्तिश्च मे पातु पातु विक्रम-देवता॥८॥
तत्पदं पातु मे पादौ जङ्घे मे सवितुः पदम्।वरेण्यं कटिदेशं तु नाभिं भर्गस्तथैव च॥९॥
देवस्य मे तु हृदयं धीमहीति गलं तथा। धियो मे पातु जिह्वायां यः पदं पातु लोचने॥१०॥
ललाटे नः पदं पातु मूर्द्धानं मे प्रचोदयात्त।द्वर्णः पातु मूर्द्धानं सकारः पातु भालकम्॥११॥
चक्षुषी मे विकारस्तु श्रोत्रं रक्षेत्तु-कारकः।नासा-पुटे वकारो मे रेकारस्तु (रेकास्तु) कपोलयोः॥१२॥ णिकारस्त्वधरोष्ठे च यकारस्तूर्ध्व ओष्ठके।(णिकारस्त्वधरोष्ठ च यंकारस्त्वधरोष्ठ) आस्यमध्ये भकारस्तुर्गोकारस्तु कपोलयोः॥१३॥ देकारः कण्ठदेशे च वकारः स्कन्धदेशयोः।स्यकारो दक्षिणं हस्तं धीकारो वाम-हस्तके॥१४॥
मकारो हृदयं रक्षेद्धिकारो जठरं तथा। धिकारो नाभिदेशं च योकारस्तु कटिद्वयम्॥१५॥
गुह्यं रक्षतु योकार ऊरू मे नः पदाक्षरम्प्र।कारो जानुनी रक्षेच्चोकारो जङ्घदेशयोः॥१६॥
दकारो गुल्फदेशं तु यात्कारः पादयुग्मकम्।जातवेदेति गायत्री त्र्यम्बकेति दशाक्षरा॥१७॥
सर्वतः सर्वदा पातु आपोज्योतीति षोडशी।इदं तु कवचं दिव्यं बाधा-शत विनाशकम्॥१८॥
॥फल-श्रुति॥
चतुः षष्ठि-कला-विद्या सकलैश्वर्यसिद्धिदम्।जपारम्भे च हृदयं जपान्ते कवचं पठेत्॥१९॥ स्त्री-गो-ब्राह्मण-मित्रादि द्रोहाद्यखिल पातकैः।मुच्यते सर्व-पापेभ्यः परं ब्रह्माधिगच्छति॥२०॥
पुष्पाञ्जलिं च गायत्र्या मूलेनैव पठेत्सकृत्श।त-साहस्र-वर्षाणां पूजायाः फलमाप्नुयात्॥२१॥
भूर्ज-पत्रे लिखित्वै तत् स्वकण्ठे धारयेद्यदि।शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा धारयेद् बुधः॥२२॥
त्रैलोक्यं क्षोभयेत्सर्वं त्रैलोक्यं दहति क्षणात्।पुत्रवान् धनवान् श्रीमान्नाना-विद्या-निधिर्भवेत्॥२३॥ ब्रह्मास्त्रादीनि सर्वाणि तदङ्गस्पर्शनात्ततः।भवन्ति तस्य तुल्यानि किमन्यत्कथयामि ते॥२४॥ अभिमन्त्रित-गायत्री-कवचं मानसं पठेत्त।ज्जलं पिबतो नित्यं पुरश्चर्या-फलं भवेत्॥२५॥ लघुसामान्यकं मन्त्रं महामन्त्रं तथैव च।यो वेत्ति धारणां युञ्जञ्जीवन्मुक्तः स उच्यते॥२६॥
सप्त व्याहृदयो विप्रे सप्तावस्थाः प्रकीर्तिताः।सप्तजीवशता नित्यं व्याहृती अग्निरूपिणी॥२७॥
प्रणवे नित्य-युक्तस्य व्याहृतीषु च सप्तसु । सर्वेषामेव पापानां सङ्कटे समुपस्थिते॥२८॥
शतं सहस्रमभ्यर्च्य गायत्री पावनं महत्।दश-शतमष्टोत्तरशतं गायत्री पावनं महत्॥२९॥
भक्तिमान्यो (भक्तियुक्तो) भवेद्विप्रः सन्ध्या-कर्म-समाचरेत्।कालेकाले तु कर्त्तव्यं (प्रकर्तव्यं) सिद्धिर्भवति नान्यथा॥३०॥
प्रणवं पूर्वमुद्धृत्य भूर्भुवः स्वस्तथैव च।तुर्यं सहैव गयत्री जप एवमुदाहृतम् ॥३१॥
तुरीय-पाद-मुत्सृज्य गायत्रीं च जपेद्विजः।स मूढो नरकं याति काल-सूत्रमधोगतिः॥३२॥
मन्त्रादौ जननं (पाशबीजं) प्रोक्तं मन्त्रान्ते मृतसूतकम् (मृतसूत्रकम्)। उभयोर्दोषनिर्मुक्तं गायत्री सफला भवेत् ॥३३॥
मन्त्रादौ पाश-बीजं च मन्त्रान्ते कुश-बीजकम्।मन्त्र-मध्ये तु या माया गायत्री सफला भवेत्॥३४॥ वाचिकस्त्वहमेव स्यादुपांशु शतमुच्यते।सहस्रं मानसं प्रोक्तं त्रिविधं जपलक्षणम्॥३५॥
अक्ष-मालां च मुद्रां च गुरोरपि न दर्शयेत्।जपं चाक्षस्वरूपेणानामिका-मध्य-पर्वणि॥३६॥
अनामा मध्यमा (मध्यया) हीना कनिष्ठादिक्रमेण तु। तर्जनी-मूल-पर्यन्तं गायत्री-जप-लक्षणम्॥३७॥
पर्वभिस्तु जपेदेवमन्यत्र नियमःस्मृतम्।गायत्री वेदमूलत्वाद्वेदः पर्वसु गीयते॥३८॥
दशभिर्ज्जन्मजनितं शतेनैव पराकृतम् (पुरा कृतम्)।त्रियुगं तु सहस्राणि गायत्री हन्ति किल्बिषम्॥३९॥
प्रातः कालेषु कर्तव्यं सिद्धिं विप्रो य इच्छति।नादालये समाधिश्च सन्ध्यायां समुपासते॥४०॥
अङ्गुल्यग्रेण यज्जप्तं यज्जप्तं मेरु-लङ्घने।असङ्ख्यया च यज्जप्तं तज्जप्तं निष्फलं भवेत्॥४१॥
विना वस्त्रं प्रकुर्वीत गायत्री निष्फला भवेत्।वस्त्र-पुच्छं न जानाति वृथा तस्य परिश्रमः॥४२॥
गायत्रीं तु परित्यज्य अन्य मन्त्रमुपासते।सिद्धान्नं च परित्यज्य भिक्षामटति दुर्मतिः॥४३॥
ऋषिश्छन्दो देवताख्या बीजं-शक्तिश्च कीलकम्नि।योगं न च जानाति गायत्री निष्फला भवेत्॥४४॥
वर्ण-मुद्रा-ध्यान पदमावाहन विसर्जनम्।दीपं चक्रं न जानाति गायत्री निष्फला भवेत्॥४५॥ शक्तिर्न्यासस्तथा स्थानं मन्त्र-सम्बोधनं परम्। त्रिविधं यो न जानाति गायत्री तस्य निष्फला भवेत्॥४६॥ पञ्चोपचारकाश्चैव होम-द्रव्यं तथैव च।पञ्चाङ्गं च विना नित्यं गायत्री निष्फला भवेत्॥४७॥
मन्त्र-सिद्धिर्भवेज्जातु विश्वामित्रेण भाषितम्।व्यासो वाचस्पतिर्जीवस्तुता देवी तपःस्मृतौ॥४८॥
सहस्रं जप्ता सा देवी ह्युपपातक-नाशिनी।लक्ष-जाप्ये तथा तच्च महा-पातक-नाशिनी॥४९॥ कोटिजाप्येन राजेन्द्र यदिच्छति तदाप्नुयात्।न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः।शिष्येभ्यो भक्ति युक्तेभ्यो ह्यन्यथा मृत्युमाप्नुयात्॥५०॥ ॥ॐ तत्सत् श्रीमद्वसिष्ठसंहितोक्तं महात्म्यसहितं गायत्री कवचं॥
इस कवच में श्लोक ३१ से ३४ अन्य प्रयोग विधि है।उपरोक्त कवच में ब्रह्माजी ने १८ वें श्लोक से अन्त तक कवच के महात्म्य तथा फल आदि का वर्णन किया है जिसका भावार्थ इस प्रकार है-यह दिव्य कवच सैकड़ों बाधाओं को नष्ट करने वाला है।चौंसठ कलाओं और विद्याओं तथा समस्त ऐश्वर्य की सिद्धि देने वाला है।जो साधक जप के प्रारम्भ में हृदय तथा अन्त में कवच का पाठ करता है वह स्त्री,गो,ब्राह्मण,मित्र आदि के द्रोह आदि समस्त पापों से छूट कर ब्रह्म को प्राप्त करता है।पुष्पाञ्जलि को मूल गायत्री के साथ ही पढ़ना चाहिये। ऐसा करने से साधक एक लाख वर्षों की पूजा का फल प्राप्त करता।जो साधक भोजपत्र पर इस गायत्री मन्त्र को लिखकर शिखा में,दाहिने हाथ में या कण्ठ में धारण करता है वह तीनों लोकों को कँपा देता है तथा तत्क्षण तीनों लोकों को भस्म कर सकता है।वह पुत्रवान्,धनवान्,श्रीमान् तथा अनेक विद्याओं का निधि बन जाता है।ब्रह्मास्त्र आदि सब अस्त्र उस साधक के शरीर से स्पर्श करते ही उसके तुल्य हो जाते हैं,और अधिक मैं तुमसे क्या कहूं।जो साधक अभिमन्त्रित गायत्री कवच का मानस-पाठ करता है और नित्य उसका जल पीता है उसे गायत्री पुरश्चरण का फल मिलता है।लघु, सामान्य और महामन्त्र की धारणा को जो साधक जानता है, वह जीवनमुक्त कहा जाता है।हे विप्र, सात व्याहृतियाँ और सात अवस्थाएँ बतायी गयी हैं। सप्तजीवशता व्याहृती सदा अग्निरूपिणी कही गयी है।जो साधक प्रणव अर्थात् (ॐ) तथा व्याहृति (भू, भुवः स्वः) नित्य लगा रखता है वह सभी पापों के समूह के उपस्थित होने पर सौ या हजार बार या एक सौ आठ बार इसका जप करके विध्न से छूट जाता है।जो विप्र भक्तिमान् है उसे सन्ध्या नित्य करनी चाहिये।निर्धारित समय पर उसे जप आदि कर्म करना चाहिये तभी सिद्धि प्राप्त होती है,अन्यथा नहीं।जप में पहले प्रणव का उच्चारण करके भू, भुवः, स्व: का उच्चारण करना चाहिये । इसके बाद चौथे चरण के साथ गायत्री का जप करना चाहिये।जो द्विज चौथे चरण को छोड़कर गायत्री का जप करता है वह मूढ कालसूत्र नामक नरक को जाता है।मन्त्र के आदि में जननदोष होता है तथा मन्त्र के अन्त में मृतसूतक दोष होता है।इन दोनों दोषों से रहित गायत्री मन्त्र का ही जप सफल होता है।जिस गायत्री मन्त्र के प्रारम्भ में पाश बीज तथा मन्त्र के अन्त में कुश बीज और मध्य में माया होती है वह गायत्री सफल होती है।वाचिक जप दसगुना,उपांशु जप सौगुना तथा मानस जप हजार गुना फल वाला होता है।इस प्रकार तीन तरह का जप होता है।रुद्राक्ष की माला तथा मुद्रा किसी को न दिखाये।रुद्राक्ष स्वरूप अनामिका अँगुली के पर्वों पर मध्यमा को छोड़कर कनिष्ठिका के क्रम से तर्जनी के मूल पर्व तक गायत्री का जप करना चाहिये।अँगुली के पर्वों से इस प्रकार मन्त्र का जप करे।अन्यत्र यह नियम कहा गया है।गायत्री वेद का मूल है इस कारण वेद पर्वों पर गाये जाते हैं इसलिए गायत्री मन्त्र भी अंगुलियों के पर्वों पर जपा जाता है।गायत्री का दश बार जप करने से साधक इस जन्म के पापों से छूट जाता है।सौ बार जप करने से पूर्वजन्म के पाप से छूट जाता है और एक हजार गायत्री जप से तीनों युगों में किये पाप से छूट जाता है।जो विप्र सिद्धि चाहता है,उसे प्रातः काल जप करना चाहिये।सायंकाल शिवालय में समाधि लगानी चाहिये।अँगुली के अग्रभाग से जो जप किया जाता है और मेरु के लङ्घन पर जो जप किया जाता है तथा बिना गणना के जो जप किया जाता है वह सब जप निष्फल होता है।बिना वस्त्र के गायत्री निष्फल होती है।जो साधक वस्त्रपुच्छ को नहीं जानता उसका परिश्रम व्यर्थ होता है।जो साधक गायत्री को छोड़कर अन्य मन्त्र का जप करता है वह दुर्मति प्राप्त अन्न को छोड़कर इधर-उधर भिक्षा मांगता है। जो ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति, कीलक तथा नियोग नहीं जानता उसके लिए गायत्री निष्फल है।जो साधक वर्ण,मुद्रा,ध्यान,पद, आवाहन, विसर्जन तथा दीपचक्र नहीं जानता उसके लिए गायत्री निष्फल है।शक्तिन्यास,स्थान तथा मन्त्रसम्बोधन इन तीनों को जो नहीं जानता उसके लिए गायत्री निष्फल है।पाँचो उपचार,होमद्रव्य तथा पञ्चांग के बिना गायत्री सदा निष्फल रहती हैं।व्यास और बृहस्पति को तप द्वारा स्मृति में गायत्री जागृत हुई। वह गायत्री देवी एक हजार जप करने पर उपपातकों को नष्ट करने वाली होती है।एक लाख जप करने पर वह महापापों को नष्ट करती है।एक करोड़ जप करने के बाद साधक जो चाहता है वह पा सकता है।इस गायत्री मन्त्र को दूसरे के शिष्यों को नहीं देना चाहिये। जो भक्त नहीं हैं उन्हें तो विशेष रूप से नहीं देना चाहिये।अपने भक्तियुक्त शिष्यों को इसे देना चाहिये।अन्यथा करने से साधक को मृत्यु का ग्रास होना पड़ेगा।
॥इति वसिष्ठसंहिता में गायत्री कवच सम्पूर्ण॥

॥गायत्री शाप विमोचनम्॥
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
।मूल पाठ सम्पाद्यताम्।
श्री गायत्री शाप विमोचनम्
शाप मुक्ता हि गायत्री चतुर्वर्ग फल प्रदा।अशाप मुक्ता गायत्री चतुर्वर्ग फलान्तका॥
ॐ अस्य श्री गायत्री। ब्रह्मशाप विमोचन मन्त्रस्य।ब्रह्मा ऋषिः।गायत्री छन्दः।
भुक्ति मुक्तिप्रदा ब्रह्मशाप विमोचनी गायत्री शक्तिः देवता। ब्रह्म शाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः॥
ॐ गायत्री ब्रह्मेत्युपासीत यद्रूपं ब्रह्मविदो विदुः। तां पश्यन्ति धीराः सुमनसां वाचग्रतः।
ॐ वेदान्त नाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमही।तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्।
ॐ गायत्री त्वं ब्रह्म शापत् विमुक्ता भव॥
ॐ अस्य श्री वसिष्ट शाप विमोचन मन्त्रस्य निग्रह अनुग्रह कर्ता वसिष्ट ऋषि।विश्वोद्भव गायत्री छन्दः।
वसिष्ट अनुग्रहिता गायत्री शक्तिः देवता।वसिष्ट शाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः॥
ॐ सोहं अर्कमयं ज्योतिरहं शिव आत्म ज्योतिरहं शुक्रः सर्व ज्योतिरसः अस्म्यहं।
(इति युक्त्व योनि मुद्रां प्रदर्श्य गायत्री त्रयं पदित्व)।
ॐ देवी गायत्री त्वं वसिष्ट शापत् विमुक्तो भव॥
ॐ अस्य श्री विश्वामित्र शाप विमोचन मन्त्रस्य नूतन सृष्टि कर्ता विश्वामित्र ऋषि।वाग्देहा गायत्री छन्दः।
विश्वामित्र अनुग्रहिता गायत्री शक्तिः देवता।
विश्वामित्र शाप विमोचनार्थे जपेविनियोगः॥
ॐ गायत्री भजांयग्नि मुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवाः देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीं इष्टकरीं प्रपद्ये।
यन्मुखान्निसृतो अखिलवेद गर्भः।
शाप युक्ता तु गायत्री सफला न कदाचन।
शापत् उत्तरीत सा तु मुक्ति भुक्ति फल प्रदा।
॥प्रार्थना॥
ब्रह्मरूपिणी गायत्री दिव्ये सन्ध्ये सरस्वती।
अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोने नमोऽस्तुते॥ ब्रह्म शापत् विमुक्ता भव।वसिष्ट शापत् विमुक्ता भव।विश्वामित्र शापत् विमुक्ता भव॥ 

॥गायत्री स्तवराजः॥ विनियोगः-
“ॐ अस्य श्री गायत्री स्तवराज मन्त्रस्य श्रीविश्वामित्रः ऋषिः सकल जननी चतुष्पदा गायत्री परमात्मा देवता।सर्वोत्कृष्टं परम धाम तत्-सवितुर्वरेण्यं बीजं भर्गो देवस्य धीमहि शक्तिः।धियो यो नः प्रचोदयात् कीलकं।ॐ भूः ॐ भुव ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यं ॐ तत्-सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ॐ धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं व्यापकं मम धर्मार्थ काममोक्षार्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः-
श्रीविश्वामित्र ऋषये नमः शिरसि।सकल जननी चतुष्पदा गायत्री परमात्मा देवताये नमः इदि।सर्वोत्कृष्टं परम धाम तत्-सवितुर्वरेण्यं बीजाय नमः लिङ्गे।भर्गो देवस्य धीमहि शक्तये नमः नाभौ।धियो यो नः प्रचोदयात् कीलकाय नमः पादयो। ॐ भूः ॐ भुव ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यं ॐ तत्-सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ॐ धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं व्यापकं नमः सर्वाङ्गे।मम धर्मार्थ काममोक्षार्थे जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ। ॥ध्यान॥
गायत्रीं वेदधात्रीं शतमखफलदां वेदशास्त्रैक वेद्याम्।
चिच्छक्तिं ब्रह्मविद्यां परमशिवपदां श्रीपदं वै करोति।
सर्वोत्कृष्टं पदं तत्सवितुरनु पदान्ते वरेण्यं शरण्यम्, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयादित्यौर्वतेजः॥१॥ साम्राज्यवीजं प्रणव त्रिपादं सव्यापसव्यं प्रजपेत् सहस्रकं।
सम्पूर्ण कामं प्रणवं विभूतिं तथा भवेद् वाक्यविचित्रवाणी॥२॥
शुभं शिव शोभनमस्तु मह्यं सौभाग्यभोगोत्सवमस्तु नित्यं। प्रकाशविद्या त्रयशास्त्रसर्वं भजेन्महामन्त्रफलं प्रिये ! वे॥३॥ ब्रह्मास्त्रे ब्रह्मदण्डं शिरसि शिखिमहद् ब्रह्मशीर्षं नमोन्तकं।
सूक्तं पारायणोक्तं प्रणवमथ महावाक्य सिद्धान्तमूलम्। सूर्यं त्रीणि द्वितीयं प्रथममनु महावेद वेदान्तसूक्तं।
नित्यं स्मृत्यनुसारं नियमित चरितं मूलमन्त्रं नमोऽन्तम्॥ ४॥
अस्त्रं शस्त्रहतं त्वघोरसहितं दण्डेन वाजीहतम्,आदित्यादिहतं शिरोऽन्तसहितं पापक्षयार्थं परम्।तुर्यान्त्यादि विलोममंत्र पठनं बीजं शिखान्तोर्ध्वकम्,नित्यं कालनियम्य विप्रविदुषां किं दुष्कृतं भूसुरान्॥५॥नित्यं मुक्तिप्रदं नियम्य पवनं निर्घोषशक्तित्रयम्, सम्यग्ज्ञान गुरूपदेश विधिवद् देवीं शिखां तामपि।षष्ट्यैकोत्तर संख्ययानुगत सौषुम्णादि मार्गत्रयीम्,ध्यायेन्नित्य समस्त वेदजननीं देवीं त्रिसंध्यामयीम्॥६॥गायत्रीं सकलागमाथ विदुषां सौरस्य बीजेश्वरीम्,सर्वाम्नाय समस्तमंत्रजननीं सर्वज्ञधामेश्वरीम्। ब्रह्मादि त्रयसम्पुटार्थ करणीं संसार पारायणीम् ,सन्ध्यां सर्वसमानतन्त्र परया ब्रह्मानु-सन्धायिनीम्॥७॥
एक दि त्रि चतुः समानगणना वर्णाष्टकं पादयोः,पादादा प्रणवादि मन्त्रपठने मन्त्रत्रयी सम्पुटाम्।
सन्ध्यायां द्विपदं पठेत् परतरं सायं तुरीयं युतम् , नित्यानित्यानन्त कोटिफलदं प्राप्तं नमस्कुर्महे॥८॥
ओजोऽसीति सहोस्यवो बलमसि भ्राजोऽसि तेजस्विनी,वर्चस्वी सविताग्नि सोमममृतं रूपं धरं धीमहि।
देवानां द्विजवर्यतां मुनिगणे मुक्तार्थिनां शान्तिनां,ओमित्येकमृचं पठन्ति यमिनो यं यं स्मरेत् प्राप्नुयात्॥९॥ओमित्येकमज-स्वरूपममलं तत्सप्तधा भादितम् ,तारं तन्त्रसमन्वितं परतरे पादत्रयं गर्भितम्।आपो ज्योति रसोऽमृतं जनमहःसत्यं तपः स्वर्भुवः,भूयो भूय नमामि भूर्भुवः स्वरोमेतैर्महामंत्रकम्॥१०॥ आदौ बिन्दुमनुस्मरन् परतरे बालात्रिवर्णोच्चरन् ,व्याहृत्यादि सबिन्दुयुक्त त्रिपदातारत्रयं तुर्यकम्। आरोहादवरोहतः क्रमगता श्रीकुण्डलीत्थं स्थिता,देवी मानस पङ्कजे त्रिनयना पञ्चानना पातु माम्॥११॥
सर्वे सर्ववश समस्त समये सत्यात्मिके सात्विके,सावित्री सहितात्मके शशियुते सांख्यायन गोत्रजे ! । सन्ध्या त्रीण्युपकल्प्य संग्रहविधिः सन्ध्याभिधा नामके, गायत्री प्रणवादि मन्त्रगुरुणा सम्प्राप्य तस्मै नमः॥१२॥ क्षेमं दिव्यमनोरथाः परतरे चेतः समाधीयताम् ,ज्ञानं नित्य वरेण्यमेतदमलं देवस्य भर्गो धियन्। मोक्ष श्रीर्विजयार्थिनोऽथ सवितुः श्रेष्ठं विधिस्तत्पदम् , प्रज्ञामेध प्रचोदयात् प्रतिदिनं यो नः पदं पातु माम्॥१३॥ सत्यं तत्सवितुर्वरेण्य विरलं विश्वादि मायात्मकम् ,सर्वाद्य प्रतिपाद पादरमया तारं तथा मन्मथम्। तुर्याऽन्य त्रितयं द्वितीयमपरं संयोग सव्याहृतिम् ,सर्वाम्नाय मनोन्मनी मनसिजा ध्यायामि देवीं पराम्॥१४॥
आदौ गायत्रि मन्त्रं गुरुकृत नियमं धर्मकर्मानुकूलम् ,सर्वाद्यं सारभूतं सकल मनुमयं देवतानामगम्यम्। देवानां पूर्वदेव द्विजकुल मुनिभिः सिद्ध विद्याधराद्यैः,को वा वक्तुं समर्थस्तव मनु महिमा बीज राजादिमूलं॥१५॥ गायत्रीं त्रिपदां त्रिबीजसहितां त्रिव्याहृतिं त्रैपदाम् ,त्रिब्रह्म त्रिगुणां त्रिकालनियमां वेदत्रयीं तां पराम्।सांख्यादित्रयरूपिणीं त्रिनयनां मातृत्रयीं तत्पराम् ,त्रैलोक्य त्रिदश त्रिकोटि सहितां सन्ध्यां त्रयीं तां नुमः॥१६॥
ओमित्येतत् त्रिमात्रा त्रिभुवन करणं त्रिस्वरं वह्निरूपं,त्रीणि त्रीणि त्रिपादं त्रिगुणगुणमयं त्रैपुरान्तं त्रिसूक्तं।
तत्वानां पूर्वशक्तिं द्वितयगुरुपदं पीठयन्त्रात्मकं तम,तस्मादेतत् त्रिपादं त्रिपदमनुसरं त्राहि मां भो नमस्ते॥१७॥
स्वस्ति श्रद्धाति मेधा मधुमति मधुरः संशयः प्रज्ञकान्तिः,विद्या बुद्धिर्बलं श्रीरतनुधनपतिः सौम्यवाक्यानुवृत्तिः॥१८॥मेधा प्रज्ञा प्रतिष्ठा मृदुपतिमधूरा पूर्णविद्याप्रपूर्णम् ,प्राप्तं प्रत्यूषचिन्त्यं प्रणवपरवशात् प्राणिनां नित्यकर्मम्॥१८॥
पञ्चाशद्-वर्णमध्ये प्रणवपरयुते मन्त्रमाद्यं नमोऽन्तम्,सर्वं सव्यापसाव्यं शतगुणमभितो वर्ममष्टोत्तरं ते।
एवं नित्यं प्रजप्तं त्रिभुवनसहितं तुर्यमन्त्रं त्रिपादम् ,ज्ञानं विज्ञानगम्यं गगनसुदृशं ध्यायते यः स मुक्तः॥१९॥ आदिक्षान्तसविन्दुयुक्तसहितं मे क्षकारात्मकम्,व्यस्ताव्यस्तसमस्तवर्ग सहितं पूर्ण शताष्टोत्तरम्।
गायत्री जपतां त्रिकाल सहितां नित्यं सनैमित्तिकम् ,चैवं जाप्यफलं शिवेन कथितं सद्भोगमोक्ष प्रदम्॥२०॥ सप्तव्याहृतिसप्ततारविकृति: सत्यं वरेण्यं धृतिः ,सर्वं तत्-सवितुश्च धीमहि महार्भस्य देवं भजे।
धाम्नो धामधर्माधिधारण महान् धीमत्पदं ध्यायते,ॐ तत्सर्वमनुप्रपूर्णं दशकं पादत्रयं केवलम्॥२१॥
विज्ञानं विलसद्-विवेकवचसः प्रज्ञानुसन्धारिणीम् ,श्रद्धामेध्ययशः शिरः सुमनसः स्वस्तिश्रियः स्वां सदा। आयुष्यं धनधान्यलक्ष्मिमतुलां देवीं कटाक्षं परम्।
तत्काले सकलार्थसाधनमहान् मुक्तिर्महत्वं पदम्॥२२॥
पृथ्वी गन्धार्चनायां नभसि कुसुमता वायुर्धूप प्रकर्षो, वह्निर्दीपप्रकाशो जलममृतमयं नित्यसङ्कल्पपूजा।
एतत् सर्वं निवेद्य सुख वसति हृदि सर्वदा दम्पतीनाम् ,त्वं सर्वज्ञ ! शिवं कुरुष्व ममता नाहं त्वया ज्ञेयसि॥२३॥
सौम्यं सौभाग्यहेतु सकलसुखकरं सर्वसौख्यं समस्तं,सत्यं सद्भोगनित्यं सुखजनसुहृदं सुन्दरं श्रीसमस्तं। सौमङ्गल्यं समग्रं सकलशुभकरं स्वस्तिवाचं,सर्वाद्यं सद्विवेकं त्रिपदपदयुगं प्राप्तमध्या समस्तं॥२४॥
गायत्री पदपञ्च पञ्चप्रणवद्वन्द्वं त्रिधा सम्पुटम् ,सृष्ट्यादि क़ममन्त्रजाप्य दशकं देवी पदं क्षुत्त्रयम्।
मन्त्रादिस्थितकेषु सम्पुटमिदं श्रीमातृकावेष्टितं,वर्णान्त्यादिविलोममन्त्र जपनं संहारसम्मोहनम्॥२५॥
भूराद्यं भूर्भुव स्वस्त्रिपदपदयुतं त्र्यक्षमाद्यन्तयोज्यम् ,सृष्टिस्थित्यन्तकार्यं क्रमशिखि सकलं सर्वमन्त्रं प्रशसतम्।
सर्वाङ्गं मातृकाणां मनुमयवपुषं मन्त्रयोगं प्रयुक्तं,संहारं क्षादिवर्णं वसुशतगणनं मन्त्रराजं नमामि॥२६॥
वैश्वामित्र मुदाहृतं हितकरं सर्वार्थसिद्धिप्रदम् ,स्तोत्राणां परमं प्रभातसमये पारायणं नित्यशः। वेदानां विधिवादमन्त्रसकलं सिद्धिप्रदं सम्पदाम् ,सम्प्राप्नोत्यपरत्र सर्वसुखदामायुष्यमारोग्यताम्॥२७॥ ॥श्रीविश्वामित्रकृतो श्रीगायत्रीस्तवराजःशुभ भूयात्॥
{इस स्तव में श्लोक ४, ५, ८, १०, ११, २५, २६ में अन्य मंत्रों के प्रयोग हैं।}

॥श्रीअघनाशक गायत्री स्त्रोत्तमः॥
आदिशक्ते जगन्मातर्भक्तानुग्रहकारिणि।
सर्वत्र व्यापिकेऽनन्ते श्रीसंध्ये ते नमोऽस्तु ते॥
त्वमेव संध्या गायत्री सावित्रि च सरस्वती।
ब्राह्मी च वैष्णवी रौद्री रक्ता श्वेता सितेतरा॥
प्रातर्बाला च मध्याह्ने यौवनस्था भवेत्पुनः।
वृद्धा सायं भगवती चिन्त्यते मुनिभिः सदा॥
हंसस्था गरुडारूढा तथा वृषभवाहिनी।
ऋग्वेदाध्यायिनी भूमौ दृश्यते या तपस्विभिः॥
यजुर्वेदं पठन्ती च अन्तरिक्षे विराजते। सा सामगापि सर्वेषु भ्राम्यमाणा तथा भुवि॥
रुद्रलोकं गता त्वं हि विष्णुलोकनिवासिनी।
त्वमेव ब्रह्मणो लोकेऽमर्त्यानुग्रहकारिणी॥
सप्तर्षिप्रीतिजननी माया बहुवरप्रदा। शिवयोः करनेत्रोत्था ह्यश्रुस्वेदसमुद्भवा॥
आनन्दजननी दुर्गा दशधा परिपठ्यते। वरेण्या वरदा चैव वरिष्ठा वरर्व्णिनी॥
गरिष्ठा च वराही च वरारोहा च सप्तमी।
नीलगंगा तथा संध्या सर्वदा भोगमोक्षदा॥
भागीरथी मर्त्यलोके पाताले भोगवत्यपि॥
त्रिलोकवाहिनी देवी स्थानत्रयनिवासिनी॥
भूर्लोकस्था त्वमेवासि धरित्री शोकधारिणी। भुवो लोके वायुशक्तिः स्वर्लोके तेजसां निधिः॥
महर्लोके महासिद्धिर्जनलोके जनेत्यपि।
तपस्विनी तपोलोके सत्यलोके तु सत्यवाक्॥
कमला विष्णुलोके च गायत्री ब्रह्मलोकगा।
रुद्रलोके स्थिता गौरी हरार्धांगीनिवासिनी॥
अहमो महतश्चैव प्रकृतिस्त्वं हि गीयसे।
साम्यावस्थात्मिका त्वं हि शबलब्रह्मरूपिणी॥
ततः परापरा शक्तिः परमा त्वं हि गीयसे।
इच्छाशक्तिः क्रियाशक्तिर्ज्ञानशक्तिस्त्रिशक्तिदा॥
गंगा च यमुना चैव विपाशा च सरस्वती।
सरयूर्देविका सिन्धुर्नर्मदेरावती तथा॥
गोदावरी शतद्रुश्च कावेरी देवलोकगा। कौशिकी चन्द्रभागा च वितस्ता च सरस्वती॥
गण्डकी तापिनी तोया गोमती वेत्रवत्यपि।
इडा च पिंगला चैव सुषुम्णा च तृतीयका॥
गांधारी हस्तिजिह्वा च पूषापूषा तथैव च।
अलम्बुषा कुहूश्चैव शंखिनी प्राणवाहिनी॥
नाडी च त्वं शरीरस्था गीयसे प्राक्तनैर्बुधैः।
हृतपद्मस्था प्राणशक्तिः कण्ठस्था स्वप्ननायिका॥
तालुस्था त्वं सदाधारा बिन्दुस्था बिन्दुमालिनी।
मूले तु कुण्डली शक्तिर्व्यापिनी केशमूलगा॥
शिखामध्यासना त्वं हि शिखाग्रे तु मनोन्मनी।
किमन्यद् बहुनोक्तेन यत्किंचिज्जगतीत्रये॥
तत्सर्वं त्वं महादेवि श्रिये संध्ये नमोऽस्तु ते।
इतीदं कीर्तितं स्तोत्रं संध्यायां बहुपुण्यदम्॥
महापापप्रशमनं महासिद्धिविधायकम्।
य इदं कीर्तयेत् स्तोत्रं संध्याकाले समाहितः॥
अपुत्रः प्राप्नुयात् पुत्रं धनार्थी धनमाप्नुयात्। सर्वतीर्थतपोदानयज्ञयोगफलं लभेत्॥
भोगान् भुक्त्वा चिरं कालमन्ते मोक्षमवाप्नुयात्।
तपस्विभिः कृतं स्तोत्रं स्नानकाले तु यः पठेत्॥
यत्र कुत्र जले मग्नः संध्यामज्जनजं फलम्।
लभते नात्र संदेहः सत्यं च नारद॥
श्रृणुयाद्योऽपि तद्भक्त्या स तु पापात् प्रमुच्यते।
पीयूषसदृशं वाक्यं संध्योक्तं नारदेरितम्॥
॥इति श्रीअघनाशक गायत्री स्तोत्रं सम्पूर्णम्॥

॥गायत्री हृदयम॥
इस गायत्री हृदयम को कई ग्रंथों में ‘गायत्री उपनिषद’ भी कहा गया है।मित्रों आपको विदित ही है कि उपनिषदों में ब्रह्मज्ञान की,तत्वज्ञान की चर्चा होती है।इसलिए इसे उपनिषद कहना उचित ही होगा।यहाँ आपके समक्ष इसके १८से २५ श्लोकों को वर्णित करते हर्षानुभूति हो रही है।गायत्री-हृद्यम इस प्रकार;
कान्यक्षर देवतानि भवन्ति?॥१८॥
प्रथम माग्नेयं,द्वितीयं प्राजापत्यं,तृतीयं सौम्य,चतुर्थमशानं,पञ्चमादित्यं,षष्ठं ब्राहस्पत्यं,सप्तमं भर्गदैवत्यम्,अष्टमं पितृदैवत्यं,नवममर्यमण, दशमं सावित्रं,एकादशं त्वाष्ट्रं, द्वादशं पौष्णं,त्रयोदशं मैन्द्राग्न्यं, पञ्चदशं वाम देव्यं शोडषं मैत्रावरुणं, सप्तदशं वाभ्रुव्यं,अष्टादशं वैश्व देव्यम्,एकोनविंशतिकं वैष्णव्यं,विंशतिकं वासवाम्,एकविंशतिकं तौषित्तं, द्वाविंशतिकं कौवेरं,त्रियोविंशतिकं आश्विनं,चतुर्विंशतिकं ब्राह्यं इत्यक्षर दैवतानि भवन्ति॥१९॥
गायत्री के चौबीस अक्षरों के देवता कौन-कौन हैं? इसका उत्तर देते हुए बताते हैं कि तत्-का देवता अग्नि,स का प्रजापति,वि-का सोम,तुः- का ईशान,य-का नदिति,रे-का बृहस्पति, णि-का भग,यम्-का पित,भ-का अर्यमा,र्गो-का सविता,दे-का तुष्टा, व-का पूषा,न्य-का इन्द्र और अग्नि, धी-का वायु,म-का कामदेव,हि-का मित्र और वरुण,धि-का वभ्रु, यो-का विश्वदेव,यो-का विष्णु,नः-का वसु, प्र-का तुषित,चो-का कुबेर,दु-का अश्विनीकुमार और यात् का ब्रह्मा देवता है।
यह देवता प्रत्येक अक्षर की शक्तियाँ हैं।इन शक्तियों का गायत्री के अक्षर प्रतिनिधित्त्व करते हैं।इस महामन्त्र के साथ-साथ उन शक्तियों का साधन में आविर्भाव होता है।
द्यो मूर्धाग्नि संगतास्ते,ललाटे रुद्रः भ्रुर्वोर्मेघः चक्षुषोश्चन्द्रादित्यौ,कर्णयोः शुक्र बृहस्पती,नासिके वायुदेवत्ये दन्तौष्ठा वुभयसन्ध्ये मुखमग्निं जिह्वा सरस्वती ग्रीवा साध्यानु गृहीतिः स्तनयोर्वसवः वाह्रोर्मरुतः, हृदयं पार्ज्जन्यमाकाश मुदरं,नाभिरन्तरिक्ष, कटिरिन्द्राग्नी,जघन प्राजापत्यं,कैलाश मलयाबूरु,विश्वेदेवाजानुनो, जह्रु,कुशिकौजङघाद्वयं,खुराः पितराः पादौ वनस्पतयः अंगुलयो रोमाणि,नखाश्च मुहर्त्तास्तेऽपि ग्रहा केतुर्मासा ऋतुवः संध्या कालस्तथाच्छादनं सम्वत्सरो निमिषमहोरात्रि आदित्यश्चन्द्रमाः॥२०॥
गायत्री को यदि एक मनुष्याकृति देवी माना जाय,तो उसके अंग-प्रत्यंगो में विविध देव-शक्तियों की स्थापना माननी होगी।गायत्री का ध्यान जब मनुष्याकृति की देवी रुप में करते हैं,तो उसके दिव्य होने की धारणा की जाती है।गायत्री के अंग-प्रत्यंगों में जो दिव्य शक्तियाँ निवास करती हैं,उनका ध्यान भी साधक को करना होता है। जब साधक अपने को गायत्री शक्ति से ओतप्रोत अनुभव करे,तब भी उसे ऐसा ही ज्ञान होना चाहिये कि मैं स्वयं उन शक्तियों से ओतप्रोत हो रहा हूँ।मेरे अंग-प्रत्यंगों में वे ही देवता गण समाये हुए हैं,जो गायत्री के अंगों में है। इस भावना के कारण साधक अपने उपास्य देव की जाति में आ जाता है।कहा है कि ‘‘देव बनकर देवता की उपासना करना चाहिये।’’ देव शक्तियाँ हमारे अंग-प्रत्यंगों में विराजमान हैं,यह भावना आत्म-श्रेष्ठता का संचार करती है।आत्म-स्थिति को देव-उपासना के योग्य बनाती है।
गायत्री के अंगों में देव-शक्तियों की स्थापना का वर्णन;
गायत्री के मस्तक में स्वर्ग,ललाट में रुद्र,भ्रुवों में मेघ,दोनों नेत्रों में चन्द्र सूर्य,दोनों कानों में शुक्र और बृहस्पति,दोनों नथुनों में वायु,दन्त और ओष्ठों में दोनों सन्ध्याएँ, मुख में अग्नि,जिह्वा में सरस्वती,ग्रीवा में साध्य गण,स्तनों में वसु गण,दोनों भुजाओं में मरुद़्गण,हृदय में इन्द्र, उदर में आकाश,कटि में अग्नि,जघन में प्रजापति,उरु में कैलाश और मलय पर्वत,जंघा में जह्न और कुशिक तलबों में पितृगण,चरण में वनस्पति गण,अंगुलियों में रोम और नखों में मुहूर्त्त,गृह,धूमकेतु,मास,ऋतु और सन्ध्याएँ,आच्छादन,सम्वत्सर,वर्ष, दिन,रात्रि,सूर्य और चन्द्र गायत्री के निमेष हैं।
सहस्त्र परमां देवीं शतमध्यां दशावरां।
सहस्त्र नेत्रां गायत्रीं शरणमहं प्रपद्यते॥२१॥
ॐ तत् सवितुर्वरेण्याय नमः।ॐ तत् पूर्व जपाय नमः।
ॐ तत् प्रातरादित्य प्रतिष्ठाय नमः॥२२॥
सायमधीयानो दिवस कृतं पापं नाशयति।प्रातरधीयानो रात्रि कृतं पापं नाशयति।तत् सायं प्रातरधीयानो पापोऽपापो भवति॥२३॥
य इदं गायत्री हृदयं ब्राह्मणः पठेत् अपेय पानात् पूतो भवति,अज्ञानात् पूतो भवति स्वर्ण स्तेयात् पूतो भवति, गुरु तल्पगमनात् पूतो भवति अपंक्ति पावनात् पूतो भवति ब्रह्म हत्यायाः पूतो भवति,अब्रह्मचारी सब्रह्मचारी भवति, इत्यनेन हृदये नाधोतेन क्रतुः सम्यगिष्टो भवति,षष्टि गायत्र्याः शत सहस्त्राणि जप्तानि भवति अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यम् ग्राहोत्।अथ सिद्धिर्भवति॥२४॥
इदं ब्राह्मणोनित्यमधी यीते सर्व पापैः प्रमुच्यते इति ब्रह्मलोके महीयते इत्याह भगवान याज्ञवल्क्यः॥२५॥
॥इति ‘गायत्री हृदयं’ सम्पूर्णम्॥
गायत्री का एक हजार जप नित्य करना श्रेष्ठ है।इतना न हो सके तो मध्यम रुप से सौ जप भी किये जा सकते हैं।अन्ततः इतना भी न हो सके तो कम से कम दस बार तो अवश्य ही करना चाहिये।गायत्री सहस्त्र नेत्र वाली है,उसकी हजारों आँखें हैं,वह सर्वत्र सब कुछ देखती है,उससे कुछ भी छिपा हुआ नहीं है, ऐसी सर्वत्रदर्शी ईश्वरीय शक्ति को सर्वव्यापक समझकर अपने विचार और कार्य ऐसे रखने चाहिये,जो दिव्य हों, माता की दृष्टि में उचित,उत्तम धर्ममय जँचे,अपने उद्देश्य,आचरण और व्यवहार को श्रेष्ठ रखना ही गायत्री की शक्ति है। सच्चा साधक वह है,जो भक्तिपूर्वक वेदमाता की शरण में जाता है।ॐ तत् सवितुर्वरेण्यं इत्यादि पदों वाले मन्त्रों को नमस्कार है,जिनके द्वारा माता का साक्षात्कार होता है।ॐ तत् आदि शब्दों के साथ किये हुए पूर्व जप को नमस्कार है,क्योंकि उस जप के द्वारा आत्म-ब्रह्म की प्राप्ति होती है।ॐ तत् सहित भगवान आदित्य को नमस्कार है,क्योंकि उसके प्रकाश और प्रेरणा से पथ में प्रगति होती है॥
सायंकाल में गायत्री का पाठ करने से दिन में किए हुए पाप नष्ट हो जाते हैं।प्रातः में पाठ करने से रात्रि में किये हुए पाप नष्ट होते हैं।सायं प्रातः दोनों समय पाठ करने से पापी भी निष्पाप हो जाता है।मद्यादि पीने,अभक्ष खाने, अज्ञान में डूबे रहने,चोरी करने, व्यभिचार,ब्रह्महत्या,दुराचार आदि पापों से छुटकारा मिल पाता है।जो इसको नित्य पढ़ता है,वह पापों से छूट जाता है,ऐसा भगवान याज्ञवल्क्य ने कहा है।पाठ के द्वारा निष्पाप हो जाने का रहस्य यह है कि श्रद्धा और विश्वासपूर्वक इस महान ब्रह्म विद्या का विवेचन,चिन्तन,मनन करने के कारण विवेक की जागृति होती है।मनुष्य को पाप की निरर्थकता और पुण्य की सार्थकता समझ में आ जाती है।फलस्वरुप वह कुमार्ग से विरत होकर सन्मार्ग पर चलना अपनी नीति बनाता है।अन्तःकरण में धँसे हुए अज्ञानान्धकार को बहिष्कृत करके ज्ञान का प्रकाश धारण करता है।पूर्वकृत पापों का प्रायश्चित करता है और भविष्य में उन्हें न करने की प्रतिज्ञा करता है।ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने पर नये पाप हो जाना बन्द हो जाता है,पुराने प्रारब्ध बने हुए पाप धीरे-धीरे भुगतते जाते हैं, इस प्रकार वह थोड़े ही दिनों में निष्पाप बन जाता है।कुबुद्धि का परित्याग और सद़्बुद्धि की धारणा ही पाप नाश का वास्तविक कारण है।परन्तु वह कारण यदि इस ब्रह्मज्ञान के पाठ,चिन्तन,मनन से उत्पन्न हुआ है तो उसका श्रेय इस पाठ का मनन को ही दिया जायगा।इसीलिये पाठ द्वारा पाप निवृत्ति का वर्णन किया जाता है॥
‘गायत्री-हृदय’ में जो विस्तृत तत्त्व ज्ञान भरा पड़ा है, उसको भली प्रकार हृदयंगम कर लेने से आत्मा में उतना ही प्रकाश हो जाता है,उतनी ही आत्म-शुद्धि हो जाती है,जितनी कि साठ लाख गायत्री जप करने से।इस ‘गायत्री-हृदयम्’ में वर्णित तत्त्व ज्ञान को आत्मसात कर लेने का पुण्य-फल इतना अधिक है कि इसकी तुलना और किसी कार्य से नहीं की जा सकती॥
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॥श्रीमद्देवीभागवत महापुराणमें गायत्रीहृदयम॥
॥नारद उवाच॥
भगवन्देवदेवेश भूतभव्य जगत्प्रभो।
कवचं च शृतं दिव्यं गायत्रीमन्त्रविग्रहम॥१॥
अधुना श्रोतुमिच्छामि गायत्रीहृदयं परम।
यद्धारणाद्भवेत्पुण्यं गायत्रीजपतोऽखिलम॥२॥
॥श्रीनारायण उवाच॥
देव्याश्च हृदयं प्रोक्तं नारदाथर्वणे स्फुटम।
तदेवाहं प्रवक्ष्यामि रहस्यातिरहस्यकम॥३॥
विराड्रूपां महादेवीं गायत्रीं वेदमातरम।
ध्यात्वा तस्यास्त्वथाङ्गेषु ध्यायेदेताश्च देवताः॥४॥
पिण्डब्रह्मण्दयोरैक्याद्भावयेत्स्वतनौ तथा।
देवीरूपे निजे देहे तन्मयत्वाय साधकः॥५॥
नादेवोऽभ्यर्चयेद्देवमिति वेदविदो विदुः।
ततोऽभेदाय काये स्वे भावयेद्देवता इमाः॥६॥
अथ तत्सम्प्रवक्ष्यामि तन्मयत्वमयो भवेत।
गायत्रीहृदयस्यास्याप्यहमेव ऋषिः स्मृतः॥७॥
गायत्रीछन्द उद्दिष्टं देवता परमेश्वरी।
पूर्वोक्तेन प्रकारेण कुर्यादङ्गानि षट क्रमात।
आसने विजने देशे ध्यायेदेकाग्रमानसः॥८॥bhaktipath.wordpress.com

॥ सर्व गायत्रीमन्त्राः॥
॥विभिन्न देवो के गायत्री मंत्र॥

१- सूर्य ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
२-ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि तन्नो भानुः प्रचोदयात्॥
३-ॐ प्रभाकराय विद्महे दिवाकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥
४-ॐ अश्वध्वजाय विद्महे पाशहस्ताय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥
५- ॐ भास्कराय विद्महे महद्द्युतिकराय धीमहि तन्न आदित्यः प्रचोदयात्॥

६-ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥
७-ॐ भास्कराय विद्महे महातेजाय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥
८- ॐ भास्कराय विद्महे महाद्द्युतिकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्॥
९- चन्द्र ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात्॥
१०- ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात्॥
११- ॐ निशाकराय विद्महे कलानाथाय धीमहि तन्नः सोमः प्रचोदयात्॥
१२- अङ्गारक,भौम,मङ्गल,कुज ॐ वीरध्वजाय विद्महे विघ्नहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात् ॥
१३- ॐ अङ्गारकाय विद्महे भूमिपालाय धीमहि तन्नः कुजः प्रचोदयात्॥
१४-ॐ चित्रिपुत्राय विद्महे लोहिताङ्गाय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात्॥
१५-ॐ अङ्गारकाय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात्॥
१६- बुध ॐ गजध्वजाय विद्महे सुखहस्ताय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात्॥
१७- ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे रोहिणी प्रियाय धीमहि तन्नो बुधः
प्रचोदयात्॥
१८-ॐ सौम्यरूपाय विद्महे वाणेशाय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात्॥
१९-गुरु ॐ वृषभध्वजाय विद्महे क्रुनिहस्ताय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥
२०- ॐ सुराचार्याय विद्महे सुरश्रेष्ठाय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥
२१- शुक्र ॐ अश्वध्वजाय विद्महे धनुर्हस्ताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥
२२- ॐ रजदाभाय विद्महे भृगुसुताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥
२३- ॐ भृगुसुताय विद्महे दिव्यदेहाय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात्॥
२४- शनीश्वर,शनैश्चर,शनी ॐ काकध्वजाय विद्महे खड्गहस्ताय धीमहि तन्नो मन्दः प्रचोदयात्॥
२५- ॐ शनैश्चराय विद्महे सूर्यपुत्राय धीमहि तन्नो मन्दः प्रचोदयात्॥
२६- ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्नः सौरिः प्रचोदयात्॥
२७- राहु ॐ नाकध्वजाय विद्महे पद्महस्ताय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात्॥
२८- ॐ शिरोरूपाय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात्॥
२९-केतु ॐ अश्वध्वजाय विद्महे शूलहस्ताय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥
३०- ॐ चित्रवर्णाय विद्महे सर्परूपाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥
३१- ॐ गदाहस्ताय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात्॥
३२- पृथ्वी ॐ पृथ्वी देव्यै विद्महे सहस्रमर्त्यै च धीमहि तन्नः पृथ्वी प्रचोदयात्॥
३३- ब्रह्मा ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारूढाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥
३४- ॐ वेदात्मनाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥
३५- ॐ चतुर्मुखाय विद्महे कमण्डलुधराय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥
३६- ॐ परमेश्वराय विद्महे परमतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥
३७- विष्णु ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥
३८-नारायण ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥
३९-वेङ्कटेश्वर ॐ निरञ्जनाय विद्महे निरपाशाय धीमहि तन्नः श्रीनिवासः प्रचोदयात्॥
४०-राम ॐ रघुवंश्याय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात्॥
४१- ॐ दाशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात्॥
४२- ॐ भरताग्रजाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात्॥
४३- ॐ भरताग्रजाय विद्महे रघुनन्दनाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात्॥
४४- कृष्ण ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥
४५- ॐ दामोदराय विद्महे रुक्मिणीवल्लभाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥
४६- ॐ गोविन्दाय विद्महे गोपीवल्लभाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥
४७- गोपाल ॐ गोपालाय विद्महे गोपीजनवल्लभाय धीमहि तन्नो गोपालः प्रचोदयात्॥
४८- पाण्डुरङ्ग ॐ भक्तवरदाय विद्महे पाण्डुरङ्गाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात्॥
४९- नृसिंह ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि तन्नो नारसिꣳहः प्रचोदयात्॥
५०- ॐ नृसिंहाय विद्महे वज्रनखाय धीमहि तन्नः सिंहः प्रचोदयात्॥
५१- परशुराम ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नः परशुरामः प्रचोदयात्॥

52 इन्द्र ॐ सहस्रनेत्राय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि तन्न इन्द्रः प्रचोदयात्॥
५३- हनुमान ॐ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि तन्नो हनूमान् प्रचोदयात्॥
54 ॐ आञ्जनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि तन्नो हनूमान् प्रचोदयात्॥
55 मारुती ॐ मरुत्पुत्राय विद्महे आञ्जनेयाय धीमहि तन्नो मारुतिः प्रचोदयात्॥
56 दुर्गा ॐ कात्यायनाय विद्महे कन्यकुमारी च धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥
57 ॐ महाशूलिन्यै विद्महे महादुर्गायै धीमहि तन्नो भगवती प्रचोदयात्॥
58 ॐ गिरिजायै च विद्महे शिवप्रियायै च धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥
59 शक्ति ॐ सर्वसंमोहिन्यै विद्महे विश्वजनन्यै च धीमहि तन्नः शक्तिः प्रचोदयात्॥
60 काली ॐ कालिकायै च विद्महे श्मशानवासिन्यै च धीमहि तन्न अघोरा प्रचोदयात्॥
61 ॐ आद्यायै च विद्महे परमेश्वर्यै च धीमहि तन्नः कालीः प्रचोदयात्॥
62 देवी ॐ महाशूलिन्यै च विद्महे महादुर्गायै धीमहि तन्नो भगवती प्रचोदयात्॥
63 ॐ वाग्देव्यै च विद्महे कामराज्ञै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥
64 गौरी ॐ सुभगायै च विद्महे काममालिन्यै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥
65 लक्ष्मी ॐ महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नीश्च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥
66 ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥
67 सरस्वती ॐ वाग्देव्यै च विद्महे विरिञ्चिपत्न्यै च धीमहि तन्नो वाणी प्रचोदयात्॥
६८- सीता ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे भूमिजायै च धीमहि तन्नः सीता प्रचोदयात्॥
६९- राधा ॐ वृषभानुजायै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि तन्नो राधा प्रचोदयात्॥
70 अन्नपूर्णा ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि तन्न अन्नपूर्णा प्रचोदयात्॥
71 तुलसी ॐ तुलसीदेव्यै च विद्महे विष्णुप्रियायै च धीमहि तन्नो बृन्दः प्रचोदयात्॥
७२- महादेव ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥
73 रुद्र ॐ पुरुषस्य विद्महे सहस्राक्षस्य धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥
74 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥
75 शङ्कर ॐ सदाशिवाय विद्महे सहस्राक्ष्याय धीमहि तन्नः साम्बः प्रचोदयात्॥
76 नन्दिकेश्वर ॐ तत्पुरुषाय विद्महे नन्दिकेश्वराय धीमहि तन्नो वृषभः प्रचोदयात्॥
77 गणेश ॐ तत्कराटाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥
78 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥
79 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥
80 ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥
८१- ॐ लम्बोदराय विद्महे महोदराय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥
82 षण्मुख ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः स्कन्दः प्रचोदयात्॥
83 ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षष्ठः प्रचोदयात् ॥
84 सुब्रह्मण्य ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षण्मुखः प्रचोदयात् ॥
85 ॐ ॐ ॐकाराय विद्महे डमरुजातस्य धीमहि! तन्नः प्रणवः प्रचोदयात् ॥
86 अजपा ॐ हंस हंसाय विद्महे सोऽहं हंसाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥
87 दक्षिणामूर्ति ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि तन्नो धीशः प्रचोदयात् ॥
८८- गुरु ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्मणे धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्॥
89 हयग्रीव ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥
90 अग्नि ॐ सप्तजिह्वाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात् ॥
91 ॐ वैश्वानराय विद्महे लालीलाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात्॥
92 ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि तन्नो अग्निः प्रचोदयात् ॥
93 यम ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि तन्नो यमः प्रचोदयात्॥
94 वरुण ॐ जलबिम्बाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि तन्नो वरुणः प्रचोदयात् ॥
95 वैश्वानर ॐ पावकाय विद्महे सप्तजिह्वाय धीमहि तन्नो वैश्वानरः प्रचोदयात् ॥
96 मन्मथ ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पवनाय धीमहि तन्नः कामः प्रचोदयात् ॥
97 हंस ॐ हंस हंसाय विद्महे परमहंसाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥
98 ॐ परमहंसाय विद्महे महत्तत्त्वाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥
99 नन्दी ॐ तत्पुरुषाय विद्महे चक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो नन्दिः प्रचोदयात्॥
100 गरुड ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात्॥

101 सर्प ॐ नवकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि तन्नः सर्पः प्रचोदयात्॥
102 पाञ्चजन्य ॐ पाञ्चजन्याय विद्महे पावमानाय धीमहि तन्नः शङ्खः प्रचोदयात्॥
103 सुदर्शन ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्नश्चक्रः प्रचोदयात्॥
104 अग्नि ॐ रुद्रनेत्राय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो वह्निः प्रचोदयात् ॥
105 ॐ वैश्वानराय विद्महे लाललीलाय धीमहि तन्नोऽग्निः प्रचोदयात् ॥
106 ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निमथनाय धीमहि तन्नोऽग्निः प्रचोदयात् ॥
107 आकाश ॐ आकाशाय च विद्महे नभोदेवाय धीमहि तन्नो गगनं प्रचोदयात् ॥
108 अन्नपूर्णा ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि तन्नोऽन्नपूर्णा प्रचोदयात्॥
109 बगलामुखी ॐ बगलामुख्यै च विद्महे स्तम्भिन्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
110 बटुकभैरव ॐ तत्पुरुषाय विद्महे आपदुद्धारणाय धीमहि तन्नो बटुकः प्रचोदयात् ॥
111 भैरवी ॐ त्रिपुरायै च विद्महे भैरव्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥
112 भुवनेश्वरी ॐ नारायण्यै च विद्महे भुवनेश्वर्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥
113 ब्रह्मा ॐ पद्मोद्भवाय विद्महे देववक्त्राय धीमहि तन्नः स्रष्टा प्रचोदयात्॥
114 ॐ वेदात्मने च विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥
115 ॐ परमेश्वराय विद्महे परतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्॥
116 चन्द्र ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृततत्त्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात्॥
117 छिन्नमस्ता ॐ वैरोचन्यै च विद्महे छिन्नमस्तायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥
118 दक्षिणामूर्ति ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि तन्नो धीशः प्रचोदयात्॥
119 देवी ॐ देव्यैब्रह्माण्यै विद्महे महाशक्त्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥
120 धूमावती ॐ धूमावत्यै च विद्महे संहारिण्यै च धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात्॥
121 दुर्गा ॐ कात्यायन्यै विद्महे कन्याकुमार्यै धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥
122 ॐ महादेव्यै च विद्महे दुर्गायै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥
123 गणेश ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥
१२४- ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥
125 गरुड ॐ वैनतेयाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात्॥



शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

हे वीणा वादिनी मात शारदे आज हमें वर दे- रचनाकार- डॉ अवधेश कुमार सिंह

हे वीणा वादिनी मात शारदे आज हमें वर दे
ना स्वर है ना सरगम हममें कैसे तेरा गुण गाये।
टूटी फूटी बाणी लेकर द्वार तुम्हारे आए,
हे अमुक रागिनी हंस वाहिनी आज हमें वर दे।
हे वीणा वादिनी मात शारदे..................

मैं बालक अबोध अज्ञानी निशदिन ठोकर खाये
मन के अंधेरे छट जायेंगे बैठे आस लगाये,
हे ज्ञान दायिनी हंस वाहिनी आज हमें वर दे।
हे वीणा वादिनी मात शारदे............

पथ कठिन और अंबर ऊँचा कैसे कदम बढ़ाए
ज्ञान कुंड का घट खाली है कैसे तुम्हें समझाएं
है ग्रंथ धारणी हंस वाहिनी आज हमें वर दें।
हे वीणा वादिनी मात शारदे..............

रचनाकार- डॉ अवधेश कुमार सिंह