गुरुवार, 14 जुलाई 2022

पूज्य संत आदरणीय श्री युश जी महाराज के सानिध्य में गुरुपूर्णिमा के शुभ अवसर पर आशीर्वाद की प्राप्ति-

आज दिनांक 13 जुलाई 2022 को गुरु पूर्णिमा के त्यौहार पर श्री लखेश्वर ब्रह्म धाम,सोनहरिया,करण्डा, गाजीपुर मैं परम पूज्य आदरणीय संत श्री युश जी महाराज Yush Maharaj के सानिध्य में गुरु पूर्णिमा के पर्व का धूमधाम से आयोजन किया गया इस आयोजन में रेवतीपुर ग्राम की श्री रणधीर सिंह यादव जी को पर्यावरण क्षेत्र में उनकी उत्कृष्ट योगदान ( लगभग 4500 पौधों का वृक्षारोपण के साथ उनकी सुरक्षा ) के लिए विशेष सम्मान दिया गया इस कार्यक्रम में  समाजसेवियों के साथ दो महान संत श्री गोपाल दास व श्री राजनाथ जी को भी सम्मान दिया गया। कार्यक्रम के आकर्षण रूप में छोटे बच्चों के गीत संगीत नृत्य के कार्यक्रम के साथ शास्त्रीय गायन का भी क्षेत्र वासियों ने खूब आनन्द लिया।।
 

गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥

गुरू को कीजै दंडवत, कोटि कोटि परनाम।
कीट न जानै भृंग को, गुरू करिले आप समान॥

दंडवत गोविंद गुरू, बन्दौं ‘अब जन’ सोय।
पहिले भये प्रनाम तिन, नमो जु आगे होय॥

गुरू गोविंद कर जानिये, रहिये शब्द समाय।
मिलै तो दंडवत बंदगी, नहिं पल पल ध्यान लगाय॥

गुरू गोविंद दोऊ खङे, किसके लागौं पाँय।
बलिहारी गुरू आपने, गोविंद दियो बताय॥

गुरू गोविंद दोउ एक हैं, दूजा सब आकार।
आपा मेटै हरि भजै, तब पावै दीदार॥

गुरू हैं बङे गोविंद ते, मन में देखु विचार।
हरि सिरजे ते वार हैं, गुरू सिरजे ते पार॥

गुरू तो गुरूआ मिला, ज्यौं आटे में लौन।
जाति पाँति कुल मिट गया, नाम धरेगा कौन॥

गुरू सों ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजिये दान।
बहुतक भौंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान॥

गुरू की आज्ञा आवई, गुरू की आज्ञा जाय।
कहै कबीर सो संत है, आवागवन नसाय॥

गुरू पारस गुरू पुरुष है, चंदन वास सुवास।
सतगुरू पारस जीव को, दीन्हा मुक्ति निवास॥

गुरू पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त।
वह लोहा कंचन करै, ये करि लेय महन्त॥

कुमति कीच चेला भरा, गुरू ज्ञान जल होय।
जनम जनम का मोरचा, पल में डारे धोय॥

गुरू धोबी सिष कापङा, साबू सिरजनहार।
सुरति सिला पर धोइये, निकसै जोति अपार॥

गुरू कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहिर वाहै चोट॥

गुरू समान दाता नहीं, याचक सीष समान।
तीन लोक की संपदा, सो गुरू दीन्ही दान॥

पहिले दाता सिष भया, तन मन अरपा सीस।
पाछै दाता गुरू भये, नाम दिया बखसीस॥

गुरू जो बसै बनारसी, सीष समुंदर तीर।
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुन होय सरीर॥

लच्छ कोस जो गुरू बसै, दीजै सुरति पठाय।
शब्द तुरी असवार ह्वै, छिन आवै छिन जाय॥

गुरू को सिर पर राखिये, चलिये आज्ञा मांहि।
कहे कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहिं॥

गुरू को मानुष जो गिनै, चरनामृत को पान।
ते नर नरके जायेंगे, जनम जनम ह्वै स्वान॥

गुरू को मानुष जानते, ते नर कहिये अंध।
होय दुखी संसार में, आगे जम का फ़ंद॥

गुरू बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरू बिन मिलै न भेव।
गुरू बिन संशय ना मिटै, जय जय जय गुरूदेव॥

गुरू बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।
गुरू बिन लखै न सत्य को, गुरू बिन मिटै न दोष॥

गुरू नारायन रूप है, गुरू ज्ञान को घाट।
सतगुरू वचन प्रताप सों, मन के मिटे उचाट॥

गुरू महिमा गावत सदा, मन अति राखे मोद।
सो भव फ़िरि आवै नहीं, बैठे प्रभु की गोद॥

गुरू सेवा जन बंदगी, हरि सुमिरन वैराग।
ये चारों तबही मिले, पूरन होवै भाग॥

गुरू मुक्तावै जीव को, चौरासी बंद छोर।
मुक्त प्रवाना देहि गुरू, जम सों तिनुका तोर॥

गुरू सों प्रीति निबाहिये, जिहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरू कंत॥

गुरू मारै गुरू झटकरै, गुरू बोरे गुरू तार।
गुरू सों प्रीति निबाहिये, गुरू हैं भव कङिहार॥

हिरदे ज्ञान न ऊपजे, मन परतीत न होय।
ताको सदगुरू कहा करै, घनघसि कुल्हरा न होय॥

घनघसिया जोई मिले, घन घसि काढ़े धार।
मूरख ते पंडित किया, करत न लागी वार॥

सिष पूजै गुरू आपना, गुरू पूजे सब साध।
कहै कबीर गुरू सीष का, मत है अगम अगाध॥

गुरू सोज ले सीष का, साधु संत को देत।
कहै कबीरा सौंज से, लागे हरि से हेत॥

सिष किरपन गुरू स्वारथी, मिले योग यह आय।
कीच कीच कै दाग को, कैसे सकै छुङाय॥

देस दिसन्तर मैं फ़िरूं, मानुष बङा सुकाल।
जा देखै सुख ऊपजै, वाका पङा दुकाल॥

सत को ढूंढ़त में फ़िरूं, सतिया मिलै न कोय।
जब सत कूं सतिया मिले, विष तजि अमृत होय॥

स्वामी सेवक होय के, मन ही में मिलि जाय।
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के मांय॥

धन धन सिष की सुरति कूं, सतगुरू लिये समाय।
अन्तर चितवन करत है, तुरतहि ले पहुंचाय॥

गुरू विचारा क्या करै, बांस न ईंधन होय।
अमृत सींचै बहुत रे, बूंद रही नहि कोय॥

गुरू भया नहि सिष भया, हिरदे कपट न जाव।
आलो पालो दुख सहै, चढ़ि पाथर की नाव॥

चच्छु होय तो देखिये, जुक्ती जानै सोय।
दो अंधे को नाचनो, कहो काहि पर मोय॥

गुरू कीजै जानि कै, पानी पीजै छानि।
बिना विचारै गुरू करै, पङै चौरासी खानि॥

गुरू तो ऐसा चाहिये, सिष सों कछू न लेय।
सिष तो ऐसा चाहिये, गुरू को सब कुछ देय॥






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