#लोकतंत्र_जय_लिखी_तख्तियाँ_कहाँ_गईं
~।।वागर्थ।। ~
प्रस्तुति ...
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अक्षय पाण्डेय जी के नवगीत कथ्य , शिल्प , भाव आदि स्तरों पर सशक्त और संपुष्ट नवगीत हैं । उनकी दृष्टि बिल्कुल स्पष्ट है , उन्हें अपने नवगीतों में जो कहना है वो कहकर ही रहते हैं । उनके कुछ गीत संवाद शैली में हैं । नवीन व विशिष्ट प्रयोग आपके गीतों की विशेषता है , जिनमें पंक्तियों का विन्यास बिल्कुल अलग तरह से है । सामान्यतः गीत में तुक का निर्वहन भी हो जाए और भाव स्खलन भी न हो , इस कवायद से सभी रचनाकार गुजरते ही हैं किन्तु अक्षय पाण्डेय जी के नवगीत ' बाढ़ का पानी ' में तीन -तीन तुकों का निर्वाह बेहद सहजता से हुआ है न कि सायास । नवीन शिल्प गढ़ने और साधने की अद्भुत क्षमता का दस्तावेज है ये दुर्लभ प्रयोग ।
खुलते बिम्ब , नवीन प्रतीक योजना समृद्ध भाषा का प्रयोग तो आप सभी इनके गीतों में स्वयं ही देख रहे हैं उस पर बहुत जियादः न कहूँगी ।
जो कहना है वो ये कि नवगीत तो खूब लिखे जा रहे हैं और कहीं -कहीं थोक में लिखे जा रहे हैं किन्तु नवगीत विधा के अवयवों में सामाजिक सरोकारिता का जो प्रमुख अवयव है वो वहाँ कितना विद्यमान है। कुछ चुनिंदा नाम ही समाज में , सत्ता द्वारा हो रही अनैतिकता के प्रति सजग हैं व मुखर होकर प्रतिरोध भी कर रहे हैं । अक्षय पाण्डेय जी उनमें से एक हैं ।
वागर्थ आपको उत्तम स्वास्थ्य व समृद्ध साहित्यिक जीवन हेतु
हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।
प्रस्तुति
~।। वागर्थ ।।~
सम्पादक मण्डल
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(१)
अरे ! तुम कैसे हो 'महराज' ?
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घर में लाश
हास चेहरे पर
तुमको तनिक न लाज
अरे ! तुम कैसे हो 'महराज' ?
'अकबर'
बजा रहा है बाजा ,
नाच रहा
'मुल्ला दो-प्याजा' ,
राजा के गिरने का मतलब
गिरता देश-समाज ।
अरे ! तुम कैसे हो 'महराज' ?
ज्यादे खोया
'औ' कम पाया ,
'अच्छे दिन' की है
यह माया ,
छाया छोटी धूप बड़ी है
समय बहुत नासाज़ ।
अरे ! तुम कैसे हो 'महराज' ?
सबके भीतर
बैठा है डर ,
सरेआम जब
लेकर खंजर ,
अम्बर ही पर कतर रहा, तब
कौन भरे परवाज़ ।
अरे ! तुम कैसे हो 'महराज' ?
जनता अपनी
बनी बलूची ,
लम्बी दिखती
दुख की सूची ,
ऊँची लहर , नाव जर्जर है
रामभरोसे आज ।
अरे ! तुम कैसे हो 'महराज' ?
(२)
वह तोड़ती पत्थर
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चिलचिलाती धूप सिर पर
जून का मंजर ;
गुरु हथौड़ा हाथ-ले वह
तोड़ती पत्थर ।
एक बेघर ज़िन्दगी यह
है यहाँ, कल वहाँ होगी,
कौन जाने क्या ठिकाना
आँधियों में कहाँ होगी ,
ज़िन्दगी का है वज़न बस
एक तिनका भर ।
गर्म लोहा खौलता हो
और उठते बुलबुले हों ,
घूरतीं नज़रें कि जैसे
हिंस्र पशु के मुँह खुले हों ,
'श्याम तन, भर बँधा यौवन '
है इसी का डर ।
बंदिशें हैं , है नहीं परवाज़
पाँखों में जहाँ पर ,
थूकता आकाश हँस कर
तिमिर आँखों में जहाँ पर ,
ओढ़ कर है स्वप्न सोया
भूख की चादर ।
हवा पानी भूमि अम्बर
पक्ष में कोई नहीं है ,
एक कुचली आग भीतर
मार खा रोई नहीं है ,
उठ रहा हर चोट पर
प्रतिरोध का अब स्वर ।
(३)
'वीटो' वाली महाशक्तियाँ कहाँ गयीं
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'लोकतन्त्र-जय' लिखी तख़्तियाँ
कहाँ गयीं ।
'वीटो' वाली महाशक्तियाँ
कहाँ गयीं ।
बदहवास है मौसम
बहुत अन्धेरा है ,
कहाँ छिपा है सूरज
कहाँ सबेरा है,
जनहित-चिन्तक आर्षवाणियाँ
कहाँ गयीं ।
कन्धों पर रिश्ते ढोती
दीवार कहाँ ,
घर है पर घर के भीतर
वो प्यार कहाँ ,
खुली हुई ख़ुश-फ़हम खिड़कियाँ
कहाँ गयीं ।
नहीं रहा अब
पहले जैसा वक्त हरा ,
रंगो पर ख़तरा है
फूलों पर ख़तरा ,
पंख-जली अधमरी तितलियाँ
कहाँ गयीं ।
'दारी' 'अंग्रेजी' में
फ़र्क़ नहीं होता ,
आँसू की भाषा में
तर्क नहीं होता ,
अमरीका की आज गोलियाँ
कहाँ गयीं ।
(४)
बुद्ध और बन्दूक
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दूर खड़ा जग
देख रहा है
बनकर बहरा मूक ;
तोड़ बुद्ध को
तालिबान अब लिये खड़ा बन्दूक ।
इतिहासों के जले हुए
फिर पन्ने बोल रहे ,
टूटे हुए तथागत के
सब टुकड़े डोल रहे ,
बोलेगी कब ज़ुबाँ हमारी
ऐसे में दो टूक ।
बारूदी है गन्ध हवा की
मिट्टी खून-सनी ,
साँसों का मधुमास मर गया
इतने हुए धनी ,
जले ठूँठ पर बैठी कोयल
नहीं भरेगी कूक ।
आस भुवन भर, नेह गगन भर
अपना बचा रहे ,
मन भर जीवन और नयन भर
सपना बचा रहे ,
करें जतन जो बचे अमन की
प्यारी-सी सन्दूक ।
(५)
जीते आज किसान
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खेतों में बिखरा सत्ता का
फटा हुआ फरमान ;
सड़कें जीतीं, संसद हारी
जीते आज किसान ।
फिर जुलूस में टूटा हुआ
मुखौटा आज मिला ,
उल्टे पाँव भागता राजा
बिन सरताज़ मिला ,
सबने माना जोकर का यह
अभिनय था बेजान ।
चीखों ने फिर शीशमहल का
फाटक तोड़ा है ,
और भीड़ ने सही दिशा में
रथ को मोड़ा है ,
जहाँ रात है वहीं चाहिए
हँसता हुआ विहान ।
हर चेहरे की पर्त-पर्त
सच्चाई, खोलेगा ,
बहुत दिखाया रूप-रंग
अब दर्पन बोलेगा ,
सत्ता बोती कीलें
ये बोते हैं गेंहूँ-धान ।
इनके खून-पसीने से ही
मिट्टी काली है ,
इनके होने से सबके
गालों पर लाली है ,
यही अन्नदाता हैं सच में
धरती के भगवान ।
(६)
बाढ़ का पानी
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कट रहा तट
बढ़ रहा हँस बाढ़ का पानी
विवश है ज़िंदगानी ।
नाव रह-रह काँपती है
लग रहा डर ,
और उन्मन दिख रहे हैं
आज धीवर ,
घट रहा तट
चढ़ रहा हँस बाढ़ का पानी
गई मिट सब निशानी ।
क्या हुआ, कैसे हुआ
किसने ख़ता की ,
गाँव में चर्चा
कुपित जल-देवता की ,
फट रहा तट
गढ़ रहा हँस बाढ़ का पानी
दुखद सर्पिल रवानी ।
छोड़ कर घर जा रहा है
लोक - जीवन ,
नीलकंठी रो रही है
रो रहा घन ,
हट रहा तट
पढ़ रहा हँस बाढ़ का पानी
विशद दुःख की कहानी ।
(७)
दादुर बोले ताल किनारे
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उमड़ घुमड़ बरसे घन कारे ,
दादुर बोले ताल किनारे ।
बारिश ने
मर्यादा तोड़ी ,
फिर गरीब की
बाँह मरोड़ी ,
सस्मित चूम रही महलों को
झोपड़ियों को थप्पड़ मारे ।
उमड़ घुमड़ बरसे घन कारे ,
दादुर बोले ताल किनारे ।
बारिश ने
रच दी बर्बादी ,
चूल्हे की
सब आग बुझा दी ,
आँखों में टपके अँधियारा
भूख पेट पर काजल पारे ।
उमड़ घुमड़ बरसे घन कारे ,
दादुर बोले ताल किनारे ।
बारिश ने
सब धुली कहानी ,
भूखे सोये
पोश-परानी ,
हुई बहुत बदरंग ज़िन्दगी
कौन सजाये, कौन सँवारे ।
उमड़ घुमड़ बरसे घन कारे ,
दादुर बोले ताल किनारे ।
(८)
नाटक जारी है
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एक अंक बीता
दूजे की अब तैयारी है ;
खुले मंच पर खड़ा विदूषक
नाटक जारी है ।
रोज़ यहाँ पर विविध चरित
अभिनीत हो रहे हैं ,
लोग बहुत क़म मुदित
अधिक भयभीत हो रहे हैं ,
'देश-काल' के संग जीना
कहता लाचारी है ।
जब चाहे , जैसा चाहे वह
रूप बदलता है ,
स्वर्ण हिरन बन, राम
साधु बन, सीता-छलता है ,
कई छद्म जीने वाला वह
'शिष्टाचारी' है ।
दर्शक की आँखों में इक
मनभावन ख़्वाब जगे ,
विरच रहा है इन्द्रजाल
जो कथा अनूप लगे ,
बना रहा रुपये को मिट्टी
अज़ब मदारी है ।
रंग-मुखौटे, चेहरे की
पहचान छिपाते हैं ,
और आइने, दाग़-दाग़
सब सच बतलाते हैं ,
कितना कौन सदाचारी
कितना व्यभिचारी है ।
(९)
प्रेमचन्द के कथा-समय में
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प्रेमचन्द के कथा-समय में
जीती है अम्मा ।
माँ की आँखें ढूँढ रहीं हैं
होरी वाला गाँव ,
झूरी के दो बैल कहाँ
पंचों का कहाँ नियाँव ,
गये समय से नये समय को
सीती है अम्मा ।
ठाकुर का वह कुआँ
जहाँ मानवता मरती है ,
और भगत के महामन्त्र से
खुशियाँ झरतीं हैं ,
अनबोले रिश्तों की पीड़ा
पीती है अम्मा ।
घर में एक सुभागी जैसी
बिटिया चाह रही ,
बुधिया को ना मिला कफ़न
मन में घन आह रही ,
इसीलिए सबकी प्यारी
मनचीती है अम्मा ।
ईदगाह में हामिद की
वत्सलता मोल रही ,
बूढ़ी काकी से अपने
सपनों को तोल रही ,
कितनी भरी हुई है
कितनी रीती है अम्मा ।
(१०)
चलो बादल निरेखें
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सुनो रानी !
मौलश्री की पत्तियों से
झड़ रहा पानी ;
चलो बादल निरेखें ।
झूमता आषाढ़
बाहर गा रहा है,
और भीतर
नेह का स्वर छा रहा है,
सुनो रानी !
भूलकर अपने गहन
दुख की कहानी
हो मुदित कुछ पल, निरेखें ।
बज रहा मौसम
सुभग संतूर बनकर,
खिड़कियों से आ रही
आवाज छनकर,
सुनो रानी !
यह चतुर्दिक नाचती
कल-कल रवानी
चलो सस्मित जल निरेखें ।
आम हँस कर
नीम से बतिया रहा है,
शाख पर बैठा सुआ
हर्षा रहा है,
सुनो रानी ।
उड़ रहा आँचल धरा का
हरित - धानी
खेत, नद, जंगल निरेखें ।
सौ घुटन जीता हुआ
जीवन शहर का,
वही जगना , वही सोना
बन्द घर का,
सुनो रानी !
हो रही बदरंग कितनी
ज़िन्दगानी,
प्रकृति का मंगल निरेखें ।
ooo
- अक्षय पाण्डेय
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संक्षिप्त - परिचय
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नाम - अक्षय पाण्डेय
पिता का नाम - श्री गुप्तेश्वर नाथ पाण्डेय
माता का नाम - स्व. रामदेई पाण्डेय
जन्मतिथि - 01.04.1978
जन्म-स्थान - रेवतीपुर, जनपद - गाजीपुर
(उ.प्र.) ,पिन-232328
शैक्षिक योग्यता - एम.ए.(हिन्दी), बी.एड.
पी-एच.डी., नेट ।
प्रकाशन - वागर्थ, हंस, अक्षरा, भाषा, उत्तरायण, शब्दिता, समकालीन सोच,स्वाधीनता, चेतना-स्रोत, नव किरण
दैनिक जागरण, जन संदेश.... आदि हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं के साथ समकालीन भोजपुरी साहित्य, पाती, कविता, भोजपुरी लोक, भोजपुरी माटी, सँझवत एवं भोजपुरी जंक्शन जैसी पत्रिकाओं में नवगीत, समकालीन कविता एवं समीक्षात्मक आलेख प्रकाशित।
- गुनगुनाती शाम, हम असहमत हैं समय से, ओ पिता, ईक्षु एकादश एवं बइठकी जैसे नवगीत संकलनों में नवगीत संकलित।
- “हम न हारेंगे अनय से “ नवगीत संग्रह प्रकाशधीन
सम्प्रति -- प्रवक्ता - हिन्दी
इण्टर काॅलेज करण्डा, गाजीपुर(उ.प्र.)
वर्तमान पता - प्रथम मकान
शिवपुरी कालोनी, प्रकाश नगर
(फेमिली बाजार के नजदीक)
गाजीपुर - 233001
(उ.प्र.)
स्थायी पता - रेवतीपुर (रंजीत मोहल्ला)
गाजीपुर - 232328 (उ.प्र.)
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