रविवार, 18 अक्तूबर 2020

विवाहभोज एवं मृत्युभोज कुरीति नहीं है समाज और रिश्तों को सँगठित करने का अवसर है- लव तिवारी

मृत्युभोज के विरोध पर बहुत से मत है बहुत ज्ञानी समुदाय द्वारा कुछ न कुछ लिखा जा रहा है आजकल इस विषय वस्तु पर मेरा मत जरा अलग है मित्रों पोस्ट का प्रारंभ मानवता को शर्मसार करने वाले एक खबर से करुँ, अमेरिका में स्थापित दो धनाढ्य भाइयों के पिता की जब मौत हो जाती है तो एक भाई दूसरे भाई से कहता है कि इस बार तुम चले जाओ, माँ मरेगी तो मै चला जाउंगा, पिता के मरने के बाद जो माता के जल्द मरने की इच्छा करे वो पूत नही कपूत है।।

मृत्युभोज कुरीति नहीं है. समाज और रिश्तों को सँगठित करने के अवसर की पवित्र परम्परा है,
हमारे पूर्वज बिना मोबाइल और कम पढ़ लिखकर भी हमसे ज्यादा ज्ञानी थे ।आज मृत्युभोज का विरोध है, कल विवाह भोज का भी विरोध होगा.. हर उस सनातन धर्म परंपरा का विरोध होगा, या ये कहिये कि किसी न किसी रूप में विरोध हो रहा है। लोगों के द्वारा निमंत्रण में आना केवल खाना पीना ही नही बल्कि उनसे रिश्ते और समाज मजबूत होता है।।

इसका विरोध करने वाले मूर्खो इस बात को समझो हमारे बाप दादाओ ने रिश्तों को जिंदा रखने के लिए ये परम्पराएं बनाई हैं। ये सब बंद हो गए तो रिश्तेदारों, सगे समबंधियों, शुभचिंतकों को एक जगह एकत्रित कर मेल जोल का दूसरा माध्यम क्या है, केवल दुःख और सुख दो ऐसे पहलू है जहाँ आदमी अब भी एकत्रित हो रहा है, दुख की घड़ी मे भी रिश्तों को कैसे प्रगाढ़ किया जाय ये हमारे पूर्वज अच्छे से जानते थे। हमारे पूर्वज बहुत समझदार थे, वो ऐसे आयोजन रिश्तों को सहेजने और जिंदा रखने के किए करते थे हाँ ये सही है की कुछ लोगों ने मृत्युभोज को हेकड़ी और शान शौकत दिखाने का माध्यम बना लिया, आप पूड़ी सब्जी ही खिलाओ. और हमारे उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में बरहा यानी अपने आस पास के 12 से 21 गांव के लोगो को बुलाकर खिलाने का प्रयोजन था और कुछ धनी समुदाय आज भी करते है।।

1.कौन कहता है की 56 भोग परोसो..
2.कौन कहता है कि 4000-5000 लोगों को ही भोजन कराओ और बर्चश्व दिखाओ, परम्परा तो केवल 16 ब्राह्मणों की थी। आगर ब्राम्हण जाति से परहेज है तो किसी निर्धन व्यक्ति को ही भोजन कराओ।

मैं खुद दिखावे की विरोधी हूँ लेकिन अपनी उन परंपराओं की कट्टर समर्थक हूँ, जिनसे आपसी प्रेम, मेलजोल और भाईचारा बढ़ता हो.कुछ कुतर्कों की वजह से हमारे बाप दादाओं ने जो रिश्ते सहजने की परंपरा दी उसे मत छोड़ो, यही वो परम्पराएँ हैं जो दूर दूर के रिश्ते नाते को एक जगह लाकर फिर से समय समय पर जान डालते हैं । सुधारना हो तो लोगों को सुधारो जो आयोजन रिश्तों की बजाय हेकड़ी दिखाने के लिए करते हैं,

किसी परंपरा की कुछ विधियां यदि समय सम्मत नही है तो उसका सुधार किया जाये ना की उस परंपरा को ही बंद कर दिया जाये, हमारे बाप दादा जो परम्पराएं देकर गए हैं रिश्ते सहेजने के लिए उसको बन्द करने का ज्ञान मत बाँटिये मित्रों, वरना तरस जाओगे मेल जोल को, बंद बिल्कुल मत करो, समय समय पर शुभचिंतकों ओर रिश्तेदारों को एक जगह एकत्रित होने की परम्परा जारी रखो. ये संजीवनी है रिश्ते नातों को जिन्दा करने की...

अब वो दिन दूर नही जब पास बैठे माँ की बात सुनने वाला भी नही रहेगा एक छत के नीचे रहकर इस मोबाइल और इनरनेट युग ने अपने आप इस परंपरा से होने वाले मेलजोल को खत्म कर दिया है। मृत्यु भोज का समर्थन मैं खुद भी नही करता था लेकिन अगर मृत्यु भोज एवं विवाह भोज की व्यवस्था अगर बन्द हुई तो एक सभ्यता और सँस्कृति का भी नाश होगा जो बहुत से हिन्दू विरोधी संगठनों की रणनीति है। 

लेखक- लव तिवारी





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